23 अगस्त 2010

माँ

बहुत याद आ रही है माँ

तुम्हारी आज,कुछ ख़ास नहीं ,बस

हरहराती बारिश के कोप को

धरती से सोखते देख लिया था
पतझड़ के सूखे गिरे पत्तों की जगह
नई नई कोपले उगते देखि थीं तुम्हारी
हथेली की वो चिरपरिचित गर्माहट
शिद्दत से महसूस की थी मैंने अपने
पसीना छल्छालाये माथे पर
ऐसा ही होता है अक्सर
कि विचारों में तुम अकेली नहीं आतीं
तुम्हारे साथ तुम्हारी यादों का हुजूम चलता है
इसी हुजूम का अटूट हिस्सा है बचपन सो
याद आई
तुम्हारे साथ साथ
भरे पूरे बचपन की
तुम्हारे बगैर अधूरा था जो ,
याद है माँ तुम्हे वो
दो कमरों को एक करती वो छोटी सी छत और
आंगन के बीचों बीच किसी बड़े बुज़ुर्ग के
सयानेपन सा खड़ा वो घना नीम का दरख्त
उसी दरख्त के तले झोलदार मूंज की खटिया पर
अपनी बांह का तकिया बना और दूसरे हाथ की
उँगलियाँ मेरे सर पर फेरती
असीम संतृप्ति से भरी तुम, अपनी ही तरह की
भोली भली सीधी सदी कहानियाँ सुनाती
कभी कभी लोरी गुनगुनाती ,
खुद सो जाया करती थीं
तब तुम्हारे चेहरे की थकी हुई लकीरों को
कुछ देर अपलक निहारती थी में
और सोचती आखिर क्यूँ पूजती हो तुम
''देवी माँ''को?
तुम्हारे मसालों की गंध से गंधाती
माँ की शुध्ध गंध के बीच
सिकुड़ कर गुडमुदी हो मैं
तुम्हारे पेट से चिपक ऑंखें बंद कर लेती
और समां जाती एक दिव्य लोक में.
अनंत सुख में जहाँ न भय था स्कूली ''होमवर्क''का
न स्कुल के रिक्शे से गिरने का
न ओजोन का न पेड़ों के कटे जाने का न प्रदुषण का
वो सिर्फ गोद होती थी तुम्हारी
निर्मल और सुकून भरी गोद
आज भी सोचती हूँ कि तुम्हारी दुबली पतली काया और
क्षीण हाथों में भला कहाँ से आता था बल
निष्पाप निर्भयता और
निष्णांत सुरक्षा का
तुमने तो बावजूद साधारण सी
''रामायण बांचने लायक''शिक्षा ही अर्जित की थी न?
पर कैसे भला तुम मेरी आहट से मेरे अंतर्मन का बोध पा जाती थीं?
तुम्हारी इस अंतर्दृष्टि ने
कितने ही फितूरों से बचाया था
और कितनी सादगी से
मै खुश होती,तुम धर भर मैं चकरघिन्नी होतीं
खाना नाश्ता कपडे न जाने क्या क्या
और जब उदास होती मै, तुम माँ से हटकर साये में
तब्दील हो जातीं अचानक,आज भी
जब तुम नहीं हो पास, मुसीबत के
वक़्त तुम्हारा स्पर्श महसूस करती हूँ अपने माथे पर
तुम्हाती ही आशीषों से भरी वो आँखों की रोशनी
ही मुझे राह दिखती है अँधेरी भटकन के बीच

15 अगस्त 2010

दौड़

दौड़

हो रहा है यूँ कि',
बचपन की पढी किताबों के
वो प्रेरनादायी किस्से
अनायास ही अविश्वसनीय और
गैरजरूरी से लगने लगे हैं
और
'ओज ,नैतिकता ईमानदारी जैसे
हलके फुल्के भोले शब्दों पर
चढ़ गई है परतें
सयानेपन की
मुह चिढाती हुई
और चुनौती देती हुई '
कि अब न दूध का दांतों और न
बालों का उम्र से कोई वास्ता रहा
ये नया युग है
छायावादी संस्कारों से अलहदा
मायावादी संस्करणों का युग,जहाँ
बच्चे अब
बच्चे कम मशीन ज्यादा
हो गए हैं
या कर दिए गए हैं'क्यूंकि
माँ पिताओं को फिक्र और जल्दी है
उनके 'बड़े'हो जाने की '
नयेपन के कंधे तक पहुँच
जाने की
उनके पिछड़ न जाने की
शायद इसीलिए चाहते हैं वो
संतानों के भविष्य को
खींचकर
वर्तमान में ले आयें 'ताकि
भविष्य जिसे वर्त्तमान भी होना है कभी
सुरक्षित किया जा सके
बेशक उसका वर्त्तमान
मिटाकर '
महसूस करती हूँ कहीं न कहीं
संबंधों का ठंडापन और
संबोधनों की रिक्तता
शायद ये भी
नए दौर की शर्तें हैं
अचानक खुद को और
संगृहीत सहेजे विचारों और मान्यताओं को
खारिज होते देख रही हूँ निरंतर
क्या हर जाती आती आधुनिकता की
ये पीढीगत अनिवार्यताएं होती हैं?

14 अगस्त 2010

साजिश

बहुत कोलाहल है वायुमंडल में.
कहीं मेलों का तो कहीं
खेलों का ,
कहीं चर्चे ''आर्ट ऑफ़ लिविंग ''के
तो कहीं बहसें ''ऑनर किलिंग ''पे ,तो कही
भ्रष्टाचार से दिपदिपाते मांसल गोलमटोल चेहरे
बड़े बड़े ओहदों से लदे फदे देश की चिंता करते
अपने विशाल वातानुकूलित महलों में
गुदगुदे गद्दों के बीच विराजे
या की लड़ते झगड़ते अवतरित होते टी वी चेनलों में ,
देश के चिंताओं पर चिंतन बहस करते
झूठ को सच और सच को झूठ करते
बेशर्मी भी इनसे शर्मा जाये
तो कहीं ,
''पोजिटिव थिंकिंग ''की सीख देते
अपने महल नुमा 'मंदिर में''विराजे
भक्तों की भीड़ में चींटों के विशाल झुण्ड में गुड की डली से ये ''लिविंग गुरु''
दे रहे हैं शिक्षा ''खुश रहने की
हर हाल में ,कि
भूख एक अहसास है
और गरीबी ,अमीर बनने का लालच
इसी लालच से बचना है तुम्हे
यदि खाने को कम है तो सोचो कि
ज्यादा भोजन स्वास्थ्य के लिए
हानिकारक है
चीथड़ों में जीवन की निस्सारता छिपी है
किसी भी किस्म का अन्याय
जूझने का अभ्यास है
इसे ही तो ''पोजिटिव थिंकिंग''कहते हैं
उलटवासी
धुप तो खिला करती थी पहले भी
पर अब ये खिलती कम
तपती अधिक है
झाड़ लिया है पल्लू सूरज ने भी
अपनी तपन को ''ओजोन के सर''मढ़ कर
प्रकृति भी सीख गई है
आदमी के नुस्खे