14 दिसंबर 2012

धोबीघाट

घर के
पिछवाड़े एक नदी है छोटी,उथली सी  
जिसके पाट पर बिछी हैं तमाम पटिया
रोज तडके आतीं हैं आवाजें वहाँ से
कुछ सपनों के पछीटे जाने की
और कुछ गैर सपने
जो बंधे रखे होते हैं गठरियों में अभी 
रंग बिरंगे गुमडे हुए ,
किन्ही में महक बसी कुछ कमसिन जिस्मों की
और कुछ गाढ़े पसीने से लिथड़े हुए
कुछ पर सिलवटें हैं प्यार की  
अब तक
सबको डुबो दिया है उसने बेदर्दी से
नदी की धारा में
और निचोड़ दिया है उन्हें  
उन जंगली घांसों के चेहरे पर  
बेवजह बेज़रूरत उग आई हैं जो
पटियों के बीच उनके इर्द गिर्द
ज़रूरी था ये दुनिया में
कुछ ताज़ी उम्मीदें बची रहने लिए  
पसीनों से लथपथ अपनी देह और
गंधाते कपड़ों में उन्हें अक्सर
आने लगती हैं सहसा गठरियों की गंध
 ,वो और ज़ोर से पछीटने लगते हैं
अपनी साँसें ,
जैसे बहा देंगे आज ही वो अपने सपनों की पूरी नदी    
और अपनी इच्छाओं को निचोड़ डाल देंगे सूखने किसी
उम्मीद की डोरी पर फिर से