अंधकार का धनधोर सन्नाटा ।वह अविचलित,अनिश्चित सा चला जा रहा था,अगंतव्य की ओर ।.ब्लैक-आउट.....बाहर भी,और मस्तिष्क के भीतर भी।हवा की सांय.सांय ,जंगल के मुहाने पर और तीव्र और तीखी होने लगी थी । भव्य ड्राइंगरुम के सरसराते एयरकंडीशनरों में स्थित गर्वोन्मत इंसान के खोल को फैंक वह चुपचाप बगैर किसी पूर्वनियोजित कार्यक्रम के निकल पडा था,नितांत अपरिचित और अभूतपूर्व यात्रा की ओर ।सांसारिक झंझटों से पलायन की विकट इच्छा..इतनी घनीभूत हो चुकी थी कि देह की मौन चीख भी उसे विचलित करने में नाकाम हो रही थी ।पर नादान मनुष्य....देह से विद्रोह?...भला कब तक?सांसों की घौंकनी मुंह को आ चली थी ।पैर लडखडा रहे थे....अब वह जंगल के दायरे में दाखिल हो चुका था ।एक घने पेड़ का सहारा ले वह टिककर खडा हो गया ।पानी की मोटी बूंदों ने जंगली वातावरण की भयावहता में इजाफा कर दिया था ।पशु पक्षी भी अपने अपने ठिकानों की ओर लौटने लगे थे,।ऐसे धटाटोप अंधेरे में एकाध भटकते जुगनू की कमजोर सी रोशनी उसे सहारा दे रही थी ।उसने चारों ओर नजर धुमाई....सिवाय अंघकार के कुछ भी नहीं था! ।देह ठंड और भय से सिहरने लगी थी ।उसने आंखें बंद कर लीं ।दौनों हाथ छाती से लपेटे वह उकडूं हो तने से सटकर वहीं बैठ गया ,और धुटनों में मुह छिपा लिया ।अचानक एक कर्कश और डरावनी आवाज पूरे जंगल में गूंज उठी ।प्रतिक्रिया में कई घ्वनियां अंधरे में तैरने लगीं ।संभवतः वह किसी पक्षी का कातर स्वर था,जो साथियों से कुछ गुहार कर रहा था ।वह भय से और सिमट गया ।उसने गर्दन उठाकर उपर देखा,करीब पचास फर्लांग पर उसे रोशनी का एक टुकडा तैरता सा दिखाई पडा।...अप्रत्याशित.... ।मिचमिचाती आंखों को उसने और फैलाया....धूरकर देखा...वह रोशनी ही थी ।एक बार तो वह भय से कांप गया ।फिर घीरे घीरे उठा,'किसी' की उपस्थिति का सुखद अंदेशा .....तिनके का सहारा... ।।रोशनी से उपजी संभावनाओं को समेटे वह रोशनी की दिशा में बढ चला ।....लडखडाते कदम....धिसटती देह.... ।चुनौती और विश्वास की विखंडितता थी वह रोशनी,अथवा अस्तित्व को बनाए रखने की शर्त या जरुरत?...किंकर्तव्यविमूढ... ।पैर यंत्रवत उजास के उस नन्हें से टुकडे की ओर बढने लगे,जिसके अचानक और रहस्यमयी प्राकटय से अभी अभी वह सिहर गया था ।निकट जाकर उसके पैर उसी शून्यता में ठिठक गए ।उजास का स्त्रोत वह लालटेन थी,जो एक पेड के मोटे तने पर झूल रही थी ।पेड के तने को धास फूस और कबेलू से ढंककर एक वारांडे की शक्ल दे दी गई थी ।जिसके नीचे एक अलाव जल रहा था,और उस अलाव के निकट ही एक बूढा आदमी टूटी सी कुर्सी पर उकडूं बैठा था ।निर्विध्न,निर्विकार।वह बूढे की पीठ थी,अतः उसने बूढे का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के उद्देश्य से धीरे से पुकारा''महोदय मैं यात्री हूं ।धने अंधकार में रास्ता भटक गया हूं ।क्या आप मेरी मदद करेंगे?........गहन चुप्पी.....'श्रीमान,क्या आप मुझे सुन रहे हैं?मै.....''भीतर आ जाओ.....बूढे ने बगैर उसे देखे कहा ।वह अंदर आ गया ।भीग गए हो ।भीतर जाकर देह पौंछ लो....ठंड खा जाओगे नहीं तो ।बूढे ने उसी अनुत्तेजित भाव से कहा ।बरांडे में से ही एक छोटा सा दरवाजा था,जो एक झोंपडी नुमा छोटे से कमरे में खुलता था ।कमरा छोटा मगर व्यवस्थित था । कोने में एक मेज ,जिस पर एक पत्थर के उपर एक अंगीठी रखी थी ।बाकी कमरे में कुछेक कपडों और रोजमर्रा के सामान के अतिरिक्त पुस्तकें ही पुस्तकें ।
जमीन पर बिछे बिस्तर पर एक किताब अधखुली और उल्टी रखी थी ।''एक बात सुनो बरखुरदार....अचानक बूढे की कमजोर सी आवाज से वह चौंककर पलटा....''उधर रस्सी पर मेरा गमछा पडा है,कपया उसका इस्तेमाल ना करें......क्या फर्क पडता है?पर...बस मुझे ये पसंद नहीं ।''बेफिक्र रहें.....नहीं करूँगा।‘’अनमना सा ज़वाब !तर बतर ना सही पर बदन में फुरफुरी पैदा करने लायक गीले कपडों को बदलने का कोई इंतजाम तो था नहीं,अलबत्ता सिवाय अलाव के अन्य कोई उपाय नहीं था उसके पास ।वह चुपचाप आकर अलाव के पास बिछे एक पत्थर पर बैठ गया ।
''तो भागकर आये हो धर से''....बूढे ने उंगली में फंसी अधजली सिगरेट को जमीन पर धिसकर बुझाते हुए कहा ।
''जी नहीं....प्रश्न अप्रत्याशित था ।अतः वह थेाडा झिझकते हुए बोला ।''राह भटक गया था ,रात और खराब मौसम के कारण....!
बूढा मुस्कुराया बोला '' निश्चिंत रहो तुम्हे मुझसे डरने या कुछ छिपाने की जरुरत नहीं ।मुझे तुमसे कुछ लेना देना नहीं ।...मैं भी संसार को छोडकर ही आया हूं यहां,सारे आडंबरों और विडंबनाओं का परित्याग करके ।फर्क सिर्फ इतना है,कि तुम संसार से भागकर आये हो यहां और मैं बाकायदा सब कुछ छोडकर आया हूं मोह पाश के व्यर्थ बंधनों से मुक्त होकर ।
.....कुछ देर बूढा शून्य में ताकता रहा ,फिर बोला...''तुम्हे नींद आ रही होगी ।सो लो .!वो उस कमरे में जो जमीन पर बिछा है,उसे बिस्तर मान सकते हो!मै देर से सोता हूँ!’’और फिर विचारलीन हो गया ।वह बूढे कहे अनुसार कमरे में चला गया ।सचमुच कब नींद ने उसे आगोश में ले लिया ,पता ही नहीं चला ।सुबह सोकर उठा तो तरोताजा था बिलकुल!
.''इतनी गहरी और सुकून भरी नींद.?.अदभुत..... ।उसे याद ही नहीं कि कब वह इतनी गाढी नींद सोया था,।अंधेरा हमे अपने स्व से साक्षात्कार कराता है, पर उजाला होते ही हमारा संपूर्ण व्यक्तिपरक अनुभव और महसूसियत उजाले के साथ पूरे वातावरण में बिखर जाती है ।हर रोशन वस्तु के साथ चिपक कर उससे ऐसे धुलमिल जाती है,मानो हम स्वयं के साथ कभी थे ही नहीं ।वह अनमना सा मिचमिचाती आंखेां के साथ बाहर बरामदे में आ गया ।वातावरण की रंगत ही बदल चुकी थी।आसमान बरसाती नमी समेट चुका था,और सूर्य भगवान ने अपनी महीन किरनों के जाल से समूची धरती को आच्छादित कर दिया था ।अलाव की गर्माहट अलबत्ता अभी बाकी थी ।''लो ये नीम की दतौन है,कर लो तब तक मैं चाय खौला कर लाता हूं ।''कहकर बूढा वापिस कमरे में चला गया!''वह चुपचाप अलाव के नजदीक पडे पत्थर पर बैठ गया ।उसे सम्पूर्ण ब्रम्हांड ही बदला हुआ लग रहा था ।''लो मित्र चाय पियो''...बूढे के हाथ में चाय के दो प्याले थे ।रात की उदासी और किंचित क्षुब्धता अब विलीन हो चुकी थी,और अब वो तरोताजा लग रहा था ।सामने पडे बैंचनुमा पत्थर पर बैठते हुए बूढा बोला''तुम्हारे मन में संभवतः ये प्रश्न उठ रहा होगा,कि अकर्मण्यता के बावजूद जीविकोपार्जन का जुगाड किस प्रकार हो पाता है?...वो सामने देख रहे हो सौ.पचास धर उन्हीं के परोपकार का नतीजा है । ...वो किंचित व्यंग में मुस्कुराया ।...ये संसार बडा विचित्र है बंधु.. ।धरवालों को लगता था,कि मेरे उपस्थित रहते जायदाद उन्हें प्राप्त नहीं हो पायेगी,अतः वे मेरे पलायन के इच्छुक थेो ।वहीं दूसरी ओर ये गांववाले मुझ जैसे असहाय बुजुर्गेा की सेवा सुश्रूषा कर अपना परलोक सुघारना चाहते हैं ।...दौंनों के अपने अपने स्वार्थ है।...अंतर मात्र इतना था,कि वो मेरी अनुपस्थिति से अपना लोक सुघारना चाहते थे,और ये लोग मेरी उपस्थिति से अपना परलोक ।....अच्छा बरखुरदार..अब तुम आराम करो मैं अभी आता हॅं...कुछ भेोजन का भी इंतजाम करना है....बूढा जंगल की ओर चला गया ।वह किंकर्तव्यविमूढ सा बैठा रहा ।आत्मग्लानि का अंगारा भीतर कहीं सुलग उठा । देह की उपस्थिति को नजरअंदाज कर मन कुलांचे मारता हुआ धर पहुंच गया... ।पत्नी नियति की स्म्रति उभरने लगी दश्य पटल पर ।क्या दोष था उस बेचारी का?क्या यही कि नियति भी आम स्त्रियों की भांति एक भरा पूरा धर सुख और समद्धि चाहती थी?अभी अभी तो पदोन्नति हुई थी उसकी?
......कितनी प्रसन्न थी नियति?...उसके सपनों का पति.? मन और उसके भीतर खैालते उबलते नितांत व्यर्थ और अनचाहे विचारों को कैसे देह से अलग करुं? वह उत्तेजित हो गया ।''अभी तो बेटे ने जवानी में कदम ही रखा था,कितना चाहता है वो मुझे....पर अब,जबकि मेरे पास उस भ्रष्टाचार से पूर्णतः लिप्त ऑफिस में जहां पहली शर्त थी अपने स्वाभिमान और वुजूद को दर किनार रखकर बाकायदा बौस के उन चमचों को स्वयं को कुचलने का हक दिया जाये...जिनकी हैसियत निकट खडे होने देने तक की नहीं है,.बस अपने आप को कीडा बना देना और कुचलते चले जाना बर्दाश्त नहीं हुआ मुझसे । जब भी अपनी शर्तों पर जीने की जिद मन ने की,कोई ना कोई विवशता आंकर दयनीय स्त्री की भांति सामने रस्ता रोककर प्रकट हो गई ,और हर बार उसे ही रास्ता बदल देना पडा! ।कार्यालय ने कहा''प्रेक्टीकल बनो,ईमानदारी और चापलूसी का आवरण ओढे धाध और बेईमान बनो तभी यहां सर्वाइव कर सकते हो तब विवेक ने कहा''नहीं ये गलत है.....अन्याय है...धोखा है,तब सर्व सुविधा जीवी उसके परिवार ने नसीहत दी''क्या बुराई है,थोडी बहुत बेईमानी और भ्रष्ट बनने में?तुम्हे क्या लगता है, तुम्हारे ईमानदार बनने से समाज बदल जाएगा?सब कुछ ढर्रे पर आ जाएगा?।तो तुम निरे मूरख और सिरफिरे ही हो ।''
प्रायश्चित से उसका बदन सिहरने और कांपने सा लगा ।अचानक उसे लगने लगा कि वह ठीक उसी तरह भावशून्य और देहवश में होता जा रहा है जैसे धर से भागने का निर्णय लेते वक्त हुआ था ।अब मस्तिष्क की कमान शरीर ने संभाल ली थी....वह उठा..नितांत चेतना शून्य सा. घर की और जाने के लिए!
कुछ दूर ही चला था,कि सामने से बूढा हाथ में कुछ सूखी हुई लकडियों का गटठर लिये आता दिखाई दिया ।उसने बगैर किसी कौतुहूल के युवक की ओर देखा' निर्भाव बोला ;;'मोह पाश का अंघा मनुष्य जीवन पर्यन्त अपने क्रत्यों और उसूलों के बीच झूलता सही और गलत का निर्णय ही नहीं ले पाता ।खैर...तुम भी तो उसी दुनियां के हिस्से ही ।पर अनुरोघ ही मान लो इसे मेरा कि जंगल से निकलते तुम्हें रात हो जायेगी ।बस अडडा भी दूर है वहां से,अतः रात्रि विश्राम कर के सुबह चले जाना ।''जी नहीं महोदय....अपराध बोध से मैं दबा जा रहा हू ।अतिशीध्र वापस धर पहुचना चाहता हू।''और वह चल पडा ।ठीक है ।अभी तपन बाकी है...और प्रारब्ध भी । बूढा बुदबुदाया....पीछे मुडते हुए बोला...अलविदा मित्र ।और ठौर की ओर चल दिया ।
मौसम लुभावना था ।चांदनी प्रक्रति के साथ किलोल कर रही थी!कुछ क्षण बूढा प्रक्रति के उस अनुपम सौंदर्य को अपलक निहारता रहा,।''आले में रखी बीडी को बंडल में से निकाला और सुलगाकर उंगली में फंसा लिया ।तन भी किस कदर दोगला होता है..''हदद है कमीनेपन की.....जिन मनुष्यों से भागकर यहां आया था,अब उन्हीं के ना होने का अहसास और कमी आज क्यूँ खल रही है?युवक का चेहरा न चाहकर भी दिपदिपाने लगा ।वह विचलित हो उठा!पत्नी सत्यवती का मुरझाया चेहरा बूढ़े कि आँखों में कौंधने लगा!।कितनी रोई थी जब उसने ग्रहत्यागने का निर्णय था ?पत्नी के दुःख का जिम्मेदार और कोई नहीं वो स्वयं है ! क्या कसूर था उस बेचारी का?..क्या हालत की होगी संबंधियों की शक्ल में उन आतिताइयों ने?.....भावावेश में उसकी देह पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी बेऔलाद,बेसहारा वो औरत जिसे उसके परिवार ने उसे सौंपा था ।...क्या और किसने उसे अधिकार दिया इस अन्याय का?.एक कंपकंपाहट सी होने लगी देह में!..
.....रात गहरा गई थी.....आसमान साफ और निर्मल था ।...युवक ,लौट रहा था,निश्चिन्तता और संकल्प के साथ वापस जंगल की और ।झोंपडी के बरामदे में खडा हो वह बोला...''लो बरखुरदार मैं आ गया...आपके जाने के बाद मुझे अहसास हुआ कि वाकई में मैं मोहजाल में फंस गया था ।...सचमुच धना अंधकार है ।..दोबारा फिर उसी जंजाल में जाकर मैं सचमुच बहुत नादानी कर रहा था ।अब मै वापस आ गया हूं ।इस स्वार्गिक आनंद का अवसर देने और आँखें खोलने के लिये धन्यवाद... ।काफी देर तक भीतर से कोई आहट न पाकर युवक कमरे में गया ।कमरा खाली और अव्यवस्थित था ।वहां कोई नहीं था ।
बूढा जा चुका था ।