31 जुलाई 2011

परिष्कार



  हवाओं को रस्ते बदलते देखना
 उगते सूरज की दिशा में सहसा ,
वास्तव में आत्मा से एक भारी पत्थर के
सरक जाने-जैसा था , एक उत्सव  
देह से मन तक लंबी दीवारें ढह जाने का ....!
 अन्खुयाये पंखों ने उड़ना सीखा तभी ..  
उस क्षितिज तक जो तय करता है भविष्य
उन दिशाओं का जिसमे होकर बहेंगी सुगन्धित हवाएं  ....
जिंदगी बिखेर ली है मैंने ,मेरे इर्द गिर्द
इतवार की ‘डस्टिंग’ की तरह
बीन रही हूँ उसमे से
उपियोगी-व अनुपयोगी सच
कुछ मुखौटों और प्लास्टिक के खिलौनों को जिन्होंने
दिल बहलाया था मेरा बचपन में
सौंप दिया है कुछ ज़रूरत मंदों को
स्थगित कर दिया है वो कलुषित हंसी,झूठी तसल्ली  
से उगे ज़र्ज़र तकलीफदेह लम्हों को
जिनकी टीस ,हालातों की विवशता रही  
पर फेंकना उतना ही सरल
रख लिया है चंद यादों को सहेजकर
जिन्होंने सच से रु ब रु कराया
पर सबसे मुश्किल था
उन खूबसूरत लंबी सड़कों का सच
मंजिल तक पहुँचने से पहले जिनके
सिरे बंद हो गए होंगे
या खुद को मोड लिया होगा उन्होंने
दूसरे रास्तों की ओर ...
पर आकर्षक हैं ये हरे भरे सुगन्धित ,इन्हें
शायद रखूं ....
या नहीं या किसी ऐसी जगह
जिनके होने का अहसास ये खुद खो चुकी हों....










27 जुलाई 2011

चक्र


अजीब है ये कि किसी  
रात का जाना रात की तरह हर दिन ,  
और फिर ....
सुबह का होना सुबह की तरह / होकर   
हडबडाकर नीद से उठ बैठना  
आँखों की तरल जिजीवषा में   
इन्द्रधनुष को भरना ....
केलेंडर में तारिख बदलना  .....
घड़ी की सिलाइयों पर
दिन को बुनना
और पहन लेना 
अजीब है ...  ...
थकी हुई शाम का ,घर लौटना
शेष उर्जा और बचे हौसलों  की
 आवाजों के साये को
नीद के आसपास बिखेर देना 
 ढूँढना एक द्वार 
वहीं कहीं ,
 ढही ऊष्मा की छड़ी को ,किसी 
चरमराते किवाड़ के पल्ले पे लटका देने को 
और फिर उम्मीदों के बिस्तर पे 
 अतृप्त नींद को सुला 
लॉन में आकर  ...   
धूल भरे आकाश में चाँद ढूँढना
और अंततः....
कल की अधूरी इच्छाओं को ओढकर
 लालटेन की बत्ती कम कर 
घडी के सुइयों को करने देना मनमानी
एक बार फिर.....
और सो जाना





23 जुलाई 2011

वो आदमी



अक्सर टकरा जाता वो आदमी किसी से भीकहीं भी
चौराहों पर.,किसी छुटभैया नेता के भाषणों को गौर से सुनता
..पार्टी दफ्तर के सामने..नारे लगाते युवाओं कि भीड़ में
.किसी धरने पर उकडू बैठा ,
किसी जुलूस के पीछे २ लटपटाते कदमों से गिरता पड़ता
 जैसे जुलुस न हो किसी की शव यात्रा हो
शांत..मौन...संतृप्त ...बस पीछे २ जाना
पीछे बैठ जाना /ऐसे जैसे वो न गया तो देश भक्ति लानत देगी उस को
 देश अहसानफरामोश और शहीदों की आत्मा नमक हराम कह कोसेंगे
 जुलुस ,धरने,आन्दोलन सब उसके बिना अधूरे रहेंगे
 चेहरे पर न कोई भाव न निर्भाव
खादी का कुरता पायजामा पहने
जिसका पीलापन और सलवटें हर बार और गहरा जाती है
 पहले गांधी टोपी भी पहनता  था
  दारोमदार देश का और अपने गर्व को सिर पर धरे मुकुट की ठसक सा
  पर टोपी जब से उधड़ गई है , नंगे सिर घूमता है
 ऐसा अपराध-बोध आँखों में भरे ,जैसे सिर न हुआ....
..कंधे पर लटका झोला ,किसी छत पर टंगे ,बारिश झेले झंडे की मानिंद फीका और उदास
 देशभक्ति का क़र्ज़ चुकाती रीढ़
कई जगह से सिली रबर की चप्पलें/सबूत की तरह, देह को घसीटती
जितने बार मिलता,हर दफे माथे पर एक लकीर और तैनात  मिलती
पसीने को अपने गाढ़ेपन में भरे
बोलते वक़्त उसकी फूली हुई नसों का नीलापन और भी स्याह हो जाता
’’देखो ,पाप का घड़ा भर चूका है...बस क्रांति होने ही वाली है’
 जवानी के जोशीले भाषणों का जो हिस्सा अंतिम वाक्य बना मुट्ठी में लहराया करता था
 अब बात यहीं से शुरू होती है फुसफुसाती हुई
 और यहीं दम भी तोड़ देती है
’कम्बखत,सांस जो बिखरने लगती है
तब,एक चाय की रेढ़ी के सामने अध् टूटी  कुर्सी पर ,टांग पर टांग रखे
 कट चाय का ऑर्डर दे अपने फटेहाल झोले में से कुछ मुडी तुड़ी उदासी निकालता  है
जोश के लिफाफे में बंद/खोलता है उसे किसी पौराणिक दस्तावेज़-सा
बगल में बैठे किसी ग्राहक को गिनवाता है
,कितनी जगह रेलें रुकवाई  उसने?
कितने चक्के जाम करवाए?
कितने बार धरने पर बैठा?
कितने सत्याग्रह किये?/
कितने आरोपियों को सजा दिलवाई?
कितने ज़माखोरों के गोदामों के मुह खुलवाए
कितने रिश्वत खोरों का भांडा फोड़ा
कितनी बार सरकार को घुटनों बिठाया
‘’’पर साब,किसी के आगे घुटने नहीं टेके हमने.
न ही हाथ फैलाये
.चाहे मंत्री ने बुलाया या मीडिया ने
,या मिल मालिकों ने,या फीता कटवाने/’
’कहते २ गर्व की चमक से चेहरा भींग जाता है उसका
आखिर हम देश के पहरेदार हैं/उसके  मालिक नहीं
अंतिम शब्द हांफ कर अधरस्ते ही बैठ जाते हैं
पेपर कटिंग और कुछ श्वेत श्याम  जवानी के चित्र हाथों के साथ काम्पने लगते हैं
 रौशनी में नहाये शहर का नक्शा उसकी बुझी आँखों में थरथराता है
वो सड़कें ,वो पुल वो बाँध जिसके लिए भूँखा रहा वो
धरने दिए उसने /सुलगते सूरज की आग में नारे लगाये/
नहीं कहना चाहता  कि पिछले कई दिनों से भूखा है वो
ये भी नहीं, कि उसने भ्रष्टाचार के विरोध स्वरुप सरकारी नौकरी से
 स्तीफा दे दिया था
कि घर में बिलखते भूखे बच्चों को न देख पाने के कारन सुशील पत्नी घर छोड़कर चली गई
पर उम्मीद अब भी शेष है कडकडाती हड्डियों और हांफती साँसों में कि
 ‘’पाप का घड़ा ज़रूर भरेगा...क्रांति  ज़रूर आयेगी...कभी न कभी
....किससे कहे?ग्राहक तो कबका जा चूका....?

17 जुलाई 2011

प्रयोग से गुरेज क्यूँ?

कल प्रकाशित मेरे एक लेख के सम्बन्ध में फोन आया ‘’आपने अच्छा लेख लिखा है लेकिन फलां व्यक्ति को इतना आभामंडित क्यूँ किया गया है ?वो कला का दुश्मन है ...’’.मैंने कहा एक शब्द भी उस व्यक्ति के बारे में नहीं लिखा गया है आप पढियेगा !उन्होंने कहा लेकिन उनका फोटो तो है लेख के साथ अन्य विद्वानों के बीच ?मैंने उनसे विनम्र निवेदन किया’’फोटो लेख में मै नहीं संपादक मंडल के लोग  भेजते  हैं ....जिन सज्जन का फोन आया था उनका कला जगत में अच्छी खासी पैठ है नाम है,और जिन व्यक्ति के बारे में वो आपत्ति कर रहे थे वो देश के नामी संस्थान के निदेशक हैं ! उनकी आपत्ति उन से यह थी कि वो रंगमंच में एक नया प्रयोग कर रहे हैं ,जो बेतुका है ..सिर्फ नाम और शोहरत कमाने का साधन !....देश के श्रेष्ठ कहानीकारों की कहानियों का मंचन .!..मैंने कहा ‘’कोई भी विधा हो साहित्य या कला .उसमे प्रयोग होना ही चाहिए नयी संभावनाएं टटोलनी ही चाहिए और ये स्वाभाविक भी है ,लेकिन एक तरफ हम शिकायत करते हैं नए हिंदी नाटक नहीं लिखे जाने और उनकी भरपाई अनूदित/अनुवादित नाटकों से करने की और दूसरी तरफ नए प्रयोगों पर आपत्ति?ये तर्कसंगत नहीं !हलाकि ये ज़रुरी नहीं कि हर नए प्रयोग से हर व्यक्ति संतुष्ट हो...बल्कि असंतुष्टि ही नए प्रयोगों की राह खोलती है !लेकिन विरोध उसका तरीका नहीं! इससे बेहतर है कि नए प्रयोगों से एकमत ना होने पर भी स्वागत करें और हम क्या उल्लेखनीय योगदान दे सकते हैं इस कला-विशेष को उन्नत करने में ये विचारे ,बजाय आपत्ति करने के ! 

16 जुलाई 2011

नटिनी



ज़न्म और मृत्यु के दो बांसों के मध्य
जीवन की रस्सी पर ,चल रही है औरत
ज़मीन और आसमान दौनों से परित्यक्त
साधते हुए, लटपटाते कदमों को !
संतुलन, सांसों की शर्त पर ढोते हुए
 धैर्य की चहारदीवारी के भीतर !
जैसे-जैसे डोलती रस्सी की सामर्थ्य
उसके दहलते दिल के समान्तर

हर लडखडाहट के साथ बजती हैं तालियाँ
उत्साही तमाशबीनों की ,
जेबों में भरे इतिहास की चिल्लर   
 खनखनाती है पसरी चादर पर
मज्मेबाज़ मुस्कुराता है ,
समेटता विजेता -सा उन्हें ....
औरत एक बार फिर मरती है
फिर जिंदा होने की कोशिश में

15 जुलाई 2011

... सूर्योदय


 कल रात थी हर रात –सी
बोझिल उबाऊ सुनसान,
काले बादलों से भरी 
पूरी रात बरसती रही उदासी
ठंडी बूंदों में ठिठुरती, 
मौन सन्नाटों के साथ
पर सुबह,
पूरब में खिला है इन्द्रधनुष
आसमान है गीला ,पर साफ़
 रात की बारिश ने धो दिए हैं
 पुराने अर्थ कुछ नए शब्दों के
शायद .... 

14 जुलाई 2011

कतरनें......

टुकड़ों में पढ़ने के बाद अब विस्तार से आजकल गोर्की को पढ़ रही हूँ ,कुछ दिन पहले मोपासा को पढ़ा !दरअसल इन लेखकों को पढ़ना एक अतीत का दोहराव है,एक इतिहास जो चलचित्र की तरह हमारी आँखों के सामने घूमता जाता है !कितनी विकट स्थितियों में जीते थे लोग,और उन्ही दुर्दम स्थितियों के बीच किस तरह प्रेम,खुशियों,सेलिब्रेशन के बहाने खोज लिय करते थे ...अद्भुत है ये अनुभव !गोर्की ने तीन उपन्यास लिखे थे जिनके नायक वो स्वयं थे !क्यूँ कि इनकी सारी घटनाएँ उन्हीं के जीवन से सम्बंधित हैं,उन्हीं के इर्द गिर्द घूमती हैं !गोर्की के उपन्यास का कलात्मक सौंदर्य इसी बात में निहित है कि वो बगैर किसी भूमिका के पाठक के सामने एक द्रश्य प्रस्तुत कर देता है !उनका एक पात्र कहता है’’इन पुस्तकों ने मेरे ह्रदय को निखारा ,और उन खरोंचों और दाग धब्बों को साफ़ कर दिया,जो कटु और मैली कुचैली वास्तविकता से रगड खाने के कारन मेरे ह्रदय पर पड़ गए थे !....एक जगह वो लिखते हैं ‘’और यही किताबें पढ़ने वालों ने तो रेल की पटरियां उड़ाई थीं ?....संभवतः किताबों की भूमिका और विश्वसनीयता को वो किसी व्यक्ति से बेहतर दर्ज़ा देते हैं !गौर तलब है कि लेनिन के अंतिम दिनों में गोर्की की पुस्तक’’मेरे विश्वविद्यालय’’उनकी एक अत्यधिक प्रिय पुस्तक थी !

13 जुलाई 2011

अ -प्रासंगिक

खिलखिलाता हँसता दौड़ता भागता शहर ,
कैसे बेजान हो गया पूरा का पूरा 
माँ के जाते ही ?
खिलखिलाहटें,उनके हाथ का भोजन
और घंटों गपियाने की ललक
उत्सव की प्रतीक्षा ,घर का पूजा स्थल ...सब कुछ
क्या माँ की जान में बसी थी इन सबकी सांसें?
कुछ दिन पहले की ही तो बात है जब
सडक किनारे लगा एक बूढा दरख्त
हांफता हुआ जड़ से उखड गया था,
वीरान हो गईं थीं स्मृतियाँ मौसम की  ....  
घोसले जो दुबके रहे गोद में उसके 
राहगीर जो पाते थे दो पल का सुकून
सब के सब अनाथ हो गए !
कैसे कोई अकेला अपने साथ ले जाता है तमाम का सुकून ?
क्या इल्म है उन्हें कि वो कितने ज़रूरी थे कितनों के लिए
अपनी जिंदगी के अप्रासंगिक दिनों के अलावा ?

11 जुलाई 2011

क्यूँ?

 दुनियां के तमाम द्रश्य्मान फरेबों को खारिज कर मन उस अज्ञात आत्मीयता की तलाश में रहता है जो निर्मल है ओस की तरह ,निर्दोष हवाओं की तरह,निश्छल पक्षी की चहचाहट और निस्पृह मौसम की तरह !प्रतीक्षा, हर पल हर धडकन....! अहसास स्पर्श है आत्मा का, द्रश्य नहीं  ... वाष्प है नदी नहीं , , धुआ है आग नहीं..... शक्ति है देह नहीं .!अकेलेपन की कैसी निर्ममता है ये ? अपने आसपास मौन एकांत की दीवारें खड़ी कर लेना और उसमे कैद हो जाना ,खुले आकाश की तलाश में ....!

3 जुलाई 2011

यथार्थवादी कहानी के प्रणेता मोपासा - भाग 1


सुप्रसिद्ध फ़्रांसिसी कथाकार मोपासा की पुन्य तिथि पर श्रद्धांजली स्वरूप ये लेख :


किसी कहानी का कहानी होते हुए भी इस क़दर जीवंत होना कि वो पाठक को द्रश्य का एक हिस्सेदार बना ले यही किसी कहानी की सफलता है और यही कुशलता कुछ चुने हुए कथाकारों की कृतियों को असंख्यों की भीड़ से अलग कर एक शिखर तक पहुंचा देती है! हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक स्वयं प्रकाश कहते हैं’’कुछ ही किताबें ऐसी होती हैं ,जो आपको कुछ बताती .सुनाती कहती नहीं सीधे एक द्रश्य और एक काल के सामने ले जाकर खडा कर देती हैं !


उनीसवीं सदी के अंतिम दशकों में यथार्थवादी कहानी को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने का श्रेय निस्संदेह जिन दो लेखकों को जाता है वो हैं मोपासा और चेखव !अराजकता ,निर्ममता के समक्ष निरुपायता की निराशा ,निर्धनों की विवशताएं,दासता की त्रासदी,सामाजिक राजनैतिक विसंगति ,नोर्मंडी किसानों के जीवन का अत्यंत जीवंत एवं वस्तुपरक वर्णन मोपासा के रचना संसार की विविधता एवं विशेषता रही !
सर्वश्रेष्ठ फ्रांसीसी कथाकार (1850-1893)आनरे रेना आल्बेर गे द मोपांसा का ज़न्म 5 अगस्त 1950 को फ़्रांस के शैतो द मिरोमेस्निल में एक नोर्मन परिवार में हुआ था !मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में माता पिता में सम्बन्ध विच्छेद हो गया,और मोपासा अपने छोटे भाई और माँ जो सुसंस्कृत,साहित्यिक रूचि वाली सभ्रांत महिला थीं के साथ रहने लगे !यद्यपि माता की रुचियों और संस्कार का उन पर गहरा प्रभाव था बावजूद इसके माता पिता के अलगाव का उनके बाल मन पर बुरा असर हुआ !कहा जा सकता है कि इस दुर्दांत त्रासदी ने उनकी अधूरी और बिखरी जिंदगी को एक सर्जनात्मक भटकाव की परिणिति में मोड दिया था,पर नियति की विडम्बना का यही अंत नहीं था ,उन्हें युवावस्था में एक लाइलाज बीमारी ने जकड लिया ,जो उस युग में यूरोप की सर्वाधिक भयावह बीमारी मानी जाती थी !दरअसल मोपांसा को यह रोग वंशानुगत रूप से मिला था !मोपांसा अपने आयु की अल्पता जानते थे ,अतः एक ओर तो उन्होंने संभवतः इसी नैराश्यपूर्ण सत्य से ग्रसित हो दुराचारी और मौज मस्ती भरा जीवन जीने की ओर रुख कर लिया ,वहीं दूसरा पक्ष यह था ,कि जीवन की सीमित परिधि की इसी अनुभूति ने उन्हें सर्जनात्मकता और तीव्रता भी प्रदान की !यही वजह थी कि मात्र तैंतालीस वर्ष की आयु अर्थात सिर्फ बारह वर्षों के साहित्यिक जीवन में उन्होंने तीन सौ से अधिक कहानियां और छः उपन्यास लिख डाले !ये केवल संख्यात्मक द्रष्टि से चौकाने वाला करिश्मा नहीं था बल्कि उससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात ये थी कि उनकी अधिकांश रचनाएं यथार्थ वादी कहानी की उत्कृष्ट श्रेणी में गिनी गईं !गौरतलब है कि बाल्जाक के बाद सबसे लोकप्रिय लेखक मोपांसा ही थे !लोकप्रियता में वे कई मूर्धन्य और वरिष्ठ कथाकारों को पीछे छोड़ चुके थे ! उनके समकालीन महान लेखक उनकी सशक्त शानदार रचनाओं के स्वयं भी कायल रहे जिनमे तुर्गनेव,टोलास्तोय,गोर्की आदि शामिल हैं !दरअसल साहित्य या कोई रचना प्रायः लेखक के अनुभव और भोगे हुए यथार्थ की गहराइयों से निकली अनुभूतियाँ ही होती हैं !

मोपांसा की कहानियों में वैविध्य पूर्ण विस्तार है !अमूमन किसी भी कहानी का केन्द बिंदु या तो कोई पात्र हो सकता है ,कोई विशेष स्थिति/घटना ,या कोई विशिष्ट स्थान जिनके आसपास कहानी बुनी जाती है , खुद को बयाँ करती है! मोपांसा की कहानी/उपन्यासों में इसी केन्द्रीय धुरी की विविधता बहुलता में देखने को मिलती है !उनकी कहानियों को पढकर जहां एक ओर व्यक्तिगत,पारिवारिक,तथा सामाजिक स्थितियों व संबंधों की तस्वीर खिंचती है ,आर्थिक –राजनैतिक समस्याएं उजागर होती हैं,वहीं हमें मानव चरित्र को गहराई से जानने और उसके मनोविज्ञान को समझने का अवसर भी मिलता है!वो एक अराजकता और आतंक का दौर था !प्रुशियाई लोग जिन्होंने पेरिस को घेर लिया था बहुत ताकतवर थे और फ़्रांस को तबाह करने ,लूटमार और आतंक फैलाना जिनका मकसद था !उनकी ज्यादातर कहानियां इसी दौर में लिखी गई हैं !हालाकि उनकी रचनाओं में सभी महानता की कोटि में आती हों ये कहना तर्कसंगत नहीं होगा और शायद ये किसी भी लेखक के लिए संभव भी नहीं ,तब जबकि रचनाएँ इतनी तीव्रता और समय की तुलना में इतनी अधिक संख्या में लिखी गई हों ! पर उनकी सशक्त रचनाओं की गिनती और ऊँचाई ,उनकी कामचलाऊ रचनाओं को नज़रंदाज़ करने के लिए पर्याप्त है !

1880 में लिखी गई कहानी ‘’चर्बी की गुडिया’’जिसे तब ही नहीं आज भी लेखक/आलोचक उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते हैं !यह कहानी ज़र्मनी के कब्ज़े वाले शहर से बचने के लिए एक घोडा गाड़ी में यात्रा कर रही एक वैश्या की है !इस घोडा गाड़ी में विभिन्न वर्गों ,व्यवसाय ,स्वभाव, रहन सहन,व विचारधाराओं के कुछ पुरुष व महिलायें मौजूद हैं,जिनमे दो ननें भी शामिल हैं !सभी फ़्रांसिसी यात्री जो घोडा गाड़ी में विवशतावश निस्संदेह एक भय को ओढ़े हुए एक साथ यात्रा कर रहे थे वो इस वैश्या को देखकर नाक भौं सिकोड़ते हैं ,उससे घृणा और तिरस्कार पूर्ण व्यवहार करते हैं !जब घोडा गाड़ी की धीमी गति और समय पर गंतव्य तक ना पहुँच पाने की कुछ दिक्कतों के चलते सभी यात्रियों का भूख के मारे बुरा हाल हो जाता है ,और खाने की कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती तब वही वैश्या जो सभी यात्रियों के लिए भोजन व्यवस्था करके आई थी सभी को भोजन उपलब्ध कराती है !पहले तो अभिजात्य कुलीन महिलायें उसे हिकारत से देखती हैं, इनकार करती हैं फिर असहनीय भूख के कारन भोजन स्वीकार कर लेती हैं !वो अपने प्रति बनाये गए उस माहौल को अत्यंत सहजता और धैर्य से ग्रहण करती है !तभी एक घटना घटती है!एक ज़र्मन अफसर उनकी घोडा गाड़ी रोक लेता है और कहता है कि गाड़ी को तब तक आगे नहीं जाने दिया जायेगा जब तक कि वो एलिजाबेथ रूसो (वैश्या)को हासिल नहीं कर लेता !वैश्या ज़र्मनों से बेहद नफरत करती थी और अपने देश के प्रति उसमे सम्मान और देश भक्ति की भावना थी !वो उस ज़र्मन अफसर से स्पष्ट मना कर देती है !सहयात्री जो अब तक उस वैश्या से बुरा व्यवहार कर रहे थे अब उसको तरह तरह से मनाते हैं ,स्त्रियां अचानक उसकी फ़िक्र और अच्छा व्यवहार करने लगती है तथा असहायता,बेचारगी और कर्तव्य परायणता का वास्ता देकर लगभग षड्यंत्र के तहत उसको मना लिया जाता है और मजबूर कर दिया जाता है !लेकिन जान बचते ही अगली यात्रा में सब सहयात्री उससे फिर से नफरत और तिरस्कार पूर्ण व्यवहार करने लगते हैं,उसका अपमान करते हैं,स्त्रियों में वही तिरस्कार,अपमान ईर्षा पुनः जाग्रत हो जाते हैं !इस कहानी में प्रिशियाई आतंक ,सामाजिक वर्गों की भावनात्मक-संवेगात्मक रिक्तता ,संवेदन हीनता और स्वार्थपरकता का चित्रण किया गया है!