26 दिसंबर 2016

वर्ष 2017 में कुछ नई आहटें सुनाई दे रही हैं | कुछ पत्रिकाओं में कहानियां प्रकशित होने की सूचना मिली है |इस वर्ष दो कहानी संकलन आने की खबर हैं |एक जनवरी में और दूसरा अप्रेल – मई तक | हमेशा ही आयोजनों व् आमंत्रणों में जाने से कुछ हिचक होती रही लेकिन पहली बार किसी साहित्यिक आयोजन में भागीदारी करने के आमंत्रण को स संकोच स्वीकारा है |

पिछले तीन वर्ष घनघोर यात्राओं में गुज़रे | अनजाने में ही सही , यात्राएं लिखने  की पूर्व तैयारी होती हैं , बल्कि हर नई यात्रा दिमाग में एक नयी किताब बनकर खुलती है |तीन वर्ष की मेहनत और देश विदेश की यात्राओं ( अनुभवों )का लेखा जोखा हैं ये किताबें जिन्हें ‘’कहानी’’होने से पूर्व डायरी रूप में लिखा गया| गाँव की छुटपुट यात्राओं से लेकर अपने शहर ,कस्बों व् विदेश यात्राओं तक कुछ ऐसे अनुभव हुए जो असोचे , अनोखे व् अभूतपूर्व थे| जो सिमटती करीब आती दुनिया और समस्त भू मंडल के एक बड़े बाज़ार में तब्दील होते जाने के पुख्ता सुबूत भी थे |बाजार में निरंतर परिवर्तित होते आपसी रिश्ते , प्रेम , घृणा , सामंजस्य देखकर कहीं खुशी हुई कहीं निराशा और कहीं गहरा आश्चर्य और दुःख | ये कहानियाँ इन्हीं रिश्तों व् घटनाओं का समुच्चय हैं | मेरा मानना है कि लेखक स्वयं अपना सबसे बेहतरीन आलोचक और प्रशिक्षक होता है |बशर्ते कि वो अपना आकलन वैचारिक निर्ममता और स्वयं को एक दूसरा व्यक्ति मानकर करे | इस लिहाज से इन संकलनों को लेकर कुछ उत्साहित भी हूँ | लघु पत्रिकाओं के लेखकों के भी अपने पाठक होते हैं  |जो जहाँ हों, कहानियाँ पढ़ते ही नहीं फोन या मेसेज कर उन पर अपनी प्रतिक्रया भी देते हैं | सेल्फ प्रमोशन में गैरहुनरमंद और प्रमोटर विहीन रचनाकारों के लिए यही पाठक गन उनकी पूंजी हैं |कोशिश तो यही की है कि प्रबुद्ध व् सामान्य सभी पाठकों को कहानियों में कोई ज़ल्दबाजी और हडबडाहट महसूस न हो | समाज में ‘’क्या और क्यों’’ सिर्फ इतना ही काफी नहीं बल्कि समाज कैसा होना चाहिए इस पर विचार करना भी हमारा ही काम है|  मुझे खुशी है कि इन दौनों किताबों के ब्लर्ब हिंदी के वरिष्ठ प्रतिष्ठित , चर्चित और मेरे प्रिय रचनाकारों ने लिखना स्वीकार किया |उन्हें और दौनों प्रकाशकों को धन्यवाद |

8 अगस्त 2016

टी वी की बेतुकी ख़बरें और अजीबोगरीब सीरियल्स से उकताकर जो मन में सिर्फ एक भय, खीझ और वित्रिश्ना पैदा करते हैं किताबों व् फेसबुक की तरफ रुख किया था |हालाकि किताबें चूँकि हमारे स्वयं के द्वारा चुनी गयी होती हैं इसलिए उन्हें फ्री समय में पढ़ा जा सकता है लेकिन फेसबुक , जिस पर इस उम्मीद के साथ आये थे कि यहाँ साहित्यिक चर्चाएँ, ज्ञान,स्वस्थ्य बहस , तटस्थ असहमतियां होंगी तथा ज़रूरी सूचनाएं और स्तरीय चीज़ें पढने को मिलेंगी (बावजूद बेहद संक्षिप्त और बहुत सोच समझकर निर्धारित की गयी मित्र सूची के) यहाँ भी अब निराशा का अनुभव हो रहा है | असहमति और खीझ (इरीटेशन )तथा भाषा की अराजकता और धैर्य के बीच का फर्क लगभग मिट चुका है | मित्रों के पारिवारिक ‘’हैप्पी मूमेन्ट्स’’ अथवा व्यक्तिगत उपलब्धियां खुशी देती हैं लेकिन हस्याद्पद व् उबाऊ स्तर तक हर राष्ट्रीय , सामाजिक , राजनैतिक, साहित्यिक,भावनात्मक मुद्दों को जबरन जातिवादी या अलगाववादी जामा पहनाने , गुटबंदियां और भाषा व् तर्क की सब मर्यादाएं तोड़ देने का जो माहौल निरंतर पैदा किया जा रहा है ये समाज में कोई सार्थक बदलाव नहीं बल्कि एक खतरनाक स्थिति पैदा कर रहा है |बेकाबू भाषा , अफवाहें और तर्कहीन विचारों का सोशल साईट्स जैसे माध्यमों पर बढ़ते जाना भविष्य के लिए एक दुर्भाग्य पूर्ण संकेत है| देश नहीं बल्कि पूरी दुनिया जब प्रदूषण, पानी, मौसम, आतंक, जलवायु ,व्याधियों, युद्ध जैसे गंभीर विषयों व् विसंगतियों से जूझ रही है हमारे सामने वही सैकड़ों वर्ष पुराने मसले ( जो दुर्भाग वश प्रायः राजनैतिक क्रीडाओं के माध्यम रहे हैं ) प्राथमिकता से हमारे क्रोध और असहमतियों का विषय हैं क्या ऐसा करने से पूर्व एक बार गंभीरता से सोचा है कि ...
क्या हम इस प्रथ्वी पर अमर होकर आये हैं ?
 क्या इस तरह के अलगाववादी विचारों को प्रकट और भड़काकर हम धर्म व् जातिगत इन एतिहासिक समस्याओं को कम या हल कर पायेंगे ?
नक्सवादियों ,आतंकवाद जैसी विकट समस्याओं से लेकर, पडौसी देशों के खतरनाक इरादों तक से जुझते राष्ट्र में हम इस वैचारिक असावधानी , भड्कात्म्क कार्यवाही तथा  क्रोध से कहीं आपस की इस खाई को और चौड़ा कर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्षतः गृहयुद्ध जैसा वातावरण पैदा तो नहीं कर रहे ?
 क्या देश का हर सवर्ण साक्षर ,सुखी, संपन्न और सक्षम है और हर दलित विपन्न, सर्वहारा और प्रताड़ित? जैसा कि साहित्य (स्त्री विमर्श )में हर पुरुष ,सम्पूर्ण स्त्री जाति का गुनाहगार |
इस अधूरी वास्तविकता व् अतिवादिता के दुष्परिणाम क्या होंगे ?
इतिहास साक्षी है कि जहाँ पाकिस्तान जैसा अलग मुल्क बनाकर हिन्दुस्तान के दो हिस्से किये गए इस एतिहासिक त्रासदी के अलावा भी कुछ सच हैं जिन्हें एक ख़ास गुट के द्वारा निरंतर नज़र अंदाज़ किया गया वो है संगीत व् फिल्मों व् साहित्य में मुस्लिमों की बड़ी व् काबिलेगौर हिस्सेदारी जिसे यहाँ की कलाप्रेमी  जनता ने भरपूर प्रेम और इज्जत दी , आज भी देते हैं |

 बहरहाल,उन्हीं मित्रों की तरह अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का आंशिक इस्तेमाल करते हुए उन मित्रों की सूची से मैं स्वयं को माफी सहित अलग कर रही हूँ | 

6 अगस्त 2016

शुभम श्री की कवितायें बनाम ‘’बोल्ड कहानियों ’’ का काव्यात्मक संस्करण




ये प्रयोगों का युग है | कोई नई बात नहीं ..हर युग में उसकी सोच, समकालीनता आदि के मद्दे नज़र बदलाव होते हैं, होने चाहिए | कहा जाता है बदलाव हमेशा अच्छा होता है लेकिन ( यदि कालगत प्रयोगधर्मिता बनाम बदलाव का हवाला दे इस वाक्य की मीमांसा करें तो ) ऐसा होना ज़रूरी नहीं |संगीत में रेमो फर्नांडीज़ ने रैप सोंग्स की शुरुवात की |ज़ाहिर है वो एक नई टेक्नीक थी नया प्रयोग था जमकर सराहा गया , तब से शंकर महादेवन के ‘’ब्रीथ्लैस’’ सोंग तक आते वो प्रयोग फेल हो गया और उसके स्थान पर लोक संगीत के आधुनिक वर्शन और सूफी बेस्ड गीतों ने लोगों का दिल जीता लेकिन अब....| पारसी थियेटर या नाट्यशास्त्र पर आधारित नाटक जो प्रायः भरत मुनि के शास्त्र पर बेस्ड होते थे  ,वो परम्परा टूटते टूटते अब नुक्कड़ नाटक, एकल अभिनय, या कबीर के गीतों का नाट्यरूपांतरण तक पहुँच गयी |ज़ाहिर हैं प्रयोग आगे भी होते रहेंगे |प्रयोगवादिता तो हर काल की स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन क्या इन प्रयोगों का कोई दीर्घगामी प्रभाव भी होगा ? ज़रूरी ये हैं | कह सकते हैं कि किसी भी विधा में बदलाव काल और रूचि सापेक्ष होता है |ये एक सतत प्रक्रिया है |अर्थात ‘’तोड़ फोड़ में तोड़ फोड़ ‘’|शुभम श्री की पुरस्कार समेत कुछ कवितायें पढ़ीं | पिछले दिनों कहानी विधा में ‘’बोल्ड कहानियों’’ की धूम रही ज्ञातत्व है कि जो स्वीकार्य/ अस्वीकार्य के तर्क झेलती रही | पुरस्कृत कवियत्री की कवितायें इसी ‘’बोल्ड परम्परा’’ का काव्यात्मक संस्करण कही जा सकती हैं |ये सही है कि ये ‘’बोल्ड बनाम क्रांतिकारी’’ कवितायें हिन्दी साहित्य के स्थापित कवियों को तुलनात्मक रूप से अधिक पसंद आईं |लेकिन शेष पाठकों की नापसंदगी को खारिज नहीं किया जा सकता | आदरनीय अर्चना वर्मा के लेख जिसमे वो पुरस्कृत कवयित्री के कविताओं की विशेषताओं के सन्दर्भ में ‘’नए’’ शिक्षार्थियों को संबोधित कर रही हैं|पाठक  पूछना चाहेंगे ... क्या इसीलिये इसे कविता माना जाए क्यूँ कि....

(1)-‘’कवयित्री ऐसा कुछ कर के दिखा रही है जैसा और कोई कर नहीं सका है। यानी कविता के बने बनाये ढाँचे में तोड़-फोड़। तो यह तो अप-टू-डेट वाला सन्दर्भ हुआ?‘’
(पुनश्च)
(2)-‘’कविता का बना बनाया ढाँचा और तोड़ फोड़?‘’ 
(3)-यहाँ कविता से सम्बन्धित सुर्खियों में अप्रत्याशित दूरारूढ़ तुलनाएँ विस्मित करती हैँ?
(4)-कविता की तरह पेश की गयी चीज़ को कविता न मानने का सवाल नहीं उठता? 
(5)- बने बनाये ढाँचे तो बीसवीं सदी में घुसने के साथ ही टूट फूट रहे हैँ लगातार?
(6)-क्या ऐसा मानने का वक्त आ गया है कि साहित्य नामक सांस्कृतिक संरचना अपने संभावित विनाश का सामना कर रही है? 
(7)- ‘’(यदि)मान्यता एक "दी हुई" हुई चीज़ होती है, कोई अन्तरंग गुण नहीं ?’’क्या ये मान्यता (दी हुई चीज़) सिर्फ उनकी विरासत है जो इसे अनेकानेक उदाहरणों/ तर्कों में इसे ‘’श्रेष्ठतम ‘’ सिद्ध करने पर आमादा हैं ?




10 जुलाई 2016

अजनबी शहरों में भी हर यात्री अपने प्रिय कोने खोज लेता है |(निर्मल वर्मा )

15 जून 2016

Feeling thoughtful

सिंगापुर में एक नाईट सफारी है जो रात में ही खुलता है |ये प्रमुखतः एक जू है जहाँ हिप्पो , जिराफ , सफ़ेद भालू से लेकर पांडा , सफ़ेद हाथी तक अनोखे जानवर हैं| ये एक विशाल और खूबसूरत जंगल है जहाँ नदी , पुल , बड़े बड़े पेड़ , खूबसूरत बेलें आदि हैं |जानवरों के परिवार दूरी पर एक लट्टू की रोशनी में दिखाई देते हैं बाकी अन्धकार... |बेआवाज़ चलने वाली दर्शकों को ले जारही खुली ट्राम में धीमी आवाज में एक बेहद मधुर स्त्री स्वर में कोमेंट्री चलती रहती है |दर्शक बीचजंगल में कहीं भी उतर कर घूम सकते हैं |ट्राम आपको वहीं छोड़कर अन्धकार में गायब हो जाती है जोकरीब आधा पौन घंटे बाद दुसरे चक्कर पर आपको वापस ले जाती है |प्रकृति और उन जानवरों के परिवार को पास जाकर देख सकते हैं |वहां दर्शकों और उन जानवरों के बीच में लोहे की जाली है और जगह २ कैमरेलगे हैं ताकि कोई इमरजेंसी न हो |वो जंगल अद्भुत हैं | जंगल की अपनी एक ध्वनी होती है जो बस्तियों की भीड़ से अलग अलौकिक होती है | दूर तक बड़े बड़े दरख्त , रात में हवा में झूलती झूमती उनकी शाखाएं , चाँद की उन दरख्तों पर बिखरती रोशनी ,पत्तियों की सरसराहट , कहीं २ घुप्पएकांत के बीच किसी पक्षी का स्वर, किसी छोटे पुल से गुज़रते हुए नीचे बह रहे दरिये की छलछलाहट , दूर कहीं चौकड़ी भरता हिरन का जोड़ा |ये एक अद्भुत अलौकिक अनुभव से गुजरना है जहाँ कुछ देर के लिए सब कुछ भूल जाते हैं | मुझे दो जगहें विरल लगती हैं |एक बहुत उंचाई पर उड़ रहे प्लेन से बादलों के घने गुछे तैरते हुए देखना और उनके बीच से गुजरना दूसरा प्रकृति के बीच एकांत वन में सिर्फ प्रकृति के साथ विचरण करना ....

13 जून 2016

साहित्य समाज की दशा और दिशा बदलने की सामर्थ्य रखता है ..वर्षों पूर्व कहीं पढ़ा था |( शायद द्वितीय विश्वयुद्ध के किसी प्रकरण में )
आज इफरात लिखा जा रहा है |खूब पढ़ा जा रहा है | अपने अपने बुद्धि - मानदंडों के हिसाब से खूब सराहा – नकारा जा रहा है |इनाम इकराम मिल रहे हैं |लेखक लेखिकाएं बेशुमार प्रकाशित और देश -विदेश में पुरस्कृत हो रहे हैं |इतनी बड़ी बड़ी बातें , काव्यात्मक, कसीदेकार भाषा,बला का मार्मिक कारुणिक सब कुछ लिख रहे हैं लेकिन इस लिखे का कहीं असर हो रहा है क्या ? समाज पर, देश पर, बच्चों, पर, युवाओं पर या हम स्वयं पर ही | ब्रिटिश राज में कई ऐसे लेखकों की रचनाएं प्रतिबंधित हुईं जिनका प्रभाव अंगरेजी हुकूमत पर पडा था , कहीं न कहीं उन रचनाओं से समाज में विद्रोह जागने का अंदेशा था भय था इसीलिये उन्हें प्रतिबंधित किया गया |प्रश्न हुकूमत का नहीं सवाल साहित्य के प्रभाव का है | कभी नहीं सुना कि फलां लेखक / लेखिका द्वारा लिखे का सरकार तक पर प्रभाव पड़ा, छात्रों / स्त्रियों, (पाठकों) में एक जागरूकता पैदा हुई और उन्होंने इस अराजकता के प्रति आवाज उठाई |..क्या साहित्य में जो कुछ लिखा- पढ़ा जा रहा है वो वाकई असरकारक है या फिर ये लेखक के लिए सिर्फ एक लेखिकीय चुनौती, प्रकाशक के लिए एक व्यवसाय और पाठक के लिए महज एक पाठकीय दंभ ,मनोरंजन अथवा ज्ञानवर्धन का माध्यम भर है ? हालाकि साहित्य - कलाओं की अपनी सीमाएं हैं बावजूद इसके क्या साहित्य में हैं वो जादू ( असर ) कि वो सड़ी गली राजनीतिक विरूपता से मुठभेड़ कर सके ? न्यायिक व्यवस्था में परिवर्तन की मांग कर सके ? ऐसे राज्यों में जहाँ शिक्षा नीति एक मजाक बन गयी हो और बाकायदा वहां युवाओं को षड्यंत्र पूर्ण ढंग से ‘’अपढ़’’ (अज्ञानी ) रखे जाने का क्रूर खेल चल रहा हो कलम के दम पर उनके प्रति एक आन्दोलन खड़ा कर सकें ? क्या साहित्य समाज , देश में व्याप्त विरूपताओं , विसंगतियों को देख सुनकर लच्छेदार भाषा में , पाठक की सहानुभूति जगाकर ज्यूँ का ज्यूँ सिर्फ व्यक्त कर देने और वाह वाही बटोर लेने का साधन भर है? यदि ऐसा ही है तो काहे का साहित्य और काहे का लेखक ...

14 अप्रैल 2016

बंबई न जाने कब चुपचाप एक दिन मुम्बई हो गयी और कलकत्ता कोलकाता पता ही नहीं चला लेकिन ....|एक तरफ जातिवादिता को गरियाया जाता है तो दूसरी और गुर्जर, जाट पटेल जैसे संपन्न, दलित कहलाने को व्याकुल लोग आरक्षण की मांग करते हैं |लाखों की संपत्ति फूंक दी जाती है , लोग मरते हैं  ,बलात्कार होते हैं ... | देश को आजाद हुए , उसका अपना संविधान बने ,उसे लोकतंत्र का दर्जा मिले सात दशक होने को हैं लेकिन आज़ादी की जो अभिव्यक्ति अब देखने को मिल रही है वो अभूतपूर्व है |

7 मार्च 2016

महिला दिवस पर


कल NDTV पर कुछ जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ताओं की बातचीत सुनी ..अच्छी लगी |इसमें सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री कमला भसीन भी थीं उनके कुछ विचार यहाँ संक्षिप्त में ..

पुरुष सत्तात्मकता का दोष सिर्फ पुरुष के ऊपर मढना गलत है क्यूँ कि इस विचार व् धारणा में स्त्री भी बराबर की भागीदार है वो इस तरह कि वो स्वयं उसे सहर्ष स्वीकार रही है | वो पति के लिए व्रत उपवास/ पूजा पाठ करती है | घर/ ऑफिस दौनों मोर्चो को स्वयं संभालती है |बच्चों के स्कूल में फीस भरने या पेरेंट्स टीचर मीटिंग में खुद जाती है अर्थात घर बाहर की तमाम जिम्मेदारियां वो स्वयं अकेले उठाना अपना कर्तव्य समझती है | कमला भसीन जी की इस दलील से कुछ अंश तक सहमत हुआ जा सकता है क्यूँ कि पहले की अपेक्षा आज की पीढी अपने बच्चों व् परिवार को लेकर ज्यादा सजग है |संभवतः इसका कारण एकल परिवार  व्  पति पत्नी दौनों का नौकरीपेशा होना है |लेकिन अपने अगले ही वाक्य में कमला जी कहती हैं हालाकि इस वर्ग (मध्यवर्ग)की स्त्री बाकयदा मानवता और नैतिकता के आधार पर (दलील दे ) विरोध भी करती है लेकिन उसके विरोध को इस पुरुषवादी समाज में ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती वैसे भी विरोध करने वाली स्त्री तो पढी लिखी , जागरूक और आधुनिक महिला है लेकिन इसका प्रतिशत अपेक्षाकृत ( औसत रूप से )बहुत कम है इस वर्ग की ज्यादातर महिलाएं सब कुछ सह जाने में ही अधिक विशवास और सुरक्षा महसूस करती हैं | हमारे यहाँ लडकी के मन में शुरू से ये भरा जाता है कि उसे दूसरे घर जाना है , वहां सबकी सेवा करनी हैं ,पति का ख्याल रखना है इन्हें सुसंस्कारों में जोड़ा जाता है लेकिन उसी घर ले लड़के को क्या ये ‘’संस्कार’’ दिए जाते हैं कि तुम्हे खाना बनाना या घर का कामकाज  सीखना है ताकि अपनी नौकरीपेशा पत्नी (जो आजकल ८० प्रतिशत ) है उसे सहयोग कर सको ? कमला भसीन जी ने बताया कि आज निम्न वर्ग की महिलायें अपेक्षाकृत अधिक साहसी महिलायें हैं |वो पति से पिटती भी हैं तो चीख चिल्लाकर उसका विरोध भी करती हैं और सार्वजानिक रूप से उसे गालियाँ देने का माद्दा भी रखती हैं | लेकिन मध्यवर्ग की स्त्री घरेलू हिंसा को चुपचाप सहती है , ‘’गिर गयी थी ‘’ कहकर चोटों को छिपाती हैं |एक तो उस पर ‘समाज क्या कहेगा’’ का संकोच और दुसरे ‘’कहीं निकाल दिया तो कहाँ जायेगी “ की फ़िक्र | वो कहती हैं कि मैं अपने घर की पहली पीढी  हूँ जब घर से बाहर नौकरी के लिए निकली लेकिन उस वक़्त मेरे घर में जो बाई काम कर रही थी उसकी दादी परदादी भी आत्म निर्भर थी घरों में काम करती थी | संघर्ष सभी वर्गों की महिलायें करती हैं लेकिन उन संघर्षों व् पीडाओं को सहती अलग अलग तरीके से हैं | अंत में उन्होंने अपनी ही लिखी एक कविता के कुछ अंश पढ़े जिनका अर्थ कुछ ये था ‘’आज की लडकियां सूरज की तरह चमकती हैं , लहरों की तरह लहराती हैं, फूलों की तरह खिलती हैं क्यूँ कि उन्हें इन सबमे आनंद आता है ...उन्हें खिलने दो...बहने दो...चमकने दो....|
कल NDTV पर कुछ जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ताओं की बातचीत सुनी ..अच्छी लगी |इसमें सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री कमला भसीन भी थीं उनके कुछ विचार यहाँ संक्षिप्त में ..

पुरुष सत्तात्मकता का दोष सिर्फ पुरुष के ऊपर मढना गलत है क्यूँ कि इस विचार व् धारणा में स्त्री भी बराबर की भागीदार है वो इस तरह कि वो स्वयं उसे सहर्ष स्वीकार रही है | वो पति के लिए व्रत उपवास/ पूजा पाठ करती है | घर/ ऑफिस दौनों मोर्चो को स्वयं संभालती है |बच्चों के स्कूल में फीस भरने या पेरेंट्स टीचर मीटिंग में खुद जाती है अर्थात घर बाहर की तमाम जिम्मेदारियां वो स्वयं अकेले उठाना अपना कर्तव्य समझती है | कमला भसीन जी की इस दलील से कुछ अंश तक सहमत हुआ जा सकता है क्यूँ कि पहले की अपेक्षा आज की पीढी अपने बच्चों व् परिवार को लेकर ज्यादा सजग है |संभवतः इसका कारण एकल परिवार  व्  पति पत्नी दौनों का नौकरीपेशा होना है |लेकिन अपने अगले ही वाक्य में कमला जी कहती हैं हालाकि इस वर्ग (मध्यवर्ग)की स्त्री बाकयदा मानवता और नैतिकता के आधार पर (दलील दे ) विरोध भी करती है लेकिन उसके विरोध को इस पुरुषवादी समाज में ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती वैसे भी विरोध करने वाली स्त्री तो पढी लिखी , जागरूक और आधुनिक महिला है लेकिन इसका प्रतिशत अपेक्षाकृत ( औसत रूप से )बहुत कम है इस वर्ग की ज्यादातर महिलाएं सब कुछ सह जाने में ही अधिक विशवास और सुरक्षा महसूस करती हैं | हमारे यहाँ लडकी के मन में शुरू से ये भरा जाता है कि उसे दूसरे घर जाना है , वहां सबकी सेवा करनी हैं ,पति का ख्याल रखना है इन्हें सुसंस्कारों में जोड़ा जाता है लेकिन उसी घर ले लड़के को क्या ये ‘’संस्कार’’ दिए जाते हैं कि तुम्हे खाना बनाना या घर का कामकाज  सीखना है ताकि अपनी नौकरीपेशा पत्नी (जो आजकल ८० प्रतिशत ) है उसे सहयोग कर सको ? कमला भसीन जी ने बताया कि आज निम्न वर्ग की महिलायें अपेक्षाकृत अधिक साहसी महिलायें हैं |वो पति से पिटती भी हैं तो चीख चिल्लाकर उसका विरोध भी करती हैं और सार्वजानिक रूप से उसे गालियाँ देने का माद्दा भी रखती हैं | लेकिन मध्यवर्ग की स्त्री घरेलू हिंसा को चुपचाप सहती है , ‘’गिर गयी थी ‘’ कहकर चोटों को छिपाती हैं |एक तो उस पर ‘समाज क्या कहेगा’’ का संकोच और दुसरे ‘’कहीं निकाल दिया तो कहाँ जायेगी “ की फ़िक्र | वो कहती हैं कि मैं अपने घर की पहली पीढी  हूँ जब घर से बाहर नौकरी के लिए निकली लेकिन उस वक़्त मेरे घर में जो बाई काम कर रही थी उसकी दादी परदादी भी आत्म निर्भर थी घरों में काम करती थी | संघर्ष सभी वर्गों की महिलायें करती हैं लेकिन उन संघर्षों व् पीडाओं को सहती अलग अलग तरीके से हैं | अंत में उन्होंने अपनी ही लिखी एक कविता के कुछ अंश पढ़े जिनका अर्थ कुछ ये था ‘’आज की लडकियां सूरज की तरह चमकती हैं , लहरों की तरह लहराती हैं, फूलों की तरह खिलती हैं क्यूँ कि उन्हें इन सबमे आनंद आता है ...उन्हें खिलने दो...बहने दो...चमकने दो....|

8 जनवरी 2016

दारियो फ़ो

नए साल की पहली सुबह ...एक खुशमिजाज़, बिंदास ,अजीवोगारीब नोबेल पुरस्कार विजेता को याद करते हुए ..
...दारियो फ़ो 
क्या आप यकीन करेंगे कि दुनियां के सबसे महंगे और सम्मानजनक पुरस्कार नोबेल पुरस्कार से एक ऐसे विवादास्पद साहित्यकार (मूलतः नाटककार)को नवाज़ा गया था जो अपनी विवादित रचनाओं के कारन न सिर्फ कई बार पिटा ,अपमानित हुआ बल्कि उसे जेल में बंद कर यातनाएं तक दी गईं थीं लेकिन उसने लिखना नहीं छोड़ा |इटली के महान नाटककार और अभिनेता दारियो फ़ो ने राजनीतिज्ञों,शासकों समस्त बुर्जुआ वर्ग,पादरियों ,पुलिस कर्मियों आदि से सम्बंधित विषयों को अपने व्यंगात्मक,तीखे कटाक्ष और माजाकिये नाटकों का प्रमुख विषय बनाया |वे प्रयोगवादी नाटककार और अभिनेता हैं |फ़ो का समस्त लेखन सर्वहारा शोषित और उत्पीडित तबके के लिए है |उन्हें अपने सबसे चर्चित नाटक ‘’एक्सीडेंटल डेथ ऑफ एन एनार्किस्ट’’ पर नोबेल पुरस्कार दिया गया | इसके अलावा पुरस्कार भाषण में उनके दुसरे नाटक ‘’वी कांट पे ,वी डोंट पे’’को भी सराहा गया |जब उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने की सूचना मिली तब वो कार से कहीं जा रहे थे |एक अन्य कार चालक ने उन्हें रोककर ये सूचना दी तो वो हतप्रभ रह गए |उन्होंने हँसते हुए कहा ‘’मुझे तो लगता था कि मैं ही दुनिया को चकित कर सकता हूँ ‘’|उनके नाटकों की खासियत ये थी कि आम जनता को उनके नाटक बेहद प्रिय थे क्यूँ कि वो उन्हीं के लिए लिखे गए थे लेकिन वैटिकन ,राजनीतिज्ञों,पादरियों आदि को वे भड़काऊ और प्रतिबंधित करने लायक लगते थे तभी तो उनके एक नाटक ‘’मिस्तेरो वुफो ‘’को दिखाया गया तो वैटिकन ने इस नाटक को टेलीविज़न पर दिखाए गए कार्यक्रमों में सर्वाधिक ‘’ब्लेस्फीमल’’ कह कर आलोचना की | मजदूरों के लिए लिखे गए एक नाटक के लिए उन्हें टेलीविजन के कार्यक्रमों से निष्काषित कर दिया गया था ये प्रतिबन्ध पंद्रह वर्षों तक रहा |उल्लेखनीय है कि वो अपने लेखन से नौकरशाहों,शोषकों आदि के ही नहीं बल्कि सर्वहारा और पीड़ित वर्ग के दिलों में भी एक हलचल पैदा करना चाहते थे |कहा जाता है कि फ़ो जो हमेशा आतंकवाद के खिलाफ लिखते रहे लेकिन उनके खिलाफ दुष्प्रचार के तहत उन्हें अमेरिका में आतंकवादी कहकर रोक दिया गया था |सुप्रसिद्ध लेखक आलोचक /समीक्षक देवेन्द्र इस्सर कहते हैं ‘’ फ़ो के नाटक इब्सन और बनार्ड शा की याद दिलाते हैं |’’उनकी पत्नी फ्रांका रामे स्वयं एक मांझी हुई अभिनेत्री थीं |उन्होंने फ़ो के कई नाटकों में अभिनय किया और २०१३ में उनका देहांत हो गया |रामे ने अपने पति दारियो फ़ो के साथ मिलकर कुछ नाटक लिखे भी थे जिनमे प्रमुख है ‘’इट इज ऑल बैड एंड बोल्ड ‘’इसमें रामे ने अविस्मरनीय अभिनय भी किया था | उन्होंने स्वयं नारी मुक्ति को विषय बनाकर कई मोनोलॉग लिखे हैं जिन्हें ‘फेमिनिस्ट क्लासिक’’ कहा जाता है |१९७३ में फासीवादियों द्वारा रामे का अपहरण कर लिया गया और खून में लथपथ सडक पर फेंक दिया गया था |इसके बावजूद पति पत्नी ने हार नहीं मानी और वे नाटकों को लिखने व मंचित करने में जुटे रहे |और जब फ़ो को 1997 साहित्य नोबेल पुरस्कार घोषित हुआ तो उन्होंने उसे अपने उन अभिनेताओं को देने की घोषणा की ये कहकर कि ‘’जिन्होंने पैरोडी और व्यंग द्वारा अन्याय के विरुद्ध युद्ध किया जिनमे ये कहने के साहस है कि ‘’सम्राट वस्त्र विहीन है ‘’उन्हें समर्पित ‘’|

अजीबोगरीब नोबेल मुर्स्कार विजेता ..दारियो फ़ो

दरियों ,पुलिस कर्मियों आदि से सम्बंधित विषयों को अपने व्यंगात्मक,तीखे कटाक्ष और माजाकिये नाटकों का प्रमुख विषय बनाया |वे प्रयोगवादी नाटककार और अभिनेता हैं |फ़ो का समस्त लेखन सर्वहारा शोषित और उत्पीडित तबके के लिए है |उन्हें अपने सबसे चर्चित नाटक ‘’एक्सीडेंटल डेथ ऑफ एन एनार्किस्ट’’ पर नोबेल पुरस्कार दिया गया | इसके अलावा पुरस्कार भाषण में उनके दुसरे नाटक ‘’वी कांट पे ,वी डोंट पे’’को भी सराहा गया |जब उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने की सूचना मिली तब वो कार से कहीं जा रहे थे |एक अन्य कार चालक ने उन्हें रोककर ये सूचना दी तो वो हतप्रभ रह गए |उन्होंने हँसते हुए कहा ‘’मुझे तो लगता था कि मैं ही दुनिया को चकित कर सकता हूँ ‘’|उनके नाटकों की खासियत ये थी कि आम जनता को उनके नाटक बेहद प्रिय थे क्यूँ कि वो उन्हीं के लिए लिखे गए थे लेकिन वैटिकन ,राजनीतिज्ञों,पादरियों आदि को वे भड़काऊ और प्रतिबंधित करने लायक लगते थे तभी तो उनके एक नाटक ‘’मिस्तेरो वुफो ‘’को दिखाया गया तो वैटिकन ने इस नाटक को टेलीविज़न पर दिखाए गए कार्यक्रमों में सर्वाधिक ‘’ब्लेस्फीमल’’ कह कर आलोचना की | मजदूरों के लिए लिखे गए एक नाटक के लिए उन्हें टेलीविजन के कार्यक्रमों से निष्काषित कर दिया गया था ये प्रतिबन्ध पंद्रह वर्षों तक रहा |उल्लेखनीय है कि वो अपने लेखन से नौकरशाहों,शोषकों आदि के ही नहीं बल्कि सर्वहारा और पीड़ित वर्ग के दिलों में भी एक हलचल पैदा करना चाहते थे |कहा जाता है कि फ़ो जो हमेशा आतंकवाद के खिलाफ लिखते रहे लेकिन उनके खिलाफ दुष्प्रचार के तहत उन्हें अमेरिका में आतंकवादी कहकर रोक दिया गया था |सुप्रसिद्ध लेखक आलोचक /समीक्षक देवेन्द्र इस्सर कहते हैं ‘’ फ़ो के नाटक इब्सन और बनार्ड शा की याद दिलाते हैं |’’उनकी पत्नी फ्रांका रामे स्वयं एक मांझी हुई अभिनेत्री थीं |उन्होंने फ़ो के कई नाटकों में अभिनय किया और २०१३ में उनका देहांत हो गया |रामे ने अपने पति दारियो फ़ो के साथ मिलकर कुछ नाटक लिखे भी थे जिनमे प्रमुख है ‘’इट इज ऑल बैड एंड बोल्ड ‘’इसमें रामे ने अविस्मरनीय अभिनय भी किया था | उन्होंने स्वयं नारी मुक्ति को विषय बनाकर कई मोनोलॉग लिखे हैं जिन्हें ‘फेमिनिस्ट क्लासिक’’ कहा जाता है |१९७३ में फासीवादियों द्वारा रामे का अपहरण कर लिया गया और खून में लथपथ सडक पर फेंक दिया गया था |इसके बावजूद पति पत्नी ने हार नहीं मानी और वे नाटकों को लिखने व मंचित करने में जुटे रहे |और जब फ़ो को 1997 साहित्य नोबेल पुरस्कार घोषित हुआ तो उन्होंने उसे अपने उन अभिनेताओं को देने की घोषणा की ये कहकर कि ‘’जिन्होंने पैरोडी और व्यंग द्वारा अन्याय के विरुद्ध युद्ध किया जिनमे ये कहने के साहस है कि ‘’सम्राट वस्त्र विहीन है ‘’उन्हें समर्पित ‘’|