31 दिसंबर 2015

स्म्रतियों के अपभ्रंश
ये वर्ष यात्राओं के नाम रहा |माउंट आबू,अजमेर,पुष्कर से लेकर सिंगापुर  .मलेशिया ,इंडोनेशिया तक |ज़ाहिर है सिर्फ घूमना फिरना मौज मस्ती ही नहीं बल्कि अनुभवों व् जानकारियों के खजाने भी हाथ लगे |इसी वर्ष ’’आहा ज़िंदगी’’ ने नवम्बर माह में सिंगापूर यात्रा वृत्तांत प्रकाशित भी किया |इस बीच फोटोग्राफी में भी आजमाइश हुई |पारिवारिक उत्तरदायित्वों,नौकरी ,यात्राओं की अधिकता (व्यस्तता) के बीच लिखना पढ़ना भी चलता रहा |lलेखन में खुशी- अवसाद के पल धूप छाँव की तरह आते जाते रहे |लिखना पढना जारी-स्थगित करने के निर्णय लिए जाते रहे |इन्हीं सब अनुभूतियों के साथवागर्थ,हंस,कथादेश,लमही,पाखी,बया,परिकथा,वर्तमान साहित्य,पूर्व कथन,आउट लुक ,जनसत्ता,कथाक्रम,निकट,नई दुनियां में कहानियाँ प्रकाशित हुईं |तो कुछ कहानियों के अनुवाद अंगरेजी,उर्दू,उडिया,पंजाबी ,तमिल और गुजराती में प्रकाशित हुए |इस बीच कविताओं के शौक को भी स-संकोच पूरा किया | मंतव्य, साहित्य अमृत में कवितायेँ प्रकाशित हुईं तथा गाथांतर,यात्रा और बोधि प्रकाशन से प्रकाशित चयनित कविताओं के संकलन में कविताओं को स्थान मिला |आकाशवाणी पर भी कविताओं का प्रसारण हुआ | तीन कवितायेँ (चौराहे भाग एक,दो,तीन ) क्रोशिया विश्वविद्यालय के इन्डोलॉजी विभाग के पाठ्यक्रम में शामिल की गईं |निस्संदेह ये मेरे लिए इस वर्ष का एक महत्वपूर्ण एचीवमेंट था |दो एक पुरस्कार भी मिले जिनमे से कथादेश व् सर्नुनाह (सिंगापुर) के तत्वावधान में रहस्य रोमांच प्रतियोगिता के अंतर्गत मेरी कहानी ‘’अपने होने के विरुद्ध’’को चयनित किया गया |प्राप्त राशि के अतिरिक्त कहानी को पुरस्कृत अन्य छः कहानियों के साथ फ्रेंच, अंगरेजी व् स्पेनिश भाषा में अनुवादित व् प्रकाशित करने की योजना भी थी (हालाकि इस सम्बन्ध में उसके बाद कोई सूचना नहीं )| नए वर्ष में पहल, लमही समेत कुछ पत्रिकाओं में कहानी स्वीकृत हुई हैं |वहीं कुछ विशेषांकों (पुस्तक रूप के लिए ) चयनित कहानियों में संबोधन (श्रेष्ठ प्रेम कथाएं ),’’मध्य प्रदेश के रचनाकार ( भोपाल ) व् आधुनिक हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट कहानियाँ (शब्द निष्ठां प्रतियोगिता में पुरस्कृत कहानी ) है | पूरा वर्ष छोटी मोटी उपलब्धियों के साथ उतर चढ़ाव मय बीता |साहित्य जगत से सम्बंधित कई भ्रम टूटे |हर भ्रम ने एक नयी सोच और सीख दी |खुद में परिवर्तन लाने के अवसर दिए | जिन संपादकों ,लेखकों, पाठकों,आलोचकों ने लेखन जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया ,प्रेरणा दी उनके प्रति हार्दिक आभार |नया वर्ष आप सभी के लिए सुखमय आनंदमय हो....शुभकामनायें |



30 अक्तूबर 2015

दुःख और पीड़ा ऐसे शब्द हैं जो भौगोलिक सीमाओं में यकीन नहीं करते |संवेदनाएं और वेदनाएं सार्वभौमिक सत्य हैं | दुःख /पीड़ा पूरे संसार में एक सी होती है |कोई मुल्क ये दावा नहीं कर सकता कि हमारे यहाँ दुःख और पीडाएं फलां देश से कम हैं क्यूँ कि हम आधुनिक और विकसित राष्ट्र हैं |गौरतलब है कि चीन में कुछ महीनों पहले तक एक संतान का नियम था |दो संतान होने पर कड़ी सज़ा का प्रावधान था| इस संवैधानिक क़ानून ने वहां के सामाजिक जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया था |कई पारिवारिक विडम्बनाओं/विसंगतियों ने लोगों को जीने /मरने की स्थिति तक ला दिया | पुलिस की बर्बरता की इंतिहा हो गयी |कई नागरिक दो बच्चे होने पर भय से सिंगापूर मलेशिया जैसे देशों में पलायन कर गए |  एक औरत जिसके पति ने अपने इकलौते तीन वर्षीय बेटे को धन के लालच में चीन में ही किसी को बेच दिया और भाग गया था |औरत अच्छी खासी नौकरी छोड़कर पुत्र की तलाश में जुट गयी |शहरों,पुलिस दफ्तरों के चक्कर,शरणार्थी शिविरों, अनाथालयों में मारी मारी फिरी और दाने दाने को मोहताज़ हो गयी |अंततः जब ग्यारह वर्षों बाद उसका बेटा पुलिस द्वारा खोज लिया गया और उसे सौंपा  गया तब उस नौजवान हो चुके बेटे ने माँ के साथ रहने से इनकार कर दिया क्यूँ कि उसे जहाँ बेचा गया था वो एक रईस परिवार था सर्व सुविधाओं सुविधाओं संपन्न |अतः अपनी भिखारिन माँ के साथ रहना बेटे ने खारिज कर दिया | इस घटना का  अंत ज्यादा त्रासद लगा जब उस माँ ने बेटे की इच्छा को सर्वोपरि रखते हुए खुशी २ बेटे को अपने घर से विदा किया और अब वो पूर्णतः संतुष्ट थी |वापस अपनी पुरानी नौकरी के लिए उसने आवेदन किया | (मेरी ये कहानी ‘’माँ’’ चीन के एक परिवार की इसी घटना पर आधारित है जो कुछ महीनों पहले ‘’पाखी’’ में प्रकाशित हुई थी )कल खबर देखी कि चीन से अंतत ये क़ानून हटा लिए गया है | खुशी हुई ... 

21 अक्तूबर 2015

इंसानों की दुनिया में ‘’भूलना’’ एक स्वाभाविक और सतत क्रिया है जिसे मनोवैज्ञानिक लाभप्रद और अति आवशयक मानते हैं |यदि भूलेंगे नहीं तो स्म्रतियों की परतें दिमाग में जमती जायेंगी और आदमी विक्षिप्त हो जाएगा | ग्रेगर सेम्सा बन जाएगा |लेकिन कुछ मामलों में लगता है दुनिया में जितनी अराजकता ,हिंसा ,क्रूरता ,त्रासदियाँ हैं , वो सब ‘’भूलते जाने’’ के ही कुपरिणाम हैं | पिछली सदी का सर्वाधिक जघन्य हत्याकांड निठारी ,भोपाल गैस त्रासदी ,उसके बाद निर्भया, फिर दो बहनों को मारकर पेड़ पर लटकाना, आरुशी और शीना (इन्द्रानी मुखर्जी ) काण्ड ,अख़लाक़ की हत्या,पत्रकारों, वामपंथियों की ह्त्या , आज मासूमोको जलाकर मार देने की घटना ...| क्या हमने पिछली इन घटनाओं में जो रोष दिखाया था , विरोध में तमाम आन्दोलन किये,मोमबत्तियां लेकर जुलूस निकाला ,उन हत्यारों ,दरिंदों का क्या हुआ जानने की कोशिश की ? कहीं कोट करने के लिए या किसी आलेख में विषय आ जाने पर उदाहरण स्वरुप भले ही उन त्रासदियों को स्मरण कर लिया जाए लेकिन घटना के वक्त हम जो उद्वेलित और क्रोधित हुए थे क्या उन घटनाओं के प्रति अब भी वो तीव्रता बाकी है ?ध्यातत्व है कि हमारी लचर क़ानून व्यवस्था, पुलिस व् नेतागणों सहित उन गुनाहगारों ने हमारी इस सायास भूल जाने की आदत का भरपूर लाभ उठाया है |


18 अक्तूबर 2015

पुरस्कार लौटाने की एतिहासिक मुहीम ...आखिर कितनी कारगर ?


एक मित्र ने लिखा है कि इतने बड़े विरोध के बावजूद समाज या देश में कोई हलचल नहीं | मेरा मानना है कि समाज में हलचल न होने की कुछ ख़ास वजहें हैं पहली और मुख्य वजह ये हैं कि अहिंसा परमधर्म सूक्ति वाक्य के इस देश में अब हिंसा एक बहुत सामान्य सी घटना हो गयी है |उल्लेखनीय यहाँ का चौंकाऊ व विरोधाभासी इतिहास है जहाँ उपदेशक और मानववादी चिन्तक ,या एक धर्म जोर से बोलने तक को हिंसा मानता है वहीं अन्य धर्म में हिंसा उनकी कट्टरपंथी मान्यताओं को मानने (मनवाने) का एक औजार रहा है |
(२) दूसरी वजह यह है कि लगभग डेड अरब और दुनियां के सबसे विशाल लोकतंत्र के इस देश में सारा संकट अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से उत्पन्न हुआ है | तथाकथित लोकतंत्र अपनी आज़ादी की हदें भूल चूका है |वस्तुतः देश के बाहुबली नेताओं,अलगाववादियों, कट्टर पंथियों आदि द्वारा लोकतंत्र का अर्थ ही ये मान लिया गया है कि साम दाम दंड भेद किसी भी माध्यम से अपनी बात को सर्वोपरि रखना ,भय पैदा करना ,खून खराबे की हद तक आतंक फैला सरकार और क़ानून से घुटने टिकवा देना ,फतवे जारी करना ,खाप पंचायतों जैसी स्व निर्णायक समाज द्वारा डंके की चोट पर हिंसा करना और अपनी बात समाज या सरकार से मनवा लेना ही अभिव्यक्ति की आज़ादी है और ये हम लोकतांत्रिक देश के नागरिकों का जन्म सिद्ध अधिकार भी है |राजनैतिक आन्दोलन,जातिगत आरक्षण ,नए प्रदेश की मांग रख रहे असंतुष्टों, माओ वादियों,नक्सलपंथियों, और अभी हाल में ही हार्दिक पटेल जैसे महत्वाकांक्षियों द्वारा चलाई जा रही बे सिरपैर  की मुहीम ये सब हिंसक मनोवृत्तियाँ इसी मानसिकता को दर्शाती हैं |निस्संदेह राजनातिक स्वार्थों ने इनमे आग में घी का काम किया है| आपातकाल के तत्कालीन समर्थक नेताओं द्वारा कहा तो ये भी गया था कि १९७५ के आपातकाल का निर्णय इंदिराजी द्वारा इसी तथाकथित अभिव्यक्ति की अनियंत्रित आज़ादी को नियंत्रित करने के लिए लिया गया लेकिन बाद में उसका हिटलरी प्रारूप विस्फोटक हो गया और ये काल भारत के इतिहास में काले हर्फों में दर्ज हो गया |
(३)- ह्त्या ह्त्या होती है चाहे वो किसी रंजिश के तहत की जाए ,उसकी वजह राजनैतिक,सामाजिक अथवा आर्थिक मसलों से प्रेरित हो ,अथवा वामपंथियों,बुद्धिजीवियों यानी साहित्य के कलमकारों के समाज का कडवा सच लिखने पर की जाए |इस परिप्रेक्ष्य में सच यह है संपन्न या जनसंख्या में छोटे देशों में जहाँ उसके हर नागरिक की जान बेशकीमती मानी जाती है और अपने नागरिकों को वो न सिर्फ सुविधाएँ मुहैया कराना बल्कि उनकी जान की रक्षा करना भी अपना दायित्व मानते हैं वहां इस देश में आलू प्याज,दाल की कीमत पर पूरा राष्ट्र एकमत हो विरोध करता है लेकिन हत्याएं और उनके विरोध एक गुट में सीमित रहते हैं |किसी वामपंथी या बुद्धिजीवी की ह्त्या और उनका विरोध होता है वो एक समूह विशेष में तो ज्वलंत रहता है लेकिन आम आदमी न उसे जानना चाहता न ही उसे इस घटना या विरोध का पता होता |हिंसक घटनाएँ ,हत्याएं आदि ये चैनल की ‘’आजकी सबसे बड़ी खबर’’ ,सम्बंधित पुरोधाओं को बिठाकर बहसें करना या दो चार दिनों के समाचारों से ज्यादा कुछ नहीं  |कुछ ही दिनों में उनकी हेड लाइंस बदल जाती हैं और उनकी जगह कोई और घटना |
(४)-काल्बुर्गी,पान्सारे जैसे लोगों की ह्त्या निस्संदेह एक गंभीर और दुर्भाग्यपूर्ण घटना है जिसका विरोध होना चाहिए और हमारे बुद्धिजीवी पुरस्कार लौटाकर इसका विरोध कर रहे हैं,स्वागतेय है  |लेकिन विचारणीय यह है कि आतंक फैलाकर ,दंगें फसाद और आन्दोलन धरने कर ,बसें जलाकर ,सरकारी इमारतों को ध्वस्त कर अपनी बात सरकार तक हिंसक तरीकों से पहुंचाने वाली प्रवृत्ति व् माध्यमों के आगे बुद्धिजीवियों का ये मौन विरोध कितना व् कारगर सिद्ध होगा  ? साहित्य अकादमी की तत्संदर्भित मसले पर उदासीनता निस्संदेह दुर्भाग्यपूर्ण और कायराना है लेकिन ऐसी हत्याओं के मूल में जो विध्वंसकारी शक्तियां काम कर रही हैं उनके प्रति विद्रोह क्यूँ नहीं ?क्या भविष्य में ये मुहीम इस तरह की हत्याओं को रोकने में मददगार सिद्ध होगी ?क्या इसका कोई सार्थक और सकारात्मक प्रभाव और परिणाम होगा ? साहित्य अकादमी इस मुहीम को गंभीरता से ले और अपने कुछ ठोस निर्णय और इन सच लिखने वाले लोगों की ह्त्या पर न सिर्फ चिंता व्यक्त करे बल्कि इस दिशा में कुछ ठोस कार्यवाही करे ,निर्णय ले ये हम सब चाहते हैं विरोध इसी उदासीनता का है लेकिन हत्याएं जो करवा रहा है और कर रहे हैं उन का इस मुहीम से ह्रदय परिवर्तन होता है , पूरे समाज पर इस मुहीम का कोई प्रभाव होता है तभी ये क्रांतिकारी मुहीम सफल और प्रभावशाली मानी जायेगी अन्यथा इसे मात्र एक प्रचारिक तौर (मंशा) से अधिक कुछ नहीं कहा जाएगा (जैसी की हमारी मानसिकता हो चुकी है 

23 सितंबर 2015

कहानी पढने का हुनर (एक पाठक की द्रष्टि से )

कहानी /कवितायेँ पढ़ना न सिर्फ एक कला है बल्कि एक प्रकार के आत्म संघर्ष से जूझना है |दोहरा संघर्ष जो एक साथ और लगातार दो स्तरों पर मन के भीतर घटित होता है |...एक ,लेखक के द्वारा प्रस्तुत कथा, घटनाओं ,शिल्प आदि को ग्रहण करना  दूसरा स्वयं पाठक द्वारा लेखक के उस ‘’लिखे’ से एतबार रखना ,उसे उसी रूप में स्वीकार करना अथवा नकारना आदि |मोटे तौर पर कहानी का आकलन इस आकर्षण /विकर्षण पर आधारित माना जाता है की कोई कहानी कितनी ‘’दूर’’ तक किसी पाठक को बांधे रखने में समर्थ है |और जो कहानी स्वयं को अंततः अंत तक पढ़ा ले जाए वो भी बगैर किसी अतिरिक्त वैचारिक ,पूर्वाग्रही दवाब के निस्संदेह वो कहानी श्रेष्ठ कहानियों में आती है || कभी कभी किसी एक कथाकार के कहानी संग्रह को पढने से अधिक विभिन्न वैचारिक श्रेष्ठ पत्रिकाओं की अलग अलग लेखकों द्वारा लिखी चयनित कहानियों को पढ़ना अधिक आकर्षक और वैविध्यपूर्ण प्रतीत होता है | विभिन्न नए पुराने लेखकों की कहानियां /उपन्यास पढ़ना न सिर्फ सराहना बल्कि इस सबक का सीखना भी होता है कि कथा लेखन में क्या नहीं होना चाहिए ,अच्छी भली कहानी कैसे गैर ज़रूरी लम्बे लम्बे आख्यानों ,कविताई और कल्पनाओं (कहानी की प्रकृति/शिल्प/किस्सागोई के मद्देनज़र )से अपना सहज सौन्दर्य खोने लगती है | कहानी को पढ़ते वक़्त अच्छी जगहों पर ‘’वाह’’ खुद ब खुद निकलती है वहीं कहीं २ पाठक को महसूस होता है कि जितने मनोयोग व् श्रम से कहानी को शिल्प के साथ गूंथा गढ़ा गया है ... काश उतने ही हुनरमंदी के साथ गैरज़रूरी दीर्घ आख्यान काटने की निर्ममता भी दिखाई होती तो कहानी क्या ही सुन्दर हो जाती  |

11 जून 2015

कहानी ' और 'कहानी '' में फर्क .......


संभवतः अच्छी और बुरी कहानी की परिभाषा एक ही पंक्ति में है ‘’जो कहानी जितनी देर तक मन और दिमाग को घेरे रहे ‘’| जो कहानियाँ मन पर गहरा असर छोडती हैं मस्तिष्क को इतनी रियायत होनी चाहिए कि उन्हें स्मृति में कम से कम एक दिन या उससे अधिक समय तक सहेजकर रख सके |उसे ज़ेहन में टहलने विचरने व घुमड़ने दे |उन पर अन्य किसी रचना का प्रभाव न पड़े |जैसे किसी लज़ीज़ मिठाई के बाद कोई अति साधारण भोज्य पदार्थ मिठाई के स्वाद को घटा देता है ठीक वैसे ही | ऐसी कहानियाँ कम होती हैं |अरसे बाद एक बार फिर जापानी कहानीकार रोयूनोसुके अकूतागावा की कहानी राशोमन ,काप्पा (लघु उपन्यास )और केसा मारितो पढ़े |राशोमन पर आधारित नाट्यालेख का हिन्दी अनुवाद सुप्रसिद्ध लेखक रमेश दवे ने किया है | ये एक विचित्र और अद्भुत कथा है | एक हत्‍या के अलग अलग चश्‍मदीद अपने ढंग से उसकी व्‍याख्‍या करते हैं और उसमें असली हत्‍यारे को तलाशना चुनौती बन गया है।साधारण विषय को अपनी शैली और द्र्शांकन से कैसे अद्भुत बनाया जाता है ये कहानी इस हुनर की गवाह है | जापान के प्रसिद्द फिल्मकार अकीरा कुरोसावा जो अपने समय के सबसे आधुनिक और प्रयोगशील सिनेमा के लिए जाने जाते हैं उन्होंने राशोमन फिल्म भी बनाई जिसे वेनिस के 12 वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टीवल में ‘’बेस्ट फिल्म’’ से नवाज़ा गया| मोपांसा की तरह रियूनोसुके अकुतागावा की म्रत्यु भी 35 वें साल में हो गयी थी | और एक इत्तफाक ये भी है कि अकूतागावा की फिल्म को विश्वव्यापी ख्याति दिलाने वाले फिल्मकार अकीरा कुरोसावा ने भी एक बेहद संभावनाशील फिल्म के फ्लॉप हो जाने के अवसाद में चालीसवें बरस में आत्महत्या की कोशिश की थी लेकिन वो बच गए थे |उसके बाद उन्होंने जो फ़िल्में बनाईं (राशोमोंन सहित) वे विश्वख्यात हुईं अकूतागावा की उक्त तीनों रचनाएं शैली और कथ्य में एक दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं |काप्पा उपन्यास पढ़ते हुए जैसे पाठक एक अनुचर की तरह लेखक के पीछे पीछे चलता जाता है और लेखक कहानी सुनाते हुए अँधेरे में दीपक लेकर एक रास्ता बनाता चलता है जिसपर न जाने कितने भाव ,अनुभूतियाँ और अचेतन जगत की व्याख्याएं (रहस्य) बिखरी पडी हैं |कप्पा एक सत्य कथा है (जिसके अंत में लेखक उसकी सत्यता को सिद्ध करने के लिए उस स्थान का पता भी बताता है जहाँ वो घटती है या घटी ) |ये एक पागलखाने में रह रहे पागल नंबर 23की कहानी है जो अपने कमरे में आने वाले हर ब्यक्ति से बेहद सभ्यता और प्रेम से पेश आता है और फिर अपनी कहानी सुनाना शुरू करता है और अंत तक आते २ ....|पूरी कहानी एक फिल्म की तरह चलती है जिसके अंत में पाठक हतप्रभ रह जाता है |उनकी कहानियों की ये विशेषता है कि उनमे ध्वन्यात्मकता,संवाद व् द्रश्यांकन इतने सजीव है कि लगता है हम कोई रचना पढ़ नहीं बल्कि फिल्म देख रहे हैं |कहानी के अंत में पाठक एक अजीब तरह की बैचेनी महसूस करता है |संसार की क्रूरता और जीवन के इस (अति) यथार्थ वाद की सच्चाई |इसे पढ़ते हुए मार्खेज़ के उपन्यास वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड का एक प्रसंग याद आता है जब ह्त्या होने के बाद खून गलियाँ ,सडक, गलियीरे पार करता हुआ उस आदमी के घर की दहलीज़ पर पहुंचता है जिसकी हत्या हुई थी |उसका इंतज़ार करती माँ को बताता है कि उसका बेटा अब नहीं रहा |’’उपन्यास ‘’काप्पा’’ पढ़ते हुए मुझे चेखव का नाटक वार्ड नंबर सिक्स याद आता रहा |वॉर्ड नंबर सिक्स में अवसाद में घिरे मरीजों का इलाज करते हुए डॉक्टर वास्तविकताओं,षड्यंत्रों आदि से साक्षातकार करते हुए स्वयं अवसादग्रस्त हो जाता है और उसे उसी अस्पताल में पागलों के साथ भरती कर लिया जाता है जबकि कप्पा का नायक स्वयं एक विक्षिप्त मरीज़ है |दौनों ही रचनाओं में कथा के माध्यम से समाज में फ़ैली सड़ी गली मान्यताओं,भ्रष्टाचार ,अन्याय आदि को उजागर किया गया है | बहुत सी असमानताओं के बावजूद दौनों नाटकों की त्रासदी कमोवेश एक ही है |कहीं
कहीं कप्पा उपन्यास का परिवेश और कुछ घटनाएं मार्खेज़ के लीफ स्टॉर्म से भी मिलती जुलती लगती हैं विशेष तौर पर मकोंदो शहर जिसे मार्खेज़ ने अपनी कल्पना से तैयार किया था और उपन्यास में वो खासा जीवंत हो उठा था |यही मकोन्दो बाद में वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड
का सबसे लोकप्रिय कस्बा या शहर बन गया। राशोमन और कप्पा का कस्बा लीफ स्टॉर्म के मकोंदो की तरह एक ढहता हुआ उजाड़ कस्बा है |राशोमन का अर्थ ही जापान की राजधानी क्योटो का विशालतम गेट है जो क्योटो के उजड़ने के साथ ही खँडहर में बदलता गया |कथ्य व परिस्थितियों के बरक्स बिना किसी ''सौन्दर्य और उदारता '' के स्थितियों को नितांत अपने उसी खुरदुरेपन के साथ वर्णित करने वाली कहानियों को रेख्नाकित किया जाए तो इन कहानियों की श्रंखला में प्रियम्बद जी की कहानी ''बूढ़े का उत्सव'' और मनोज रूपड़ा जी की कुछ कहानियाँ याद आती हैं |कहानियाँ सिर्फ मौजूदा हालातों का लेखाजोखा ही नहीं बल्कि ये एतिहासिक दस्तावेज़ भी होती हैं |अकूतागावा सहित तमाम कालजयी लेखकों की कहानियाँ /उपन्यास इसी ज़िंदा इतिहास के साक्ष्य है |मानव की तमाम अच्छाइयों,कमजोरियों,त्रासदियों ,विडम्बनाओं का एक विहंगम परिद्रश्य |

3 जून 2015

From Singapore

एक आदत बन जाने की हद तक किसी जुनून की गिरफ्त में होना वहीं जानते हैं जो उससे गुज़र रहे होते हैं लेकिन उस के बीत जाने के बाद विजय की अनुभूति के वो पल सचमुच अवर्णनीय और अनमोल होते हैं |अभी २ एक उपन्यास ख़त्म किया ''ख़्वाबों की स्वरलिपि और बामन चौराहा '' | शुक्रिया उन सब परिवार जनों का जिन्होंने बेतरतीब दिनचर्या और जिद को शान्ति से बर्दाश्त किया
वागर्थ के मार्च 2015 अंक में कहानी ‘’मशीन’’ प्रकाशित हुई थी जिसका अनुवाद गुजराती पत्रिका ‘’आनंद उपवन’’ (मुम्बई) तथा तेलुगु की प्रसिद्द फिक्शन राईटर श्रीवाल्ली राधिका (हैदराबाद) ने तेलगु में करने की अनुमति माँगी थी |अभी एर्नाकुलम केरला की लेखिका डॉ राधामणि (प्रोफ़ेसर एर्नाकुलम) ने फोन से इसी कहानी के मलयालम अनुवाद की अनुमति चाही है |.प्रिय कहानी के अनुवाद के लिए आप सभी का आभार

26 मई 2015

नया ज्ञानोदय के कथा विशेषांक में प्रकाशित एक कहानी ‘’सहर होगी किसी स्याह रात के बाद’’ को शब्द निष्ठा सम्मान के लिए 84 कहानियों में से श्रेष्ठ 11 कहानियों में चयनित किया गया है |चिकित्सक एवं साहित्यकार डॉ अखिलेश का मेल आज मुझे मिला | 
राशि,श्रेष्ठ कहानियां संकलन में शामिल करने व् प्रमाण पत्र के लिए धन्यवाद डॉ अखिलेश ....(एक छोटी सी खुशी )|

3 मई 2015

सुप्रसिद्ध दार्शनिक किर्केगार्द ने कहा था ‘’लोग सोचने की आज़ादी का इस्तेमाल नहीं करते |इसकी क्षति पूर्ती के लिए वो बोलने की आजादी की दरकार करते हैं ‘’|बिना सोचे विचारे बोलते जाने का शगल..|क्यूँ की सोचने की आजादी एक बौद्धिक और जटिल प्रक्रिया से गुज़रना है जिसके लिए धैर्य और योग्यता की आवश्यकता है जो विद्वजनों की फितरत से खारिज हो चुकी है |लग रहा है कि स्त्री और दलित के ‘’टिकाऊ’’ मुद्दे अब न सिर्फ साहित्य या फिल्मों तक सीमित रह गए हैं बल्कि इन दो दलों की शमशीरें खुले में भी निकल आई हैं सोशल मीडिया जिनका कुरुक्षेत्र बना हुआ है |’’बड़े लेखकों’’ के विचार कितने छोटे हैं इनका खुलासा बनाम पर्दाफ़ाश भी इसी वाक् युद्ध में होता है | स्त्री विमर्शकार जब अतिवादिता और धुरंधर शब्दावलियों के साथ जोशोखरोश से पुरुषों को कोसती हैं जिस भाषा और उलाहनों का इस्तेमाल करती हैं लगता है पूरी दुनिया के मर्द बलात्कारी व् निकृष्ट हैं सिवाय उनके संपर्क क्षेत्र और परिवार के पुरुषों के यही हाल ‘’दलित रईस सर्वहाराओं ‘’ का है | सवाल चाहे कार्ल मार्क्स का हो या आंबेडकर का किसी ने भी कहीं भी ये नहीं कहा है कि किसी से नफरत करो |उनका जोर घ्रणा पर नहीं समानता लाने पर था जिसे आज नफरतों के खांचों में बाँट दिया गया है |
(१)-सवर्णों विशेष तौर पर ब्राह्मणों को गरियाना आज बहुत आम हो गया है |बलात्कार हों,भ्रष्टाचार हो, अन्याय या राष्ट्रीय नीतियों का कोई मसला हो ,महंगाई ,आतंकवाद ..हर बुराई के ज़िम्मेदार ब्राहमण वाद |ज़ाहिर है की दलित लेखक इस मुद्दे को गरमाए रखने में विशेष दिलचस्पी रखते हैं |ये वही ‘’दलित’’ हैं जिनकी विदेश में खींची गयी तस्वीरें और शानदार रईसी रहन सहन आये दिन सोशल मीडिया की ‘’शान ‘’ बनता है | तब उनके वर्ण व्यवस्था के (हितैषी) सेना के सिपाही दलितों की समस्या को भूल उनके इस ‘चमत्कार’ के महिमामंडन में मसरूफ रहते हैं |
(२)- महंगाई,भ्रष्टाचार ,आतंकवाद आदि से दुखी और भुक्तभोगी क्या सिर्फ दलित समाज है अन्य जातियां नहीं ? क्या बलात्कार ,चोरियां,आतंक वादी गतिविधियाँ सिर्फ दलितों के साथ होती हैं ?
(३)-जब दलित वर्ग इतना शोषित और दयनीय है तो तथाकथित ब्राह्मण विरोधी व् समर्थ /संपन्न ‘’दलितों’’ ने उनके लिए कोई आर्थिक सहायता मुहैया करवाई है जिससे उनका कल्याण हो सके?
(४)-साक्षरता मिशन के एक कार्यक्रम के तहत जब राजस्थान के गाँवों में दौरे किये  और मुफ्त शिक्षा अपने बच्चों व् महिलाओं को देने की योजना के बारे में बताया तो सभी दलित बस्तियों के ज्यादातर लोगों ने स्पष्ट मना कर दिया कि हम अपने बच्चों व् महिलाओं को शिक्षा दिलवाना नहीं चाहते | उन्हें अपने बच्चों का बाल मजदूर होना और औरतों का घरों घरों काम करना ज्यादा व् त्वरित फायदेमंद लगा ताकि उन निठल्ले पुरुषों के मदिरा सेवन की व्यवस्था सुचारु चलती रहे |
(५)-उसी गाँव की सरपंच दलित महिला थी जो अनपढ़ थी जिसका पति उसके काम काज करता था |उस गाँव में दिशा मैदान के दौरान महिलाओं के साथ दुर्घटनाओं के कई केस थे लेकिन एक दलित परिवार की सरपंच होते हुए उसने महिलाओं के लिए शौच की कोई व्यवस्था नहीं की बल्कि उस गाँव में बी पी एल की भी बहुत धांधली थी |जबकि सरपंच की उस आलीशान हवेली में (लोगों के बताये अनुसार) तीन संडास थे

(४)- आरक्षण व्यवस्था को एक अरसा बीत चुका क्या उसका कोई सकारात्मक या उल्लेखनीय प्रभाव देखने को मिल रहा है ? दुसरे शब्दों में उक्त प्राप्य सुविधा के कोई रेखांकित करने योग्य परिणाम? 

15 अप्रैल 2015

‘’दी हाइब’’ ‘द फेमिली व्  ‘’मिसिज़ काल्डवेल स्पीक्स टू हर सन ‘’जैसे विश्व प्रसिद्द स्पेन के उपन्यासकार एवं नोबेल पुरस्कार विजेता (1989 ) कामिलो खोसे सेला द्वारा लिखित ‘’पास्कुआल दुआर्ते का परिवार’’ आज पढकर पूरा किया |यद्यपि ये उपन्यास मूलतः पास्कुआल और उनके परिवार के आसपास घूमता है लेकिन उसमे समकालीन स्पेनी समाज के संघर्ष  , सामाजिक भयावहता और निष्ठुर यथार्थवाद का जीवंत और मार्मिक वर्णन किया गया है| ये उपन्यास तात्कालीन समय के फ्रांको-शासन की चमचमाती छवि के नेपथ्य में  आम जनता के निष्ठुर यथार्थ का खुलासा है |किसी उपन्यास में विस्तार (Details) की क्या अहमियत होती है ये उपन्यास बहुत बारीकी से दर्शाता है | राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उक्त उपन्यास का हिन्दी अनुवाद पाठक द्वारा उपन्यासकार के मर्म को गहराई तक समझ लेने में काफी हद तक मददगार है | 

11 अप्रैल 2015

पढने का शौक पुराना है लेकिन पिछले तीन चार वर्षों में सुनियोजित तरीके से एक ब्यवस्थित और कुछ ज्यादा गंभीरता से किताबें पढने का जूनून सवार हुआ | निस्संदेह अनुकूल अवसर भी मिले जिनमे कुछ कवितायेँ ,लेख ,यात्रा वृत्तांत लेकिन सबसे ज्यादा कहानियाँ थीं और बहुत कम उपन्यास भी |शुरू में जो रचनाएं बाँध लेती थीं उन्हें पूरा पढ़ते थे और जिनमे कुछ बिखराव सा लगता या कमज़ोर विषयवस्तु को खींचते जाना अथवा अपने शिल्प या कथ्य के ‘’चमत्कारों’’ की उबाऊ बोझिलता के कारन उन्हें दोचार पंक्ति या प्रष्ट पढ़कर बंद कर दिया करते थे लेकिन अब जब पाठकीय परिपक्वता और लेश मात्र प्रतिबद्धता भी बढ़ी तो रचना ‘’हर स्थिति में ‘’ पूरा पढने की क्षमता को दुरुस्त किया ये सोचते हुए कि शास्त्रीय संगीत या उत्कृष्ट कला के अच्छे श्रोता/पारखी बनने की तरह अच्छे साहित्य के गंभीर पाठक होना भी एक तैयारी है एक 'महारथ ' है और उसमे दक्षता की दिशा में बढना चाहिए |कभी २ कोई रचना बीच में बिखरकर अंत में रोचक हो जाती थी ये अनुभव भी तभी हुए | जितना भी पढ़ा (जिसमे क्षेत्रीय से लेकर विदेशी साहित्य तक था लेकिन बात यहाँ सिर्फ हिन्दी साहित्य तक सीमित हैं )उनमे शिल्प /प्रवाह रोचकता तो सब शानदार थी लेकिन एक सोद्देश्यता या पाठकीय द्रष्टि से विषय वैविध्य का बेहद अभाव लगा |वही दो चार विषय ...जिन्हें विमर्श कहकर और अंडर लाइन यानी रेखांकित कर दिया गया और तमाम साहित्य शिल्पगत चमत्कारों और अतिरेकपूर्ण घटनाक्रम के साथ इसी के इर्द गिर्द घूमता नज़र आने लगा |क्या साहित्य की ये दिशा टीवी धारावाहिकों या फ़िल्मी लोकप्रियता के प्रभाव का परिणाम है?हमारे यहाँ कहानियों का इतना सीमित विषयगत दायरा क्यूँ है ? जब साहित्य समाज ,परिवेश,दुनिया,जीवन, म्रत्यु ,दर्शन जैसी सैंकड़ों विविधताओं की पड़ताल कर सकता है (कालजयी साहित्य इसका साक्ष्य है )फिर सिर्फ गिने चुने विषय ही क्यूँ ?साहित्यिक परिद्रश्य पटल पर दर्शन,ह्यूमेन सायकोलोजी ,या चाइल्ड सायकोलोजी , बाल मजदूर, वृद्धावस्था या ओल्ड एज होम की बढ़ती तादादें और वहां रहने वाले वृद्धों की कहानियाँ ,पर्यावरण ,खेल ,शिक्षा आदि क्यूँ नहीं ?पंकज विष्ट,संजीव , रस्किन बोंड ,मन्नू भंडारी ,निर्मल वर्मा आदि जैसे हिन्दी के कुछ उत्कृष्ट रचनाकारों ने हालाकि लीक से अलग हटकर कुछ विषयों का चुनाव किया है जो सराहनीय और आशान्वित करने वाला है लेकिन समकालीन बहुसंख्यक रचनाएं अभी कुछ ख़ास विषयों पर ही लिखी जा रही हैं जिनमे जटिल यथार्थवादी समस्याएं व् पीडाएं प्रमुखता में हैं और उनके समाधान या सकारात्मक भविष्य की और यहाँ कुछ कम तरजीह दी जा रही है |कहीं सामाजिक ,राजनैतिक आर्थिक आदि विसंगतियों व् अराजकताओं को भोगते हुए हम नकारात्मक और हताश तो नहीं होते जा रहे ? मारियो वर्गास ल्योसा का कथन यहाँ प्रासंगिक लगता है ‘’मैंने एक ऐसे समान्तर जीवन का निर्माण किया जहाँ हम बुरे वक़्त में शरण ले सकते हैं |जिससे हम असाधारण को सामान्य और साधारण को विलक्षण बना सकते हैं |’’

24 फ़रवरी 2015

एक बड़ी उपलब्धि

अर्चना वर्मा दी की वॉल से साभार 


कथादेश और सर्नुनोस का सहयोगी उपक्रम 
रहस्य-कल्पना कथा-प्रतियोगिता 2014 – 2015 
परिणाम
रहस्य-कल्पना की निम्नलिखित सात कहानियाँ अंग्रेजी और फ़्रेंच में अनुवाद और संकलन के लिये चुनी गयी हैँ। प्रतियोगिता में पुरस्कारों की घोषित संख्या दस थी लेकिन हमारा प्राथमिक सरोकार ऐसी कहानियों के चुनाव का था जिन्हें अंग्रेजी और फ़्रेंच पाठक समुदाय के समक्ष विश्वरस्तर से प्रतिस्पर्धापूर्वक प्रस्तुत किया जा सके। यही कारण है कि चुनी हुई कहानियोँ की संख्या को हम दस तक नहीं पहुँचा सके।
ये सभी कहानियाँ अनुवाद और संकलन के लिये चुनी गयी हैँ। इस चुनाव में प्रथम द्वितीय जैसा कोई वरीयता क्रम नहीं है। वे यहाँ लेखकों के नाम के अकारादिक्रम से दर्ज की जा रही हैँ।
प्रत्येक कहानी के लिये पुरस्कार राशि 25000/= है। इस सन्दर्भ में जल्दी ही कथादेश की ओर से विजेताओं से सम्पर्क किया जायेगा।
विजेताओं को बधाई.
1. दिलीप शाक्य – प्रोफ़ेसर 800
2. निवेदिता जेना – बिसात पर सजी मोहरें
3. प्रतिभू बनर्जी – वास्को डि गामा गली
4. प्रेमचंद गाँधी – सुकून भी जुनून भी
5. भालचंद्र जोशी – आने वाले कल का खूनी रहस्य
6. वन्दना शुक्ल – अपने होने के विरुद्ध
7. विवेक मिश्र – कारा

27 जनवरी 2015

जीवट की अद्भुत मिसाल -ओपरा विनफ्रे
एक स्त्री को कितने कष्ट कितने अपमान और दुःख मिल सकते हैं और कैसे वो स्त्री गहन अवसाद से स्वयं बाहर आकर दुनिया में आध्यात्मिक ,सामाजिक और आर्थिक रूप से नारी जगत में एक अद्भुत मिसाल बन सकती है ये ओपरा विनफ्रे के जीवन को पढ़कर जाना जा सकता है |62 वर्षीय ओपरा का जन्म मिसीसिपी अमेरिका में हुआ |पांच वर्ष की आयु में ही माता पिता में तलाक हो गया और दौनों ने ही ओपरा को त्याग दिया तब उस पांच वर्ष की बच्ची का पालन पोषण उसके दादी दादी ने किया |युवा होने पर उनकी माँ उन्हें अपने साथ ले गईं लेकिन वहां उन्ही के ख़ास रिश्तेदारों ने उनका यौन शोषण किया |तब वहां से भागकर वो अपने पिता के पास चली गईं |पिता को उन की इस स्थिति को देखकर बेहद दुःख हुआ |वो अनुशासन प्रिय और मितभाषी थे |उन्होंने ओपरा को बहुत समझाने की चेष्टा की लेकिन स्थिति तब तक काफी खराब हो चुकी थी | ओपरा की कुंठाओं और नाजायज़ रूप से गर्भ धारण करने के अवसाद ने उनका जीवन छिन्न भिन्न कर दिया |उनके असंतुलित और अराजक बचपन जिसे वो भूल नहीं पाई और जिसकी बदौलत वे मादक पदार्थों के सेवन की आदी हो गईं |विद्रोह और क्रोध उनके स्वभाव में आ गए |पिता के लिए उनकी बेटी का ये स्वभाव व् आदतें असहनीय और तकलीफदेह थीं |तब उन्होंने ओपरा को पढाई के लिए समझाया और कॉलेज में दाखिला दिलवाया |उन्हें भरपूर स्नेह दिया |स्नातक की डिग्री मिलने के बाद वे पत्रकारिता में रूचि लेने लगीं|इस नाजुक मोड़ पर पिता उनके भावनात्मक संबल बने |नतीजतन ओपरा का ध्यान कुछ सार्थक और सकारातमक दिशा की और मुड़ने लगा | वे मीडिया से जुड़ गईं और 19 वर्ष की आयु में अमरीका में टी वी पर काम करने वाली पहली अश्वेत महिला बनी |उनकी प्रसिद्धि शिकागो के एक टी वी शो’’एम् शिकागो’’ नामक कार्यक्रम से हुई |ये टी वी शो टी वी के इतिहास के सफलतम तथा उत्कृष्ट टॉक शो के नाम से प्रसिद्द हुआ |इस शो की खासियत ये थी की इसमें ओपरा अपने दिल की बात करती हैं और लोगों को परामर्श देती हैं |उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा |वे सफल अभिनेत्री ,’’ओ , द ओपरा मैगजीन ‘’ की संस्थापक और मीडिया पत्रकार हुईं |सामाजिक कार्यकर्ता और लोगों के जीवन को दिशा देने संबंधी कार्यों के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया सम्मान दिए गए |फ़ोर्ब्स के धनी व्यक्तियों की सूची में उनका नाम भी है | ओपरा के इस जीवन चक्र में कुछ ख़ास बातें हैं जैसे उनकी माँ जो स्त्री वो भी माँ होते हुए भी फिर कभी उनकी ज़िंदगी में वापस नहीं आईं |जब की ओपरा की इन तमाम उपलब्धियों की मूल वजह उनके पिता थे जो इसी सार्वभौमिक पित्र्सत्तात्मक्ता की पैदाइश थे |इस जीवनी में चाहे पिता का रोल हो या बेटी ओपरा का सिद्ध यही होता है की ऐसे प्रकरण अपवाद कतई नहीं होते

19 जनवरी 2015

साहित्य में ‘विमर्शों ‘’ की प्रासंगिकता


सबसे पहला प्रश्न विमर्श क्या और क्यूँ |विमर्श का अर्थ सरोकार से लिया जाए या मूल्यांकन से ? क्या हर नारीवादी या स्त्री विषयक लेखन विमर्श की श्रेणी में आता है? यौनिकता बनाम नारी देह से शुरू हो अंतत नारी शुचिता के नारों पर समाप्त हो जाना ही सरोकारों के उद्देश्यों की इतिश्री मानी जाए ? क्या दलित साहित्य का अर्थ सिर्फ इस वर्ग का एतिहासिक शोषण और उसके कारणों का लेखा जोखा या वस्तुस्थिति का मुजाहिरा अथवा उनके प्रति दया ,क्षुब्धता अथवा आक्रोश ही है? यदि हम अपने साहित्यिक पुरोधाओं के इस कथन से इत्तिफाक रखते हैं कि ‘’हर अच्छी रचना एक हस्तक्षेप होती है’’ तो विमर्शों की प्रासंगिकता बनाम आवश्यकता पर एक बार पुनर्विचार करना होगा बशर्ते कि हम ‘’अच्छी रचना’’ को सही सही परिभाषित ही नहीं मूल्यांकित भी कर पायें |प्रकारांत में विमर्श का अस्तित्व प्रथकता की मनोवृत्ति दर्शाता है | एकरूपता को खारिज कर स्व-विखंडन की प्रवृत्ति की स्वीकारोक्ति | यद्यपि मौजूदा साहित्य समाज की विकृतियों मनोविकारों व् जटिलताओं का काफी हद तक एक सटीक खाका खींचता है |गंभीर मुद्दे उठाये जा रहे हैं ,प्रतीकों व् ब्योरों द्वारा अभूतपूर्व रूप से स्थितियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया जा रहा है |निस्संदेह इसमें इलेक्ट्रोनिक मीडिया व् उपकरणों का भरपूर स्तेमाल और सहयोग है और ये भी सच है कि इन उपकरणों व् मीडिया से अनेकानेक लाभ और सुविधाएं अर्जित की जा रही हैं ,ज्ञान है सूचनाएं व् जानकारियाँ हैं लेकिन इन्होने कहीं न कहीं व्यक्ति को विचार-पंगु बनाने का कार्य भी किया है | प्रायः स्त्री विमर्श कर्ता विशेषतः स्त्री पुरोधाओं के लेखन में पुरुषों व् दलित  लेखन के तहत सवर्णों को कटघरे में खड़ा किया जाता है लेकिन यदि कोई सवर्ण दलित विषयक रचना अथवा कोई पुरुष स्त्री की दशा से सम्बंधित रचना लिखता है तो उसे किस भाव में लिया जाएगा ? केदारनाथ सिंह जी ने एक साक्षात्कार में कहा है ‘’विमर्श के कारन जो सबसे ज्यादा क्षति हुई उसको अनुभव करने वाला समाज फ्रांस का समाज है वहां इतने ज्यादा विमर्श हुए हैं कि कविता में प्राणवंत लेखन लगभग दब सा गया है |उनकी ये चिंता भी वाजिब है कि आज समाज व् साहित्य में जनांदोलन क्यूँ नहीं पैदा हो रहे हैं इस पर विचार करना चाहिए|’’
बाल विमर्श का विकल्प ‘’स्लम डॉग मिलेनियम’’ जैसी फ़िल्में या बाल बंधकों /मजदूरों से सम्बंधित डॉक्युमेंट्री नहीं हो सकतीं ये तो सिर्फ इस एक वास्तविकता की पटकथा का चित्रण हैं | हमारे फेसबुक मित्र महेश पुनेठा जी ने जिस दीवार पत्रिका का श्री गणेश किया है और हमारे कई मित्र उसमे रूचि ले रहे हैं ये संभवतः कागजी विमर्शों से अधिक लाभप्रद और असरदार कोशिशें हैं | जहाँ तक स्त्री की आजादी की बात है उसकी पारिवारिक,सामाजिक, राजनैतिक अधिकारों की स्थिति पहले से बेहतर लेकिन आज भी काफी असंतोषजनक है और निस्संदेह साहित्य में स्त्री विषयक जिन चिंताओं व् उसकी पीडाओं को केंद्र में रखा जाता रहा है वास्तविक स्थिति आज संभवतः उससे भी भयावह है लेकिन क्या साहित्य का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि हम स्त्री की दिशा को नज़रअंदाज कर सिर्फ उसकी दशा का सही २ और मार्मिक वर्णन कर दें व्  पुरस्कार सम्मानों के हकदार मान लिए जाएँ ? आज बहुत कम किताबें ऐसी पढने को मिल रही हैं जिनमे स्त्री के भविष्य की चिंता के साथ उसकी जटिल स्थितियों के संभावित समाधान को भी जोड़ा गया है | क्या ज़रूरी है कि स्त्री किसी रचना में सिर्फ प्रताडिता के रूप में ही हो ? क्या हमारी रचनाएं आने वाले समय की धमक सुन पा रही हैं ?