जातक कथाओं की तरह
थी उस दरख्त की तमाम कहानियाँ
उस बीहड़ जंगल का
सबसे बूढा किस्सागो था वो
अनगिनत कहानियाँ
फूटती थीं उसकी शाखाओं से
असंख्य कहानियाँ वो
बनाता था अपने बीजों में
अभी कल तक वो पेड़
अपनी उम्र से ज्यादा घना हो रहा था
जबकि उसे ‘’पीडीगत
लिहाज ‘’में हो जाना चाहिए था
सूखकर ठूंठ ,उसकी
आँखों को उतार देना चाहिए था
रंगीन चश्मे और
बेदखल कर देना था खुशबुओं को
अपने बुज़ुर्गियाना लिहाज़
से ,
छोड़ देना था अपना
तख्तोताज़ जंगल के राजा का
पर
फ़ैल रही थीं उसकी
शाखाएं दिशाओं के बाहर
अधीनस्थ झाड झंकाड
और खरपतवारों को
सैंकड़ों खामियां नज़र
आ रही थीं उसमे
चीख चीख कर बगावत को
उछाल रहे थे वो उसकी जानिब
पर मौसम अब भी उसी
के आसपास मंडराते थे
धूप बारिश,वसंत जाड़े
की ठिठुरन
वो जूझता रहा उनसे
प्यार और तकलीफ से
उसकी एक शाखा पर लगा
घोसला तो
कब का उजाड़ हो चुका
था जिसे
कहा जाता था कि बचा
कर नहीं रख पाया वो बूढा दरख्त ,पर
पूरे जंगल की तमाम
चिड़ियाँ बाज कौए आ आकर बैठते थे
उसकी शाखाओं पर और
पाते आश्रय
शाम को उसकी सल्तनत
में मच जाता शोर
चीखते कोसते
चुहलबाजिया करते पक्षी
अपनी नुकीली चोंच और
तीखे पंजों को
गड़ाते उसकी संतप्त
आत्मा पर
उसी की डाल पर बैठे
हुए |
वो अपनी तमाम
बुजुर्गियत ,पीडाएं ,दुःख समेटे
चुपचाप सुनता रहता
उनका रोष
एक दिन जब उसे छोड़कर
तनहा
एक एक कर सारे पक्षी
उड़ गए बगलगीर दरख्त पर
सो गए जाकर
वो बूढा पेड़ अपनी
आत्मा पर सैंकड़ों तोहमतें
अपमान और पीडाएं
लपेटकर
छोड़ कर अपनी जड़ें गिर गया ज़मीन पर
और अपने पीछे हज़ारों
चीखें चिल्लाहटें
शोर और प्रेम की कहानिया
छोड़ता गया ,कहानी की
शक्ल में
....अब उसके ज़मींदोज़
जिस्म की शाखाओं पर
बैठे वही पक्षी जो
उसे चले गए थे छोड़कर
बहा रहे हैं जार जार
आंसू
पढ़ रहे हैं कसीदे
...
जिसकी कभी दरकार
नहीं रही उस बूढ़े पेड़ को
अपनी सदाशयता की तरह