28 अक्तूबर 2013

राजेंन्द्र यादव के लिए


जातक कथाओं की तरह थी उस दरख्त की तमाम कहानियाँ  
उस बीहड़ जंगल का सबसे बूढा किस्सागो था वो
अनगिनत कहानियाँ फूटती थीं उसकी शाखाओं से
असंख्य कहानियाँ वो बनाता था अपने बीजों में
अभी कल तक वो पेड़ अपनी उम्र से ज्यादा घना हो रहा था
जबकि उसे ‘’पीडीगत लिहाज ‘’में हो जाना चाहिए था
सूखकर ठूंठ ,उसकी आँखों को उतार देना चाहिए था
रंगीन चश्मे और बेदखल कर देना था खुशबुओं को
अपने बुज़ुर्गियाना लिहाज़ से  ,
छोड़ देना था अपना तख्तोताज़ जंगल के राजा का
पर  
फ़ैल रही थीं उसकी शाखाएं दिशाओं के बाहर
अधीनस्थ झाड झंकाड और खरपतवारों को  
सैंकड़ों खामियां नज़र आ रही थीं उसमे
चीख चीख कर बगावत को उछाल रहे थे वो उसकी जानिब  
पर मौसम अब भी उसी के आसपास मंडराते थे
धूप बारिश,वसंत जाड़े की ठिठुरन
वो जूझता रहा उनसे प्यार और तकलीफ से
उसकी एक शाखा पर लगा घोसला तो
कब का उजाड़ हो चुका था जिसे
कहा जाता था कि बचा कर नहीं रख पाया वो बूढा दरख्त ,पर
पूरे जंगल की तमाम चिड़ियाँ बाज कौए आ आकर बैठते थे  
उसकी शाखाओं पर और पाते आश्रय
शाम को उसकी सल्तनत में मच जाता शोर
चीखते कोसते चुहलबाजिया करते पक्षी
अपनी नुकीली चोंच और तीखे पंजों को
गड़ाते उसकी संतप्त आत्मा पर
उसी की डाल पर बैठे हुए |
वो अपनी तमाम बुजुर्गियत ,पीडाएं ,दुःख समेटे
चुपचाप सुनता रहता उनका रोष   
एक दिन जब उसे छोड़कर तनहा
एक एक कर सारे पक्षी उड़ गए बगलगीर दरख्त पर  
सो गए जाकर
वो बूढा पेड़ अपनी आत्मा पर सैंकड़ों तोहमतें
अपमान और पीडाएं लपेटकर
 छोड़ कर अपनी जड़ें गिर गया ज़मीन पर
और अपने पीछे हज़ारों  
चीखें चिल्लाहटें शोर और प्रेम की कहानिया
छोड़ता गया ,कहानी की शक्ल में
....अब उसके ज़मींदोज़ जिस्म की शाखाओं पर
बैठे वही पक्षी जो उसे चले गए थे छोड़कर
बहा रहे हैं जार जार आंसू
पढ़ रहे हैं कसीदे ...
जिसकी कभी दरकार नहीं रही उस बूढ़े पेड़ को
अपनी सदाशयता की तरह  




क्यूँ नहीं ...!
क्यूँ नहीं होता कोई ऐसा ज़िंदगी में
जो कहीं नहीं होता पर
होता है हमारी यादों में सबसे ज्यादा  
भटकता रहता है गलियारों में आत्मा की
और हम ये दावा भी नहीं कर पाते
कि देखो

प्यार का चेहरा ऐसा होता है !

27 अक्तूबर 2013

मेरा शहर

भोपाल ने कई दौर देखे
कभी यहाँ की बेगमें मशहूर थीं
परी बाज़ार इन्हीं बेगमों का
शोपिंग सेंटर हुआ करता था
पूरे बाज़ार में विक्रेता होतीं औरतें ही ,
काले बुर्कों में से नहीं दिखाई देते थे जिनके आंसू
ना ही चेहरे के दाग ...
नवाबों की दूसरी तीसरी बीवियां
सात पर्दों में बंद आतीं बग्घियों से  
बग्घियों की मतवाली चाल से
खौफ खाते थे रास्ते ...और हो जाते सूने जब
बेगमें निकलतीं शहर में तफरी करने
अपनी शानदार बंद 
बग्ग्घियों में बैठकर
शहर के परकोटे
बड़ी राहत थे नवाबों की फ़िक्रों के
परकोटों के ढह जाते ही
दुबक गईं बेगमे महलों में
और फिर
ये दौर भी ख़त्म हुआ
होटलों का भी अपना अलग ही ज़माना और मज़ा था
‘’को खां भोपाल गए तो ‘मदीना’ की बिरयानी खाई के नईं  
नईं?.....
लाहौल विला कुव्वत ..तो क्या मियाँ ख़ाक छानी आपने
भोपाल जाक़े जो ‘मदीने’ का गोश्त नहीं चखा ?’’
पीर गेट पर हमेशा जाम लगा रहता गाड़ियों का
क्यूँ की अफगान होटल पर खाते थे लोग
बिरयानी बीच सडक तक खड़े होके,उंगलियाँ चाटते
फिर ज़माना बदला और न्यू मार्केट में
हकीम होटल की कहानियाँ चलने लगीं
धीरे से वहीं रोशन पूरा में उग आई
‘’बापू की कुटीया ‘’बापू यानी
गांधीजी ...तब के जब वे
गोश्त खाना छोड़ शुद्ध शाकाहारी हो गए थे
अब तो भोपाल में  
लज़ीज़ चाइनीज़ और थाई फ़ूड मिलने लगे  
आमेर बेकरी जैसे सेंटर खुल गए जहाँ
मॉडर्न लड़के लडकियां देर रात तक
लज़ीज़ खाने का मज़ा लेते हैं ...
न्यू मार्केट में टॉप एन टाउन में बारहों महीने
किस्म किस्म की आइसक्रीम मिलती है  
यहीं पर पुराने के नाम पर बची है तो एक दूकान
और दूकान के सामने चूना चाटते हुए निखालिस भोपाली
चौरसिया का ‘’ब्रजवासी पान भण्डार’’
परकोटों की अदब तालीम के ज़माने गए

न रहा अब मुर्गे लड़ाने का दौर ना इज्तिमा के मेले में वो मज़ा
अब तो खुले चौड़े मैदान है जिनके सिरे नहीं दीखते |










25 अक्तूबर 2013

स्म्रतियां
यादें
जीवन के नन्हें शिशु हैं
उम्र के साथ बढती जाती है
उनमें नमी
जैसे दरख्त की सबसे ऊंची पत्ती में
 आसमान भरता जाता है
जैसे खीसे में चिल्लर का भार
या आँखों में पानी की तहें
या बादलों में हरापन ...
यादों में घर होते हैं और
कई बार कई कई घरों में रहते हैं हम
एक साथ
घर बदलने का मतलब
सारी दुनियां का बदल जाना है
कुछ यादों से वक़्त खरोंच लेता है उनके रंग 
 कई यादों को पहचान पाते हैं हम
उनकी हंसी या गीलेपन से
 कई चेहरे ऐसे भी होते हैं जो
छिपा जाते हैं

अपना रोना हमारी स्म्रतियों में