दुःख और पीड़ा ऐसे
शब्द हैं जो भौगोलिक सीमाओं में यकीन नहीं करते |संवेदनाएं और वेदनाएं सार्वभौमिक
सत्य हैं | दुःख /पीड़ा पूरे संसार में एक सी होती है |कोई मुल्क ये दावा नहीं कर
सकता कि हमारे यहाँ दुःख और पीडाएं फलां देश से कम हैं क्यूँ कि हम आधुनिक और विकसित
राष्ट्र हैं |गौरतलब है कि चीन में कुछ महीनों पहले तक एक संतान का नियम था |दो
संतान होने पर कड़ी सज़ा का प्रावधान था| इस संवैधानिक क़ानून ने वहां के सामाजिक
जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया था |कई पारिवारिक विडम्बनाओं/विसंगतियों ने लोगों को
जीने /मरने की स्थिति तक ला दिया | पुलिस की बर्बरता की इंतिहा हो गयी |कई नागरिक
दो बच्चे होने पर भय से सिंगापूर मलेशिया जैसे देशों में पलायन कर गए | एक औरत जिसके पति ने अपने इकलौते तीन वर्षीय बेटे
को धन के लालच में चीन में ही किसी को बेच दिया और भाग गया था |औरत अच्छी खासी
नौकरी छोड़कर पुत्र की तलाश में जुट गयी |शहरों,पुलिस दफ्तरों के चक्कर,शरणार्थी
शिविरों, अनाथालयों में मारी मारी फिरी और दाने दाने को मोहताज़ हो गयी |अंततः जब
ग्यारह वर्षों बाद उसका बेटा पुलिस द्वारा खोज लिया गया और उसे सौंपा गया तब उस नौजवान हो चुके बेटे ने माँ के साथ रहने
से इनकार कर दिया क्यूँ कि उसे जहाँ बेचा गया था वो एक रईस परिवार था सर्व
सुविधाओं सुविधाओं संपन्न |अतः अपनी भिखारिन माँ के साथ रहना बेटे ने खारिज कर
दिया | इस घटना का अंत ज्यादा त्रासद लगा
जब उस माँ ने बेटे की इच्छा को सर्वोपरि रखते हुए खुशी २ बेटे को अपने घर से विदा
किया और अब वो पूर्णतः संतुष्ट थी |वापस अपनी पुरानी नौकरी के लिए उसने आवेदन किया
| (मेरी ये कहानी ‘’माँ’’ चीन के एक परिवार की इसी घटना पर आधारित है जो कुछ
महीनों पहले ‘’पाखी’’ में प्रकाशित हुई थी )कल खबर देखी कि चीन से अंतत ये क़ानून
हटा लिए गया है | खुशी हुई ...
30 अक्तूबर 2015
21 अक्तूबर 2015
इंसानों की दुनिया
में ‘’भूलना’’ एक स्वाभाविक और सतत क्रिया है जिसे मनोवैज्ञानिक लाभप्रद और अति
आवशयक मानते हैं |यदि भूलेंगे नहीं तो स्म्रतियों की परतें दिमाग में जमती जायेंगी
और आदमी विक्षिप्त हो जाएगा | ग्रेगर सेम्सा बन जाएगा |लेकिन कुछ मामलों में लगता
है दुनिया में जितनी अराजकता ,हिंसा ,क्रूरता ,त्रासदियाँ हैं , वो सब ‘’भूलते
जाने’’ के ही कुपरिणाम हैं | पिछली सदी का सर्वाधिक जघन्य हत्याकांड निठारी ,भोपाल
गैस त्रासदी ,उसके बाद निर्भया, फिर दो बहनों को मारकर पेड़ पर लटकाना, आरुशी और
शीना (इन्द्रानी मुखर्जी ) काण्ड ,अख़लाक़ की हत्या,पत्रकारों, वामपंथियों की ह्त्या
, आज मासूमोको जलाकर मार देने की घटना ...| क्या हमने पिछली इन घटनाओं में जो रोष
दिखाया था , विरोध में तमाम आन्दोलन किये,मोमबत्तियां लेकर जुलूस निकाला ,उन
हत्यारों ,दरिंदों का क्या हुआ जानने की कोशिश की ? कहीं कोट करने के लिए या किसी
आलेख में विषय आ जाने पर उदाहरण स्वरुप भले ही उन त्रासदियों को स्मरण कर लिया जाए
लेकिन घटना के वक्त हम जो उद्वेलित और क्रोधित हुए थे क्या उन घटनाओं के प्रति अब
भी वो तीव्रता बाकी है ?ध्यातत्व है कि हमारी लचर क़ानून व्यवस्था, पुलिस व्
नेतागणों सहित उन गुनाहगारों ने हमारी इस सायास भूल जाने की आदत का भरपूर लाभ
उठाया है |
18 अक्तूबर 2015
पुरस्कार लौटाने की एतिहासिक मुहीम ...आखिर कितनी कारगर ?
एक मित्र ने लिखा है
कि इतने बड़े विरोध के बावजूद समाज या देश में कोई हलचल नहीं | मेरा मानना है कि समाज
में हलचल न होने की कुछ ख़ास वजहें हैं पहली और मुख्य वजह ये हैं कि अहिंसा परमधर्म
सूक्ति वाक्य के इस देश में अब हिंसा एक बहुत सामान्य सी घटना हो गयी है
|उल्लेखनीय यहाँ का चौंकाऊ व विरोधाभासी इतिहास है जहाँ उपदेशक और मानववादी चिन्तक
,या एक धर्म जोर से बोलने तक को हिंसा मानता है वहीं अन्य धर्म में हिंसा उनकी
कट्टरपंथी मान्यताओं को मानने (मनवाने) का एक औजार रहा है |
(२) दूसरी वजह यह है
कि लगभग डेड अरब और दुनियां के सबसे विशाल लोकतंत्र के इस देश में सारा संकट
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से उत्पन्न हुआ है | तथाकथित लोकतंत्र अपनी आज़ादी की
हदें भूल चूका है |वस्तुतः देश के बाहुबली नेताओं,अलगाववादियों, कट्टर पंथियों आदि
द्वारा लोकतंत्र का अर्थ ही ये मान लिया गया है कि साम दाम दंड भेद किसी भी माध्यम
से अपनी बात को सर्वोपरि रखना ,भय पैदा करना ,खून खराबे की हद तक आतंक फैला सरकार और
क़ानून से घुटने टिकवा देना ,फतवे जारी करना ,खाप पंचायतों जैसी स्व निर्णायक समाज
द्वारा डंके की चोट पर हिंसा करना और अपनी बात समाज या सरकार से मनवा लेना ही
अभिव्यक्ति की आज़ादी है और ये हम लोकतांत्रिक देश के नागरिकों का जन्म सिद्ध
अधिकार भी है |राजनैतिक आन्दोलन,जातिगत आरक्षण ,नए प्रदेश की मांग रख रहे
असंतुष्टों, माओ वादियों,नक्सलपंथियों, और अभी हाल में ही हार्दिक पटेल जैसे
महत्वाकांक्षियों द्वारा चलाई जा रही बे सिरपैर
की मुहीम ये सब हिंसक मनोवृत्तियाँ इसी मानसिकता को दर्शाती हैं |निस्संदेह
राजनातिक स्वार्थों ने इनमे आग में घी का काम किया है| आपातकाल के तत्कालीन
समर्थक नेताओं द्वारा कहा तो ये भी गया था कि १९७५ के आपातकाल का निर्णय इंदिराजी
द्वारा इसी तथाकथित अभिव्यक्ति की अनियंत्रित आज़ादी को नियंत्रित करने के लिए लिया
गया लेकिन बाद में उसका हिटलरी प्रारूप विस्फोटक हो गया और ये काल भारत के इतिहास
में काले हर्फों में दर्ज हो गया |
(३)- ह्त्या ह्त्या
होती है चाहे वो किसी रंजिश के तहत की जाए ,उसकी वजह राजनैतिक,सामाजिक अथवा आर्थिक
मसलों से प्रेरित हो ,अथवा वामपंथियों,बुद्धिजीवियों यानी साहित्य के कलमकारों के समाज
का कडवा सच लिखने पर की जाए |इस परिप्रेक्ष्य में सच यह है संपन्न या जनसंख्या में
छोटे देशों में जहाँ उसके हर नागरिक की जान बेशकीमती मानी जाती है और अपने
नागरिकों को वो न सिर्फ सुविधाएँ मुहैया कराना बल्कि उनकी जान की रक्षा करना भी
अपना दायित्व मानते हैं वहां इस देश में आलू प्याज,दाल की कीमत पर पूरा राष्ट्र
एकमत हो विरोध करता है लेकिन हत्याएं और उनके विरोध एक गुट में सीमित रहते हैं
|किसी वामपंथी या बुद्धिजीवी की ह्त्या और उनका विरोध होता है वो एक समूह विशेष
में तो ज्वलंत रहता है लेकिन आम आदमी न उसे जानना चाहता न ही उसे इस घटना या विरोध
का पता होता |हिंसक घटनाएँ ,हत्याएं आदि ये चैनल की ‘’आजकी सबसे बड़ी खबर’’
,सम्बंधित पुरोधाओं को बिठाकर बहसें करना या दो चार दिनों के समाचारों से ज्यादा
कुछ नहीं |कुछ ही दिनों में उनकी हेड
लाइंस बदल जाती हैं और उनकी जगह कोई और घटना |
(४)-काल्बुर्गी,पान्सारे जैसे
लोगों की ह्त्या निस्संदेह एक गंभीर और दुर्भाग्यपूर्ण घटना है जिसका विरोध होना
चाहिए और हमारे बुद्धिजीवी पुरस्कार लौटाकर इसका विरोध कर रहे हैं,स्वागतेय है |लेकिन विचारणीय यह है कि आतंक फैलाकर ,दंगें
फसाद और आन्दोलन धरने कर ,बसें जलाकर ,सरकारी इमारतों को ध्वस्त कर अपनी बात सरकार
तक हिंसक तरीकों से पहुंचाने वाली प्रवृत्ति व् माध्यमों के आगे बुद्धिजीवियों का
ये मौन विरोध कितना व् कारगर सिद्ध होगा ?
साहित्य अकादमी की तत्संदर्भित मसले पर उदासीनता निस्संदेह दुर्भाग्यपूर्ण और
कायराना है लेकिन ऐसी हत्याओं के मूल में जो विध्वंसकारी शक्तियां काम कर रही हैं
उनके प्रति विद्रोह क्यूँ नहीं ?क्या भविष्य में ये मुहीम इस तरह की हत्याओं को
रोकने में मददगार सिद्ध होगी ?क्या इसका कोई सार्थक और सकारात्मक प्रभाव और परिणाम
होगा ? साहित्य अकादमी इस मुहीम को गंभीरता से ले और अपने कुछ ठोस निर्णय और इन सच
लिखने वाले लोगों की ह्त्या पर न सिर्फ चिंता व्यक्त करे बल्कि इस दिशा में कुछ
ठोस कार्यवाही करे ,निर्णय ले ये हम सब चाहते हैं विरोध इसी उदासीनता का है लेकिन
हत्याएं जो करवा रहा है और कर रहे हैं उन का इस मुहीम से ह्रदय परिवर्तन होता है ,
पूरे समाज पर इस मुहीम का कोई प्रभाव होता है तभी ये क्रांतिकारी मुहीम सफल और
प्रभावशाली मानी जायेगी अन्यथा इसे मात्र एक प्रचारिक तौर (मंशा) से अधिक कुछ नहीं
कहा जाएगा (जैसी की हमारी मानसिकता हो चुकी है
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