24 नवंबर 2013

विवशता


संबंधों की भीड़ में 
एक अकेली स्मृति
किसी घनेरे दरख्त की
सबसे ऊँची शाख पर अटकी
वो क्षत-विक्षत पतंग
अपने ही वजूद का ढाल बनी
जिद्द का हौसला लिए
जूझ रही है    
तूफानी हवाओं से
बरसाती थपेड़ों से
भदरंग से लेकर
चिंदी चिंदी होने तक ...
अपने अपनों से बहुत दूर तक
उखड़ी सांस को बचाए  
हालाकि
तुम असफल कलाकार निकले
लेकिन
‘’जीवन बचे रहने की कला है’’
सच कहा था तुमने नवीन सागर !

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13 नवंबर 2013

यथार्थवादी कहानी के प्रणेता ....मेक्सिम गोर्की


नोबेल पुरूस्कार तमाम आरोपों विवादों  के बावजूद आज भी विश्व के सर्वोपरि सम्मानीय पुरुस्कार हैं |नोबेल पुरुस्कार प्राप्त अनेक विजेताओं का बचपन और किन्ही किन्ही का तो पूरा जीवन ही कष्टों व् संघर्षों में बीता ,इनमे से कुछ अपनी पारिवारिक प्रष्ठभूमि के कारण संघर्षरत रहे और कुछ तत्कालीन सामाजिक  राजनैतिक विसंगतियों की वजह से इनमे से इम्रे कर्तेज़,गोर्की,मोपांसा आदि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की भयंकर त्रासदी से होकर गुजरे |और जब उसकी असहनीयता और दुर्दशा ने उन्हें विचलित कर दिया यही विचलन उनके उपन्यास कहानियों कविताओं आदि में दरपेश/प्रकट हुआ |साहित्य की अनेक विधाएं ,विचारधाराएँ ,सोच ,विषय अपनी उत्क्रश्तता के शिखर पर सिर्फ एक ही प्रयोजन के फलस्वरूप पहुँचती हैं वो है सम्पूर्ण मानव जाति से सरोकार और संभावनाएं न की अपने समाज अपने देश और अपनी समस्याओं गुण दोषों का प्रकटीकरण रुदन या चिंता (कालजयी साहित्य इसका साक्षी है )|इनमे से कुछ साहित्यकारों का जीवन चरित सुनकर तो आश्चर्य होता है जैसे १९७४ के नोबेल पुरूस्कार विजेता स्वीडिश कवी हैरी मार्टिनसन जिनकी माता अपने पति का देहांत होने के बाद अपने छः बच्चों को बेसहारा छोड़कर अमेरिका चली गईं | हैरी का बचपन अनाथालयों में गुजरा वहीं १९९९ के विजेता जर्मन उपन्यासकार गुंथर ग्रास भी महायुद्ध की घटनाओं के साक्षी रहे उन्होंने अपने कई उपन्यासों में इन्ही त्रासदियों को विषय बनाया |उनका उपन्यास ‘’कैट एंड माउस डॉग ईयर्स आदि हैं |‘’,डॉग इयर्स,तो बिलकुल अनोखा ही उपन्यास है जिसमे कोई एक केन्द्रीय पात्र न होकर सिर्फ आवाजें हैं सपने हैं लेकिन सबसे अधिक प्रसिद्धि उन्हें अपने उपन्यास ‘’दि तिन ड्रम’’ के लिए मिली इसे जर्मनी में एक नया युग आरम्भ करने वाला उपन्यास कहा गया |इसके अलावा पुर्तगाली विजेता कवी/लेखक जोस सारामागो,रूसी साहित्यकार मिखाइल शोलोखोव (१९६५)|यद्यपि संघर्षों से गुजरना और उसी पर रचना करना किसी साहित्यिक सच्चाई या विशेषता /उत्क्रश्तता को नहीं सिद्ध करता |जैसे फ्रांस के रोजे मारते दुगार,चर्चिल आदि लेखक संपन्न परिवारों से वास्ता रखते थे लेकिन इन सभी में जो एक समानता है वो यही है कि इनके सरोकार मानवता के पक्षधर रहे |
मेक्सिम गोर्की जिनका बचपन का नाम अलेक्सेई पेश्कोव था एक मोची के बेटे थे |कहा जाता है की बचपन में वे अपने पिता के साथ मोची का काम सीखा और उन्हें करते देखते रहते थे |उसी बीच में एक कागज पर कलम से कुछ लिखते भी जाते और उसे घर ले जाते |पढने की अटूट इच्छा लिए जब वो सोलह वर्ष की आयु में कजान आये लेकिन जो भविष्य और द्रश्य वो आँखों में भर यहाँ आये थे उनसे बिलकुल उलटा माहौल देखा |और उन्हें यहाँ बेकरी मजदूर और बेहद कठोर जीवन में रहने को विवश होना पड़ा |मेरे विश्व्विद्ध्यालय इन्हीं घटनाओं व् सच्चाइयों से परिपूर्ण एक आत्म कथात्मक उपन्यास है |दरअसल उन्होंने तीन आत्मकथात्मक उपन्यास लिखे जिनमे ‘’माय चाइल्डहुड ,माय यूनिवर्सिटीज़ प्रमुख हैं |इन तीन उपन्यासों में गोर्की का स्वयं का व्यक्तित्व ,तत्कालीन परिस्थितियाँ ,एतिहासिक प्रष्ठभूमि आदि को जानने में मदद मिलती है |यद्यपि ये सारी सामाजिक राजनैतिक आदि घटनाएँ उनके अपने जीवन के आसपास ही घूमती  हैं और उन्हीं से सम्बंधित भी हैं लेकिन ये सिर्फ उनके ‘’आत्मकथा’’ के अलवा भी तमाम आर्थिक सामाजिक राजनीति स्थितियों व् समस्याओं का लेखा जोखा भी हैं जो पाठक की आँखों में एक द्रश्य बंध की तरह खिंचती चली जाती हैं | यही उनकी आत्मकथा की सबसे बड़ी कलात्मक खूबी भी है | ग्रीनवुड.वाल्जाक ,सर वाल्टर स्काट उनके प्रिय लेखक थे गौरतलब है की वो निरंकुश ज़ार का शासन था |जिन क्रांतिकारियों व् जनवादियों ने इसकी खिलाफत की ,उनके अगले दशक में नारोद्वादियों ने उसे एक नई क्रान्ति का रूप दे दिया |नारोद्वादियों की ये विशेषता थी कि वो दबे कुचले सामाजिक और राजनैतिक स्थिति से कमज़ोर किसानों के तरफदार थे और उन्हें आदर्श मानते थे |कहना गलत न होगा की मार्क्सवादी विचारों को इससे मदद मिली ताक़त मिली |अंत में लेनिन के नेतृत्व में ये आन्दोलन विजयी हुआ |गोर्की की रचनाओं की प्रष्ठभूमि भी प्रायः इसी इतिहास के इर्द गिर्द घूमती है और ये नितांत स्वाभाविक भी है |इन् तीनों उपन्यासों में से मेरे विश्वविध्यालय सबसे आख़िरी में लिखा गया तब तक स्थितियां बदल चुकी थीं |क्रांतिकारियों जनवादियों के बाद न्रोद्वादियों का वर्चस्व भी अंतिम सांसें गिन रहा था जिसका स्थान मार्क्सवादी विचारों ने ले लिया था |रूस में एक नए नायक का जनम हो रहा था जिसका ज़िक्र या भूमिका गोर्की अपने उपन्यास द मदर में पहले ही कर चुके थे |कहा जाता है की लेनिन को गोर्की का उपन्यास माँ इतना पसंद था की उन्होंने गोर्की से कहा था की ‘’माँ जैसी कोई चीज़ लिखो और बाद के ये तीनों उपन्यास जैसे लेनिन की इच्छा पूर्ति ही थे |
गोर्की की ‘ द मदर ’’और प्रेमचन्द का ‘’गोदान दौनों अम्र कृतियाँ हैं |माँ अब केवल पालभेंन की ही माँ नहीं थी बल्कि ऐसे असंख्य बेटों की माँ थी जो सत्य की राह पर चलने वाले अहिंसावादी और इमानदार सिपाही रहे |
यद्यपि गोर्की ने भी अपने ‘समय’ की विसंगतियों को अपनी रचनाओं विशेषतौर उन तीन आत्मकथात्मक उपन्यासों के माध्यम से लिखा है लेकिन वो प्रेमचंद और मोपांसा से इन मायनों में अलग कहे जा सकते हैं कि उनकी कहानियों या उपन्यासों में न सिर्फ सर्वहाराओं की दुर्दशा कठिन परिस्थितियों का वर्णन है बल्कि उनकी ठोस वजहें और सामाजिक और व्यक्तिगत स्तरों पर हल करने के नुस्खे भी हैं |इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि गोर्की विचारों व् एक द्रष्टि से भविष्य के प्रति आशावादिता के पक्ष में प्रेमचंद से कुछ आगे की सोचते हैं |संभवतः उनकी इस सोच की एक वजह उनकी मार्क्सवादी विचारधारा भी हो सकती है | इस ‘’आधुनिकता और आशावादिता ‘’ के चलते गोर्की ने सकारात्मक पक्ष की दिशा में जिस पर सर्वाधिक जोर दिया है वो है अपना व्यवहारिक और सैद्धांतिक ज्ञानवर्धन |
गोर्की को पुस्तकें पढने के लिए प्रेरित करने वाला जहाज का एक बावर्ची है ‘’स्मुरी ‘’जिसका ज़िक्र गोर्की ने ‘’जीवन की राहों में ‘’में किया है |वो कहता है ‘’तुम्हे किताबें पढनी चाहियें किताबें फ़िज़ूल की चीज़ नहीं होतीं |उनसे बड़ा साथी और कोई नहीं होता ‘’|वो कहते हैं ‘’किताबों ने मेरे ह्रदय को निखारा ..उन खरोंचों को निकाला जो मेरे ह्रदय पर अपने गहरे निशाँ छोड़ गए थे,अब मुझे लगता है कि दुनियां में मैं अकेला नहीं हूँ मेरे साथ और भी कोई है ‘’|गौरतलब है कि उस समय लोगों को पुस्तकों से अधिक से अधिक दूर रखा जाता था,यह कहकर कि पुस्तकें खतरनाक होती हैं |ये सब अफवाहें जारशाही द्वारा फैलाई जाती थीं इसी से ये साबित होता है की जारशाही साहित्य से कितना घबराती थी (क्रमशः )
वंदना 











5 नवंबर 2013

याद

एक याद चुपचाप गिरती रही
बारिश की तरह रात भर
भीगते रहे तमाम द्रश्य उसमे
मैंने कमरे की खिड़की का पर्दा खिसकाया
अंधेरों ने राहत की सांस ली
अँधेरे ,जो बैठे थे न जाने कबसे
उस पार
उस याद की ऑंखें किसी याद की तरह
उदास थीं
मैंने ठीक किया उस का
कादिया-रदीफ़
याद ने कहा
तुम बहुत दिनों से नहीं आईं 

इसलिए मैं ही चली आई  ‘’ 

1 नवंबर 2013

दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें

कविता .....
होमोजेनेसिस
मोती सीपी में समुद्र का द्रश्य है ,और हीरा कोयले में समुद्र की व्याख्या
जीवन उस अनंतिम समुद्र के अँधेरे की एक उजली बूँद है ....आकाश की आत्मा इन्हीं बूंदों से मिलकर बनी है जिसका चमकीला नीला उजाला अब भी मेरी आँखों की कोरो में अटका है ..मैं एक चिर प्रतीक्षा हूँ ..आशा की देहरी पर खडी अखंड आस्था...
मेरे घर में दरवाजा नहीं है सिर्फ एक उबड़ खाबड़ सी खिड़की है खडकी नुमा...एक राहत ..जो गाहे ब गाहे मेरे यकीन की उंगली थामे मुझे मेरे बाहर के अन्तरिक्ष में ले जाती है |मेरा यकीन ज़ेहन की नम ज़मीन पर खड़ा वो नर्म नाज़ुक पौधा है जिसका हर ऊतक मेरे सपनों का गवाह है जिसे मैं उस समुद्र की हद तक प्यार करती हूँ जो मेरी बातें सुनता है मुझे ज़िंदगी का हरेक दिन जीने के लिए हर सुबह नए सिरे से उकसाता है |खिड़की संकरी है ..ये अपने द्रश्य मौसम के अनुरूप बदलती है ..कभी मेरे और कभी अपने मुताबिक भी |खिड़की के लिए मैं एक लक्ष्य हूँ और समुद्र एक बड़ा केनवास जिस पर हवा अपने मुलायम रंगीन पंखों से हर पल एक नया वितान रचती है| हम दो द्रश्यों के बीच ये खिड़की एक उदास गीला संगीत है |
                                 प्रथम प्रहर
ये मोहनजोदड़ो के गलियारे हैं ..नहीं  शायद ये डोर्केस्बर्ग की गुफाएं हैं जिनकी चट्टानी भित्ति पर न जाने किस ज़माने की उँगलियों की छापें हैं मिट्टी की दीवारों की सौन्धाहत और अंधेरी उस छत के बीच मुझे अपने पूर्वजों की फुसफुसाहट सुनाई देती है जिसे सुनने की मैं अभ्यस्त हो चुकी हूँ पर समझना अब भी मेरे काबू में नहीं  |जब मैं यहाँ से बाहर जाने की जिद्द अपने मन से करती हूँ तो ये फूसफुसाहटें मेरे पिछले जनम का हवाला दे मुझे रोकती है और जब मैं यहाँ कमरे के बीचोंबीच गडी उस बल्ली जिसने मुझे छत का भरोसा दे रखा है से टिककर खड़ी हो जाती हूँ तो आँखों की खिड़की से दिखाई देता वो रास्ता बुलाता है कि मैं तुम्हारा इंतज़ार हूँ  ...|
ये धरती जिस पर मैं खडी हूँ अभी इस वक़्त इसकी मिट्टी मुझसे सैंकड़ों वर्ष पुरानी है और वो विराट नीलिमा जिसे मैं गर्दन उठाकर देख रही हूँ मुझसे कई योजन दूर |मैं इन दौनों के बीच एक विशाल दरख़्त की खोह में छिपी सी एक छोटी चिड़ियाँ हूँ जिसने अभी ही अपने पंख फडफडाये हैं |मैं उन कच्ची दीवारों पर अपने ही बनाए भित्ति चित्र से कुछ लकीरों की मिट्टी खरोंचती हूँ वो मेरे नाखूनों से चिपक जाती है |खिड़की से उस विशाल समुद्र को देखती हूँ और मिट्टी से लिथड़ी अपनी उँगलियों को समुद्र में डुबोने का द्रश्य रचती हूँ ...तभी मुझे महसूस होता है नाखूनों से होती हुई वो लाल भुर्बुरी मिट्टी ना सिर्फ बाहर फैले पूरे समुद्र को लाल कर रही है बल्कि मेरे शरीर में फ़ैल रही है और मैं अब पूरी मिट्टी की हो चुकी हूँ ...एक गीली चिकनी मिट्टी की स्त्री प्रतिमा ...मैं हंसती हूँ और डर जाती हूँ अपनी ही उस मिट्टी के भीतर |
                                 दूसरा प्रहर
खिड़की से बाहर उस अनंत समुद्र को देखते हुए अक्सर अपने मन में एक नौका बनाती हूँ उसमे अपने आत्मविश्वास,निर्भयता और हौसले के कील कांटे लगाती हूँ और ऑंखें बंद कर उसे ले जाती हूँ अद्रश्य लोक के उस अथाह समुद्र की और जहाँ तक ‘प्रथ्वी’ से लिप्त मनुष्य देख नहीं पाते |वो एक अकेला सुनसान द्वीप है लेकिन मेरे सपनों की भीड़ वहां जाकर बाकायदा एक बस्ती बना लेती है और मेरे सपने एक एक करके उसके खण्डों में बस जाते हैं |
....टापू नितांत अकेला और शांत था सिवाय कुछ भटके हुए पक्षियों की चाह्चाह्हत के |मैं नहीं जानती कि उस कलरव में खुशी थी विछोह या भटकन लेकिन वो मुझे अकेलेपन के भय से निजात दिला रहे थे |मैं उस टापू के किनारे उतर गई और अपनी नाव को मैंने एक पहाड़ से बाँध दिया ये मुझे कुछ वैसा लगा जैसा नूह को लगा होगा अरावत पहाड़ और उसने अपनी नौका बाँध दी होगी ताकि लौटते वक़्त वो कहीं भटक ना जाए |सुनसान टापू पर मैंने चारों और देखा सिवाय कुछ घने पेड़ों और कुछ बड़ी गहरी गुफाओं के वहां कुछ नहीं था न खेत न लोग न और कुछ |मेरी ऑंखें सपनों के बोझ से बोझिल थीं मैंने अपने नंगे पैरों को उस चट्टान पर रखा जिस पर चाँद की आख़िरी रोशनी अपनी अंतिम आभा और सम्पूर्ण आशा के साथ अब भी गिर रही थी |एक गुफा जिसका मुंह आसमान की तरफ खुलता था और जिसमे चाँद को बैठने की पर्याप्त गुंजाइश थी उसमे मैंने अपने सपने रख दिए अपनी आँखों से निकालकर और चट्टान पर बैठ गई |उन सपनों से गुफा में उजाला फ़ैल गया |मैं नींद में थी.....
                                तीसरा प्रहर
जब सोकर उठी तो युग बदल चुका था | मेरी देह की सूख चुकी मिट्टी तड़क रही थी उसकी दरारों में से रोशनी बिखर रही थी |टापू कहीं अद्रश्य हो गया था और वनस्पतियाँ पुरुषों और लताएँ स्त्रियों में परिवर्तित हो चुकी थीं | व्योम,रंगीन पक्षियों की उड़ानों व् चहचहाटों से आबाद था यहाँ ऊंचे पर्वत,मनोरम समुद्री किनारे थे..एक लम्बी ख़ूबसूरत मौसमों से भरी सडक थी जिसके आसपास अंगूरों के बगीचे थे |मैं भी उनमे से एक फूलों भरी लता थी ...पराग कण तितलियाँ बनकर बिखर रहे थे सूरज की रोशनी के दायरे में |मैंने अपनी द्रष्टि बिछा दी युग के क्षितिज तक ....|मेरी मुट्ठी में अतीत के आँचल का एक छोर था और भविष्य का दुपट्टा दूर सपनों की हदों तक फहरा रहा था ...मैंने मन्त्र मुग्ध हो अपनी आँखें मींच लीं |
 मुझे महसूस हुआ मेरे पेट पर मेरा एक सपना बैठा किलोल कर रहा था |मैंने अपनी दौनों बाहों में उसे उठा लिया और उसे खिलाने लगी चूमने लगी |उसने अपनी तोतली आवाज में कहा मुझे खेलना है पर चाँद से नहीं ना तारों से | एक ऐसा खिलौना जिसमे कोई झूठ या बहलावा न हो ..तब मैंने उसे एक द्रश्य तोड़कर दिया किनारे लगे एक हरे भरे दरख्त से| |सपने ने कहा ...नहीं मुझे जंगल अच्छे लगते हैं बीहड़ जंगल जिनके रास्ते भूलभुलैया की हद तक उलझे हों मुझे वहां ले चलो|शर्त है कि द्रश्य ज़िंदा हों और तुम उसकी एक किरदार ...मैं थकी हुई थी ...मैंने उसे मनाने की भरसक कोशिश की ...कहा कि वो एक भ्रम है सिर्फ एक पाखण्ड...वहां से फिर हम तुम वापिस यहाँ कभी नहीं लौट पायेंगे ..लेकिन वो नहीं माना ..वो हठ करने लगा और फिर मैं द्रश्य बन गई सपना अंधेरों को फलांग कर फिर नींद के आगोश में चला गया ..
अब हम शाप के घर में हैं ...अंधा कर देने वाली रोशनियाँ हैं यहाँ ...गूंगा कर देने वाले सौन्दर्य
मैं अब भी वही द्रश्य हूँ ..सदियों से ...सदियों तक रहने वाले ... वही द्रश्य ये जीवन है ये दुनिया ...द्रश्यों से लबालब... .बदसूरती की हद तक ख़ूबसूरत दुनियां
वंदना