कविता .....
होमोजेनेसिस
मोती सीपी में
समुद्र का द्रश्य है ,और हीरा कोयले में समुद्र की व्याख्या
जीवन उस अनंतिम
समुद्र के अँधेरे की एक उजली बूँद है ....आकाश की आत्मा इन्हीं बूंदों से मिलकर
बनी है जिसका चमकीला नीला उजाला अब भी मेरी आँखों की कोरो में अटका है ..मैं एक
चिर प्रतीक्षा हूँ ..आशा की देहरी पर खडी अखंड आस्था...
मेरे घर में दरवाजा
नहीं है सिर्फ एक उबड़ खाबड़ सी खिड़की है खडकी नुमा...एक राहत ..जो गाहे ब गाहे मेरे
यकीन की उंगली थामे मुझे मेरे बाहर के अन्तरिक्ष में ले जाती है |मेरा यकीन ज़ेहन
की नम ज़मीन पर खड़ा वो नर्म नाज़ुक पौधा है जिसका हर ऊतक मेरे सपनों का गवाह है जिसे
मैं उस समुद्र की हद तक प्यार करती हूँ जो मेरी बातें सुनता है मुझे ज़िंदगी का
हरेक दिन जीने के लिए हर सुबह नए सिरे से उकसाता है |खिड़की संकरी है ..ये अपने
द्रश्य मौसम के अनुरूप बदलती है ..कभी मेरे और कभी अपने मुताबिक भी |खिड़की के लिए
मैं एक लक्ष्य हूँ और समुद्र एक बड़ा केनवास जिस पर हवा अपने मुलायम रंगीन पंखों से
हर पल एक नया वितान रचती है| हम दो द्रश्यों के बीच ये खिड़की एक उदास गीला संगीत है |
प्रथम प्रहर
ये मोहनजोदड़ो के
गलियारे हैं ..नहीं शायद ये
डोर्केस्बर्ग की गुफाएं हैं जिनकी चट्टानी भित्ति पर न जाने किस ज़माने की उँगलियों
की छापें हैं मिट्टी की दीवारों की सौन्धाहत और अंधेरी उस छत के बीच मुझे अपने
पूर्वजों की फुसफुसाहट सुनाई देती है जिसे सुनने की मैं अभ्यस्त हो चुकी हूँ पर
समझना अब भी मेरे काबू में नहीं |जब मैं
यहाँ से बाहर जाने की जिद्द अपने मन से करती हूँ तो ये फूसफुसाहटें मेरे पिछले जनम
का हवाला दे मुझे रोकती है और जब मैं यहाँ कमरे के बीचोंबीच गडी उस बल्ली जिसने
मुझे छत का भरोसा दे रखा है से टिककर खड़ी हो जाती हूँ तो आँखों की खिड़की से दिखाई
देता वो रास्ता बुलाता है कि मैं तुम्हारा इंतज़ार हूँ ...|
ये धरती जिस पर मैं
खडी हूँ अभी इस वक़्त इसकी मिट्टी मुझसे सैंकड़ों वर्ष पुरानी है और वो विराट नीलिमा
जिसे मैं गर्दन उठाकर देख रही हूँ मुझसे कई योजन दूर |मैं इन दौनों के बीच एक
विशाल दरख़्त की खोह में छिपी सी एक छोटी चिड़ियाँ हूँ जिसने अभी ही अपने पंख फडफडाये
हैं |मैं उन कच्ची दीवारों पर अपने ही बनाए भित्ति चित्र से कुछ लकीरों की मिट्टी
खरोंचती हूँ वो मेरे नाखूनों से चिपक जाती है |खिड़की से उस विशाल समुद्र को देखती
हूँ और मिट्टी से लिथड़ी अपनी उँगलियों को समुद्र में डुबोने का द्रश्य रचती हूँ
...तभी मुझे महसूस होता है नाखूनों से होती हुई वो लाल भुर्बुरी मिट्टी ना सिर्फ बाहर
फैले पूरे समुद्र को लाल कर रही है बल्कि मेरे शरीर में फ़ैल रही है और मैं अब पूरी
मिट्टी की हो चुकी हूँ ...एक गीली चिकनी मिट्टी की स्त्री प्रतिमा ...मैं हंसती
हूँ और डर जाती हूँ अपनी ही उस मिट्टी के भीतर |
दूसरा प्रहर
खिड़की से बाहर उस
अनंत समुद्र को देखते हुए अक्सर अपने मन में एक नौका बनाती हूँ उसमे अपने
आत्मविश्वास,निर्भयता और हौसले के कील कांटे लगाती हूँ और ऑंखें बंद कर उसे ले
जाती हूँ अद्रश्य लोक के उस अथाह समुद्र की और जहाँ तक ‘प्रथ्वी’ से लिप्त मनुष्य
देख नहीं पाते |वो एक अकेला सुनसान द्वीप है लेकिन मेरे सपनों की भीड़ वहां जाकर
बाकायदा एक बस्ती बना लेती है और मेरे सपने एक एक करके उसके खण्डों में बस जाते
हैं |
....टापू नितांत
अकेला और शांत था सिवाय कुछ भटके हुए पक्षियों की चाह्चाह्हत के |मैं नहीं जानती
कि उस कलरव में खुशी थी विछोह या भटकन लेकिन वो मुझे अकेलेपन के भय से निजात दिला
रहे थे |मैं उस टापू के किनारे उतर गई और अपनी नाव को मैंने एक पहाड़ से बाँध दिया
ये मुझे कुछ वैसा लगा जैसा नूह को लगा होगा अरावत पहाड़ और उसने अपनी नौका बाँध दी
होगी ताकि लौटते वक़्त वो कहीं भटक ना जाए |सुनसान टापू पर मैंने चारों और देखा
सिवाय कुछ घने पेड़ों और कुछ बड़ी गहरी गुफाओं के वहां कुछ नहीं था न खेत न लोग न और
कुछ |मेरी ऑंखें सपनों के बोझ से बोझिल थीं मैंने अपने नंगे पैरों को उस चट्टान पर
रखा जिस पर चाँद की आख़िरी रोशनी अपनी अंतिम आभा और सम्पूर्ण आशा के साथ अब भी गिर
रही थी |एक गुफा जिसका मुंह आसमान की तरफ खुलता था और जिसमे चाँद को बैठने की
पर्याप्त गुंजाइश थी उसमे मैंने अपने सपने रख दिए अपनी आँखों से निकालकर और चट्टान
पर बैठ गई |उन सपनों से गुफा में उजाला फ़ैल गया |मैं नींद में थी.....
तीसरा प्रहर
जब सोकर उठी तो युग
बदल चुका था | मेरी देह की सूख चुकी मिट्टी तड़क रही थी उसकी दरारों में से रोशनी
बिखर रही थी |टापू कहीं अद्रश्य हो गया था और वनस्पतियाँ पुरुषों और लताएँ
स्त्रियों में परिवर्तित हो चुकी थीं | व्योम,रंगीन पक्षियों की उड़ानों व्
चहचहाटों से आबाद था यहाँ ऊंचे पर्वत,मनोरम समुद्री किनारे थे..एक लम्बी ख़ूबसूरत
मौसमों से भरी सडक थी जिसके आसपास अंगूरों के बगीचे थे |मैं भी उनमे से एक फूलों
भरी लता थी ...पराग कण तितलियाँ बनकर बिखर रहे थे सूरज की रोशनी के दायरे में
|मैंने अपनी द्रष्टि बिछा दी युग के क्षितिज तक ....|मेरी मुट्ठी में अतीत के आँचल
का एक छोर था और भविष्य का दुपट्टा दूर सपनों की हदों तक फहरा रहा था ...मैंने
मन्त्र मुग्ध हो अपनी आँखें मींच लीं |
मुझे महसूस हुआ मेरे पेट पर मेरा एक सपना बैठा
किलोल कर रहा था |मैंने अपनी दौनों बाहों में उसे उठा लिया और उसे खिलाने लगी
चूमने लगी |उसने अपनी तोतली आवाज में कहा मुझे खेलना है पर चाँद से नहीं ना तारों
से | एक ऐसा खिलौना जिसमे कोई झूठ या बहलावा न हो ..तब मैंने उसे एक द्रश्य तोड़कर
दिया किनारे लगे एक हरे भरे दरख्त से| |सपने ने कहा ...नहीं मुझे जंगल अच्छे लगते
हैं बीहड़ जंगल जिनके रास्ते भूलभुलैया की हद तक उलझे हों मुझे वहां ले चलो|शर्त है
कि द्रश्य ज़िंदा हों और तुम उसकी एक किरदार ...मैं थकी हुई थी ...मैंने उसे मनाने
की भरसक कोशिश की ...कहा कि वो एक भ्रम है सिर्फ एक पाखण्ड...वहां से फिर हम तुम
वापिस यहाँ कभी नहीं लौट पायेंगे ..लेकिन वो नहीं माना ..वो हठ करने लगा और फिर
मैं द्रश्य बन गई सपना अंधेरों को फलांग कर फिर नींद के आगोश में चला गया ..
अब हम शाप के घर में
हैं ...अंधा कर देने वाली रोशनियाँ हैं यहाँ ...गूंगा कर देने वाले सौन्दर्य
मैं अब भी वही
द्रश्य हूँ ..सदियों से ...सदियों तक रहने वाले ... वही द्रश्य ये जीवन है ये
दुनिया ...द्रश्यों से लबालब... .बदसूरती की हद तक ख़ूबसूरत दुनियां
वंदना