पसीने से तरबतर मै,
थककर चूर खड़ी थी उस
रेलवे स्टेशन पर जहाँ
भीड़ के कई वर्ग ,हिस्सों में खड़े थे
एकाकी परिवारों के साथ ,या
कोई अकेला हाथ बांधे,,चेहरे की ऊब को
पैरों की बेताली थाप से बहलाता!
चेहरों पर बासीपन और बैचेनी के
मिले जुले भाव ....!लोग
जिनकी ''गाडी'ने अपनी प्रतीक्षा
ख़त्म कर पहुँचने की घोषणा कर दी थी,
उसके यात्री बौराए से इधर उधर भाग रहे थे!
यात्रियों के चेहरों पर जल्दी थी
स्टेशन से चले जाने की !
,स्टेशन के उन स्थाई वाशिंदों से दूर,
जो अपने टूटे फूटे अंग लेकर दयनीय मुद्रा में
अलग अलग चेहरों के साथ रिरियाते हुए किसी
अनचाही घटना की तरह प्रकट हो जाते थे!
यात्रियों के साथ टाईट जींस और टॉप में
कसी नवयौवनाएं ,अपनी सुन्दर तीखी नासिका को
हेन्की'' से ढापे,एक वर्ग विशेष की,,
एक वर्ग विशेष के लिए
प्रतिक्रिया दर्शाती मुह फेरकर खडी हो जाती थी ,लिहाज़ा
उनके शुभचिंतक ''कुत्तों की तरह''भाषा से ठेलकर
उन ''घ्रणित''जीवों को
भगा , धमका रहे थे !
,तभी एक उम्रदराज़ व्यक्ति जिसकी
खून के रंग की लाल पोशाक देखकर मैंने
बुलाया...वो बिना किसी भाव के आकर खड़ा हो गया
मैंने कहा ''पुल पार करके गाडी पकडनी है
चलोगे ?,वो बोला
सामान ज्यादा है बहनजी''नग के हिसाब से होगा!
मैंने बिना किसी जिरह के कहा ''सामान उठाओ'!'
वो यंत्रवत ,सामान अपने शरीर पर
बाकायदा जमाकर मेरे
आगे आगे चलने लगा ,मै पीछे पीछे!
सीडियों पर भीड़ जैसे पेड़ पर
चढ़ते कीड़ों के समूह!
सीडियां अट गई थीं यात्रियों से
हांफती हुई कुली की तरह!
आखिरकार सीडियां ख़त्म हुईं
सदियों की तरह !
राहत की सांस ली सीडियों और
''उसने!''
'वो'हांफता सा खड़ा हो गया,
मैं भी!
मैंने कहा -
गाडी में वक़्त है अभी ,सुस्ता लो!वो बोला
''बहनजी'अभी वो सामने वाली
गाडी भी तो निकालनी है?
सुस्ताने का वक़्त कहाँ?
उसने कांपती सी आवाज़ में कहा !
मै कुछ कहती इससे पहले ही वो
शरीर और वक़्त के ताल मेल की
असफल चेष्टा करता ,पसीने से गंधाती देह के साथ
अपने शरीर को घसीटता सा चल पड़ा!
मुझे बाकायदा कोफ़्त हो रही थी
अपने से उम्रदराज़ व्यक्ति से
इस तरह ''बोझे'' को उठवाने की!वैसे,
उम्र का हिसाब किताब ,एक आभिजात्य शगल
होता होगा इस वर्ग के लिए!इसीलिये शायद
इसी से संदर्भित
एन वक़्त मुझे याद आया एक तथाकथित ''रिएलिटी शो''
(उसमे कितनी वास्तविकता होती है ये खोज का विषय है)
जिसके एक गोरे चिट्टे चमकते चहरे वाले अधेड़ जज की
,उस शो के
एंकर और कलाकारों की (नितांत फूहड़ )प्रस्तुति के दौरान
बार बार पीठ ठोकी जाती है ,उम्र को छिपा लेने की कोशिशों की !)
अंततः देह की रफ़्तार ने चाह की गति की उंगली छोड़ दी
और वो मेरे पीछे पीछे चलने लगा !
एक पीढी की तरह,
अपने आदर्शों और सन्सकारों को ढोती
एक युग की तरह
सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते!
लोगों के बोझ को जीवन के अभिशाप की तरह ढोते
उम्र की गिनती ही भूल जाता होगा ये वर्ग
,उम्र का मतलब
इनके लिए पैदा होना,सामान ढोना,और
मर जाना ही तो होता होगा?