सुप्रसिद्ध दार्शनिक किर्केगार्द ने कहा था ‘’लोग सोचने की आज़ादी का इस्तेमाल
नहीं करते |इसकी क्षति पूर्ती के लिए वो बोलने की आजादी की दरकार करते हैं ‘’|बिना
सोचे विचारे बोलते जाने का शगल..|क्यूँ की सोचने की आजादी एक बौद्धिक और जटिल प्रक्रिया
से गुज़रना है जिसके लिए धैर्य और योग्यता की आवश्यकता है जो विद्वजनों की फितरत से
खारिज हो चुकी है |लग रहा है कि स्त्री और दलित के ‘’टिकाऊ’’ मुद्दे अब न सिर्फ
साहित्य या फिल्मों तक सीमित रह गए हैं बल्कि इन दो दलों की शमशीरें खुले में भी निकल
आई हैं सोशल मीडिया जिनका कुरुक्षेत्र बना हुआ है |’’बड़े लेखकों’’ के विचार कितने
छोटे हैं इनका खुलासा बनाम पर्दाफ़ाश भी इसी वाक् युद्ध में होता है | स्त्री
विमर्शकार जब अतिवादिता और धुरंधर शब्दावलियों के साथ जोशोखरोश से पुरुषों को
कोसती हैं जिस भाषा और उलाहनों का इस्तेमाल करती हैं लगता है पूरी दुनिया के मर्द
बलात्कारी व् निकृष्ट हैं सिवाय उनके संपर्क क्षेत्र और परिवार के पुरुषों के यही
हाल ‘’दलित रईस सर्वहाराओं ‘’ का है | सवाल चाहे कार्ल मार्क्स का हो या
आंबेडकर का किसी ने भी कहीं भी ये नहीं कहा है कि किसी से नफरत करो |उनका जोर
घ्रणा पर नहीं समानता लाने पर था जिसे आज नफरतों के खांचों में बाँट दिया गया है |
(१)-सवर्णों विशेष तौर पर ब्राह्मणों को गरियाना आज बहुत आम हो गया है
|बलात्कार हों,भ्रष्टाचार हो, अन्याय या राष्ट्रीय नीतियों का कोई मसला हो ,महंगाई
,आतंकवाद ..हर बुराई के ज़िम्मेदार ब्राहमण वाद |ज़ाहिर है की दलित लेखक इस मुद्दे
को गरमाए रखने में विशेष दिलचस्पी रखते हैं |ये वही ‘’दलित’’ हैं जिनकी विदेश में
खींची गयी तस्वीरें और शानदार रईसी रहन सहन आये दिन सोशल मीडिया की ‘’शान ‘’ बनता
है | तब उनके वर्ण व्यवस्था के (हितैषी) सेना के सिपाही दलितों की समस्या को भूल
उनके इस ‘चमत्कार’ के महिमामंडन में मसरूफ रहते हैं |
(२)- महंगाई,भ्रष्टाचार ,आतंकवाद आदि से दुखी और भुक्तभोगी क्या सिर्फ दलित
समाज है अन्य जातियां नहीं ? क्या बलात्कार ,चोरियां,आतंक वादी गतिविधियाँ सिर्फ
दलितों के साथ होती हैं ?
(३)-जब दलित वर्ग इतना शोषित और दयनीय है तो तथाकथित ब्राह्मण विरोधी व् समर्थ
/संपन्न ‘’दलितों’’ ने उनके लिए कोई आर्थिक सहायता मुहैया करवाई है जिससे उनका
कल्याण हो सके?
(४)-साक्षरता मिशन के एक कार्यक्रम के तहत जब राजस्थान के गाँवों में दौरे किये
और मुफ्त शिक्षा अपने बच्चों व् महिलाओं
को देने की योजना के बारे में बताया तो सभी दलित बस्तियों के ज्यादातर लोगों ने
स्पष्ट मना कर दिया कि हम अपने बच्चों व् महिलाओं को शिक्षा दिलवाना नहीं चाहते |
उन्हें अपने बच्चों का बाल मजदूर होना और औरतों का घरों घरों काम करना ज्यादा व्
त्वरित फायदेमंद लगा ताकि उन निठल्ले पुरुषों के मदिरा सेवन की व्यवस्था सुचारु चलती
रहे |
(५)-उसी गाँव की सरपंच दलित महिला थी जो अनपढ़ थी जिसका पति उसके काम काज करता
था |उस गाँव में दिशा मैदान के दौरान महिलाओं के साथ दुर्घटनाओं के कई केस थे
लेकिन एक दलित परिवार की सरपंच होते हुए उसने महिलाओं के लिए शौच की कोई व्यवस्था
नहीं की बल्कि उस गाँव में बी पी एल की भी बहुत धांधली थी |जबकि सरपंच की उस
आलीशान हवेली में (लोगों के बताये अनुसार) तीन संडास थे
(४)- आरक्षण व्यवस्था को एक अरसा बीत चुका क्या उसका कोई सकारात्मक या
उल्लेखनीय प्रभाव देखने को मिल रहा है ? दुसरे शब्दों में उक्त प्राप्य सुविधा के
कोई रेखांकित करने योग्य परिणाम?