सिंगापुर में एक नाईट सफारी है जो रात में ही खुलता है |ये प्रमुखतः एक जू है जहाँ हिप्पो , जिराफ , सफ़ेद भालू से लेकर पांडा , सफ़ेद हाथी तक अनोखे जानवर हैं| ये एक विशाल और खूबसूरत जंगल है जहाँ नदी , पुल , बड़े बड़े पेड़ , खूबसूरत बेलें आदि हैं |जानवरों के परिवार दूरी पर एक लट्टू की रोशनी में दिखाई देते हैं बाकी अन्धकार... |बेआवाज़ चलने वाली दर्शकों को ले जारही खुली ट्राम में धीमी आवाज में एक बेहद मधुर स्त्री स्वर में कोमेंट्री चलती रहती है |दर्शक बीचजंगल में कहीं भी उतर कर घूम सकते हैं |ट्राम आपको वहीं छोड़कर अन्धकार में गायब हो जाती है जोकरीब आधा पौन घंटे बाद दुसरे चक्कर पर आपको वापस ले जाती है |प्रकृति और उन जानवरों के परिवार को पास जाकर देख सकते हैं |वहां दर्शकों और उन जानवरों के बीच में लोहे की जाली है और जगह २ कैमरेलगे हैं ताकि कोई इमरजेंसी न हो |वो जंगल अद्भुत हैं | जंगल की अपनी एक ध्वनी होती है जो बस्तियों की भीड़ से अलग अलौकिक होती है | दूर तक बड़े बड़े दरख्त , रात में हवा में झूलती झूमती उनकी शाखाएं , चाँद की उन दरख्तों पर बिखरती रोशनी ,पत्तियों की सरसराहट , कहीं २ घुप्पएकांत के बीच किसी पक्षी का स्वर, किसी छोटे पुल से गुज़रते हुए नीचे बह रहे दरिये की छलछलाहट , दूर कहीं चौकड़ी भरता हिरन का जोड़ा |ये एक अद्भुत अलौकिक अनुभव से गुजरना है जहाँ कुछ देर के लिए सब कुछ भूल जाते हैं | मुझे दो जगहें विरल लगती हैं |एक बहुत उंचाई पर उड़ रहे प्लेन से बादलों के घने गुछे तैरते हुए देखना और उनके बीच से गुजरना दूसरा प्रकृति के बीच एकांत वन में सिर्फ प्रकृति के साथ विचरण करना ....
15 जून 2016
13 जून 2016
साहित्य समाज की दशा और दिशा बदलने की सामर्थ्य रखता है ..वर्षों पूर्व कहीं पढ़ा था |( शायद द्वितीय विश्वयुद्ध के किसी प्रकरण में )
आज इफरात लिखा जा रहा है |खूब पढ़ा जा रहा है | अपने अपने बुद्धि - मानदंडों के हिसाब से खूब सराहा – नकारा जा रहा है |इनाम इकराम मिल रहे हैं |लेखक लेखिकाएं बेशुमार प्रकाशित और देश -विदेश में पुरस्कृत हो रहे हैं |इतनी बड़ी बड़ी बातें , काव्यात्मक, कसीदेकार भाषा,बला का मार्मिक कारुणिक सब कुछ लिख रहे हैं लेकिन इस लिखे का कहीं असर हो रहा है क्या ? समाज पर, देश पर, बच्चों, पर, युवाओं पर या हम स्वयं पर ही | ब्रिटिश राज में कई ऐसे लेखकों की रचनाएं प्रतिबंधित हुईं जिनका प्रभाव अंगरेजी हुकूमत पर पडा था , कहीं न कहीं उन रचनाओं से समाज में विद्रोह जागने का अंदेशा था भय था इसीलिये उन्हें प्रतिबंधित किया गया |प्रश्न हुकूमत का नहीं सवाल साहित्य के प्रभाव का है | कभी नहीं सुना कि फलां लेखक / लेखिका द्वारा लिखे का सरकार तक पर प्रभाव पड़ा, छात्रों / स्त्रियों, (पाठकों) में एक जागरूकता पैदा हुई और उन्होंने इस अराजकता के प्रति आवाज उठाई |..क्या साहित्य में जो कुछ लिखा- पढ़ा जा रहा है वो वाकई असरकारक है या फिर ये लेखक के लिए सिर्फ एक लेखिकीय चुनौती, प्रकाशक के लिए एक व्यवसाय और पाठक के लिए महज एक पाठकीय दंभ ,मनोरंजन अथवा ज्ञानवर्धन का माध्यम भर है ? हालाकि साहित्य - कलाओं की अपनी सीमाएं हैं बावजूद इसके क्या साहित्य में हैं वो जादू ( असर ) कि वो सड़ी गली राजनीतिक विरूपता से मुठभेड़ कर सके ? न्यायिक व्यवस्था में परिवर्तन की मांग कर सके ? ऐसे राज्यों में जहाँ शिक्षा नीति एक मजाक बन गयी हो और बाकायदा वहां युवाओं को षड्यंत्र पूर्ण ढंग से ‘’अपढ़’’ (अज्ञानी ) रखे जाने का क्रूर खेल चल रहा हो कलम के दम पर उनके प्रति एक आन्दोलन खड़ा कर सकें ? क्या साहित्य समाज , देश में व्याप्त विरूपताओं , विसंगतियों को देख सुनकर लच्छेदार भाषा में , पाठक की सहानुभूति जगाकर ज्यूँ का ज्यूँ सिर्फ व्यक्त कर देने और वाह वाही बटोर लेने का साधन भर है? यदि ऐसा ही है तो काहे का साहित्य और काहे का लेखक ...
आज इफरात लिखा जा रहा है |खूब पढ़ा जा रहा है | अपने अपने बुद्धि - मानदंडों के हिसाब से खूब सराहा – नकारा जा रहा है |इनाम इकराम मिल रहे हैं |लेखक लेखिकाएं बेशुमार प्रकाशित और देश -विदेश में पुरस्कृत हो रहे हैं |इतनी बड़ी बड़ी बातें , काव्यात्मक, कसीदेकार भाषा,बला का मार्मिक कारुणिक सब कुछ लिख रहे हैं लेकिन इस लिखे का कहीं असर हो रहा है क्या ? समाज पर, देश पर, बच्चों, पर, युवाओं पर या हम स्वयं पर ही | ब्रिटिश राज में कई ऐसे लेखकों की रचनाएं प्रतिबंधित हुईं जिनका प्रभाव अंगरेजी हुकूमत पर पडा था , कहीं न कहीं उन रचनाओं से समाज में विद्रोह जागने का अंदेशा था भय था इसीलिये उन्हें प्रतिबंधित किया गया |प्रश्न हुकूमत का नहीं सवाल साहित्य के प्रभाव का है | कभी नहीं सुना कि फलां लेखक / लेखिका द्वारा लिखे का सरकार तक पर प्रभाव पड़ा, छात्रों / स्त्रियों, (पाठकों) में एक जागरूकता पैदा हुई और उन्होंने इस अराजकता के प्रति आवाज उठाई |..क्या साहित्य में जो कुछ लिखा- पढ़ा जा रहा है वो वाकई असरकारक है या फिर ये लेखक के लिए सिर्फ एक लेखिकीय चुनौती, प्रकाशक के लिए एक व्यवसाय और पाठक के लिए महज एक पाठकीय दंभ ,मनोरंजन अथवा ज्ञानवर्धन का माध्यम भर है ? हालाकि साहित्य - कलाओं की अपनी सीमाएं हैं बावजूद इसके क्या साहित्य में हैं वो जादू ( असर ) कि वो सड़ी गली राजनीतिक विरूपता से मुठभेड़ कर सके ? न्यायिक व्यवस्था में परिवर्तन की मांग कर सके ? ऐसे राज्यों में जहाँ शिक्षा नीति एक मजाक बन गयी हो और बाकायदा वहां युवाओं को षड्यंत्र पूर्ण ढंग से ‘’अपढ़’’ (अज्ञानी ) रखे जाने का क्रूर खेल चल रहा हो कलम के दम पर उनके प्रति एक आन्दोलन खड़ा कर सकें ? क्या साहित्य समाज , देश में व्याप्त विरूपताओं , विसंगतियों को देख सुनकर लच्छेदार भाषा में , पाठक की सहानुभूति जगाकर ज्यूँ का ज्यूँ सिर्फ व्यक्त कर देने और वाह वाही बटोर लेने का साधन भर है? यदि ऐसा ही है तो काहे का साहित्य और काहे का लेखक ...
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