26 जुलाई 2012


मैंने नहीं रची कोई रणनीति किसी महायुद्ध की
ना ही काम पिपासा को शांत न करने की
सज़ा स्वरुप
श्राप दिया किसी अप्सरा को धरती पर जाने का
मैंने तो धर्म रक्षा के लिए
छोड़ा भी नहीं अपनी गर्भवती पत्नी को
घने बीहड़ में 
ना ही किसी औरत को अपमानित किया
किसी प्रणय निवेदन पर
मै तो भूला भी नहीं
अपनी प्रेमिका को किसी क्रोधी ऋषि के श्राप से
ना ही आँखों पर पट्टी बांधे पुत्र मोह में ,
होते देखता रहा नर संहार
अन्याय और धोखे की शिकार अपनी पत्नी को
क्रोधवश पत्थर भी नहीं बनाया मैंने
महानुभाव ....
अब भी यदि आप मुझे संत य देवता जैसे शब्दों से
सम्मानित करेंगे
हो सकता है कि मै इसे अपना अपमान समझूँ


21 जुलाई 2012

नीम का पेड़


कच्चे आंगन में पुराना नीम का एक पेड़ था
वो मुझे बचपन से उतना ही बूढा ,घना और
इस कदर अपना सा लगता कि मै दादाजी को
उसका जुड़वां भाई समझती |
किसी सयाने बुज़ुर्ग सा
दिन भर गाय से सूरज की चुगलियाँ सुनता
जो बंधी होती उसकी छाँव में|  
चींटियों की फुसफुसाहट उसके
तने से झरा करती|
मौसमों की बेईमानी से रूठ जाता वो
और कुम्हलाने का नाटक करता |
हर पतझड़ में उतार फेंकता अपने बूढ़े पत्ते
और पहन लेता नयी कोंपलों की पोशाक
और निम्बोलियों के आभूषण
इतराता सावन की बारिश में |
 हम बच्चे उस पर चढ कर
बैठ जाते वो बुरा नहीं मानता और खुश होता |
तब ताऊ पिता चाचा बुआ दादा दादी
सब साथ उसी के नीचे खाट बिछाकर
सई संझा से बातें करते ज़माने भर की
परिवार समाज देश त्यौहार,बारिश जाने कहाँ २ के
किस्से बतौले
पर कभी नहीं करते
उस दुनिया की जो सरक रही थी धीरे २
दबे पाँव ,आंगन से ...बिल्ली सी |
‘’नीम’’को बेआवाज़ घटनाओं की आदत थी |
 त्योहारों व विवाहों में आये मेहमानों से  
एक एक करके परम्पराएं विदा होने लगीं |
तब पहले विश्वास टूटे फिर मन
फिर परिवार उसके बाद  
ऑंखें तरेरते रिश्ते ,सम्बन्ध लहू लुहान होते
देखता रहा पेड़ ,कहा कुछ नहीं बस 
उस बरस
पतझर कुछ ज्यादा लंबा खिंच गया|
आंगन छत,पाटौर,खेत,कुओं ज़मीनों के टुकड़े हुए  
नीम और गाय देखते रहते अपने अपने हिस्सों से
एक दूसरे को भीजी ऑंखें |
 बेवा दादी तो दो नहीं कई हिस्सों में बट गईं
मन तन और विश्वास के 
जगह की तरह सिकुड़ते अहसास नहीं कर पाया
बर्दाश्त वो नीम का पेड़
एक दिन उसने देखा बगलगीर दीवार पर चढती
दीमकों का हुजूम |
बादल,बारिश,धूप,मौसम,सुबह ,ओस
सब थे चकित
ये सोचकर कि
आखिर क्यूँ की होगी आत्महत्या
उस सौ साल के बुज़ुर्ग ने ......?

9 जुलाई 2012

भ्रम


                    
दीवारें आजकल हो गई हैं इतनी पारदर्शी कि
देख लो उसमे किसी के दिल के आर पार
इतनी तरल कि छू लो
किसी के ज़ज्बात
इतनी रहस्यमयी कि इसमें घुस
ढूंढते फिरो निकलने के रास्ते
और गुम जाओं अपने ही भीतर  
और इस कदर निर्मम कि
चाहो जब तक छूना तुम किसी के अहसास
बदल दें वो अपना पृष्ठ
और खड़े दिखो किसी
दूसरे के आंगन की अनजान दीवारों के बीच|
नए युग के नए नवेले घर में ,
लिखना चाहों यदि अपनी ही दीवार पर अपना नाम
बहुत मुमकिन है कि
ऊपर किसी और के नाम की तख्ती टंगी पाओ
ये हमारा स्वयं का चुना हुआ भ्रम है