कच्चे आंगन में पुराना नीम
का एक पेड़ था
वो मुझे बचपन से उतना ही
बूढा ,घना और
इस कदर अपना सा लगता कि मै
दादाजी को
उसका जुड़वां भाई समझती |
किसी सयाने बुज़ुर्ग सा
दिन भर गाय से सूरज की
चुगलियाँ सुनता
जो बंधी होती उसकी छाँव में|
चींटियों की फुसफुसाहट उसके
तने से झरा करती|
मौसमों की बेईमानी से रूठ
जाता वो
और कुम्हलाने का नाटक करता
|
हर पतझड़ में उतार फेंकता
अपने बूढ़े पत्ते
और पहन लेता नयी कोंपलों की
पोशाक
और निम्बोलियों के आभूषण
इतराता सावन की बारिश में |
हम बच्चे उस पर चढ कर
बैठ जाते वो बुरा नहीं
मानता और खुश होता |
तब ताऊ पिता चाचा बुआ दादा
दादी
सब साथ उसी के नीचे खाट
बिछाकर
सई संझा से बातें करते
ज़माने भर की
परिवार समाज देश त्यौहार,बारिश
जाने कहाँ २ के
किस्से बतौले
पर कभी नहीं करते
उस दुनिया की जो सरक रही थी
धीरे २
दबे पाँव ,आंगन से ...बिल्ली
सी |
‘’नीम’’को बेआवाज़ घटनाओं की
आदत थी |
त्योहारों व विवाहों में आये मेहमानों से
एक एक करके परम्पराएं विदा
होने लगीं |
तब पहले विश्वास टूटे फिर
मन
फिर परिवार उसके बाद
ऑंखें तरेरते रिश्ते ,सम्बन्ध
लहू लुहान होते
देखता रहा पेड़ ,कहा कुछ
नहीं बस
उस बरस
पतझर कुछ ज्यादा लंबा खिंच
गया|
आंगन छत,पाटौर,खेत,कुओं
ज़मीनों के टुकड़े हुए
नीम और गाय देखते रहते अपने
अपने हिस्सों से
एक दूसरे को भीजी ऑंखें |
बेवा दादी तो दो नहीं कई हिस्सों में बट गईं
मन तन और विश्वास के
जगह की तरह सिकुड़ते अहसास नहीं
कर पाया
बर्दाश्त वो नीम का पेड़
एक दिन उसने देखा बगलगीर दीवार
पर चढती
दीमकों का हुजूम |
बादल,बारिश,धूप,मौसम,सुबह
,ओस
सब थे चकित
ये सोचकर कि
आखिर क्यूँ की होगी
आत्महत्या
उस सौ साल के बुज़ुर्ग ने
......?