14 अगस्त 2013

''सहर होगी किसी स्याह रात के बाद''

अभी अभी मुझे फोन पर सूचना मिली कि पिछले माह नया ज्ञानोदय में प्रकाशित मेरी कहानी ''सहर होगी किसी स्याह रात के बाद'' उर्दू पत्रिका कसौटी में प्रकाशित हो रही है(लिखित अनुमति के लिए फोन किया गया था) |सम्पादक महोदय ने बताया कि ये पत्रिका (हार्ड कॉपी में) आठ मुल्कों में जाती है |...अच्छा लगा सुनकर |

10 अगस्त 2013

कतरनें


तीन दिनों का अवकाश था जिसका इंतज़ार लगभग एक महीने पहले से था यकीन न हो तो कैलेण्डर से पूछ लीजिये |परिवार के साथ बतियाना ,मनपसंद नाश्ता बनाना, मनपसंद फिल्म देखना ,लॉन्ग ड्राइव पर जाना,बहुत दिनों से पेंडिंग पड़े काम पूरे करना,जैसे मेल,फोन,मिलना जुलना एकाध कहानी पडी थी अपने पूरे किये जाने की प्रतीक्षा करती वो भी केलेंडर में छुटटी के दिन पर अपनी निगाहें टिकाये उम्मीदों के गोलों को रोज़ गाढे करती रही  |हर चीज़ को टाल सकती हूँ लेकिन अधूरी कहानी से ऑंखें नहीं मिला पाती जब तक पूरी कर न लूं मन में ज़ख्म की तरह कौंधती रहती है ...ज्यादा दिन अधूरी पडी रहे तो उसका अंत (जब भी करू)बीमार और निराशाजनक ही होता है तो क्या कहानी भी रूठ जाती है? क्या वो भी ज़न्म व् म्रत्यु के बीच की पीड़ा को मनुष्य की तरह ही भोगती है और उससे ज़ल्दी निजात पाना चाहती है? उसके पात्र उसकी जगहें उसके सच उसके झूठ उसकी इच्छाएं ,उसकी विडंबनाएँ उसकी कामुक्ताएं सब अपने भविष्य यानी अपने अंत की प्रतीक्षा करते हैं ? अध् पर लटके उसका जी घुटता है?कहानी का जन्म कहीं भी हो सकता है पोस्ट ऑफिस में लगी लाइन के बीच,पार्क में खेलते बच्चों की किलकारियों में ,किसी बस स्टॉप पर पडी टीन की छत पर बरसतें लोहे के छर्रों  सी  आवाज़ करती डरावनी बारिश में ,गुलाबों के बगीचों में ...कहीं भी ...लेकिन अंत कहीं भी नहीं होता ...तो क्या हर कहानी अंतहीन होती है आयुविहीन...अश्वत्थामा की तरह??या फिर उसमे अचिन्हित ‘’क्रमशः’’ हमेशा अद्रश्य में छिपा रहता है? कहानी लिखना किन्ही दो भ्रमों के बीच का एक खालीपन है |माँ कहती थीं कि जब अतीत की किसी दुखद या संत्रास देने वाली घटना की याद आये जो दिमाग से निकले ही नहीं और कोंचती रहे तो भविष्य के किसी सपने (काल्पनिक ही सही )को उगा लेना चाहिए उम्मीदों की हथेली पर ..आँखों के एन सामने इससे भोगे गए मलाल कम हो जाते हैं |मेरे लिए कहानी इन दौनों अवस्थाओं के मध्य का अंतराल है जिसमे मैं स्वतंत्र हूँ अपने पात्रों को कहीं भी ले जाने छोड़ने हंसाने रुलाने मनाने रुठाने के लिए उन्हें मन चाहे आकार देने के लिए |लेकिन हर आरम्भ की एक नियति होती है उतनी ही ज़रूरी जितनी उसकी परिणिति ...|मेरी कहानियों की परिणिति मैं स्वयं हूँ ...क्यूँ की कहानीकार अपनी हर कहानी में कहीं न कहीं किसी न किसी मर्म में कोना बनकर उपस्थित रहता है ...कभी नरेटर के रूप में कभी किसी पात्र के रूप में और बहुत कम लेकिन कभी २ द्रष्टा के रूप में भी |....(क्रमशः)




9 अगस्त 2013

 थियेटर बचपन से जुड़ा है मेरे साथ और मेरा सौभाग्य है कि इस रंगमंचीय यात्रा में कवलम  नारायण पणिक्कर .(केरल के फिल्म निर्देशक /नाट्य निर्देशक/लेखक /संगीत नाटक एकेडेमी पुरूस्कार प्राप्त,मूल संस्कृत और शेक्सपियर के नाटकों से विशेष प्रसिद्धि ) ),सुप्रसिद्ध भरतनाट्यम न्रात्यान्गना भारती शिवाजी और बी एम् शाह (भूतपूर्व निर्देशक नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा /फिल्म कलाकार ),बंसी कौल जैसे देश के ख्यातिनाम निर्देशकों के निर्देशन में अभिनय और कार्यशालाओं को अटेंड करने का मौक़ा मिला | एक से विषय,एक ही दिशा में जाना बात करना मुझे कुछ उबाऊ लगता रहा शायद इसी फितरत ने मुझे प्रयोगधर्मी बनाया |कोशिश करती हूँ की संगीत में नई कम्पोसीशंस ,थियेटर में नए प्रयोग और लेखन में नए विषय और शिल्प चुनूं और उसी पर काम करूँ |(खेमेबाजी से दूर एक छोटे शहर में रहकर कितनी सफल हो पाती हूँ पता नहीं ... )पहल के किसी अंक (स्वीकृत कहानी )''डायरी शैली'',नया ज्ञानोदय की जुलाई २०१३ के प्रकाशित कहानी  और सितम्बर 2013 में' 'हंस' में प्रकाशित होने वाली कहानी जो सिर्फ नरेटर के द्वारा कही गई है (एक पात्रीय कहानी )इसी प्रयोग के हिस्से हैं |मैंने बचपन में वसंत पोद्दार और सुमन धर्माधिकारी के एकल अभिनय वाले नाटक देखे हैं जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया था |और अब एक एकल नाटक लिख रही हूँ अपने लिए स्वयं अभिनय करने के लिए ..एकल अभिनय...|''हंस'' की कहानी इसी ''एक पात्रीय''प्रयोग का एक हिस्सा है .|ये कहानी लम्बी कहानी है और कश्मीर पर है लेकिन कश्मीर पर लिखी गई अन्य कहानियों से अलग |पढियेगा तो महसूस कीजिएगा ...इंशाल्लाह ..प्रयोग सफल होगा |
वंदना