30 दिसंबर 2013
29 दिसंबर 2013
एक कविता
एक कविता
एक कविता ....
आधी रात के घुप्प
अँधेरे में
क्षितिज पर टंगी एक
नन्ही झिर्री से
उतरती रहस्य की नीली
रोशनी
फैलती समूची धरती
पर
जिब्रान के हर्फों
की काया पहन
एक कविता ....
किसी खंडहर हो चुके
काल की अंतिम सीढ़ी पर
बैठी एक अनाकृत
आकृति(छाया )
अपने पैरों के नीचे
की ज़मीन को
मजबूती से थामे
बिना किसी दीवार के
सहारे
ओक्तोवियो पॉज़ की
कल्पना –सी .........
एक कविता .....
किसी बूढ़ी दीवार में
से फूटा लावारिस पीपल का पौधा
अपने हिस्से की गीली
ज़मीन को तकता
हुआ
अनवरत ....
कन्फ्युशियस के मौन
विराट में धंसता
एक कविता ....
सैंकड़ों असंभावनाओं
व् निराशाओं के बीच
रखती है अपनी यात्रा जारी
कल्पना की आँखों से
रंग बिरंगे महकदार फूलों की क्यारियों को
छूती
,निस्पृह ..निशांत
सुर्ख नीले, ध्यान
मग्न आसमान को देखते हुए
वर्डस वर्थ के
अतीतजीवी स्वप्नीं से गुज़रती
एक कविता ....
उतरती है
असत्य के खिलाफ
नैतिकता के आंगन में
तमाम अनिश्चितताओं
को नकारती हुई
वोल्टेयर
मौन्तेस्क्यु के विचारों की सीढ़ियों से ?
एक कविता ....
गढ़ सकती है परिभाषा
अंधेरों की जो
किसी रोशनी के खिलाफ न होकर
एक परलौकिक धुंधलके
की ठंडी गुफा में
दाखिल हों रही हो
रिल्के और हैव्लास की
मशाल के पीछे
एक कविता
रचती है
निस्सारता की काली
रेखाओं से
एक अप्रतिम छवि
गणेश पाइन की
काल्पनिक म्रत्यु की दीवार पर
एक कविता ...
खोल सकती है हज़ारों परतें
मन की
प्याज के छिलकों की तरह
चेखव की कहानियों के
पात्रों सी
एक कविता
उगा सकती है
संभावनाओं की नई पौध
नेरुदा माल्तीदा
,अम्रता इमरोज़ या
लीडिया एव्लोव व्
चेखव के प्रेम गाथाओं की नर्म ज़मीन पर
या
डुबा के अपनी उम्मीद
अश्रु की स्याही में
लिख सकती है
करुना के पन्ने पर
अपना सच/संवेग
मुक्तिबोध के
दुह्स्वप्नों सी
वो उग सकती है
घुप्प अंधेरी गुफा
में दीपक बनकर
पूर सकती है पूरी
प्रथ्वी को
नील-श्वेत अलौकिक
चौंध से
आबिदा परवीन की
उन्मुक्त खनकदार आवाज़ के सहारे
वो....
झरती है ऊँचे पर्वत
से
पिघलती चांदी के
झरने के साथ
अंधेरी रात में
खामोश
खुद से गुफ्तगू करते
हुए
निर्मल वर्मा के
गद्य में
एक कविता
बतिया सकती है स्वप्न में
‘’हकीम सानाई की
‘’हदीकत-उल-हकीकत’’ से
या
अल्लाह के बन्दों की ज़मात के साथ गुज़रती
किसी घने जंगल
में
एकांत-चांदनी से
प्रेमालाप करती हुई
एक कविता
बजती है किसी नदी के
किनारे
उदास ...धीमे धीमे
बीथोवन के संगीत सी
एक कविता
काल को पूरा जीकर
नियति को परिणिति की
देहरी तक विदा कर
लौट सकती है
हेमिंग्वे के
निस्सारता बोध से
एक बार फिर नई
स्रष्टि रचने को
एक कविता.....
(प्रकाशित)
25 दिसंबर 2013
विकल्प
मैं आजकल जब एक
कहानी लिखना शुरू करती हूँ
स्त्री की जगह
अजीबोगरीब शब्द लिख जाती हूँ
जैसे इंसान ,जैसे हवा
...जैसे बारिश ..जैसे ...धूप जैसे
पक्षी ....
देखती हूँ लिखा हुआ
कहीं भी पिंजरा ,ज़ख्म ,ज़ंजीर,
आंसू जैसे शब्द
लगा देती हूँ उन पर
काली स्याही से क्रॉस
या ढँक देती हूँ
‘’वाईटनर ‘’ से
एक अवसाद की छाया
कांपती रहती है
इन शब्दों के आतंक
तले
न जाने क्यूँ अब
स्त्री को स्त्री लिखने में डरती हूँ
मेरे भीतर की स्त्री
जानती है कि
हवा पर कोई विमर्श
नहीं हो सकता
ना ही बारिश पर कोई आरोपण
लताओं व् नदियों के
उगने /बहने पर कोई
प्रश्न नहीं किये
जाते
चांदनी रोजाना अपने
मन के रथ पर बैठ
निकलती है
धूप को रौंदा नहीं
जा सकता
ना ही परछाई को
कुचला
तो क्यूँ न स्त्री
को हवा ,बारिश,धूप ,धरती
या
इंसान के नाम से
पुकारा जाए?
20 दिसंबर 2013
फेसबुक से ...
बकौल अर्चना वर्मा जी ....’’सिर्फ़ एक घमासान है। दिखता नहीं कि क्या है जो बदल रहा है, बदल कर क्या बन रहा है, कुछ बन भी रहा है या सिर्फ टूट रहा है? जड़ताएँ पिघल तो रही हैं;
लेकिन जड़ताएँ बर्फ़ की तरह नहीं पिघलतीं कि पानी का साफ़ प्रदूषण रहित प्रवाह बन के बह चलें। वे टूटती हैं, भूकम्प मेँ इमारतों की तरह मलबे में बदलती, पत्थरों के ढोंको की तरह प्रवाह में भी टकराती, उसको बाधित......|’’दरअसल तथाकथित जड़ताएं अमूर्त या निश्चल नहीं है बल्कि इन्हें यदि संवेदनात्मक जड़ताएं बनाम स्वार्थपरक खेमों में लिप्त क्रूरता का कोलाहल कहा जाये तो ज्यादा सही होगा |तरुण तेजपाल ,गांगुली और अब खुर्शीद ये नए प्रकरण हैं जिनके केंद्र में अपराध एक ही है स्त्री का शोषण |कुछ व्यवस्थापरक /विचारजनित विडंबनायें है जो इन मुद्दों की भयानक परिणति अथवा आरोपी की सामाजिक हत्या के वायस बनते हैं |इसके लिए हमें इतिहास के कुछ पीछे के पन्ने पलटने होंगे और आधुनिकता के नाम पर जो अति स्वछान्ताता (अमर्यादित सीमाओं )का एक नया परिवेश गढ़ा जा रहा है उस पर भी विचार करना होगा |
आज नाबालिग की आयु कानूनी दायरों में १८ वर्ष है |नाबालिग अपराधियों को हमारे संविधान में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट ‘’ के तहत जुवेनाईल होम भेज दिया जाता है |क्या आज जब फिल्मों से सेंसर की औपचारिकता तक अपना अस्तित्व खो चुकी है ,जहाँ इंटरनेट पर अश्लीलतम कही जाने वाली साईटें मौजूद हैं ,जब बच्चों की बाल पत्रिकाओं की जगह कार्टून फिल्मों और वीडियो गेम ले चुके हैं जिनमे अब अनर्गल और अजीबोगरीब सामग्री परोसी जा रही है ..ऐसे माहौल में क्या अठारह बरस की उम्र का क़ानून सही है?यदि हाँ तो बलात्कारों के मामलों में सुधार गृह क्यूँ इस ‘’अबोध’’ उम्र के लड़कों से और छोटी प्रताड़ित लड़कियों भरी हुई है |और इन ‘’सुधर ग्रहों ‘’ के भीतर की अराजकता और निरंकुशता किसी नरक से कम नहीं जहाँ तथाकथित बच्चे पूर्णतः समाज के अपराधी नागरिक बनकर निकलते हैं |क्या दिल्ली रेप कांड का वो बलात्कारी वाकई अबोध था? निम्न वर्ग के बच्चे (जिनमे लड़कियां भी शामिल हो सकती हैं )आज की फिल्मों ,आधुनिकतम पोशाकों की नकल करने ,आर्थिक विसंगतियां ,और अछे बुरे के नतीजों से अनभिज्ञ होने के कारन गन्दगी में फंसते चले जाते हैं जिसका लाभ सफ़ेद पोश वर्गों द्वारा भी उठाया जाता है |इतिहास साक्षी है कि राजा से लेकर साधू संतों तक ने स्त्री को भोग्य ही माना है और आज के इस विकासरत और आधुनिक परिवेश में उच्च ओहदों ,आर्थिक रूप से सुसंपन्न पुरुषों को फाइव स्टार होटलों में स्त्री बगैर किसी हील हुज्ज़त के कॉल गर्ल्स या बार गर्ल्स आदि के रूप में उपलब्ध होती है तो निम्न वर्ग को छीना झपटी करके |
वस्तुतः बलात्कार जैसी जघन्य घटनाएँ हमारे क़ानून पर एक तमाचा ही हैं |हमारे संविधान के अनुच्छेद १४ में कानूनी तौर पर स्त्री और पुरुष बराबर हैं ?क्या कभी दी गई किसी मुजरिम को इस उल्लंघन की सज़ा ?गौरतलब है कि लड़कियों की शादी की उम्र १० वर्ष थी फिर १९५६ में शारदा एक्ट के तहत अठारह वर्ष हुई संभवतः इसके पीछे मुख्य कारन जनसँख्या रही होगी | लेकिन जनसँख्या तो बावजूद कानून संशोधन के भी नियंत्रित न हो सकी और अपराध अलबत्ता कई गुना बढ़ गए |
अब एक द्रष्टि आज के स्त्री विमर्श लेखन पर ...
सन १८९७ में ‘’वीमेंस इन्डियन एसोसियेशन ‘’,१९२५ में नेशनल काउन्सिल ऑफ़ वीमेन इन इण्डिया ‘’ और सन १९२७ में ‘’अखिलभारतीय महिला परिषद्’’ की स्थापना महिलाओं को उनके अधिकार और न्याय दिलाने के उद्देश्य से ही हुई |जो आज भी जारी है बल्कि अब पहले से अधिक अभिव्यक्ति की स्वछंदता ,संभावनाओं और सोद्देश्यता के साथ |अच्छी बात है |लेकिन कहीं न कहीं लगता है कि कितना कुछ लिखा जा रहा है स्त्रियों को उनके हक और न्याय दिलाने के पक्ष में लेकिन क्या ये सब चेष्टाएँ /मुहीम एक बिना जड़ के पौधे में खाद पानी देने जैसा ही नहीं ?अर्थात सबसे पहले अव्यवस्थाओं के खरपतवारों की उन जड़ों को खोदना चाहिए जो इन विडम्बनाओं क्रूरताओं के रूप दिखाई दे रही हैं |मुहीम की शुरुवात अश्लीलता को रोकने की कोशिशों से शुरू होना चाहिए संभवतः | स्त्री विमर्श लेखन इतना अतिवादी,एक पक्षीय और इकहरा हो गया है की अपनी ऊर्जा खो रहा है नजीतन इसमें एक तरह की जड़ता और दोहराव आने लगा है |जब दलीलें एक पक्षीय और अपनी बात मनवाने की जिद्द के साथ की जाती हैं तो उनमे विश्वसनीयता नहीं रह पाती |उदहारण के लिए अभी सामने आयी कुछ घटनाएँ खुर्शीद अनवर पर बलात्कार का आरोप और उनका आत्महत्या कर लेना |इसमें सच झूठ से परे जाकर एक बार एक प्रतिशत भी हम गुनहगार लडकी को क्यूँ नहीं मान सकते ? तब जबकि हिन्दुस्तानी समाज में लड़कियों का शराब पीना और फिर दोस्त के यहाँ रहना उचित नहीं माना जाता ?किस स्त्री विमर्शकर्ता ने इस पक्ष पर ध्यान दिया जैसे तेजपाल के प्रकरण में तरुण तेजपाल निस्संदेह दोषी हैं लेकिन उनकी पत्रकार मित्र कैसे तैयार हो गई और फिर इतने दिनों बाद आरोप लगाने का क्या मकसद था ? एक बहुत ही हास्यास्पद और अजीबोगरीब कहें की ‘’रीति’’ चल निकली है जिसका संवाहक निस्संदेह फेसबुक जैसे माध्यम है वो ये की यहाँ कोई भी खबर ध्वनी की गति से अवतरित होती है ... उस पर लांछनों सहमतियों असहमतियों की बौछारें प्रारंभ हो जाती हैं और खबर यदि कोई अचानक और अनापेक्षित मोड़ ले लेती है तो तुरत संवेदनाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है और आरोपी अचानक ही बेचारा हो जाता है |(वंदना )
लेकिन जड़ताएँ बर्फ़ की तरह नहीं पिघलतीं कि पानी का साफ़ प्रदूषण रहित प्रवाह बन के बह चलें। वे टूटती हैं, भूकम्प मेँ इमारतों की तरह मलबे में बदलती, पत्थरों के ढोंको की तरह प्रवाह में भी टकराती, उसको बाधित......|’’दरअसल तथाकथित जड़ताएं अमूर्त या निश्चल नहीं है बल्कि इन्हें यदि संवेदनात्मक जड़ताएं बनाम स्वार्थपरक खेमों में लिप्त क्रूरता का कोलाहल कहा जाये तो ज्यादा सही होगा |तरुण तेजपाल ,गांगुली और अब खुर्शीद ये नए प्रकरण हैं जिनके केंद्र में अपराध एक ही है स्त्री का शोषण |कुछ व्यवस्थापरक /विचारजनित विडंबनायें है जो इन मुद्दों की भयानक परिणति अथवा आरोपी की सामाजिक हत्या के वायस बनते हैं |इसके लिए हमें इतिहास के कुछ पीछे के पन्ने पलटने होंगे और आधुनिकता के नाम पर जो अति स्वछान्ताता (अमर्यादित सीमाओं )का एक नया परिवेश गढ़ा जा रहा है उस पर भी विचार करना होगा |
आज नाबालिग की आयु कानूनी दायरों में १८ वर्ष है |नाबालिग अपराधियों को हमारे संविधान में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट ‘’ के तहत जुवेनाईल होम भेज दिया जाता है |क्या आज जब फिल्मों से सेंसर की औपचारिकता तक अपना अस्तित्व खो चुकी है ,जहाँ इंटरनेट पर अश्लीलतम कही जाने वाली साईटें मौजूद हैं ,जब बच्चों की बाल पत्रिकाओं की जगह कार्टून फिल्मों और वीडियो गेम ले चुके हैं जिनमे अब अनर्गल और अजीबोगरीब सामग्री परोसी जा रही है ..ऐसे माहौल में क्या अठारह बरस की उम्र का क़ानून सही है?यदि हाँ तो बलात्कारों के मामलों में सुधार गृह क्यूँ इस ‘’अबोध’’ उम्र के लड़कों से और छोटी प्रताड़ित लड़कियों भरी हुई है |और इन ‘’सुधर ग्रहों ‘’ के भीतर की अराजकता और निरंकुशता किसी नरक से कम नहीं जहाँ तथाकथित बच्चे पूर्णतः समाज के अपराधी नागरिक बनकर निकलते हैं |क्या दिल्ली रेप कांड का वो बलात्कारी वाकई अबोध था? निम्न वर्ग के बच्चे (जिनमे लड़कियां भी शामिल हो सकती हैं )आज की फिल्मों ,आधुनिकतम पोशाकों की नकल करने ,आर्थिक विसंगतियां ,और अछे बुरे के नतीजों से अनभिज्ञ होने के कारन गन्दगी में फंसते चले जाते हैं जिसका लाभ सफ़ेद पोश वर्गों द्वारा भी उठाया जाता है |इतिहास साक्षी है कि राजा से लेकर साधू संतों तक ने स्त्री को भोग्य ही माना है और आज के इस विकासरत और आधुनिक परिवेश में उच्च ओहदों ,आर्थिक रूप से सुसंपन्न पुरुषों को फाइव स्टार होटलों में स्त्री बगैर किसी हील हुज्ज़त के कॉल गर्ल्स या बार गर्ल्स आदि के रूप में उपलब्ध होती है तो निम्न वर्ग को छीना झपटी करके |
वस्तुतः बलात्कार जैसी जघन्य घटनाएँ हमारे क़ानून पर एक तमाचा ही हैं |हमारे संविधान के अनुच्छेद १४ में कानूनी तौर पर स्त्री और पुरुष बराबर हैं ?क्या कभी दी गई किसी मुजरिम को इस उल्लंघन की सज़ा ?गौरतलब है कि लड़कियों की शादी की उम्र १० वर्ष थी फिर १९५६ में शारदा एक्ट के तहत अठारह वर्ष हुई संभवतः इसके पीछे मुख्य कारन जनसँख्या रही होगी | लेकिन जनसँख्या तो बावजूद कानून संशोधन के भी नियंत्रित न हो सकी और अपराध अलबत्ता कई गुना बढ़ गए |
अब एक द्रष्टि आज के स्त्री विमर्श लेखन पर ...
सन १८९७ में ‘’वीमेंस इन्डियन एसोसियेशन ‘’,१९२५ में नेशनल काउन्सिल ऑफ़ वीमेन इन इण्डिया ‘’ और सन १९२७ में ‘’अखिलभारतीय महिला परिषद्’’ की स्थापना महिलाओं को उनके अधिकार और न्याय दिलाने के उद्देश्य से ही हुई |जो आज भी जारी है बल्कि अब पहले से अधिक अभिव्यक्ति की स्वछंदता ,संभावनाओं और सोद्देश्यता के साथ |अच्छी बात है |लेकिन कहीं न कहीं लगता है कि कितना कुछ लिखा जा रहा है स्त्रियों को उनके हक और न्याय दिलाने के पक्ष में लेकिन क्या ये सब चेष्टाएँ /मुहीम एक बिना जड़ के पौधे में खाद पानी देने जैसा ही नहीं ?अर्थात सबसे पहले अव्यवस्थाओं के खरपतवारों की उन जड़ों को खोदना चाहिए जो इन विडम्बनाओं क्रूरताओं के रूप दिखाई दे रही हैं |मुहीम की शुरुवात अश्लीलता को रोकने की कोशिशों से शुरू होना चाहिए संभवतः | स्त्री विमर्श लेखन इतना अतिवादी,एक पक्षीय और इकहरा हो गया है की अपनी ऊर्जा खो रहा है नजीतन इसमें एक तरह की जड़ता और दोहराव आने लगा है |जब दलीलें एक पक्षीय और अपनी बात मनवाने की जिद्द के साथ की जाती हैं तो उनमे विश्वसनीयता नहीं रह पाती |उदहारण के लिए अभी सामने आयी कुछ घटनाएँ खुर्शीद अनवर पर बलात्कार का आरोप और उनका आत्महत्या कर लेना |इसमें सच झूठ से परे जाकर एक बार एक प्रतिशत भी हम गुनहगार लडकी को क्यूँ नहीं मान सकते ? तब जबकि हिन्दुस्तानी समाज में लड़कियों का शराब पीना और फिर दोस्त के यहाँ रहना उचित नहीं माना जाता ?किस स्त्री विमर्शकर्ता ने इस पक्ष पर ध्यान दिया जैसे तेजपाल के प्रकरण में तरुण तेजपाल निस्संदेह दोषी हैं लेकिन उनकी पत्रकार मित्र कैसे तैयार हो गई और फिर इतने दिनों बाद आरोप लगाने का क्या मकसद था ? एक बहुत ही हास्यास्पद और अजीबोगरीब कहें की ‘’रीति’’ चल निकली है जिसका संवाहक निस्संदेह फेसबुक जैसे माध्यम है वो ये की यहाँ कोई भी खबर ध्वनी की गति से अवतरित होती है ... उस पर लांछनों सहमतियों असहमतियों की बौछारें प्रारंभ हो जाती हैं और खबर यदि कोई अचानक और अनापेक्षित मोड़ ले लेती है तो तुरत संवेदनाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है और आरोपी अचानक ही बेचारा हो जाता है |(वंदना )
18 दिसंबर 2013
11 दिसंबर 2013
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