कल NDTV पर कुछ जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ताओं की बातचीत
सुनी ..अच्छी लगी |इसमें सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री कमला भसीन भी थीं उनके कुछ विचार
यहाँ संक्षिप्त में ..
पुरुष सत्तात्मकता
का दोष सिर्फ पुरुष के ऊपर मढना गलत है क्यूँ कि इस विचार व् धारणा में स्त्री भी बराबर
की भागीदार है वो इस तरह कि वो स्वयं उसे सहर्ष स्वीकार रही है | वो पति के लिए
व्रत उपवास/ पूजा पाठ करती है | घर/ ऑफिस दौनों मोर्चो को स्वयं संभालती है |बच्चों
के स्कूल में फीस भरने या पेरेंट्स टीचर मीटिंग में खुद जाती है अर्थात घर बाहर की
तमाम जिम्मेदारियां वो स्वयं अकेले उठाना अपना कर्तव्य समझती है | कमला भसीन जी की
इस दलील से कुछ अंश तक सहमत हुआ जा सकता है क्यूँ कि पहले की अपेक्षा आज की पीढी
अपने बच्चों व् परिवार को लेकर ज्यादा सजग है |संभवतः इसका कारण एकल परिवार व् पति
पत्नी दौनों का नौकरीपेशा होना है |लेकिन अपने अगले ही वाक्य में कमला जी कहती हैं
हालाकि इस वर्ग (मध्यवर्ग)की स्त्री बाकयदा मानवता और नैतिकता के आधार पर (दलील दे
) विरोध भी करती है लेकिन उसके विरोध को इस पुरुषवादी समाज में ज्यादा तरजीह नहीं
दी जाती वैसे भी विरोध करने वाली स्त्री तो पढी लिखी , जागरूक और आधुनिक महिला है
लेकिन इसका प्रतिशत अपेक्षाकृत ( औसत रूप से )बहुत कम है इस वर्ग की ज्यादातर
महिलाएं सब कुछ सह जाने में ही अधिक विशवास और सुरक्षा महसूस करती हैं | हमारे
यहाँ लडकी के मन में शुरू से ये भरा जाता है कि उसे दूसरे घर जाना है , वहां सबकी
सेवा करनी हैं ,पति का ख्याल रखना है इन्हें सुसंस्कारों में जोड़ा जाता है लेकिन
उसी घर ले लड़के को क्या ये ‘’संस्कार’’ दिए जाते हैं कि तुम्हे खाना बनाना या घर
का कामकाज सीखना है ताकि अपनी नौकरीपेशा पत्नी
(जो आजकल ८० प्रतिशत ) है उसे सहयोग कर सको ? कमला भसीन जी ने बताया कि आज निम्न
वर्ग की महिलायें अपेक्षाकृत अधिक साहसी महिलायें हैं |वो पति से पिटती भी हैं तो
चीख चिल्लाकर उसका विरोध भी करती हैं और सार्वजानिक रूप से उसे गालियाँ देने का
माद्दा भी रखती हैं | लेकिन मध्यवर्ग की स्त्री घरेलू हिंसा को चुपचाप सहती है , ‘’गिर
गयी थी ‘’ कहकर चोटों को छिपाती हैं |एक तो उस पर ‘समाज क्या कहेगा’’ का संकोच और
दुसरे ‘’कहीं निकाल दिया तो कहाँ जायेगी “ की फ़िक्र | वो कहती हैं कि मैं अपने घर
की पहली पीढी हूँ जब घर से बाहर नौकरी के
लिए निकली लेकिन उस वक़्त मेरे घर में जो बाई काम कर रही थी उसकी दादी परदादी भी
आत्म निर्भर थी घरों में काम करती थी | संघर्ष सभी वर्गों की महिलायें करती हैं
लेकिन उन संघर्षों व् पीडाओं को सहती अलग अलग तरीके से हैं | अंत में उन्होंने
अपनी ही लिखी एक कविता के कुछ अंश पढ़े जिनका अर्थ कुछ ये था ‘’आज की लडकियां सूरज
की तरह चमकती हैं , लहरों की तरह लहराती हैं, फूलों की तरह खिलती हैं क्यूँ कि
उन्हें इन सबमे आनंद आता है ...उन्हें खिलने दो...बहने दो...चमकने दो....|
कल NDTV पर कुछ जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ताओं की बातचीत
सुनी ..अच्छी लगी |इसमें सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री कमला भसीन भी थीं उनके कुछ विचार
यहाँ संक्षिप्त में ..
पुरुष सत्तात्मकता
का दोष सिर्फ पुरुष के ऊपर मढना गलत है क्यूँ कि इस विचार व् धारणा में स्त्री भी बराबर
की भागीदार है वो इस तरह कि वो स्वयं उसे सहर्ष स्वीकार रही है | वो पति के लिए
व्रत उपवास/ पूजा पाठ करती है | घर/ ऑफिस दौनों मोर्चो को स्वयं संभालती है |बच्चों
के स्कूल में फीस भरने या पेरेंट्स टीचर मीटिंग में खुद जाती है अर्थात घर बाहर की
तमाम जिम्मेदारियां वो स्वयं अकेले उठाना अपना कर्तव्य समझती है | कमला भसीन जी की
इस दलील से कुछ अंश तक सहमत हुआ जा सकता है क्यूँ कि पहले की अपेक्षा आज की पीढी
अपने बच्चों व् परिवार को लेकर ज्यादा सजग है |संभवतः इसका कारण एकल परिवार व् पति
पत्नी दौनों का नौकरीपेशा होना है |लेकिन अपने अगले ही वाक्य में कमला जी कहती हैं
हालाकि इस वर्ग (मध्यवर्ग)की स्त्री बाकयदा मानवता और नैतिकता के आधार पर (दलील दे
) विरोध भी करती है लेकिन उसके विरोध को इस पुरुषवादी समाज में ज्यादा तरजीह नहीं
दी जाती वैसे भी विरोध करने वाली स्त्री तो पढी लिखी , जागरूक और आधुनिक महिला है
लेकिन इसका प्रतिशत अपेक्षाकृत ( औसत रूप से )बहुत कम है इस वर्ग की ज्यादातर
महिलाएं सब कुछ सह जाने में ही अधिक विशवास और सुरक्षा महसूस करती हैं | हमारे
यहाँ लडकी के मन में शुरू से ये भरा जाता है कि उसे दूसरे घर जाना है , वहां सबकी
सेवा करनी हैं ,पति का ख्याल रखना है इन्हें सुसंस्कारों में जोड़ा जाता है लेकिन
उसी घर ले लड़के को क्या ये ‘’संस्कार’’ दिए जाते हैं कि तुम्हे खाना बनाना या घर
का कामकाज सीखना है ताकि अपनी नौकरीपेशा पत्नी
(जो आजकल ८० प्रतिशत ) है उसे सहयोग कर सको ? कमला भसीन जी ने बताया कि आज निम्न
वर्ग की महिलायें अपेक्षाकृत अधिक साहसी महिलायें हैं |वो पति से पिटती भी हैं तो
चीख चिल्लाकर उसका विरोध भी करती हैं और सार्वजानिक रूप से उसे गालियाँ देने का
माद्दा भी रखती हैं | लेकिन मध्यवर्ग की स्त्री घरेलू हिंसा को चुपचाप सहती है , ‘’गिर
गयी थी ‘’ कहकर चोटों को छिपाती हैं |एक तो उस पर ‘समाज क्या कहेगा’’ का संकोच और
दुसरे ‘’कहीं निकाल दिया तो कहाँ जायेगी “ की फ़िक्र | वो कहती हैं कि मैं अपने घर
की पहली पीढी हूँ जब घर से बाहर नौकरी के
लिए निकली लेकिन उस वक़्त मेरे घर में जो बाई काम कर रही थी उसकी दादी परदादी भी
आत्म निर्भर थी घरों में काम करती थी | संघर्ष सभी वर्गों की महिलायें करती हैं
लेकिन उन संघर्षों व् पीडाओं को सहती अलग अलग तरीके से हैं | अंत में उन्होंने
अपनी ही लिखी एक कविता के कुछ अंश पढ़े जिनका अर्थ कुछ ये था ‘’आज की लडकियां सूरज
की तरह चमकती हैं , लहरों की तरह लहराती हैं, फूलों की तरह खिलती हैं क्यूँ कि
उन्हें इन सबमे आनंद आता है ...उन्हें खिलने दो...बहने दो...चमकने दो....|