प्रेमचंद एक यथार्थवादी लेखक रहे हैं सहजता के भीतर गहन लेखन मंतव्य
जो उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक है | उनके लेखन की या
अप्रत्यक्षतः यथार्थवादी लेखन की आलोचना भांति भांति से की गई इसके बारे में सिर्फ
यही कहा जा सकता है कि मौजूदा युग एक मशीन में तब्दील हो चुके विचारों या दिमागी
शिराओं के लचीला हीन हो जाने का युग है
जहाँ सच्ची और सरल बातों से ज्यादा लोगों की रूचि असाधारण और मनगढ़ंत बातों में है
जिसकी परिणिति ‘’यूज़ एंड थ्रो’’ के आधुनिक चलन में निहित है साहित्य भी इससे अछूता
नहीं |यह एक वैचारिक,संवेदनात्मक क्रूरता का समय है और जैसा की गोर्की ने कहा कि
‘’क्रूरता का पूर्ण विस्तार होना चाहिए |तब हर आदमी इससे ऊब उठेगा उसके प्रत्ति
उनमे घ्रणा जाग्रत हो जायेगी जैसे पतझड़ के इस गंदे मौसम है ‘’|मौसम से तुलना करने
का उनका औचत्य संभवतः आशावादी है जिससे वह बदलकर कभी वसंत और एनी ऋतुओं में भी
परिवर्तित होगा \
अद्भुत हैं वो
साधारण लोग जिन्हें हासिल सबसे कम होता है और जो देते सर्वाधिक हैं |(ज्ञानरंजन )
साहित्य काल सापेक्ष गति है .. प्रेमचंदी यथार्थ परकता का अवसान
(?)उसी नियति से उपजा एक ‘’यथार्थ ‘’ है
बहरहाल प्रेमचंद के समय की सामाजिक राजनैतिक स्थितियां वर्ग-पक्षीय और समाज
विरोधी थीं |पूंजीवाद,सामन्तवाद और साम्राज्यवाद ने गरीबों को हलाकान कर रखा था |
|देश की आजादी के उपरान्त समूची छिन्न भिन्न व्यवस्थायें अपना रूप सुनिश्चित करने
और एक नए ढाँचे में परिवर्तित होने को अकुला रही थीं जो निश्चिततः देश के विकास और
उसकी सम्रद्धि का स्वप्न आँखों में संजोये थी इसी ‘’ नवीनता और सुधार’’
कार्यक्रमों में सबसे पहले गांधी जी ने जो कुटीर नीति और ग्राम स्वराज की
परिकल्पना /स्थापना की थी उसे स्थगित कर दिया गया |राजकुमार राकेश अपने निबंध में
लिखते हैं कि उस समय आर्थिक विकास का जो मॉडल तैयार किया गया था वो बहुत हद तक
सोवियत मॉडल जैसा था |नेहरु जी की धारणा थी कि वंचित तबकों को समता और समानता के
आधारों पर खड़ा करके एक ऐसे समाज की स्थापना की जाए जो आर्थिक असमानताओं को नकारता
हो (प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य का एक महास्वप्न...यूटोपिया)...लेकिन जैसा की
सर्वविदित सत्य है कि साहित्य भी अन्य विचारधाराओं ,आदि की तरह समय सापेक्ष अपनी
गति रखता है इंदिरा गांधी का समय इस ‘’महास्वप्न ’’ के टूटने का समय था |खैर |
हिन्दुस्तानी यथार्थवादी साहित्य (उपन्यास) के प्रतिनिधि प्रेमचंद
सेवा सदन ,कायाकल्प ,निर्मला ,गोदान जैसे उपन्यास /कहानी से आधुनिक सामाजिक
सुधारवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी परम्परा को यथार्थवादी शैली
के ‘’झूठा सच ‘’ के लेखक यशपाल आगे बढाते हैं |(बलचनमा के लेखक नागार्जुन तक)|
आंचलिक उपन्यासों की शुरुआत फनीश्वरनाथ रेनू के ‘’मैला अंचल’’ से मानी
जाती है और इसी यथार्थवादी आंचलिक साहित्य की यात्रा यहीं से होती हुई अब
शिवमूर्ति,ज्ञानरंजन,संजीव आदि तक पहुँचती है |
उल्लेखनीय है की प्रेमचंद के आरंभिक उपन्यास /कहानियां आदर्शोन्मुख
यथार्थवाद से प्रभावित/प्रेरित रहीं लेकिन शनैः शनैः उनका इस आदर्शवादिता से मोह
भंग हो गया |इसे उनकी दो रचनाओं के हवाले से जाना जा सकता है
आदर्शोन्मुख यथार्थ वाद -
(१)-पञ्च परमेश्वर का एक अंश –‘’जुम्मनशेख के मन में भी सरपंच
का उच्च स्थान ग्रहण करते ही जिम्मेदारी का भाव पैदा हुआ उसने सोचा कि मैं इस वक़्त
न्याय और धर्म के सर्वोच्च स्थान पर बैठा हूँ मेरे मुहं से इस वक़्त जो कुछ निकलेगा
वह देववाणी के सद्रश्य है मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नहीं है |’’
आदर्शवाद से मोहभंग -
(२)-‘’धनियाँ यंत्र की भांति उठी आज जो सुतली बेची थी उसी के बीस आने
लाई और पति के ठन्डे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली ‘’महाराज,घर में न
गाय है न बछिया ,न पैसा यही पैसे हैं यही इनका गो-दान है ..और पछाड़ खाकर गिर पडी |
गोदान का नायक सामन्तवादी विकृतियों से लड़ता हुआ अंतत समर्पण कर देता
है और यह समर्पण ही उस परंपरागत सामंतवादी प्रथा से विशवास और आस्था का टूट जाना
है |
ये तो उनकी प्रारंभिक और बाद की रचनाओं के अनुभव हैं लेकिन इनके अलावा
भी उन्होंने व्यंग,नाटक,कहानी ,उपन्यास ,निबंध लिखे और कमोबेश सभी का विषय
अन्ततोगत्वा सामाजिक स्थितियां ,व्यवस्थाएं और यथार्थ रहा |प्रेमचंद प्रगति वादी
थे और प्रगतिशील विचारों को द्रढ़ता से उन्होंने अपनी कई रचनाओं में प्रस्तुत किया
|यद्यपि प्रेमचंद के साहित्य में रूसी यथार्थवाद का काफी प्रभाव दिखाई देता है
लेकिन गोर्की के साहित्य में हम यथार्थवाद और रोमांस का सम्मिश्रण देखते हैं
|प्रेमचंद तौलास्तोय की तरह आस्थावान नहीं बल्कि नास्तिक थे |कुछ लोग उन पर
विचारधाराओं के सम्बन्ध में अटकलें ज़रूर लगते हैं जैसे प्रेमचंद प्रगतिशील
विचारधारा के थे और गोष्ठियों में जाते थे या उनकी विचारधारा मार्क्सवादी थी लेकिन
प्रेमचंद ने कहीं भी स्वयं को मार्क्सवादी नहीं कहा |
गोर्की ,प्रेमचंद और
मोपांसा के यथार्थवाद की समानताएं/ विषमतायें
उपरोक्त तीनों विख्यात
कथाकारों के साहित्य की अपनी भिन्न कथावस्तु,कथा –मर्म,और शिल्प होते हुए भी
प्रायः इनकी कथाओं में एक समानता परिलक्षित होती है वो ये कि उनका वर्ग या कथानायक
समाज से बहिष्कृत,तिरस्कृत और लाचार घ्रणित समझे जाने वाले लोग हैं |
प्रेमचन्द ने महान
उपन्यास ‘’गोदान’’ की जब रचना की तब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था उन्होंने
सामाजिक राजनैतिक व्यवस्थाओं ,अराजकता,ज़मींदारी प्रथा ,शोषण ,धर्म आदि का बहुत
वास्तविक और मर्म स्पर्शी वर्णन किया है |
वहीं ‘’माय चाइल्ड
हुड ‘’ में गोर्की लिखते हैं ‘’मैं अपनी नहीं उस दमघोंट और भयानक वातावरण की कहानी
कह रहा हूँ जिसमे साधारण रूसी अपना जीवन बिता रहा था ‘’
मोपांसा को
यथार्थवादी साहित्य का पिता कहा जाता है |(रचनाकाल १८८०-१८९१)-फ्रांसीसी लोगों के
मनोविज्ञान पर उनकी गहरी पकड़ थी |उस समय पेस्रिस पूरी तरह प्रुस्तियायी लोगों के
कब्ज़े में था |नोरमंडी किसानों की दारुण स्थिति के यथार्थ को उन्होंने हू ब हू
प्रस्तुत किया है |उनकी रचनाओं में गोर्की जैसा जीवट दिखाई देता है और ना तोलस्तोय
जैसी आस्था |लेकिन यथार्थ का चित्रण अतुलनीय है
इन तीनों लेखकों ने
अपने काल को अपनी रचनाओं में अविस्मरनीय बना दिया है उस यथार्थ को हर आने वाला काल
अपने वर्तमान की कसौटी पर कसेगा ही | लेकिन प्रश्न सिर्फ एक है वो ये कि इतना वक़्त
गुजरने के बाद भी क्या स्थितियां बदली हैं या फिर इन जैसे उपन्यास मात्र अपनी
बौद्धिक भूख को शांत करने मात्र का उपक्रम रह गए हैं ?
गोर्की ने एक जगह
लिखा भी है कि ‘’१८६८ की आधी रात को रूस में एक बच्चे की वो पहली चीख मुझे यकीन है
घ्रणा और विरोध की चीख रही होगी ‘’| ये गोर्की और उनकी व्यक्तिगत ‘व्यथा’ नहीं
बल्कि कमोबेश हर अविकसित/विकासरत देश के एक जागरूक व्यक्ति की परम्परानुगत अनुभूति
और असमर्थता की कुलबुलाहट का संकेत भी है |