30 जून 2011

होश



वो वादे जिनकी बुनियाद धोखे की साजिश , 
नहीं किये जाने चाहिए  ?
जो सौंपते हैं अपना यकीं भोजन के बदले तुम्हे  
उन्हें कसमों की तरह नहीं खाना चाहिए!
और तुम,जो ‘गोबर’ के बैल की तरह
बंध जाते हो किसी भी खूंटे पर
किस सूद के बदले ?
कब जानोगे  इस साजिश को कि
तेल किसी बीज से नहीं ,
निचोड़ा जा रहा है तुम्हारे जिस्म से
तुम्हारे होश को खूंटे में बाँध
कोल्हू के आसपास अभिमंत्रित हुए चकराते तुम
खोल फेंको आँखों की पट्टी जिसने सोख लिए हैं आँसू
युद्ध का शंख फूंकते तो सदियाँ गुजर गईं हैं
कुछ कर पाए क्या?
क्यूँ चैनलों ने खोल रखी हैं पाठशालाएं ?
क्या ‘’अच्छे इंसान’’बनने बंद हो गए हैं अब ?
यदि नहीं तो अच्छाई कहाँ छिपा दी गई है उनकी ?
किस खोह के भीतर ,
कौन सा वो युग जो दावा करता है तुमसे
सुकून से बीत जाने का?
कौन सा युग जिसका इतिहास
लिथड़ा ना हो खून से ?
कौनसा युग था बोलो स्त्री जहां
आंसुओं के तकिये पे नहीं  सोई
कब तक सत् युग के सपनों से
 कलियुग को भिगोते रहोगे?
जब तक लोक में रहकर
परलोक की फ़िक्र करना नहीं छोडोगे,
किसी पिछली सदी में उलझ कर मर जाओगे  
अफीम की खेती अब प्रतिबंधित होना चाहिए
साजिशें समझो धर्म को बाजार बना देने की ,
खरीदना भक्तों को किसी व्यापार के तहत
और बेचना धर्म को उन्हें कोडियों के भाव
कब तक इंतज़ार करोगे अवतारों का
अधर्म का नाश करने को ?
थोडा तो नज़र घुमाओ अपनी
कि युग बदल जायेगा
 पीड़ा से डरे बिना
ज़रा तो अकड़ी हुई गर्दन झटको
 रीढ़ का महत्व समझ पाओगे   

27 जून 2011

सुबह का तारा



सुबह का तारा ,अरसे बाद दिखा ,
 उम्मीदों की खुली खिडकी से
ना जाने कितने प्रकाश वर्ष दूर
एक अंधेर से कोने में ,टिमटिमाता हुआ
 अपने हिस्से के आकाश को
 हौले से थामे !   
 उस वक़्त रख रही थी मै तह करके
 उम्र को रात  के बक्से में, हर रोज की तरह!          
 एक हलकी सी दस्तक हुई उदासी की देहरी पर
 तो  सोचा करवट ली होगी किसी सपने ने शायद
  नीद में मुस्कुराते हुए ,
 यकायक बारिश की रिमझिम 
भिगोने लगीं हवा को
 झरने लगा हरसिंगार 
नरम दूब कि देह पर 
 ज्यूँ झनझनाती हैं उँगलियाँ सितार के तारों पर
 ज्यूँ फूटती हैं रागिनियाँ
 किसी बांस के झुरमुट से  
ज्यूँ उलीचता है चाँद हथेलियों में भर
चांदनी को और बिखर जाती है वो
मोतियों सी ज़मीन पर खिलखिलाते हुए  !
 होता है ऐसा,पर अक्सर नहीं
 कि परिधि छोटी पड़ जाती हो धरती की
बिखरे सपनों को समेटने के लिए  ,  
तब आंख से ,
किसी बुझी उम्मीद का काजल ले  
लगा देती हूँ वक़्त के माथे पर मै 

23 जून 2011

यात्रा


हजारों फीट ऊपर ज़मी से उड़ रही हूँ मै
बादलो से घिरी , बादलों को चीरते !
दूर दूर तक सिर्फ बादल, सिलेटी सफेद और लाल ...
क्षितिज में चल रही हैं होली लाल पीले चमकीले रंगों की
और घिरी हूँ मै कुछ सफेद बर्फ के टुकड़ों  से
एक अद्भुत  अनुभूति है यह 
चेहरों की ऊब और रिश्तों से मुक्ति की
उन अहसासों से जो धरती के किसी कोने में
मौका नहीं छोड़ते लिपट जाने का
अब धुंधला रहे हैं द्रश्य  
कितना साफ़ कितना स्पष्ट दीखता है यहाँ से  
सूरज का अस्त होना ,
और धीरे धीरे प्रवेश करना 
एक शून्य में ,
 जैसे जाती है उम्र, ख़ारिज होती जिंदगी को लिए
धीरे धीरे किसी तिलिस्म के भीतर  
दिपदिपा रहे हैं शहर कुछ लाल पीली बत्तियों में  
अपनी सीमाओं और उनके कारोबारों से निस्पृह
इतना ही  तो होता है जिंदगी और मौत का अर्थ 
कि हर  सुबह का  पहुँच जाना किसी गंतव्य तक
फिर बन जाने को किसी भीड़ का हिस्सा   
या फिर , रह जाना इन्हीं बादलों में कहीं ‘
हो जाते हुए बादल का एक टुकड़ा ......

17 जून 2011



यूँ भी तो हो सकता था  
कि हम कुछ कहते ही नहीं, और वो सुन लेते  
या यूँ, कि हम कहते और
वो खड़े हो जाते  विवेक के बल
पर यूँ नहीं होना चाहिए था
कि जो हमने सोचा भी नहीं  
और वो कर दिया उन्होंने
जो उन्हें नहीं करना चाहिए था

13 जून 2011

अंततः.......


एक खेल है यदि जिंदगी
तो हम सिर्फ परिभाषा हैं पराजय की?
 उम्मीदों की गर्म राख के भीतर   ,
 दहकती हुई कोई चिंगारी!
ढूंढ कर  उस अग्नि को,
और पुनः एक हिस्सा बन जाना 
जैसे समाते हैं सूर्य चाँद तारे
 किसी अद्रश्य बिंदु में?
जैसे समाती हैं नदियाँ
किसी अज्ञात बूंद में,
नदी में कागज कि नाव,
या किसी दीमक के पेट में समाता है कोई वृक्ष
जलोदधि में कोई अमृत कण या
अंदेशों के आतंक में घुला हुआ कोई सच ?
जैसे चली आती हैं व्याधियाँ
पुरखों के नाम के बदले ,
या कोई बहुत महीन सी आस्था
जो फंस जाती है किसी शिरा में
और जम जाती हैं तमाम नसें
 नीलेपन की प्रतिबद्धता के साथ
 जिंदगी के तमाम  प्रशनों का 
इकलौता ज़वाब यही है शायद ....

6 जून 2011

सम्बन्ध


                          


बचपन में मरने से बहुत डरती थी मै
 हलाकि इकहरा था ये शब्द ,अर्थ के बगैर
  उम्र का वो नाज़ुक हिस्सा, जहा शब्द किसी अर्थ में ढलने से पहले
 ,कन्धों  से फिसल जाया करते हैं ,या कि
 ढोने का  सलीका नहीं होता अर्थ को उन्हें तब
लिहाजा,शब्द का ‘’होना’’ नहीं बल्कि 
 डराता था  माहौल का घुल जाना उसमे ,
 जो आतंक  पैदा करता ,उन सन्नाटों से ,
जो किसी मृत-देह से निकल पसर जाते थे भय ग्रस्त चेहरों तक,
जैसे हर जिंदा चेहरे पर लटकता हुआ एक सच, फंदा बनकर
भटकती रहती मृतक  कि स्मृतियाँ घर भर में खुद को ढोती हुई
जबकि एन उसी  वक़्त , मै चाहती , अपनी मुस्कुराती गुडिया से खेलना
चाहती ,छत पर हाथ फैलाकर गोल २ घूमना /
जाना चाहती दादाजी कि उंगली पकड़ उछलती कूदती चौकलेट लेने बाज़ार तक /
समुद्र के किनारे गीली रेत में पैर घुसा घर बनाना चाहती थी मै,
 अर्थ के सामर्थ्य से अनभिग्य अक्ल  को उलटती पुलटती जब तक ,
  सन्नाटे लील चुके होते मेरी तमाम चाहतें  /
और मैं देखती रहती ,ऑंखें गढाए
निकटस्थों  के  उन बेरौनक चेहरों को ,जो
/प्रतीक्षा रत होते ,’सच’ और ‘भय’को सौपने वक़्त को  
वक़्त-जो इन्हें अपनी पीठ पर लाद ले जायेगा



किसी रस्मो रिवाज़ कि तरह
अँधेरी कोठरी में दबा आने को/और तब.../
 फिर से रोशन हो जायेंगे  चेहरे/
जिंदगी कि शाखों पर फिर झूलने लगेगी खुशियाँ /
खिलखिलाहटें बिखरने लगेंगी  मौसमों कि
खुशबूदार पकवानों और ढोलक कि थापों की
 /पर तब तक भूल चुकी होउंगी मै  खेलना गुड़ियों से/
गोल २ घूमना छत पर/चौकलेट के स्वाद/रेत का घर/
हल करते हुए जीवन  और रिश्तों के अबूझ समीकरण ....