26 सितंबर 2011

प्रेम ....


मन की दीवारों को नकारना था ,
चेहरों से परतों का खुद ब खुद उघड़ते जाना
हर पर्त के बीच टंका था एक युग  |
राख भरी आँखों से
देख पाना सबसे प्रगाढ़ प्रेम
सबसे प्राचीन भाषा में  
जब भाषा का अर्थ मौन रहा होगा  
पत्थर की मूर्तियों में वो तरल भंगिमाएं
धूल जम चुकी थी जिस पर
मृत शब्दों की विस्मृति सी
किस सदी की मुहर रही होगी ,पता नहीं
पर प्रेम का एक उद्दात्त छंद  
क्षितिज पर तिर्यक चाँद सा 
पलाश के दहकते जंगल सा 
बीते समय की उपस्थिति सा 
प्रेम .....

23 सितंबर 2011

मत पूछो


मत पूछो,कि सुबह इतनी धुंधली क्यूँ है?
ढूंढो रात की बैचेनी में वजह ...
ये सर्व - हारों का मुल्क है
खोखली -जीत का जश्न मनाता  
एक कच्चा सा रास्ता दिखा जिन्हें
उतर गए अपनी -२ उधड़ी हुई पीठों को लिए
सीनों पर रख दीये गए हैं पत्थर उनके 
सांस बची रहने की मोहलत देकर
विचारों पे पहरे हैं विवशताओं के   
काठ के उल्लू में तब्दील करते हुए  
जब  गड्ढों भरी सड़कों में गिरो
अपने पैरों को दोष देना सीखो |
जब सड़क पर बिखर जाये लहू तुम्हारा  
अपने टूटे फूटे अंगों को बाईं तरफ खिसका
रस्ता साफ़ करो विकास का  |
जब कभी खरोचने जैसा हो भीतर कुछ
कुतर दो नाखून दांतों से अपने  
जब भी लगे कि प्रहार हुआ है आत्मा पर
सतयुग का इंतज़ार करो
जब ऑंखें भर जाएँ किसी लाल द्रव से तो
 क्रिकेट की जीत के जश्न से धो डालो   
हर पन्द्रह अगस्त पर याद करो
कि हम और जकड़े जा रहे हैं
अपनी आज़ादी को बचाते  हुए
अंधेरों को पोंछकर हाथों से ,
कोई एक और दिन चुनो
अपनी आजादी का
एक शुरुवात ये भी तो हो सकती है
गुलामी के अंत की ?










20 सितंबर 2011

एक झूठ का सच....


जब भी आग लगती है किसी जंगल में
वो पानी पे दौड़ने के किस्से सुनाते है
गांव हो जाता है पूरा का पूरा मिथक
हुंकारे भरता रहता है सोते हुए   
भीतर जब भी खरोंच सा कुछ लगता है
जाने क्यूँ नाख़ून वो अपने छिपाते हैं
वो बोयें पेड़ आम .सेब या बादाम के
लगता हमेशा बबूल ही क्यूँ है ?
गुलाब की कलियों और चंपा चमेलियों में
क्यूँ तेज़ाब की तीखी गंधें फूटती हैं
जब भी रखते हैं वो हाथ गीता पे ,
क्यूँ तरबतर हो जाता है लहू से वो
तितलियों इन्द्रधनुष और सिन्दूरी सूरज में
एक लपट का ही रंग क्यूँ दिखाई देता है?
क्या थक गए हैं रंग अब खिलते खिलते ?
क्या खुशबुओं ने बिखरने से कर दिया है इनकार ?
क्या झूठ के भी अब
पर निकल आये हैं?

17 सितंबर 2011

पीढियां


उसकी समस्त शिक्षा ,ब्राहमणत्व का दंभ
एक पल में ढह गया था उस दिन,
जब भीषण अपराध बोध को ओढ़े
माँ ने अत्यंत गोपनीयता से बताया था  
उसके अश्वत्थामा के कुल के होने का रहस्य ..
उसने तो सुने थे बस गाँधी नेहरु के वंशज
देखी थीं बिरला अम्बानी की संतानें
बच्चों को जाति छिपाने की हिदायत से भी
ज्यादा गंभीर प्रकरण होगा ये, 
 जानने के लिए तब उसकी उम्र कच्ची थी  !.....
ये किसी सत्य का पीढ़ीगत दुराव था ...
हालाकि उसके पूर्वजों में शायद ही किसी ने ह्त्या की हो
या मित्र ने स्वार्थ व कलुष वश ,मित्र को ढाल बनाया हो
ना ही धोखे से किसी ने किसी की जान ली 
 किसी गुनाह के प्रायश्चित का अवसर भी नहीं आया ?
सब बचपन को खेलते ,जवानी का उत्सव मनाते,और बुढ़ापे को संयम से बिताते
बीत गए इस संसार से .....
कभी २ सोचती है वो  
क्यूँ नहीं याद आते उन्हें कौरव-पांडवों के आदर्श
 गुरु द्रोण......
जिनकी संतान था अश्वत्थामा ?
क्यूँ नहीं याद आता भूख से तडपते हुए
पुत्र की दशा ना देख पाने पर मित्र द्रुपद से
सहायता मांगने गए द्रोण का अपमान ?
क्यूँ नज़रंदाज़ करती रही पीढियां अश्वत्थामा का
मित्र दुर्योधन से पांडवों से मित्रता करने का अनुरोध?
क्यूँ भुला दिया जाता है उसके साथ हुए षड्यंत्रों का हिस्सा?
सिर्फ सुलग रही है ये पीढ़ी सदियों से
अश्वत्थामा के गुनाहों की राख तले
 द्रुपदी के पांच पुत्रों की हत्या का गुनहगार ?
जबकि खुले घूम रहे हैं
हजारों माओं के पुत्रों के हत्यारे,
खुल्ले आम इसी धरती पर ?..
क्यूँ अश्वत्थामा ही भटक रहा है पहाड़ों पहाड़ों
फफोलों और मवाद से भरे ज़ख्मों को ढोते
इस पीढ़ी के दृश्यों में ?

11 सितंबर 2011

माँ


मेरे ज़न्म के वक़्त माँ ने,
 उनके या मेरे में से किसी एक के
जीवित बचने की संभावना के चलते  
स्वयं म्रत्यु स्वीकारते हुए
मेरा ज़िंदा रहना बचा लिया था   
पर हम दौनों ही बच गए !
जीवन भर ढोती रहीं वो अपना जीना
मन की किसी ग्रंथि में दबाये
और  अपने ‘’जाने’’ तक,
इस अहसास से मुक्त नहीं हो पाईं
लिहाज़ा मेरे हर ज़न्म दिन पर
भगवान को नारियल चढाती रहीं
संभवतः उन्हें धन्यवाद देती हुईं!
अब सोचती हूँ ,
क्यूँ किया करीं वो ये?
जबकि जाना तो पहले ही
तय कर चुकी थीं वो अपना ही  ,
और वो चली भी गईं पहले ही ?
तो क्या ज़िंदा रहीं अब तक वो सिर्फ
भगवान को धन्यवाद देने के लिए?

9 सितंबर 2011

तुम वो तो नहीं ....



 नदी थीं उसकी ऑंखें
शांत गहरी निर्मल
मुक्त नौका सी उतराती इच्छाएं उस में 
पहाड़ों की परछाईंयों को हथेली में भर 
 टांग देती अनुभूति का एक छोर आसमान पर वो
स्वप्नों के सफ़ेद हंस पंक्तिबद्ध उतरते नहाने उसमे
आँखों से पहले मन भी रहा होगा ,
इच्छाओं के सघन वन में भटके हिरन –सा
उड़ा देतीं आँखें कुछ पंछी तडप के
उड़ते फिरते आसमान में उदास
लौट आते सांझ फिर आँखों में
आदम से छुई होगी जब वो
यही उसका देह हो जाना हुआ होगा
तत्क्षण मौसमों से भर गई होगी वो
पहाड़ों के पीछे छिप रहा होगा सूरज लेकिन
उसकी किरणों से नहा रही होगी तब तक
निर्वस्त्र.....निर्मल...निष्कंटक
रात में डूब गई वो या उसमे रात
चेत आने तक खिल चुकी थी धरती
एक प्रथ्वी धडक रही थी सीने में उसके
निर्लज्ज वासनाओं के पहरे में
एक नदी बहती है समुद्र की आँखों में
सहमी ठिठकी घुटी हुई
तटों के भीतर
चक्षु विहीन ! 

8 सितंबर 2011

युग



आकार लेती स्मृतियों की परछाइयाँ अक्सर ,
ठहर जाती हैं उन लम्हों के इर्द गिर्द
जिनके चेहरे कम, बिम्ब अधिक गाढ़े होते हैं
दृश्यों के धुन्धलाये चित्र
चंद चीखें देह पर चिपकी हुई 
शेष निशान आत्मा पर
कभी पक्षी यादों के, बैठ जाते हैं
किसी द्रश्य की डाल पर
कुतरते रहते हैं मौसम
अतीतजीवी स्मृतियों की कोई भाषा नहीं होती
बस होती हैं दो ऑंखें  
घूरती हुई आर पार