चिंतन
कवितायेँ और कहानियां
27 सितंबर 2023
7 मार्च 2018
पुरुष गद्यकारों का स्त्री विमर्श ( अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर विशेष )
’स्त्री
विमर्श’’ के औचित्य या इस की पैदाइश पर विचार करे तो सबसे पहले एक शब्द मस्तिष्क
में आता है जो है ‘’ पुरुष सत्ता’’ |इस शब्द के मूल में ही एक गुलामियत और
सामंतवादिता का आभास होता है | पुरुष जो स्त्री का सहोदर भी है और उस पर ‘’राज’’
करने और उसे शारीरिक मानसिक तौर पर परतंत्र बनाने वाला कारक भी |लेकिन क्या सच्चाई
सिर्फ और सिर्फ यही है ? क्या पुरुष प्रजाति ही स्त्री शोषक रही है? ये जानने के
लिए हमें इतिहास के कुछ साहित्यिक पृष्ट पलटने होंगी | उल्लेखनीय है कि अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर, यह दिवस सबसे पहले २८ फ़रवरी १९०९ को मनाया गया | १९१० में
सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन सम्मेलन में इसे अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा दिया गया।१९१७
में रूस की महिलाओं ने, महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के
लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया |ये इस
तथ्य को भी प्रमाणित करता है कि किसी एक देश या किसी एक समाज की स्त्री ही प्रताड़ित
नहीं रही बल्कि सम्पूर्ण विश्व की महिलाएं पुरुष के अधीन और उनकी कहीं न कहीं गुलाम
रही हैं
दुनियां स्त्री पर
टिकी है
उपरोक्त कथन हिन्दी
साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक जैनेन्द्र का है | जेनेन्द्र कुमार का अधिकाँश साहित्य
स्त्री केन्द्रित है | जैनेन्द्र कुमार के स्त्री पात्र शोषित हैं,परतंत्र
हैं , दबे हुए हैं लेकिन उनकी स्त्री साहसी , आत्मविश्वासी और जूझने वाली (
संघर्षरत ) भी है |जेनेन्द्र कुमार के स्त्री पात्र महान बँगला लेखक शरत चंद की
याद भी दिलाते है |दौनों ने ही पुरुष सत्ता को कटघरे में खड़े हो स्त्री
स्वातंत्र्य की वकालत की है और स्त्री को ‘’ सर्वस्व’’ रूप में स्वीकार किया है |
जेनेन्द्र कुमार और शरतचंद की कई कहानी व् उपन्यासों के नाम ही स्त्री केन्द्रित
हैं जैसे जैनेन्द्र की रचना ‘’ सुनीता, कल्याणी या शुभदा |शरतचंद की चरित्रहीन ,बड़ी
दीदी , ब्राहमण की बेटी , सविता, परिणीता, मंझली दीदी , शुभदा, अनुपमा का प्रेम
प्रेमचंद – प्रेमचंद ने कहानी में स्त्री के यथार्थ का वर्णन ही नहीं किया
बल्कि उनकी कहानियों में एक आव्हान भी है |प्रेमचंद का स्पष्ट कहना था कि -
"नारी की उन्नति के बिना समाज का विकास संभव नहीं है ,उसे समाज में पूरा आदर दिया जाना चाहिए, तभी समाज
उन्नति करेगाI " उन्होंने स्त्री पुरुष समानता को सही
ठहराते हुए कहा कि ‘’स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, एक के अभाव में स्त्री और पुरुष दोनों की दुर्गति मानते हैI’’उन्होंने अपने साहित्य में स्त्री पक्षधरता और उसके कटु यथार्थ का
उल्लेख भी किया जैसे गोदान का एक वाक्य ‘’जो माँ को रोटी न दे सका वो गाय को रोटी क्या देगा?’’बूढ़ी
काकी,बेटों वाली विधवा या बड़े घर की बेटी आदि उनकी ऐसी ही रचनाएं हैं |गोदान में
ही उन्होंने मध्यम वर्गीय मालती और गरीब किसान परिवार की धनियाँ के बीच की
असमानताओं व् समस्याओं को बताया है |
- प्रेमचंद स्त्री (पत्नी) की महत्ता को
स्वीकार करते है| 'गोदान' में भोला होरी से कहता है –‘मेरा तो घर उजड़ गया,
यहां तो एक लोटा पानी देने वाला भी नहीं हैI"( दरअसल प्रेमचंद की ‘’स्त्री’’ कहीं अपने पति से सिर्फ प्रेम की अपेक्षा
रखती हैं इसी में उनका सुख है जैसे ठाकुर का कुआ की गंगा , ‘’ पासवाली’’ की
गुलिया, ‘’ गोदान ‘’ की धनियाँ ,और कहीं न कहीं उनका मानना ये भी है कि निर्धनता
में प्रेम और परस्पर अवलंबन अपेक्षाकृत अधिक मज़बूत होते हैं जैसे ‘’गोदान ‘’ की
गोविन्दी या ‘’ सेवा सदन ‘’ की सुमन अथवा ‘’कर्मभूमि’’ की सुखदा |
स्त्रियों की दशा, उनकी सामाजिक स्थिति,
आदि का अन्य लेखकों नाटककारों ने भी बहुत सूक्षम वर्णन किया है |जैसे हबीब तनवीर
का नाटक ‘’ बहादुर कलारिन , भीष्म साहनी
की कहानी ‘’ चीफ की दावत’’ प्रेमचंद की कहानी ‘’बूढ़ी काकी’’ विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक की कहानी ‘’ताई ‘’. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘’ उसने कहा था ‘’ कमलेश्वर की कहानी
‘’ मांस का दरिया और राजा निरबंसिया ‘’’’फणीश्वर नाथ रेणु
का उपन्यास ‘’ मैला आँचल ‘’ शिवमूर्ति की कहानी ‘’
भरतनाट्यम , कुच्ची का क़ानून , सिरी उपमा जोग या अकाल दंड | ये अलग बात है कि उनकी कहानियों के दलित स्त्री को प्रमुखता से दर्शाया
गया है |स्त्री अस्मिता उनकी कहानियों का अहम विषय रहा है
निर्मल वर्मा की ‘’
स्त्री’’ उपरोक्त कहानियों की स्त्री किरदारों से अलग हैं |वो न कोई क्रांतिकारी
आव्हान हैं ना कोई दबी हुई शोषिता नारी |इसीलिये ये स्त्री मुक्ति आन्दोलन में
मुखरता से अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करातीं लेकिन उनकी स्त्री केन्द्रित कहानियों
में स्त्री का मनोविज्ञान का बहुत बारीकी से विश्लेषण किया गया है| जैसे उनकी ‘’
दहलीज’’ नामक कहानी किशोरावस्था की देहरी पर खडी लडकी की मनोदशा का वर्णन करती है
तो ‘’ एक दिन का मेहमान ‘’ कहानी एक ऐसी बची की कहानी है जिसके माता पिता अलग हो
चुके हैं और वो माँ के साथ रहती है |ऐसे तलाकशुदा माँ के साथ रहने वाले बच्चों की
दशा का वर्णन है |
विदेशी
कथाकारों/ नाटककारों में इन्तिज़ार हुसैन की कहानी ‘’ शहरजाद की मौत’’ स्टीफन स्वाइग की
कहानी ‘’
Letter from an unknown woman ब्रेख्त के नाटक ‘’Caucasian chalk
circle ‘’ और ‘’
Mother courage and her children ‘’,मेक्सिम गोर्की का उपन्यास /
Mother ‘’ | मदर एक लाज़वाब उपन्यास तो है ही लेकिन इसकी खास बात ये भी है कि इस
उपन्यास के प्रमुख चरित्र बेटा बोल्शेविक पावेल जो सर्वहारा है और उसकी माँ निलोवना
ये दोनों चरित्र एक वास्तविक कहानी से लिए गए थे जिनके वास्तविक नाम थे प्योत्र अन्द्रेयेविच और आन्ना किरिलोवना ज़ालोमोव| दुनिया की
पचास से अधिक भाषाओं में इसके सैकड़ों संस्करण निकल चुके हैं और करोड़ों पाठकों के
जीवन को इसने प्रभावित किया है।लेनिन ने इस किताब के बारे में सही कहा था कि ‘’ये
एक ज़रूरी किताब है क्यूँ कि बहुत से मजदूर सहज बोध से और स्वतःस्फूर्त तरीके से
क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल हो गये हैं, और अब वे ‘माँ’ पढ़ सकते हैं और इससे विशेष तौर
पर लाभान्वित हो सकते हैं।”यदि
इन कहानियों के समक्ष कोई भारतीय लेखिका की कहानी ठहर सकती है तो वो है सिर्फ
महाश्वेता देवी का बंगला में लिखा और हिदी में अनुवादित उपन्यास ‘’ हजार चौरासी की
माँ ‘’
साहित्य, समाज का एक आइना
होता है यह तो एक ब्रम्ह्वाक्य है ही लेकिन ये समाज को कितना, कैसे और कितने समय
में परिवर्तित करता है सवाल ये भी महत्वपूर्ण है |बहरहाल बदलने की रफ़्तार कितनी ही
धीमी हो , कितने ही विध्न आयें लेकिन कोशिशें जारी रहनी चाहिए | ये दिवस
इतिहास के आकलन , निराशा या दोषारोपण की बजाय महिलाओं के प्रति आदर, और विश्व भर
की उन महिलाओं जिन्होंने उपलब्धियां हासिल की हैं तथा हमारी कोशिशें कामयाब होंगी
इस आशावादिता के सा समारोह पूर्वक और उत्सव के रूप में मनाया जाय इसका एक तरीका ये
भी हो सकता है |
महिला दिवस की सभी को
शुभकामनाएं
27 अप्रैल 2017
मौजूदा हालतों में साहित्य की भूमिका और दखल
अब जो हालात हैं देश
दुनिया के उनमे एक आम आदमी के सामने दो ही रास्ते ज़िंदा रहने के बचे हैं |या तो वो
इन्हें नज़र अंदाज कर घुटते हुए खामोशी से अपनी नौकरी, परिवार ,कर्तव्य निभाता चले
या फिर इन्हें देख देखकर अवसाद की चरम स्थिति तक पहुँच जाए |
क्या साहित्य कलाओं
का भी कोई हस्तक्षेप है इन हालातों में / होना चाहिए?
सरहदें, नियम, क़ानून
मनुष्य ने बनाये हैं प्रकृति के लिए सब मनुष्य समान हैं | साहित्य कलाओं को भी
खण्डों में नहीं बांटा जा सकता |भौगोलिक, संवैधानिक आदि मानव निर्मित मसले अलग हो
सकते हैं लेकिन प्राकृतिक नियम यथा संवेदनाएं , दुःख, खुशी, व्याधि की पीडाएं
समस्त दुनिया में समान हैं | सैनिक चाहे किसी देश के मारे जाएँ , चाहे किसी देश की
स्त्री यातनाएं भुगते, समाज चाहे किसी सत्ता की ज्यादतियां सहे , बम से चाहे कहीं
की निर्दोष जनता उड़ा दी जाए, तकलीफ समान है | कमोबेश हर देश का समाज कहीं न कहीं
सत्ता का भुक्त भोगी है |उनके अपने मसले हैं ,विभीषिकाएँ और सुख दुःख हैं | आज के भूमंडलीय
दौर में साहित्य की भूमिका और दखल का को उचित और पर्याप्त ठहराया जा सकता है ? अब
साहित्य (?) स्पष्टतः दो हिस्सों में बंटता दिखाई देता है |एक है वामपंथी सोच जो
इन दिनों मुब्तिला है सत्तारूढ़ सरकार की कमियों, उनकी योजनाओं पर फब्तियों और
लांछन लगाने में |उनके पास समाधान के कोई तरीके नहीं | कौन सा शख्श, कौन सी पार्टी
उचित है इस समय देश की दुरूह स्थिति को ठीक करने के लिए? हम बिना किसी समाधान को
सुझाए सिर्फ आलोचनात्मक रुख अपनाएँ ये एक अवसादित और किंकर्तव्य विमूढ़ समाज का प्रमाण है | दूसरा वर्ग वह है जो सब
कुछ देखकर नज़र अंदाज़ करता हुआ अपने परिवार तक सीमित हो गया है |पूरा विश्व बदल रहा
है, उसकी सोच , विभीषिकाएँ, क्रूरताएं ,क्रमशः चिंतनीय हो रही है लेकिन हमारे विषय
सदियों से वही हैं |स्त्री- दलित संघर्ष ,गरीबी, बदहाली, प्रेमचन्द से पहले भी यही
थे आज भी मुस्तकिल है |बस शैलियाँ बदलती रहीं |
जब दुनिया बारूद के
ढेर पर बैठी है, मौत के नए नए खतरनाक तरीके इजाद किये जा रहे हैं , बेक़सूर समाज जन
, सैनिक , आदि सैंकड़ों की संख्या में मारे
जा रहे हैं | विदेशों की दिल कंपाऊ खबरें आये दिन टी वी पर सुन रहे हैं ,
ह्रदय विदारक द्रश्य देख रहे हैं | जब बहु राष्ट्रीय कंपनियों की आमद बे रोक टोक
है, भूमंडली करन और पूरी दुनिया सिमट आने की बातें हम गर्व से करते हैं तो अपने उस
‘’आस पास ‘’ की दुनिया तक हमारी संवेदनाएं क्यूँ नहीं पहुंचतीं ? हमें क्यूँ नहीं
सिहरातीं ?साहित्य की इस माहौल में क्या भूमिका होती है /होनी चाहिए? हमारा
साहित्य आज भी स्त्री/ दलित साहित्य पर अटका हुआ है |उनके संघर्षों की व्यथा कथा
के लिए काफी बोल्ड शैलियों का इस्तेमाल कर रहा है प्रसंषित पुरस्कृत हो रहा है |
यद्यपि वैश्विक स्थितियां इस कदर दुरूह और खतरनाक हो चुकी हैं की साहित्य जैसी
कोशिशें उनके लिए नाकाफी है बावजूद इसके क्या हमें अपने विषयों को विस्तृत नहीं
करना चाहिए, अब समाज, देश नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर एकजुटता की दरकार है |सुनने
में ये असंभव लगता है लेकिन ऐसा होना आज के हालातों के लिए ज़रूरी है |
26 दिसंबर 2016
वर्ष 2017 में कुछ नई आहटें सुनाई दे रही हैं | कुछ
पत्रिकाओं में कहानियां प्रकशित होने की सूचना मिली है |इस वर्ष दो कहानी संकलन
आने की खबर हैं |एक जनवरी में और दूसरा अप्रेल – मई तक | हमेशा ही आयोजनों व् आमंत्रणों में जाने से कुछ
हिचक होती रही लेकिन पहली बार किसी साहित्यिक आयोजन में भागीदारी करने के आमंत्रण
को स संकोच स्वीकारा है |
पिछले तीन वर्ष
घनघोर यात्राओं में गुज़रे | अनजाने में ही सही , यात्राएं लिखने की पूर्व तैयारी होती हैं , बल्कि हर नई यात्रा
दिमाग में एक नयी किताब बनकर खुलती है |तीन वर्ष की मेहनत और देश विदेश की
यात्राओं ( अनुभवों )का लेखा जोखा हैं ये किताबें जिन्हें ‘’कहानी’’होने से पूर्व
डायरी रूप में लिखा गया| गाँव की छुटपुट यात्राओं से लेकर अपने शहर ,कस्बों व्
विदेश यात्राओं तक कुछ ऐसे अनुभव हुए जो असोचे , अनोखे व् अभूतपूर्व थे| जो सिमटती
करीब आती दुनिया और समस्त भू मंडल के एक बड़े बाज़ार में तब्दील होते जाने के पुख्ता
सुबूत भी थे |बाजार में निरंतर परिवर्तित होते आपसी रिश्ते , प्रेम , घृणा , सामंजस्य
देखकर कहीं खुशी हुई कहीं निराशा और कहीं गहरा आश्चर्य और दुःख | ये कहानियाँ
इन्हीं रिश्तों व् घटनाओं का समुच्चय हैं | मेरा मानना है कि लेखक स्वयं अपना सबसे
बेहतरीन आलोचक और प्रशिक्षक होता है |बशर्ते कि वो अपना आकलन वैचारिक निर्ममता और
स्वयं को एक दूसरा व्यक्ति मानकर करे | इस लिहाज से इन संकलनों को लेकर कुछ उत्साहित
भी हूँ | लघु पत्रिकाओं के लेखकों के भी अपने पाठक होते हैं |जो जहाँ हों, कहानियाँ पढ़ते ही नहीं फोन या
मेसेज कर उन पर अपनी प्रतिक्रया भी देते हैं | सेल्फ प्रमोशन में गैरहुनरमंद और प्रमोटर
विहीन रचनाकारों के लिए यही पाठक गन उनकी पूंजी हैं |कोशिश तो यही की है कि
प्रबुद्ध व् सामान्य सभी पाठकों को कहानियों में कोई ज़ल्दबाजी और हडबडाहट महसूस न
हो | समाज में ‘’क्या और क्यों’’ सिर्फ इतना ही काफी नहीं बल्कि समाज कैसा होना
चाहिए इस पर विचार करना भी हमारा ही काम है| मुझे खुशी है कि इन दौनों किताबों के ब्लर्ब
हिंदी के वरिष्ठ प्रतिष्ठित , चर्चित और मेरे प्रिय रचनाकारों ने लिखना स्वीकार
किया |उन्हें और दौनों प्रकाशकों को धन्यवाद |
8 अगस्त 2016
टी वी की बेतुकी
ख़बरें और अजीबोगरीब सीरियल्स से उकताकर जो मन में सिर्फ एक भय, खीझ और वित्रिश्ना
पैदा करते हैं किताबों व् फेसबुक की तरफ रुख किया था |हालाकि किताबें चूँकि हमारे
स्वयं के द्वारा चुनी गयी होती हैं इसलिए उन्हें फ्री समय में पढ़ा जा सकता है लेकिन
फेसबुक , जिस पर इस उम्मीद के साथ आये थे कि यहाँ साहित्यिक चर्चाएँ, ज्ञान,स्वस्थ्य
बहस , तटस्थ असहमतियां होंगी तथा ज़रूरी सूचनाएं और स्तरीय चीज़ें पढने को मिलेंगी (बावजूद
बेहद संक्षिप्त और बहुत सोच समझकर निर्धारित की गयी मित्र सूची के) यहाँ भी अब निराशा
का अनुभव हो रहा है | असहमति और खीझ (इरीटेशन )तथा भाषा की अराजकता और धैर्य के
बीच का फर्क लगभग मिट चुका है | मित्रों के पारिवारिक ‘’हैप्पी मूमेन्ट्स’’ अथवा
व्यक्तिगत उपलब्धियां खुशी देती हैं लेकिन हस्याद्पद व् उबाऊ स्तर तक हर राष्ट्रीय
, सामाजिक , राजनैतिक, साहित्यिक,भावनात्मक मुद्दों को जबरन जातिवादी या अलगाववादी
जामा पहनाने , गुटबंदियां और भाषा व् तर्क की सब मर्यादाएं तोड़ देने का जो माहौल निरंतर
पैदा किया जा रहा है ये समाज में कोई सार्थक बदलाव नहीं बल्कि एक खतरनाक स्थिति
पैदा कर रहा है |बेकाबू भाषा , अफवाहें और तर्कहीन विचारों का सोशल साईट्स जैसे
माध्यमों पर बढ़ते जाना भविष्य के लिए एक दुर्भाग्य पूर्ण संकेत है| देश नहीं बल्कि
पूरी दुनिया जब प्रदूषण, पानी, मौसम, आतंक, जलवायु ,व्याधियों, युद्ध जैसे गंभीर विषयों
व् विसंगतियों से जूझ रही है हमारे सामने वही सैकड़ों वर्ष पुराने मसले ( जो
दुर्भाग वश प्रायः राजनैतिक क्रीडाओं के माध्यम रहे हैं ) प्राथमिकता से हमारे
क्रोध और असहमतियों का विषय हैं क्या ऐसा करने से पूर्व एक बार गंभीरता से सोचा है
कि ...
क्या हम इस प्रथ्वी
पर अमर होकर आये हैं ?
क्या इस तरह के अलगाववादी विचारों को प्रकट और
भड़काकर हम धर्म व् जातिगत इन एतिहासिक समस्याओं को कम या हल कर पायेंगे ?
नक्सवादियों ,आतंकवाद
जैसी विकट समस्याओं से लेकर, पडौसी देशों के खतरनाक इरादों तक से जुझते राष्ट्र
में हम इस वैचारिक असावधानी , भड्कात्म्क कार्यवाही तथा क्रोध से कहीं आपस की इस खाई को और चौड़ा कर
प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्षतः गृहयुद्ध जैसा वातावरण पैदा तो नहीं कर रहे ?
क्या देश का हर सवर्ण साक्षर ,सुखी, संपन्न और
सक्षम है और हर दलित विपन्न, सर्वहारा और प्रताड़ित? जैसा कि साहित्य (स्त्री
विमर्श )में हर पुरुष ,सम्पूर्ण स्त्री जाति का गुनाहगार |
इस अधूरी वास्तविकता
व् अतिवादिता के दुष्परिणाम क्या होंगे ?
इतिहास साक्षी है कि
जहाँ पाकिस्तान जैसा अलग मुल्क बनाकर हिन्दुस्तान के दो हिस्से किये गए इस
एतिहासिक त्रासदी के अलावा भी कुछ सच हैं जिन्हें एक ख़ास गुट के द्वारा निरंतर नज़र
अंदाज़ किया गया वो है संगीत व् फिल्मों व् साहित्य में मुस्लिमों की बड़ी व्
काबिलेगौर हिस्सेदारी जिसे यहाँ की कलाप्रेमी जनता ने भरपूर प्रेम और इज्जत दी , आज भी देते
हैं |
बहरहाल,उन्हीं मित्रों की तरह अपनी अभिव्यक्ति
की आज़ादी के अधिकार का आंशिक इस्तेमाल करते हुए उन मित्रों की सूची से मैं स्वयं
को माफी सहित अलग कर रही हूँ |
6 अगस्त 2016
शुभम श्री की कवितायें बनाम ‘’बोल्ड कहानियों ’’ का काव्यात्मक संस्करण
ये प्रयोगों का युग है | कोई नई बात
नहीं ..हर युग में उसकी सोच, समकालीनता आदि के मद्दे नज़र बदलाव होते हैं, होने
चाहिए | कहा जाता है बदलाव हमेशा अच्छा होता है लेकिन ( यदि कालगत प्रयोगधर्मिता बनाम
बदलाव का हवाला दे इस वाक्य की मीमांसा करें तो ) ऐसा होना ज़रूरी नहीं |संगीत में
रेमो फर्नांडीज़ ने रैप सोंग्स की शुरुवात की |ज़ाहिर है वो एक नई टेक्नीक थी नया
प्रयोग था जमकर सराहा गया , तब से शंकर महादेवन के ‘’ब्रीथ्लैस’’ सोंग तक आते वो
प्रयोग फेल हो गया और उसके स्थान पर लोक संगीत के आधुनिक वर्शन और सूफी बेस्ड
गीतों ने लोगों का दिल जीता लेकिन अब....| पारसी थियेटर या नाट्यशास्त्र पर आधारित
नाटक जो प्रायः भरत मुनि के शास्त्र पर बेस्ड होते थे ,वो परम्परा टूटते टूटते अब नुक्कड़ नाटक, एकल
अभिनय, या कबीर के गीतों का नाट्यरूपांतरण तक पहुँच गयी |ज़ाहिर हैं प्रयोग आगे भी
होते रहेंगे |प्रयोगवादिता तो हर काल की स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन क्या इन
प्रयोगों का कोई दीर्घगामी प्रभाव भी होगा ? ज़रूरी ये हैं | कह सकते हैं कि किसी
भी विधा में बदलाव काल और रूचि सापेक्ष होता है |ये एक सतत प्रक्रिया है |अर्थात ‘’तोड़
फोड़ में तोड़ फोड़ ‘’|शुभम श्री की पुरस्कार समेत कुछ कवितायें पढ़ीं | पिछले दिनों
कहानी विधा में ‘’बोल्ड कहानियों’’ की धूम रही ज्ञातत्व है कि जो स्वीकार्य/
अस्वीकार्य के तर्क झेलती रही | पुरस्कृत कवियत्री की कवितायें इसी ‘’बोल्ड
परम्परा’’ का काव्यात्मक संस्करण कही जा सकती हैं |ये सही है कि ये ‘’बोल्ड बनाम
क्रांतिकारी’’ कवितायें हिन्दी साहित्य के स्थापित कवियों को तुलनात्मक रूप से अधिक
पसंद आईं |लेकिन शेष पाठकों की नापसंदगी को खारिज नहीं किया जा सकता | आदरनीय
अर्चना वर्मा के लेख जिसमे वो पुरस्कृत कवयित्री के कविताओं की विशेषताओं के
सन्दर्भ में ‘’नए’’ शिक्षार्थियों को संबोधित कर रही हैं|पाठक पूछना चाहेंगे ... क्या इसीलिये इसे कविता माना
जाए क्यूँ कि....
(1)-‘’कवयित्री ऐसा कुछ कर के दिखा रही है जैसा और कोई कर नहीं सका
है। यानी कविता के बने बनाये ढाँचे में तोड़-फोड़। तो यह तो अप-टू-डेट वाला सन्दर्भ
हुआ?‘’
(पुनश्च)
(2)-‘’कविता का बना बनाया ढाँचा और तोड़ फोड़?‘’
(3)-यहाँ कविता से सम्बन्धित सुर्खियों में
अप्रत्याशित दूरारूढ़ तुलनाएँ विस्मित करती हैँ?
(4)-कविता की तरह पेश की गयी चीज़ को कविता
न मानने का सवाल नहीं उठता?
(5)- बने बनाये ढाँचे तो बीसवीं सदी में
घुसने के साथ ही टूट फूट रहे हैँ लगातार?
(6)-क्या ऐसा मानने का वक्त आ गया है कि
साहित्य नामक सांस्कृतिक संरचना अपने संभावित विनाश का सामना कर रही है?
(7)- ‘’(यदि)मान्यता एक "दी हुई" हुई चीज़ होती है, कोई अन्तरंग गुण
नहीं ?’’क्या ये मान्यता (दी हुई चीज़) सिर्फ उनकी विरासत है जो इसे अनेकानेक
उदाहरणों/ तर्कों में इसे ‘’श्रेष्ठतम ‘’ सिद्ध करने पर आमादा हैं ?
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