टी वी की बेतुकी
ख़बरें और अजीबोगरीब सीरियल्स से उकताकर जो मन में सिर्फ एक भय, खीझ और वित्रिश्ना
पैदा करते हैं किताबों व् फेसबुक की तरफ रुख किया था |हालाकि किताबें चूँकि हमारे
स्वयं के द्वारा चुनी गयी होती हैं इसलिए उन्हें फ्री समय में पढ़ा जा सकता है लेकिन
फेसबुक , जिस पर इस उम्मीद के साथ आये थे कि यहाँ साहित्यिक चर्चाएँ, ज्ञान,स्वस्थ्य
बहस , तटस्थ असहमतियां होंगी तथा ज़रूरी सूचनाएं और स्तरीय चीज़ें पढने को मिलेंगी (बावजूद
बेहद संक्षिप्त और बहुत सोच समझकर निर्धारित की गयी मित्र सूची के) यहाँ भी अब निराशा
का अनुभव हो रहा है | असहमति और खीझ (इरीटेशन )तथा भाषा की अराजकता और धैर्य के
बीच का फर्क लगभग मिट चुका है | मित्रों के पारिवारिक ‘’हैप्पी मूमेन्ट्स’’ अथवा
व्यक्तिगत उपलब्धियां खुशी देती हैं लेकिन हस्याद्पद व् उबाऊ स्तर तक हर राष्ट्रीय
, सामाजिक , राजनैतिक, साहित्यिक,भावनात्मक मुद्दों को जबरन जातिवादी या अलगाववादी
जामा पहनाने , गुटबंदियां और भाषा व् तर्क की सब मर्यादाएं तोड़ देने का जो माहौल निरंतर
पैदा किया जा रहा है ये समाज में कोई सार्थक बदलाव नहीं बल्कि एक खतरनाक स्थिति
पैदा कर रहा है |बेकाबू भाषा , अफवाहें और तर्कहीन विचारों का सोशल साईट्स जैसे
माध्यमों पर बढ़ते जाना भविष्य के लिए एक दुर्भाग्य पूर्ण संकेत है| देश नहीं बल्कि
पूरी दुनिया जब प्रदूषण, पानी, मौसम, आतंक, जलवायु ,व्याधियों, युद्ध जैसे गंभीर विषयों
व् विसंगतियों से जूझ रही है हमारे सामने वही सैकड़ों वर्ष पुराने मसले ( जो
दुर्भाग वश प्रायः राजनैतिक क्रीडाओं के माध्यम रहे हैं ) प्राथमिकता से हमारे
क्रोध और असहमतियों का विषय हैं क्या ऐसा करने से पूर्व एक बार गंभीरता से सोचा है
कि ...
क्या हम इस प्रथ्वी
पर अमर होकर आये हैं ?
क्या इस तरह के अलगाववादी विचारों को प्रकट और
भड़काकर हम धर्म व् जातिगत इन एतिहासिक समस्याओं को कम या हल कर पायेंगे ?
नक्सवादियों ,आतंकवाद
जैसी विकट समस्याओं से लेकर, पडौसी देशों के खतरनाक इरादों तक से जुझते राष्ट्र
में हम इस वैचारिक असावधानी , भड्कात्म्क कार्यवाही तथा क्रोध से कहीं आपस की इस खाई को और चौड़ा कर
प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्षतः गृहयुद्ध जैसा वातावरण पैदा तो नहीं कर रहे ?
क्या देश का हर सवर्ण साक्षर ,सुखी, संपन्न और
सक्षम है और हर दलित विपन्न, सर्वहारा और प्रताड़ित? जैसा कि साहित्य (स्त्री
विमर्श )में हर पुरुष ,सम्पूर्ण स्त्री जाति का गुनाहगार |
इस अधूरी वास्तविकता
व् अतिवादिता के दुष्परिणाम क्या होंगे ?
इतिहास साक्षी है कि
जहाँ पाकिस्तान जैसा अलग मुल्क बनाकर हिन्दुस्तान के दो हिस्से किये गए इस
एतिहासिक त्रासदी के अलावा भी कुछ सच हैं जिन्हें एक ख़ास गुट के द्वारा निरंतर नज़र
अंदाज़ किया गया वो है संगीत व् फिल्मों व् साहित्य में मुस्लिमों की बड़ी व्
काबिलेगौर हिस्सेदारी जिसे यहाँ की कलाप्रेमी जनता ने भरपूर प्रेम और इज्जत दी , आज भी देते
हैं |
बहरहाल,उन्हीं मित्रों की तरह अपनी अभिव्यक्ति
की आज़ादी के अधिकार का आंशिक इस्तेमाल करते हुए उन मित्रों की सूची से मैं स्वयं
को माफी सहित अलग कर रही हूँ |
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