16 दिसंबर 2010

व्यतीत

एक बादल,शब्दों का
रास्ता भटक ,
घिर आया था  
अवछन्न आसमा पर ,
भीगीं संवेदनाएं ,
सराबोर होने तक
डूबी आकंठ, निर्दोषिता,
उग आये कुछ अर्थ
बेनाम रिश्तों के
शिराओं में
चमकता/बहता इन्द्रधनुष
समां सके जो तेरी आँखों में
बस इतना ही था आसमा मेरा !
मिटाना चाहती हूँ
छद्म के
उस इतिहास को मै ,
समय की पीठ पीछे
जो दुबका सा खड़ा है!


14 टिप्‍पणियां:

  1. चमकता/बहता इन्द्रधनुष
    समां सके जो तेरी आँखों में
    बस इतना ही था आसमा मेरा

    बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ ...अच्छी प्रस्तुति

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  2. बहुत खूबसूरत भावाव्यक्ति।

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  3. बड़े ही सुन्दर विम्बों से सजी रचना!

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  4. वंदना शुक्ला जी कविता का अंतिम हिस्सा करामाती है| अभिनंदन|

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  5. संगीता जी, वंदना जी पुनः स्वागत है आपका !चर्चा मंच पर कविता प्रकाशित करने के लिए आभारी हूँ
    धन्यवाद
    वंदना

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  6. सत्यम जी
    स्वागत है आपका ...बहुत धन्यवाद
    वंदना

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  7. नवीन जी
    आपको कविता अच्छी लगी,जानकर अच्छा लगा
    आभार
    वंदना

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  8. चमकता/बहता इन्द्रधनुष
    समां सके जो तेरी आँखों में
    बस इतना ही था आसमा मेरा !
    बहुत सुन्दर भाव और एहसास ....

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  9. मिटाना चाहती हूँ
    छद्म के
    उस इतिहास को मै ,
    समय की पीठ पीछे
    जो दुबका सा खड़ा है!

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

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  10. एक बादल, शब्दों का
    भीगी संवेदनायें
    वाह ! क्या बात है ।

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  11. आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद
    वंदना

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