20 सितंबर 2011

एक झूठ का सच....


जब भी आग लगती है किसी जंगल में
वो पानी पे दौड़ने के किस्से सुनाते है
गांव हो जाता है पूरा का पूरा मिथक
हुंकारे भरता रहता है सोते हुए   
भीतर जब भी खरोंच सा कुछ लगता है
जाने क्यूँ नाख़ून वो अपने छिपाते हैं
वो बोयें पेड़ आम .सेब या बादाम के
लगता हमेशा बबूल ही क्यूँ है ?
गुलाब की कलियों और चंपा चमेलियों में
क्यूँ तेज़ाब की तीखी गंधें फूटती हैं
जब भी रखते हैं वो हाथ गीता पे ,
क्यूँ तरबतर हो जाता है लहू से वो
तितलियों इन्द्रधनुष और सिन्दूरी सूरज में
एक लपट का ही रंग क्यूँ दिखाई देता है?
क्या थक गए हैं रंग अब खिलते खिलते ?
क्या खुशबुओं ने बिखरने से कर दिया है इनकार ?
क्या झूठ के भी अब
पर निकल आये हैं?

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