2 मई 2012

यात्रा


अतीत छोड़ता है कुछ चिन्ह अपने होने के
शिशु की आँखों की पारदर्शी झील के नीचे
पहियों की रफ़्तार नापती है वक़्त की धूल
दूर तक......गुबारों के पार  |    
एक किस्सागोई  ,खंडहरों की कालिख ,
धरती की परतों और
समुद्र में डूबे हुए ज़हाजों के अवशेषों में
भरती है बुजुर्ग हुंकारें|  
अँधेरे की सुरंग में धूप की लकीर
लिखती है कुछ साँसें ,
जमती जाती है बर्फ की परतें
सोते जाते हैं जिनके तले
सपने पिघलते हुए  
यात्रा , लिखती है अपनी थकान
 पसीने के बिंदुओं को जोड़कर
गढती हैं अपनी भाषा खुद
चित्र उकेरती है चेहरे पर ताजे जालों का
नित नया घना और घना .....
यूँ खड़े होते जाते हैं
बरगदों के सायेदार जंगल
वक़्त की हथेलियों पर खुद को थामे हुए
 बरगदों की देह
सोखती नहीं सहेजती है अपने अँधेरे
जैसे  ज़मीन
रक्त की बूंदें
भविष्य को गढ़ने ......| 

1 टिप्पणी: