लीजिए आ गया ,लगभग पैंसठ वर्षीय देश की आजादी की एक
और रस्म अदायगी का मौक़ा एक और बार फिर ...हिन्दी दिवस के रूप में | बड़े छोटे आयोजन , अंग्रेज़ी
का रुदन, हिन्दी की दुर्दशा का संताप ,कुछ
नए पुराने वाक्यों-घटनाओं का लेखा जोखा ,कुछ वार्षिक संकल्पों
का दोहराव और ....बस |वैसे ही जैसे देश का हर प्रधान मंत्री हर
गणतंत्र दिवस पर लाल किले की प्राचीर से देश से भ्रष्टाचार खत्म करने और एक नया राष्ट्र
बनाने का वादा और सकल्प लेता है आव्हान करता है |जो उसी दिन भाषण
की समाप्ति के बाद ‘’जय हिंद’’ का नारा देकर सीढियां उतर जाने के बाद अस्तित्वहीन हो
जाता है |
हिन्दुस्तान एक अतीत जीवी देश है |यहाँ उम्रदराज परम्पराएं हैं पीढ़ियों और सदियों
को अपनी आँखों में जिया है जिन्होंने | उन्हीं सांस्कृतिक
,वैचारिक एतिहासिक स्मृतियों (विरासत)को अक्षुण बनाने की मंशा से उसके
‘’दिवस’’की घोषणा कर दी जाती है | शिक्षक दिवस,बाल दिवस,गणतंत्र दिवस,स्वतन्त्रता
दिवस,मजदूर दिवस,शहीद दिवस, या हिन्दी दिवस | इतिहास को स्मरण करने और परम्परा को
बनाये रखने की ये एक अच्छी रीत है निस्संदेह |इसी की तर्ज़ पर
अंगरेजी के अरण्य में अभी अभी अन्खुआये नए नवेले अवतरित ‘’डे’’...मदर डे,फादर डे,वेलेंताईन डे, फ्रेंड शिप
डे वगेरह २ |यानी वर्ष में एक दिन संबंध निभाने और उन्हें इज्ज़त
बख्शने का दिन | सामाजिक गर्भिर्तार्थों में इन दिवसों का होना
उस एक महत्वपूर्ण दिवस विशेष का स्मरण होता है इनमे त्यौहार भी शामिल हैं |अब तो इनकी अदायगी भी एक ‘’अटल सत्य’’ हो गई हैं गणतंत्र दिवस यानी लाल किला
–प्रादेशिक झांकियां,बाल दिवस यानी नेहरु जी, शिक्षक दिवस अर्थात डॉक्टर राधा कृष्णन ,दो अक्टूबर यानी
वैष्णव जन तो...या जय जवान जय किसान’’ ,महिला दिवस... कुछ ‘’संपन्न’’स्वयं
सेवी संस्थाओं द्वारा गरीब महिलाओं को सिलाई मशीन बांटते चित्र या दो चार जुझारू महिलाओं
के जोशीले लेख ,स्वतन्त्रता दिवस यानी स्कूलों में झंडा वंदन
और परेड |हिन्दी दिवस ... हिंदी में प्रतियोगिताएँ, हिंदी के पाठ्यक्रम में बदलाव/संशोधन की चर्चा इत्यादि |क्या इन अवसरों का प्रादुर्भाव इन्हीं औपचारिकताओं या खानापूर्ति के लिए हुए
होगा?
आज हम ‘’हिन्दी दिवस ‘’मना रहे हैं |क्या सचमुच आज हिन्दी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र
की राष्ट्र भाषा होने पर गौरवान्वित है? जो देश भाषा में गुलाम
हो, वह किसी क्षेत्र में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक
बन जाता है।कुछ लोगों को हिन्दी को राष्ट्र भाषा मानने में आपत्ति है और जो लोग ऐसा
मानते हैं इसमें कोई संदेह नहीं कि वो इस देश को एक बार फिर हिस्सों में बंटता हुआ
देखना चाहते हैं ..ये सच है |
किसी देश को गुलाम बनाना हो तो सबसे पहले उसकी संस्कृति और भाषा
को गुलाम बनाना होता है | लार्ड
मैकाले की नीति थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक
अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है। कहने को हिन्दी को राष्ट्र भाषा ,राजभाषा और संवाद भाषा होने का गौरव प्राप्त है ,लेकिन
ये कितना सच है और कितना भ्रम ये इस देश के वासी भली-भाँती जानते हैं विशेषतः हिन्दी
भाषी प्रदेश और नागरिक |पूरे विश्व में एक भारत ही है जहाँ शासन
का काम काज,संवाद (अमूमन),बैठकें,संसद की कार्यवाही आदि विदेशी भाषा में होते हो | जबकि दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित
व विकासशील देशों में वहाँ का काम उनकी भाषाओं में ही होता है।
उल्लेखनीय है कि 12 सितम्बर 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने अंगरेजी में भाषण देते हुए कहा कि ‘’ हमने अपने संविधान
में एक भाषा रखी है, जो संघ
के प्रशासन की भाषा होगी।‘’लेकिन विचारणीय तथ्य यह है कि भाषा से संदर्भित संविधान
के संकल्प और उसका महत्व हम अक्षुण रख पाए ?
वास्तविकता ये भी है कि आजादी के बाद के कुछ दशकों तक यानी जब
तक बाजार ने लोगों को अपने माया जाल में नहीं जकडा था,कई शहरों को साहित्य प्रेमी उनके लेखकों के नाम
से जानते थे |शानी,दुष्यंत कुमार,फज़ल ताबिश,सत्येन कुमार,नवीन सागर
,भगवत रावत भोपाल की पहचान थे तो इलाहबाद भी साहित्य सम्पन्नता में पीछे
नहीं रहा |निराला,पन्त,महादेवी वर्मा,अश्क,अमरकांत,इलाचंद जोशी और बाद में शैलेश मटियानी जैसे लेखकों ने इस शहर को गौरवान्वित
किया |दिल्ली तो साहित्यकारों की शरण स्थली ही रही |तब हिन्दी पत्रिकाएं खूब पढ़ी जाती थीं |धर्मयुग
,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,दिनमान,माया व बच्चों की पत्रिकाएं चन्दामामा ,नंदन,चम्पक,बाल हंस,सुमन सौरभ,नन्हे सम्राट ,अमर चित्रकथा आदि | कहा जाता है कि उस दौर में पत्रिकाओं ने हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य की दिशा
निर्धारित की |ये सिद्ध भी हुआ कि मीडिया (तब प्रिंट मीडिया ही
था )हिन्दी के प्रचार प्रसार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है |बाद में टी वी (इलेक्ट्रोनिक मीडिया)जब संचार माध्यमों के आसमान पर सूर्य सी
चमक के साथ उदयमान हुआ तब शुरू में हिन्दी के प्रचार प्रसार व लोकप्रियता में निस्संदेह
कुछ तेज़ी आई |गौरतलब है कि तब इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर चैनलों
का हमला नहीं हुआ था दिल्ली दूरदर्शन के कार्यक्रमों में हिन्दी ख़बरें, ख़बरें होती थीं ,कृषि दर्शन बकायदा खेती समाचार और संगीत
कार्यक्रम व साहित्यिक वार्ताओं जैसे कार्यक्रम वही लगते थे जो होते थे |तब तमस,बुनियाद,हम लोग,बेस्ट सेलर्स,नई कहानियों में चेखव,रविन्द्रनाथ टैगोर,भीष्म साहनी जैसे सुप्रसिद्ध लेखकों की कहानियां धारावाहिक रूप में दिखाई जाती
थीं |
ज़ाहिर तौर पर टी वी तो अब बेतरह बाज़ार की गिरफ्त में है लेकिन
हिन्दी अखबारों में कम से कम रविवार को हिन्दी साहित्य/कला /कार्टून जैसा कुछ पढ़ने
को मिल जाता है गाहे ब गाहे देशी विदेशी लेखकों
की कहानियां /कवितायेँ लेख/कार्टून आदि भी ,लेकिन ना जाने किस रणनीति के तहत ‘’देश के एकमात्र सबसे बड़े अखबार’’ का दावा
और हर साल छः महीने में सर्वाधिक सर्क्युलेशन और लोकप्रियता के आंकडे प्रस्तुत करने
वाले समाचार पत्र तक ने ये सब बंद कर दिया और उनकी जगह सूचनाओं व ख़बरों (राष्ट्रीय
अंतर्राष्ट्रीय )देना शुरू कर दिया| उसकी देखा देखी कुछ और ने भी | (यद्यपि
कुछ अखबार अब भी साहित्य पन्ना देते हैं )
हिन्दी ने कई पड़ाव देखे,अनेक झंझावत सहे |अंगरेजी को आजादी के बाद
भी राज करते ही नहीं बल्कि खूब फलते फूलते भी देखा |जिसके पीछे
पुरोधाओं द्वारा अनेकानेक कारण बताये गए जैसे ‘’अंगरेजी संवाद की एक सार्वभौमिक भाषा
है ,या आधुनिक सूचना प्रोद्योगिकी अंगरेजी के बिना पंगु है
,उच्च शिक्षा हिन्दी में प्राप्त नहीं की जा सकती,अंगरेजी के बिना देश का विकास संभव नहीं इत्यादि |लेकिन
उन ‘विद्वानों’ की इस सोच को तब बड़ा झटका लगा जब गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी
एरिक श्मिट ने कुछ समय पहले यह कह कर ज़बर्दस्त हलचल मचा दी कि 'इंफोर्मेशन टेक्नॉलॉजी की शुरुआत भले ही अमेरिका में हुई हो, भारत की मदद के बिना वह आगे नहीं बढ़ सकती थी और ये भी कि आने वाले पाँच से
दस साल के भीतर भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट बाज़ार बन जाएगा।
‘’बाज़ार का कोई भी दिग्गज भारत की अनदेखी करने की ग़लती नहीं
कर सकता। वह भारतीय भाषाओं की अनदेखी भी नहीं कर सकता। चाहे वह याहू हो, चाहे गूगल हो या फिर एमएसएन, सब हिंदी में आ रहे हैं। माइक्रोसॉफ्ट के डेस्कटॉप उत्पाद हिंदी में आ गए हैं।
आईबीएम, सन माइक्रोसिस्टम और ओरेकल ने हिंदी को अपनाना शुरू कर
दिया है। लिनक्स और मैंकिंटोश परह भी हिंदी आ गई है। इंटरनेट एक्सप्लोरर, नेटस्केप, मोजिला और ओपेरा जैसे इंटरनेट ब्राउजर हिंदी
को समर्थन देने लगे हैं। ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी हिंदी की धूम है। आम कंप्यूटर
उपभोक्ता के कामकाज से लेकर डाटाबेस तक में हिंदी उपलब्ध हो गई है। यह अलग बात है कि
अब भी हमें बहुत दूर जाना है, लेकिन एक बड़ी शुरुआत हो चुकी है।
और इसे होना ही था।‘’(बालेंदु शर्मा)
हिन्दी विश्व की एकमात्र वैज्ञानिक भाषा है जो बोलने और लिखने
में समान है |हलाकि कहा जाता है
कि हिन्दी विश्व में तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है लेकिन सुप्रसिद्ध
शिक्षा विद एवं शोधार्थी डॉक्टर जयन्ती नौटियाल के हिन्दी और विश्व की भाषाओँ पर गहन
शोध के उपरान्त प्रस्तुत किये गए आंकड़ों से यह सिद्ध होता है कि हिन्दी भाषियों की
संख्या चीनी से ज्यादा है | हिन्दी फीजी,सूरीनाम,त्रिनिदाद ,मलेशिया अदि
देशों में बोली जाती है |और अठारह करोड से भी ज्यादा भारतीयों
द्वारा प्रयोग की जाती है |
सोवियत संघ के विघटन के बाद व भूमंडली करन के इस दौर में राष्ट्रीय
और अंतर्रष्ट्रीय परिद्रश्य तेजी से बदले हैं |चाहे वो राजनैतिक हों आर्थिक हों सामाजिक हों या साहित्यिक | पूरा विश्व एक बाजार में तब्दील हो गया है |जो लोग हिन्दी
भाषा की घटती लोकप्रियता के लिए सिर्फ अंगरेजी स्कूल,टेक्नोलोजी
का फैलाव या अंगरेजी पुस्तकों की मांग ,इटरनेट आदि को ही ज़िम्मेदार
मानते हैं ये वाक्य संभवतः उन्हीके लिए कहा गया है कि हमारी चुनौती हमारी अपनी हीनता
ग्रंथि है अपने पन का अतिमोह है अध्ययन के प्रति उदासीनता है |
कुछ आलोचक मानते हैं कि हिन्दी के रचनाकार के पास शब्द संख्या
बहुत सीमित है नवीनता और प्रयोग की एक व्यापक द्रष्टि भी हमारे पास नहीं है | हिन्दी लेखक लेखिकाएं आज खूब लिख रहे हैं
,धडल्ले से किताबें छप रही हैं, नए नए प्रकाशन
ग्रह खुल रहे हैं ,यहाँ तक कि उत्साही और महत्वाकांक्षी लेखक
खुद पैसा देकर किताबें छपवा रहे हैं कुछ भी गलत नहीं इसमें बल्कि खुशी इस बात की है
कि हिन्दी क्षेत्र बढ़ रहा है समृद्ध हो रहा है लेकिन जिस तादाद में प्रकाशन ग्रह या
,पुस्तकें,आयोजन, प्रचार
प्रसार लोकार्पण,सम्मलेन आदि हो रहे हैं क्या साहित्य की गुणवत्ता
उसी के अनुरूप है?पाठकों की हिन्दी में घटती रूचि कहीं प्रसिद्धि
की होड में इसी जल्दबाजी का नतीज़ा तो नहीं ?क्या हिन्दी की जितनी
किताबें छप रही हैं प्रकाशक इनकी गुणवत्ता को लेकर (सरकारी थोक खरीद के अलावा )कोई दिलचस्पी दिखा रहे
हैं ?इस विषय में लेखक /संपादक आर अनुराधा कहती हैं ‘’लेखकों
को रोयल्टी ना मिलने के पीछे प्रकाशकों की अपारदर्शी नीतियां भी हैं |जहां अंगरेजी के प्रकाशक ज्यादा प्रतियाँ (मुनादी की हद तक)बेचने पर गर्व महसूस
करते हैं ,हिन्दी की पुस्तकों की कितनी प्रतिया बिकीं पता ही
नहीं रहता “”(राजकमल प्रकाशन पुस्तिका से साभार )|
जहाँ तक हिन्दी लेखकों की अंगरेजी या कोई अन्य भाषा से गुरेज़
की बात है ,यदि हम सिर्फ हिन्दी
पढ़ना लिखना और बोलना तक खुद को सीमित रखेंगे तो ना सिर्फ भाषा बल्कि वैश्विक साहित्यिक
परिवेश (अनुवाद आदि)से भी पिछड़ जायेंगे जिसे सुप्रसिद्ध आलोचक श्री रमेश दवे ने
‘’कूप मंडूकता का संकीर्ण स्वदेशीपन’’कहा है |भूमंडलीकरन और बाजारवादी
संस्कृति के इस उत्तर आधुनिकी दौर में हम वैश्विक साहित्यिक स्तर पर उस अनुभव क्षेत्र
को हासिल नहीं कर सकते जो आज के समय की मांग है ना सिर्फ कला साहित्य बल्कि प्रोद्योगिकी,संचार,मीडिया आदि क्षेत्रों में |अतः सच यही है कि भाषा के मामले में हमें तय करना होगा कि हम कितने स्वदेशी
है और कितने विदेशी | चाहे भाषाई हो अथवा विचारगत ,आज के युग में कट्टरता का मतलब है किसी क्षेत्र विशेष से अन्तोगत्वा स्वयं
को खारिज कर दिया जाना |
हम भले ही सलमान रश्दी ,अरुंधती रॉय,चेतन भगत आदि पर भाषाई आक्षेप मढ़ें ‘’हिन्दी
बाजार’’बिगाड़ने की तोहमतें लगाएं पर एक सच ये भी तो है कि अब तक भारतीय मूल के पांच
उपन्यासकार वी एस नायपाल (इन अ फ्री स्टेट -1971 ),सलमान रश्दी
(मिड नाईट चिल्ड्रेन -1981 ),अरुंधती रॉय (गौड ऑफ स्माल थिंग्स
-1997),किरण देसाई –(दि इन्हेरिटेंस ऑफ लॉस -2006),और अरविन्द अडिगा (दि व्हाईट टाइगर-2008),बुकर पुरस्कार
से सम्मानित हो चुके हैं |1993 में हिन्दी मूल के विक्रम सेठ
के ‘’ए सुटेबल ब्बोय)की चर्चा ब्रिटेन में खूब रही |
बेशक हम पुरुस्कारों पर धांधलेबाजी और प्रकाशकों पर बेईमानी
का दोष मढ़ एक निंदा सुख पा लें लेकिन सच यही हैं कि बावजूद भरपूर प्रतिभा के हिन्दी
पट्टी में गुटबंदियों, दोषारोपणों
,बहसों, अनर्गल प्रलापों,विचारधाराओं के मतभेद ,परस्पर विरोधों और अंगरेजी के
रुदन पर ज्यादा तवज्जोह दी जा रही है| विचारधारा के प्रश्न पर
एक सुप्रसिद्ध कवि ,आलोचक का ये कथन सही लगता है ‘’अगर आप कवि
हैं तो आपसे प्रथमतः और अंतत कविता ,जीवन और भाषा का स्पंदन चाहिए
कल्पना का साहस और सच्चाई का अभिग्रहण चाहिए ना कि आपकी आस्था का इजहार |सच ,समाज,परिवर्तन,क्रान्ति पर मार्क्सवाद का एकाधिकार नहीं है और ना होने देना चाहिए |
दूसरी तरफ भले ही आलोचकों ,साहित्यकारों,चिंतकों
या बुद्धिजीवियों द्वारा आधुनिक व उत्तर आधुनिक लेखन की समीक्षा/आलोचना/विश्लेषण लेखक
के कसीदों अथवा कमियों के रूप में की जा रही हो पर बुद्धिजीवियों का एक समूह ये नहीं
मानता कि इस दौर में कुछ नवीन और मौलिक वैचारिक लेखन हो रहा है |
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