‘’हिन्दी साहित्य की पहली चुनौती है पढ़ना ‘’...किसी ने सही कहा है |गूढार्थ यही कि आज हिन्दी लेखकों में लिखने और उनके ‘’पढ़े जाने ‘’ की जो आतुरता है वो उनके द्वारा अन्य को पढ़े जाने की नहीं ...लिहाजा आज पाठकों से अधिक लेखक ,और उनसे भी ज्यादा अवसर (पुरूस्कार, फेसबुक,विभिन्न आयोजन इत्यादि )उपलब्ध हैं |
(आपके कहेनुसार)''कुछ साहित्यकार भ्रष्टाचार (?) में डूबे नहीं हैं क्यूँ की उन्हें अमर होने की चिंता या हडबडी नहीं है ...(पर कुछ )मठाधीशों की पूंछ पकड़कर साहित्य के भवसागर को पार करने का उपक्रम कर रहे हैं ,राजधानी की हष्ट पुष्ट पत्रिकाएं व् सामर्थ्यवान संपादकों की ‘’फेक्ट्री’’....वगेरह ...विचारणीय होने के बावजूद ये त्रासदी चिंतनीय नहीं कही जा सकती |इस मनोवृत्ति का सम्बन्ध कालगत भी है ..कुछ प्रश्न-
क्या दशकों पूर्व पैदा हुए और साहित्य जगत के उत्कृष्टतम रचनाकारों यथा प्रेमचंद,टेगोर,महादेवी वर्मा,अज्ञेय ,रेणु,शरत चंद ,जयशंकर प्रसाद आदि के काल में तथाकथित जिज्ञासु ,योग्यता से अधिक महत्वा कांक्षी और प्रसिद्धिप्रिय रचनाकार नहीं हुए होंगे ?साहित्य जगत के नक़्शे में कहाँ हैं अब वो?
बावजूद इस सत्य के कि तकनीकी सुविधाएं और बाजारवादी मनोवृत्ति ने पूरे समाज को एक बाज़ार में तब्दील कर दिया है ,लिहाजा कम समय में जल्दी और अधिकाधिक प्राप्त करने की लालसा दोगुनी हो गई है लेकिन एक सत्य ये भी तो है कि इन ‘’महत्वाकांक्षी’’ लेखक /लेखिकाओं में कालांतर में कितनों को प्रेमचंद या महादेवी वर्मा जैसे शताब्दियों तक याद रखा जाएगा?
दरअसल वास्तविक लेखक चर्चा में आने के लिए किसी के कन्धों पर चढ़कर प्रसिद्धि पाने पर यकीन नहीं करता ये ज़रुरत तो उन लोगों को पड़ती है जिन्हें अपने काबीलियत पर भरोसा नहीं लेकिन प्रसिद्धि की चकाचौंध में रहना चाहते हैं ’’अमर ‘’बने रहने की चाहत एक बचकानी सोच और कोशिश है वस्तुतः साहित्य में जो ‘’अमरता’’ की पदवी पा चुके हैं उन्होंने इस अमरता के लिए कभी कोशिश नहीं की थी |
वास्तविक लेखक किसी भी स्थिति में लेखन करता है इतना ही नहीं उसके लेखन को वैश्विक रूप से उत्क्रश्तता की कोटि में स्वीकृत और सराहा जाता है |उद्देश्यपूर्ण और उत्कृष्ट लेखन किसी भी ‘’जोड़ तोड़ ‘’ की नीतियों का मोहताज़ नहीं होता |गौर तलब है कि लैटिन अमेरिकी देश कोलंबिया में ज़न्मे महान लेखक गेब्रियल गार्सिया मार्खेज़ का विश्व प्रसिद्द उपन्यास ‘’वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सौलीच्युड’’जो १९६७ में लिखा गया तब उस पर किसी का ध्यान नहीं गया |बाद में इसी उपन्यास को नोबेल पुरूस्कार से नवाज़ा गया | मार्खेज़ जो पत्रकार भी थे ,उन्हें वामपंथी विचारों के कारण अमेरिका और कोलंबिया की सरकारों ने अपने देश में आने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था |ऐसी विपरीत और विकट परिस्थितियों में लेखन करने वाले तमाम लेखक हैं |इतिहास गवाह है कि किसी भी देशी विदेशी कालजयी लेखक का लेखन इस उद्देश्य की पूर्ती (मकसद)नहीं रहा कि उसे लोग सदियों तक जाने ...बल्कि उनका लेखन जीवन के किसी गंभीर दर्शन अथवा किन्ही सामाजिक राजनैतिक त्रासदियों को उजागर करना था | इमरे कर्तेज़ के उपन्यास .’’कैदिश फॉर अ चाइल्ड नौट बौर्न ) में नायक उस अजन्मे बच्चे का पिता बनने से इनकार कर देता है जिसे पैदा होने के बाद नाजियों के अत्याचारों को झेलना पड़े | मानव जीवन की वास्तविकता का ऐसा वर्णन और ये विषय शायद ही किसी पश्चिमी लेखक ने उठाया हो जिसकी तुलना बुद्ध से की जाती है |यदि आपके दुसरे पक्ष पर विचार किया जाये (लेखकीय महत्वाकांक्षाओं और उनकी जोड़ तोड़ की )तो कर्तेज़ का ही उदाहरण फिर देना होगा |उलेखनीय है की विश्व प्रसिद्द उनके उपन्यास ‘’फेटलैस ‘’१९६५ में लिख दिए जाने के बावजूद छपने के लिए उन्हें १० वर्ष का इंतज़ार करना पडा |नोबेल पुरूस्कार विजेता विश्वावा जिम बोर्सका जिन्होंने कहा था ‘’ज़िंदगी राजनीति से अलग होकर नहीं रह सकती फिर भी मै अपनी कविताओं में राजनीति से दूर रहती हूँ ‘’उनकी आरंभिक रचनाएँ पूंजीवादी सभ्यता की विरोधी और मजदूरों के समर्थन की रही हैं |जहाँ तक आलोचना का प्रशन है विश्व का कोई साहित्यकार ऐसा नहीं रहा जिसकी आलोचना न हुई हो |तोलस्ताय को ‘’बहुत नसीहतें देने वाला लेखक ‘’कहा गया तो विश्व प्रसिद्ध लेखक ,नाटककार आयर लेंड के सेम्युअल बेकेट के विश्व प्रसिद्द नाटक ‘’वेटिंग फॉर गोदोत’’के दो नायकों को आलोचकों ने फ़िज़ूल या आवारा कहा जबकि बेकेट के अनुसार वे दौनों उस अनजान ‘’गोदोत’’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिसके बारे में उन्हें कुछ भी नहीं मालूम ...मूल में यही कि मनुष्य किस प्रकार एक उद्देश्यहीन तरीके से जीवन की यात्रा कर रहा है’’|ऐसे तमाम उदाहरण हैं |
टॉलस्टॉय ने अंतिम दिनों में गोर्की से कहा था ‘’इतना लिखा गया मगर कुछ नहीं हुआ दुनियां पहले की अपेक्षा खराब ही हुई है ....फिर भी ....’’
शोर्ट कट अथवा सांख्य के उद्देश्य से लिखे साहित्य को सफल नहीं कहा जा सकता कुछ समय बाद उसका धूमिल हो जाना निश्चित है..इसके साक्षात उदाहरण आज सामने हैं हमारे ...|
लेखन एक गंभीर और धैर्यशील कर्म है यह कालातीत है |आधुनिक फेंटेसी के जनक फ्रांत्स काफ्का की विख्यात कहानी ‘’मेटामार्फोसिस’’हिटलर के गेस्टापो युग से बहुत पहले लिखी गई थी जिसे आज भी अद्वितीय की श्रेणी में रखा जाता है |इन्हीं के उपन्यास ‘’द कासल’’एक आम आदमी के आत्म संघर्ष की लाज़वाब दास्ताँ ...|साहित्य केवल वर्तमान नहीं है बल्कि अतीत से होते हुए भविष्य तक के द्वार खोलता है ये धैर्य कहाँ है आजके ‘’त्वरित प्राप्त आकांक्षी ‘’ लेखकों में ?
आज लेखक दो प्रकार के हैं एक वो जिन्हें अपनी स्वीकृति का भय हमेशा बना रहता है अतः वो साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति निरंतर किसी ना किसी माध्यम से दर्ज करते (करवाते)रहते हैं| दुसरे किस्म के लेखक अपने लेखन पर तो विशवास करते हैं ,लेकिन ‘’उपस्थिति’’दर्ज करने में संकोच और एक आत्मसंघर्ष से जूझते रहते हैं ...एक स्वयं की प्रतिभा का दिग्दर्शन कर पाने का संघर्ष और दुसरे साहित्य की समकालीन दिखावटी मनोवृत्ति के लेखकों से पिछड़ जाने का भय|’’हिन्दी साहित्य के एक विख्यात लेखक का कहना है ‘’लेखक होने के नाते किसी विशेष सुविधा की मांग नहीं करता ......शायद बोल्ड नहीं हूँ अगर होता तो लिखने की बजाय कुछ और कर रहा होता ‘’
आज साहित्यकार ‘’हार जाने के डर’’से ग्रसित है ,और उसके द्वारा की गई ये तमाम चेष्टाएँ इसी डर का एक नकारात्मक नतीज़ा हैं ...खारिज कर दिए जाने का डर ...|प्रसिद्द साहित्यकार बद्रीनारायण कहते हैं ‘’आज कवी तो बहुत हैं ,लेकिन अच्छा कवी बना रहना एक आत्म संघर्ष है |’’प्रवासी भारतीय साहित्यकार नायपाल कहते हैं कि वे भारतीय अन्धकार से बाहर आकर ही सभ्य हुए हैं |’’कहीं उनकी ‘’असभ्यता’’ का तात्पर्य समकालीन हिन्दुस्तानी साहित्य की इन्हीं मनोवृत्तियों की और इंगित तो नहीं करता ?..क्या वजह है कि वैश्वीकरण के फैलाव और आधुनिकतम संसाधनों के बढ़ने ,सभ्यता और शिक्षा के विकसित होने के बावजूद नवीनता और विचारगत रूप से हम वैसा साहित्य नहीं रच पा रहे हैं जिसकी अपेक्षा की जाती है जहां तक विचारधारा का प्रश्न है विचारधारा ,जीवन द्रष्टि और अनुभवों का विकल्प कभी नहीं हो सकती बावजूद इस सत्य के प्रत्यक्षतः अथवा परोक्ष रूप से हर रचना के मूल में कोई न कोई विचारधारा तो होगी ये हमारे ऊपर है कि ‘’अंधों के हाथी की तर्ज़ पर हम उस लेखक विशेष अथवा रचना विशेष को किस भी विचारधारा से जोड़ दें !लेखकों व् लेखन के संदर्भ में एक और विचारणीय तथ्य यह है जैसा कि सुप्रसिद्ध कवियत्री कात्यायनी कहती हैं कि नवें दशक में और उसके बाद कवियों की एक नई पीढी उभरी जो बहुत संभावनाशील थी लेकिन उसके बाद क्रमशः उनकी रचनाओं में एकरसता ,दुहराव,चौंक चमत्कार,नकली विद्रोही तेवर आदि समाविष्ट हो गए |उनका तात्पर्य शायद अलग अलग विचारधारों और खेमों में बट जाने का लोभ संवरण न कर पाना भी संभावित है |
समय परिवर्तन शील है....इसी के मद्दे नज़र सोच भी सकारात्मक होनी चाहिए |
किसी भी वास्तविक लेखक /कलाकार के लिए साहित्यिक अमरता के बरक्स दैहिक म्रत्यु एक ऐसी घटना है जो अपने अधूरेपन को सम्पूर्ण आस्था और विशवास के साथ नई पीढी के उस सम्पूर्ण बौद्धिक जगत के हवाले करके जाती है जो इसकी वास्तविक उत्तराधिकारी है ...पूछना सिर्फ ये हैं हमें स्वयं से कि क्या हम उन कालजयी लेखकों की इस विरासत का सचमुच और वास्तविक उपियोग कर पा रहे हैं ?
लेखन की प्यास पहले आयेगी, जब धीरे धीरे लोग लिखने में गुणवत्ता चाहेंगे उन्हें पढ़ने की चाह जगेगी। अक दूसरे पर यह निर्भरता बहुत आगे तक जायेगी।
जवाब देंहटाएंghazab ki sachayee likhi hai aapne vandanji.
जवाब देंहटाएंdhnywaad pravin ji ,shivnaath ji
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