19 जनवरी 2015

साहित्य में ‘विमर्शों ‘’ की प्रासंगिकता


सबसे पहला प्रश्न विमर्श क्या और क्यूँ |विमर्श का अर्थ सरोकार से लिया जाए या मूल्यांकन से ? क्या हर नारीवादी या स्त्री विषयक लेखन विमर्श की श्रेणी में आता है? यौनिकता बनाम नारी देह से शुरू हो अंतत नारी शुचिता के नारों पर समाप्त हो जाना ही सरोकारों के उद्देश्यों की इतिश्री मानी जाए ? क्या दलित साहित्य का अर्थ सिर्फ इस वर्ग का एतिहासिक शोषण और उसके कारणों का लेखा जोखा या वस्तुस्थिति का मुजाहिरा अथवा उनके प्रति दया ,क्षुब्धता अथवा आक्रोश ही है? यदि हम अपने साहित्यिक पुरोधाओं के इस कथन से इत्तिफाक रखते हैं कि ‘’हर अच्छी रचना एक हस्तक्षेप होती है’’ तो विमर्शों की प्रासंगिकता बनाम आवश्यकता पर एक बार पुनर्विचार करना होगा बशर्ते कि हम ‘’अच्छी रचना’’ को सही सही परिभाषित ही नहीं मूल्यांकित भी कर पायें |प्रकारांत में विमर्श का अस्तित्व प्रथकता की मनोवृत्ति दर्शाता है | एकरूपता को खारिज कर स्व-विखंडन की प्रवृत्ति की स्वीकारोक्ति | यद्यपि मौजूदा साहित्य समाज की विकृतियों मनोविकारों व् जटिलताओं का काफी हद तक एक सटीक खाका खींचता है |गंभीर मुद्दे उठाये जा रहे हैं ,प्रतीकों व् ब्योरों द्वारा अभूतपूर्व रूप से स्थितियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया जा रहा है |निस्संदेह इसमें इलेक्ट्रोनिक मीडिया व् उपकरणों का भरपूर स्तेमाल और सहयोग है और ये भी सच है कि इन उपकरणों व् मीडिया से अनेकानेक लाभ और सुविधाएं अर्जित की जा रही हैं ,ज्ञान है सूचनाएं व् जानकारियाँ हैं लेकिन इन्होने कहीं न कहीं व्यक्ति को विचार-पंगु बनाने का कार्य भी किया है | प्रायः स्त्री विमर्श कर्ता विशेषतः स्त्री पुरोधाओं के लेखन में पुरुषों व् दलित  लेखन के तहत सवर्णों को कटघरे में खड़ा किया जाता है लेकिन यदि कोई सवर्ण दलित विषयक रचना अथवा कोई पुरुष स्त्री की दशा से सम्बंधित रचना लिखता है तो उसे किस भाव में लिया जाएगा ? केदारनाथ सिंह जी ने एक साक्षात्कार में कहा है ‘’विमर्श के कारन जो सबसे ज्यादा क्षति हुई उसको अनुभव करने वाला समाज फ्रांस का समाज है वहां इतने ज्यादा विमर्श हुए हैं कि कविता में प्राणवंत लेखन लगभग दब सा गया है |उनकी ये चिंता भी वाजिब है कि आज समाज व् साहित्य में जनांदोलन क्यूँ नहीं पैदा हो रहे हैं इस पर विचार करना चाहिए|’’
बाल विमर्श का विकल्प ‘’स्लम डॉग मिलेनियम’’ जैसी फ़िल्में या बाल बंधकों /मजदूरों से सम्बंधित डॉक्युमेंट्री नहीं हो सकतीं ये तो सिर्फ इस एक वास्तविकता की पटकथा का चित्रण हैं | हमारे फेसबुक मित्र महेश पुनेठा जी ने जिस दीवार पत्रिका का श्री गणेश किया है और हमारे कई मित्र उसमे रूचि ले रहे हैं ये संभवतः कागजी विमर्शों से अधिक लाभप्रद और असरदार कोशिशें हैं | जहाँ तक स्त्री की आजादी की बात है उसकी पारिवारिक,सामाजिक, राजनैतिक अधिकारों की स्थिति पहले से बेहतर लेकिन आज भी काफी असंतोषजनक है और निस्संदेह साहित्य में स्त्री विषयक जिन चिंताओं व् उसकी पीडाओं को केंद्र में रखा जाता रहा है वास्तविक स्थिति आज संभवतः उससे भी भयावह है लेकिन क्या साहित्य का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि हम स्त्री की दिशा को नज़रअंदाज कर सिर्फ उसकी दशा का सही २ और मार्मिक वर्णन कर दें व्  पुरस्कार सम्मानों के हकदार मान लिए जाएँ ? आज बहुत कम किताबें ऐसी पढने को मिल रही हैं जिनमे स्त्री के भविष्य की चिंता के साथ उसकी जटिल स्थितियों के संभावित समाधान को भी जोड़ा गया है | क्या ज़रूरी है कि स्त्री किसी रचना में सिर्फ प्रताडिता के रूप में ही हो ? क्या हमारी रचनाएं आने वाले समय की धमक सुन पा रही हैं ?


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें