कुछ भ्रम देर तक पीछा करते हैं नींद का
सिरहाने की हदें भिगो देती हैं चंद किताबें
शब्द खोदने लगते हैं सपनों की ज़मीन
और वक़्त अचानक पलट कर देखने लगता
धरती का वो आखिरी पेड़
जिसके झुरमुट में अटकी है कोई
खुशी से लथपथ फटी चिथड़ी स्मृति
किसी सूखे पत्ते की ओट में , हवा के डर से
थकी,उदास और सहमी सी
करवटें भींग जाती है विषाद से
घूमने लगते हैं घड़ी के कांटे उलटे
रातें बदलती हैं तेज़ी से पुराने अँधेरे
देखती है कोई कोफ़्त तब
हरे भरे पेड़ को वापस ठूंठ हो जाते हुए
या नदी पर खुश्क दरारों की तडकन
सोचती है पीठ किसी क्षत-विक्षत सपने का उघडा हुआ ज़ख्म
सुदूर एक घुटी सी चीख टीसती है
कौंधने के पीड़ा-सुख तक चुपचाप,बेआवाज़
किसी डरे हुए पक्षी से फडफडाते हैं कलेंडर के पन्ने
छिपाते हुए खुद से अपनी तारीखों के अवसाद
आंधी में सूखे पत्तों से उड़ते हुए वो मुलायम स्पर्श
फिर ओढ़ लेते हैं कोई हंसी,दुःख,उदासी या मलाल
रात....उम्मीद का पीछा करते शब्दों की निशानदेही पर
पहुँच जाती हैं उस नदी तक
जहाँ चांद की छाँह में स्मृतियाँ निचोड़ रही होती हैं
अपने शेष दुःख
Bahut dard aur bahut saare mod is kavita me .. bahut sundar rachna ..Navvarsh par shubhkaamnayen..
जवाब देंहटाएंdhanywad nutan ji
जवाब देंहटाएंshabdon poorn dangal man ki abhivyakti ko ukerne me saksham hai.
जवाब देंहटाएंवंदना जी, आपका भावपूर्ण लेखन अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंमनोस्थिति की सुन्दर अभिव्यक्ति.
आभार.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
bhaavpurn abhivaykti...........
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सागर जी
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