उम्र के चौसठवें बरस
में
सुबह की सैर से वापिस
लौटते हुए उस दिन
अचानक लगा बिशन बाबू
को कि
नहीं नहीं ...जीना
कुछ और तरह था
और जी कुछ और तरह
लिए
घर की देहरी करीब आ
रही थी
बनिस्बत पीछे छोड़
आये पिछली लम्बी सडक
और उनसे भी
लम्बे सायेदार दरख्तों
से....
वो रुक गए सहसा
जिसे छोड़ आये थे वो
अपनी
पीठ पीछे
पलटकर देख रहे थे उस
लम्बी सडक को
उन नई साफ़ शफ्फाक
चमकती सडकों पर
बिछ गए थे कुछ पीले कुरमुरे पत्ते अब
दरख्तों को नए
पत्तों की आदत है ना
और सडकों को हवा की
सड़क के उस छोर पर
दूर बहुत दूर धुंधली
सी दिखाई दे रही हैं मानव आकृतियाँ
उड़ती हुई सी ,जो
दौड़ी आ रही हैं इसी सड़क पर
चश्मे का नंबर बहुत
बढ़ गया है कमबख्त ....
वो हाथ उठाकर रोकना
चाहते हैं उन्हें
दौड़ों नहीं चलो क्यूँ
कि
सूखे पत्ते दब रहे
हैं तुम्हारे पैरों के नीचे
और
दौड़ते हुए देख नहीं
पाओगे तुम
पेड़ों की सघनता और
सडकों की लम्बाई
पर वो कुछ नहीं कहते
क्यूँ कि
देहरी घर की फुसफुसा
रही है
शायद यही कि
आ जाओ अब धूप तेज़ हो रही है |
किस समय उसी विश्व में क्या नया दिख जाये, क्या पता?
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