तीन दिनों का अवकाश
था जिसका इंतज़ार लगभग एक महीने पहले से था यकीन न हो तो कैलेण्डर से पूछ लीजिये |परिवार
के साथ बतियाना ,मनपसंद नाश्ता बनाना, मनपसंद फिल्म देखना ,लॉन्ग ड्राइव पर जाना,बहुत
दिनों से पेंडिंग पड़े काम पूरे करना,जैसे मेल,फोन,मिलना जुलना एकाध कहानी पडी थी
अपने पूरे किये जाने की प्रतीक्षा करती वो भी केलेंडर में छुटटी के दिन पर अपनी निगाहें
टिकाये उम्मीदों के गोलों को रोज़ गाढे करती रही |हर चीज़ को टाल सकती हूँ लेकिन अधूरी कहानी से
ऑंखें नहीं मिला पाती जब तक पूरी कर न लूं मन में ज़ख्म की तरह कौंधती रहती है
...ज्यादा दिन अधूरी पडी रहे तो उसका अंत (जब भी करू)बीमार और निराशाजनक ही होता
है तो क्या कहानी भी रूठ जाती है? क्या वो भी ज़न्म व् म्रत्यु के बीच की पीड़ा को
मनुष्य की तरह ही भोगती है और उससे ज़ल्दी निजात पाना चाहती है? उसके पात्र उसकी
जगहें उसके सच उसके झूठ उसकी इच्छाएं ,उसकी विडंबनाएँ उसकी कामुक्ताएं सब अपने
भविष्य यानी अपने अंत की प्रतीक्षा करते हैं ? अध् पर लटके उसका जी घुटता है?कहानी
का जन्म कहीं भी हो सकता है पोस्ट ऑफिस में लगी लाइन के बीच,पार्क में खेलते
बच्चों की किलकारियों में ,किसी बस स्टॉप पर पडी टीन की छत पर बरसतें लोहे के
छर्रों सी आवाज़ करती डरावनी बारिश में ,गुलाबों के बगीचों
में ...कहीं भी ...लेकिन अंत कहीं भी नहीं होता ...तो क्या हर कहानी अंतहीन होती है
आयुविहीन...अश्वत्थामा की तरह??या फिर उसमे अचिन्हित ‘’क्रमशः’’ हमेशा अद्रश्य में
छिपा रहता है? कहानी लिखना किन्ही दो भ्रमों के बीच का एक खालीपन है |माँ कहती थीं
कि जब अतीत की किसी दुखद या संत्रास देने वाली घटना की याद आये जो दिमाग से निकले
ही नहीं और कोंचती रहे तो भविष्य के किसी सपने (काल्पनिक ही सही )को उगा लेना
चाहिए उम्मीदों की हथेली पर ..आँखों के एन सामने इससे भोगे गए मलाल कम हो जाते हैं
|मेरे लिए कहानी इन दौनों अवस्थाओं के मध्य का अंतराल है जिसमे मैं स्वतंत्र हूँ
अपने पात्रों को कहीं भी ले जाने छोड़ने हंसाने रुलाने मनाने रुठाने के लिए उन्हें
मन चाहे आकार देने के लिए |लेकिन हर आरम्भ की एक नियति होती है उतनी ही ज़रूरी
जितनी उसकी परिणिति ...|मेरी कहानियों की परिणिति मैं स्वयं हूँ ...क्यूँ की कहानीकार
अपनी हर कहानी में कहीं न कहीं किसी न किसी मर्म में कोना बनकर उपस्थित रहता है
...कभी नरेटर के रूप में कभी किसी पात्र के रूप में और बहुत कम लेकिन कभी २
द्रष्टा के रूप में भी |....(क्रमशः)
दृष्टा के रूप में रोचकता बढ़ जाती है..नहीं तो स्वयं ही रहस्य में रहता है सूत्रधार।
जवाब देंहटाएंjee Praveen ji
जवाब देंहटाएंअरस्तू की एक उक्ति है,'अंत वह होता है, जो स्वयं तो पिछली तमाम घटनाओं के कारण अनिवार्यतः आता है लेकिन जिसके बाद और कुछ भी आने को नहीं रहता .'
जवाब देंहटाएंji sahi baat ashwani ji
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