ख्वाहिश
सोलहवीं मंजिल की खिड़की के
कितना पास होता है आसमान
और
कितने दूर लगते हैं लोग
सब कुछ दीखता है वैसा
जैसा नहीं सोचा होता कभी
कि ‘’दिखना’’ हो सकता है ऐसा भी
किसी घटना का होते हुए ....
टेढ़े मेढे लोगों को
सीधे रस्ते ले जाती सड़कें
हांफ जाते हैं ऊँचाई तक आते
अन्यायों,मलालों और विडंबनाओं के कोलाहल
बंजर धरती को ढँक लेती हैं
चींटियाँ
आँखों में उतर आता है हरा रंग
दरख्तों के ठूंठ मूर्ती हो जाते हैं
किसी देवता की
अलावा इसके बस
दिखाई देते हैं रंग
बहुत थोड़े ....
हवा के धुंधले केनवास पर
काश ,ज़िंदगी की दीवार में भी
होती कोई खिड़की
और ज़िंदगी खड़ी होती
सोलहवें माले पे |
१६ वें खण्ड में पहुँच, न धरा के रहते हैं, न आसमान के।
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