29 दिसंबर 2013

एक कविता

एक कविता
एक कविता   ....
आधी रात के घुप्प अँधेरे में
क्षितिज पर टंगी एक नन्ही झिर्री से    
उतरती रहस्य की नीली रोशनी 
फैलती समूची धरती पर 
जिब्रान के हर्फों की काया पहन 
एक कविता .... 
किसी खंडहर हो चुके काल की अंतिम सीढ़ी पर
बैठी एक अनाकृत आकृति(छाया )    
अपने पैरों के नीचे की ज़मीन को
मजबूती से थामे
बिना किसी दीवार के सहारे  
ओक्तोवियो पॉज़ की कल्पना –सी .........
एक कविता  .....
किसी बूढ़ी दीवार में से फूटा लावारिस पीपल का पौधा 
अपने हिस्से की गीली ज़मीन  को तकता हुआ 
अनवरत ....
कन्फ्युशियस के मौन विराट में धंसता
एक कविता  ....
सैंकड़ों असंभावनाओं व् निराशाओं के बीच
 रखती है अपनी यात्रा जारी
कल्पना की आँखों से
 रंग बिरंगे महकदार फूलों की क्यारियों को छूती 
 ,निस्पृह ..निशांत
सुर्ख नीले, ध्यान मग्न आसमान को देखते हुए
वर्डस वर्थ के अतीतजीवी स्वप्नीं से गुज़रती  
एक कविता  ....
उतरती है
असत्य के खिलाफ
 नैतिकता के आंगन में 
तमाम अनिश्चितताओं को नकारती हुई
वोल्टेयर मौन्तेस्क्यु के विचारों की सीढ़ियों से ? 
एक कविता ....
 गढ़ सकती है परिभाषा
अंधेरों की जो 
 किसी रोशनी के खिलाफ न होकर
एक परलौकिक धुंधलके की ठंडी गुफा में
दाखिल हों रही हो रिल्के और हैव्लास की
मशाल के पीछे 
एक कविता
 रचती है
निस्सारता की काली रेखाओं से
एक अप्रतिम छवि 
गणेश पाइन की काल्पनिक म्रत्यु की दीवार पर
एक कविता ...
 खोल सकती है हज़ारों परतें
मन की
 प्याज के छिलकों की तरह 
चेखव की कहानियों के
पात्रों सी
एक कविता
उगा सकती है संभावनाओं की नई पौध 
नेरुदा माल्तीदा ,अम्रता इमरोज़ या
लीडिया एव्लोव व् चेखव के प्रेम गाथाओं की नर्म ज़मीन पर  
या
 डुबा के अपनी उम्मीद 
अश्रु की स्याही में
लिख सकती है
करुना के पन्ने पर
अपना सच/संवेग  
मुक्तिबोध के दुह्स्वप्नों सी
वो उग सकती है
घुप्प अंधेरी गुफा में दीपक बनकर
पूर सकती है पूरी प्रथ्वी को 
नील-श्वेत अलौकिक चौंध से 
आबिदा परवीन की उन्मुक्त खनकदार आवाज़ के सहारे  
वो....
झरती है ऊँचे पर्वत से
पिघलती चांदी के झरने के साथ  
अंधेरी रात में खामोश 
खुद से गुफ्तगू करते हुए
निर्मल वर्मा के गद्य में
एक कविता
 बतिया सकती है स्वप्न में
‘’हकीम सानाई की ‘’हदीकत-उल-हकीकत’’ से
या
 अल्लाह के बन्दों की ज़मात के साथ गुज़रती
किसी घने जंगल में 
एकांत-चांदनी से प्रेमालाप करती हुई
एक कविता 
बजती है किसी नदी के किनारे
उदास ...धीमे धीमे
बीथोवन के संगीत सी
एक कविता 
 काल को पूरा जीकर 
नियति को परिणिति की देहरी तक विदा कर
लौट सकती है
हेमिंग्वे के निस्सारता बोध से 
एक बार फिर नई स्रष्टि रचने को

एक कविता.....
(प्रकाशित)

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