28 दिसंबर 2011

तन्हाई


तन्हाई ने लिखा मौन /और मै भाषा हो गई
 पढ़ा जिसे मेरी आँखों ने
आस्मां ,नदी ,पेड़ और जंगल की
 निस्पंद देह पर
छुआ गया उँगलियों की ज़ुबान
पीले निरीह ताड़ पत्रों पर  
भाषा का ना कोई सुख होता है ना दुःख
ना निराकार ना साकार
वो बस जीती है एक सीप में
बरसों बरस खुद को भूल जाते हुए
समुद्र का एक हिस्सा बनकर
जिसे फेक दिया गया हो
नकार  देने की हद तक हाशियों पर |
समुद्र में पड़ती चाँद की परछाईं सी
कांपती है जो अपने ही भीतर
धूप से ही नहीं ,पिघलती हैं चट्टानें
बारिश और चांदनी में भी
 रेत को भिगोती लहरों का संगीत   
बारिश की बूंदों और पत्तों की लयबद्ध सिहरन
या हो प्यार ही ,
शब्दों की निरस्ती की छुअन है  
मेघ गर्जन या बारिश की बूँदें
बादलों के तिलस्मी रूप
शब्दों की मोहताजी से पीठ है जिनकी 

21 दिसंबर 2011


अर्थों ने बदल लिया है खुद को
नए ज़माने की पोशाक की तरह
आदमी को मशीन और आग को बर्बादी कह दो तो भी
अर्थ नहीं बदलते इनके
मशीन में तब्दील होते हुए , आदमी के लिए
पुर्जों की अहमियत पेड़ से अधिक है अब
मशीने जो सिर्फ आग उगलती हैं
धमाकों से अलग भी ,
 बेइंतिहा शोर रचती हैं ये
सुलगते मौन के भीतर भी,
कुछ नहीं दिखाई देता ,ना कुछ सुनाई
 सभ्यता की नई परिभाषा में  
वो आग अब बुझ चुकी है 
अग्नि कहकर जिसकी परिक्रमा की जाती थी
हजारों संतानें गवाह है इसकी ,या
लिपे चूल्हे की गोद में अंगारों पर सिंकी रोटी की
अपनापे की गंध  
अब आग के मायने सिर्फ
दिल से लेकर चिता तक धधकती वस्तु रह गई है
और पानी के ,एक सूखी नदी की दरारें
हवा के,एक दमघोट धुआं |
और धुंए के मायने  ..एक युग

15 दिसंबर 2011

पहचान-पत्र



मुझे ,
मेरा ‘’होना’’ याद दिलाता हैं
मेरा पहचान पत्र |
क्या भरोसा नहीं मुझे ,कि मै वही हूँ
जो कल थी ,या उससे पहले !
क्या बदलती हूँ मै हर दिन हर पल ?
जो गले में लटकाए फिरती हूँ
इसे नुमाइश की तरह ?
उन्हें यकीं क्यूँ नहीं कि
मै वही हूँ  
जो इस कार्ड पे चस्पा हैं ?
मेरे ‘’मै ’’होने का भरोसा
वो पाते हैं कार्ड की तस्वीर को देखकर
घूरकर देखते हैं मुझे अपनी आँखों की
सुरक्षात्मक सच्चाइयों से  इस क़दर  ,
कि खुद की शराफत पे शक होने लगता है मुझे |
यदि लगा दूँ मै इसमें अपने बचपन की कोई तस्वीर
खेलते हुए फुटबॉल या पकड़ते हुए तितली
तब क्या ‘’मै’’ मै ना रहूंगी?
जब मेरा नाम ‘ये’ ना होकर ‘वो ‘हुआ करता था
अब तो कितनी परतें जम गईं हैं चेहरे पर
घर का ,कॉलेज का और बाजार का चेहरा  
कितनी गिरह नामों में ?
दीदी,डार्लिंग,बिटिया,अंजू,मौसी ,बुआ वगेरा
असली नाम बचा ही कहाँ?
ना चेहरा...
इन परतों को हटाकर अपना मूल चेहरा दिखाऊँ  
जो बचपन में था ,बिंदास खिला हुआ, भोला
तो क्या यात्रा नहीं करने दोगे मुझे जहाज़ में ?
ना प्रवेश होटल में ?
ना मेरे ऑफिस में?
क्या इतने आशंकित हो चुके हो तुम ,
सच्चाइयों  से ?
कि कागजों से पूछते हो   
मेरे होने का सबूत  ?
क्या नहीं है इसकी संभावना भविष्य में कभी
 कि अपने होने की पहचान ,
कार्ड से दिखाते २
मै खुद भूल जाऊं खुद की  पहचान
और पता देखकर पहुंचूं अपने घर या
फोटो देखकर जानूं अपना नाम?

10 दिसंबर 2011

9 दिसंबर 2011

9/12/2011 ko prakashit lekh

'यथार्थवादी कहानी के प्रणेता मोपांसा ''दूसरा भाग


1880 में लिखी गई कहानी ‘’चर्बी की गुडिया’’जिसे तब ही नहीं आज भी लेखक/आलोचक उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते हैं !यह कहानी ज़र्मनी के कब्ज़े वाले शहर से बचने के लिए एक घोडा गाड़ी में यात्रा कर रहे विभिन्न वर्ग,स्वभाव, रहन सहन वाले कुछ स्त्री पुरुष और उनके साथ ही यात्रा कर रही एक महिला एलिजाबेथ रूसो की है ,जिसकी सामाजिक छवि ठीक नहीं है!इस कहानी में प्रिशियाई आतंक ,सामाजिक वर्गों की भावनात्मक-संवेगात्मक रिक्तता ,संवेदन हीनता और स्वार्थपरकता का चित्रण किया गया है!
1880  से  1891 तक का समय मोपांसा के लेखन कार्य का सर्वश्रेष्ठ काल कहा जा सकता है!1883 में मोपांसा के दो कहानी संकलन मद मोजाल फीफी और हंस के किस्से प्रकाशित हुए !और पहला उपन्यास ‘’इउन वी’’(A Woman’s life)प्रकाशित हुआ !इस उपन्यास में उन्होंने एक निरीह असुरक्षित स्त्री की कहानी के माद्ध्यम से मानवता की त्रासदी को वर्णित किया है !1890 तक उनके पांच और कहानी संग्रह प्रकाशित हुए !फ्लाबेयर,जोला,तुर्गनेव और टोलास्तोय उसके जबरदस्त प्रसंशक थे !उनके बारे में कहा जाता है कि फ्रांसीसी लोगों के जीवन और मनोविज्ञान पर मोपांसा की  गहरी पकड़ थी !सधी हुई संप्रेषणीय भाषा ,उनकी रचनाओं में धूर्त क्लर्कों,पियक्कड नाविकों,कंजूस किसानों,के जीवन की वास्तविकताओं,रिक्तता ,का चित्रण वास्तविकता से भी अधिक वास्तविक रूप में किया गया है !मनुष्य जीवन के छोटे बड़े सरोकारों को आरपार देखने की द्रष्टि है उनकी !मोपांसा की कहानियों में जीवन का कटु सत्य विशेषरूप से उभर कर आया है ! कहानी संग्रह ‘’कलेर द ल्यून ‘’और ‘’मिस हैरियट’’ तक आते आते मोपांसा की कृतियाँ फ्रांस में ‘’बेस्ट सेलर’’ बन चुकी थीं !
समाज में व्याप्त वर्ग –संघर्ष ,तथा इसी अनियमितता से उपजे ‘’इनफीरियारिटी’’ अथवा  ‘सुपीरियरिटी कोम्प्लेक्स ,सामाजिक छवि कायम करने के लिए दिखावे और उन दिखावों  के कारन जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा तनाव ग्रस्त होना ,यही दिखाया गया है उनकी कहानी ‘’हीरों का हार’’में !दरअसल ये कहानी मध्यम वर्ग में व्याप्त कुंठाओं को उजागर करती है !नियति के फेर में एक सुन्दर महत्वाकांक्षी स्त्री का एक साधारण क्लर्क से विवाह हो जाता है ,और किसी सभ्रांत और विशिष्ट व्यक्ति की पार्टी में जाने के लिए वो पति से एक महंगी पोशाक,जो उसका पति उधार पैसे लेकर खरीदता है बनवाती है !अपनी घनिष्ट अमीर मित्र से अत्यंत मंहगा हीरों का हार ‘’कल तक वापिस कर देने’’ का कहकर ले आती है,जो उस पार्टी में खो जाता है !फिर उस बेहद महंगे  हीरे के हार को उसे वापस करने के लिए किन- किन दुर्दम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है पति पत्नी को ,इन कुपरिस्थितियों और संघर्ष से जूझते हुए पिछले दस सालों में उनकी आर्थिक और शारीरिक स्थिति की क्या दुर्दशा होती है ?इसका कारुणिक  वर्णन है इस कहानी का अंत चौंकाने वाला और त्रासद है !
मोपासा को ‘’Father of short stories’’भी कहा जाता है!1881 में लघु कथाओं का पहला संस्करण आया !मोपासा की कहानियों में कल्पना –शक्ति ,अंतर्द्रष्टि,और यथार्थ बोध बहुत गहरा होता है! अर्नेस्ट हेमिंग्वे व ,चेखव ने ज्यादातर प्रतीकात्मक कहानियां लिखीं वहीं आधुनिक कहानी में फेंटेसी की शुरुआत जर्मन लेखक काफ्का  से मानी जाती है!मोपासा की कहानियों की ये विशेषता थी कि उन्होंने यथार्थवादी और फंतासी दोनो प्रकार की कहानियां लिखीं !मोपासा फ़्रांसिसी साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की आखिरी कड़ी थे जिन्होंने उस श्रंखला के शीर्षस्थ लेखक बाल्जाक और स्तान्द्हल की समृद्ध परंपरा को ही आगे ले जाने का काम किया !
 ‘’रस्सी का टुकड़ा’’एक अत्यंत मार्मिक कहानी है !एक बूढ़े किसान को मेले में जाते वक़्त एक रस्सी का टुकड़ा ज़मीन पर पड़ा हुआ मिलता है !उसकी पीठ में बेहद पीड़ा होने के बावजूद वो उसे उठा लेता है ये सोचकर कि कौन सी चीज़ कब काम आ जाये !उस रस्सी के टुकड़े को उठाते हुए उसका एक पुराना दोस्त जो अब शत्रु था देख लेता है !उसके दूसरे  दिन ही एक धनी व्यक्ति का रुपयों से भरा बटुआ उसी सड़क पर खो जाता है ! धनी व्यक्ति उस बूढ़े किसान को बुलवाता है ,तब किसान को पता चलता है कि उस व्यक्ति जिसने उसे रस्सी उठाते हुए देख लिया था और जो उसका अपमान चाहता था उसी ने शिकायत की है !बूढा तरह तरह से अपने को निर्दोष साबित करने की कोशिश करता है जेब से रस्सी का टुकड़ा निकाल कर दिखाता है,कसमे खाता है ,लेकिन उसकी बात कोई नहीं मानता,और उसे दोषी करार दे दिया जाता है !फैलते फैलते  ये बात पूरे गाँव में फ़ैल जाती है और लोग उसे उलाहने देने लगते हैं उसे कोसते हैं !वो खुद को सिद्ध करना चाहता है कि वो निर्दोष है, पर कोई उसकी बात नहीं सुनता !बाद में वो बटुआ किसी अन्य व्यक्ति को सड़क पर पड़ा मिल जाता है और वो उस धनी  आदमी को सौंप देता है इसके बावजूद भी लोग उस बूढ़े किसान पर  विशवास नहीं करते ,उसका मजाक उड़ाते हैं ,उससे घृणा करते हैं और अंत में असमय ही वो यही बडबडाता हुआ मर जाता है कि ‘’मैंने बटुआ नहीं लिया था ‘’!
कहानी ‘’ज़िंदा मछलियाँ ‘’वस्तुतः एक क्रूरता और भोलेपन या एक ताकतवर और एक कमज़ोर नस्ल की कहानी है !पेरिस पूरी तरह प्रुशियाई लोगों के कब्ज़े में था !स्थितियां बेहद खराब थीं लोग भूखों मर रहे थे !पूरे समाज में घनघोर अराजकता व्याप्त थी !एक घडीसाज़ जिसका नाम मोरिसात था और जो मछली पकड़ने का बेहद शौक़ीन था ,अपने मित्र सौवेज़ के साथ रोज टीन का डिब्बा और मछली पकड़ने का जाल लेकर नदी किनारे  जाते, और घंटों मौन या बात करते हुए वे दोनो बैठे मछली पकड़ा करते !ज़र्मन सैनिक जनता पर अत्याचार कर रहे थे स्थितियां दुष्कर थीं और जाहिरतौर पर मछली पकड़ने में व्यवधान भी !वो दौनों मित्र ,मछली पकड़ने के जूनून जो उनकी आदतों में शामिल हो चूका था, का लोभ संवरण नहीं कर पाते और जाल और डिब्बा लेकर दुश्मनों से छिपते छिपाते पहुँच जाते हैं उस नदी के किनारे जहाँ  दुश्मनों का डेरा था !बहुत दिनों बाद अपनी पुरानी जगह पर पहुँच जाने पर उन्हें अवर्णनीय खुशी होती है और सरकंडे के पेड़ों के बीच छिपे हुए वे मछली पकड़ने का जाल बिछा देते हैं,और अत्यंत प्रसन्न होते हैं !पर कुछ समय बाद ही उनको दुश्मनों द्वरा पकड़ लिया जाता है !उनसे कुछ खास बातें पूछी जाती हैं जिनसे वो अनभिग्य होते हैं और तब उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया जाता है और उसी नदी में उनकी टांग और हाथ पकड़कर निर्दयता पूर्वक फेंक दिया जाता है !अंत में कर्नल जिंदा तडपती मछलियों जो उन्होंने पकड़ीं थीं को देखकर कहता है ‘’इन्हें ऐसे ही ज़िंदा फ्राय करके लाओ!
 ‘’हीरों के हार ‘’में जहाँ विभिन्न सामाजिक वर्गों की  भावनात्मक –संवेदनात्मक समस्याओं से उपजी कुंठा और विसंगति का दिग्दर्शन है वहीं ‘’रस्सी’’कहानी में नोर्मन किसानों के जीवन से जुडी व्यथा –कथा जो ,तथा समाज में व्याप्त अराजकता झूठ और संवेदन शून्यता को दर्शाता है !’’चर्बी की गुडिया’’में नौकरशाही ,स्वार्थपरकता संवेदनहीनता बुर्जुआ समाज के निजी जीवन में नैतिकता का अभाव ,अनुभूतियों और रिश्तों का खोखलापन एवं संबंधों में पाखंड जैसी सामाजिक विसंगतियाँ उजागर होती हैं तो ‘’ज़िंदा मछली’’में फ्रांस-जर्मनी युद्ध विषयक विसंगति , प्रुशियास का आतंक,वहशीपन क्रूरता और बर्बरता का वर्णन है !
मोपासा के समकालीन रुसी लेखक गोर्की के कुछ उपन्यासों में विषयात्मक साम्यता द्रष्टिगत होती है उल्लेखनीय है कि 19 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में गोर्की ने तीन उपन्यास लिखे थे ‘’मेरा बचपन ‘’मेरे विश्वविद्यालय’और जीवन की राहों पर’’ इन तीनों आत्मकथात्मक उपन्यासों की प्रष्ठभूमि एतिहासिक है!इन्ही विसंगतियों और बर्बरता का वर्णन करते हुए ‘मेरा बचपन’ में एक जगह वो लिखते है ‘’मै अपनी नहीं उस दमघोंट और भयानक वातावरण की कहानी कहने जा रहा हूँ जिसमे साधारण रुसी अपना जीवन बिताता था और बिता रहा था !’’ये उपन्यास ,कहानियां एक ऐसा इतिहास है जिनसे हमारी आँखों के सामने उनका समूचा युग चलचित्र की भांति उभरता चला आता है!नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचीबे कहते हैं ‘’जब हम किसी कहानी को पढते हैं ,तो हम केवल उसकी घटनाओं के द्रष्टा ही नहीं बनते, उस कहानी के पात्रों के साथ हम तकलीफों में भी साझा करते हैं !’’
 तुर्गनेव और फ्लाबेयर मोपासा के जबरदस्त प्रसंशक थे !यही वो समय था जब आधुनिक कहानी के प्रणेता चेखव ने प्रतीकात्मक कहानियां लिखीं! मोपासा की अंतिम समय में लिखी गई रचनाओं में उनकी सर्जनात्मक क्षमता का निरंतर ह्वास हो रहा था तथा मानसिक दशा  बदतर हो रही थी !अवसादित क्षणों में उन्होंने आत्म हत्या करने की भी कोशिश की थी ,लेकिन उन्हें बचा लिया गया था !6 जुलाई 1893 को अपने तेंतालीस्वें ज़न्म दिन के कुछ पहले ही उनकी म्रत्यु हो गई! मोपांसा को पूरे विश्व में अब तक का सर्वश्रेष्ठ फ्रांसीसी कथाकार माना जाता है
By
Vandana shukla 




7 दिसंबर 2011

कहीं ये ........


एक बाल जो उड़ता है सिर का
तलवों तक होती है झुनझुनी
जड़ कहना आलोचना है उसकी
सच ये है कि सूरज की आदत है उसे  
कभी नहाती है वो ‘वाहों’ से
‘आहें’ अलबत्ता हवा में गुम-सी
खून का रंग यहाँ गाढा है कुछ ज्यादा
पसीनों के रंग जिनमे फीके हैं  
पानी हो रहा है कम ,कहते हैं यहाँ लोग
और सूखा अक्सर आँखों में पड़ता है
हवाएं बहती हैं यहीं से शुरू होकर
दिशाएं पतझड़ों में खुलती हैं
मेलों जलसों की चकाचौंध है इसमें
सुर्ख पर्दों से झांकते हैं अँधेरे
‘वाहों’ की रही आदत जिनको
‘आहों’ में बसर की जिंदगी उनने
‘’पेशे खिदमत’’का वक़्त हुआ गुज़रा
‘’इरशाद ‘’ने भी दम तोडा है
अपने चिराग खुद पेश करते हैं वो
नज़रों में हुक्मरानों की
नज़रानों से जिन्हें था परहेज़ बहुत
ना जाने क्यूँ छिप के निकल जाते हैं?
 देह, ,मेले ,जलसे कहानियाँ रोशन  
कविता थक के पनाह पाती है
इमारतों में गूंजती हैं नज्में अब भी
गली गुलज़ार हैं फूलों की महक से अब भी
कभी बनती है बपौती अथक कवियों की ये
बहती सड़कों पे भागती जिंदगी बेदम
कहीं ये दिल्ली तो नहीं?

-- 

2 दिसंबर 2011

अंधेरों के खिलाफ


मजदूरों
दीवारें पोतने वालों ,मैला ढोने वालों
रद्दी,सामान ,सब्जी ठेलों वालों
पत्थर तोड़ने वालों,कारीगरों  
कभी तो उठाओ झुकी गर्दन
सीधी करो पीठ ,कि तुम्हे भी हक है
छाती तानकर चलने का ,
माना ,कि वो उम्र को पोसते  हैं
कब्र तक ,
कि उम्र भी भूल जाती है गिनती
चलते चलते अपनी,
खूब आते हैं ये हुनर उनकों दगा देने के
पर वो जो कर रहे हैं तुम्हारी उम्र का सौदा
महल खड़े कर रहे हैं तुम्हारे सपनों की ज़मीन पर
हक जता रहे हैं तुम्हारी देह पर जो
आत्महत्या पर भींच रहे हैं मुट्ठियाँ और दांत
भूख की आग पर सेंक रहे हैं रोटियां
 जमा कर रहे हैं पीढ़ियों का भविष्य
 विदेशी बैंकों में  
अब भी वक़्त है इतिहास को नकारने का
अभी वक़्त है वक़्त को खारिज करने का
एक नई पगडंडी खींचने का
स्वप्न देखते हुए पीढ़ियों के राजमार्ग का ,जहाँ  
तुम्हारी मशाल की लौ में
फीके पड़ जायेंगे झाड़फानूस   
गढे जायेंगे तब नए अर्थ रोशनी के
अंधेरों के खिलाफ ,

26 नवंबर 2011

बीतना


 (1)
क्या बीत जाना होता है वैसा
जैसे बीतती है सभ्यता
पीढ़ियों की खाई में ?
जैसे बीत जाते हैं हुसैन
बेदखली को बेईज्ज़त छोड़
जैसे बीतती है संभावना
संस्कृति को बचाते हुए
या बीतती हैं उम्मीदें
इमोम की धडकनों में ? 
(2) 
कुछ अंश
बीत गई हूँ मै
और कुछ लम्हे बीत रही हूँ
देख रही हूँ बीतता हुआ खुद को
मा की गोद में बेवजह चीखने से होते हुए  
वजह और चुप्पी के दरमियान |
बीत रही हैं उम्मीदें ख़्वाबों के चिन्ह छोड़कर
बीते हुए समय के इश्तिहारों को
देख रही हूँ घुटन की दीवारों से चिपके हुए
बीत रही हूँ मै
कतरा कतरा
तमाम प्रश्नों को अनसुलझा छोड़,
बीत रही हूँ मै......

24 नवंबर 2011

कुहास


औरत
 औरत होने से पहले एक जिस्म है,
जैसे बबूल एक पेड़
गंगा एक नदी
गाय एक जानवर
ह्त्या एक अपराध
जैसे अहिंसा एक झूठ
विडम्बना का कोई नाम नहीं होता
वो तो बस होती है
जैसे ,
बस होता है एक ज़न्म ,
कुछ नियति ,कुछ विवशताएं
सब अपना अपना इतिहास गढ़  
फ़ना होते हैं 

23 नवंबर 2011

दिन के उजालों में


ना जाने क्यूँ
 कुछ खास किस्म के लोगों को
,कहते हुए इंसान
भीतर कुछ दरकता सा है
लगता है ज़ुबान फिसल गई
पछतावों पर मलहम लगाती हैं तब
पुनर्ज़न्म की कहानियां
किसी उगती सदी में
सूरज ने जो दी थी कुछ मोहलत
अंधेरों की ,सुकून पाने को हमें ,
अब वे अँधेरे सिर्फ डराने के लिए बचे हैं
गब्बर सिंह की तरह ,
वेश बदलकर अब भी घूमते हैं इन अंधेरों में राजा
नहीं नहीं ,अपनी प्रजा की खुश हाली देखने नहीं
बल्कि बटोरने कुछ अँधेरे कुछ स्याह कालापन
ताकि जनता की आँखों में झोंका जा सके उन्हें
दिन के उजालों में .....

8 नवंबर 2011

-मन नहीं लगता



‘’मेरा मन नहीं लगता ‘’
भीड़ से कहना चाहती थी मै
कि तुम्हारे मन बहलाने के तमाम ठिकानों   
रिश्तों ,बाज़ारों,धरनों,हडतालों,उपलब्धियों,संबंधों
मेले ठेलों,त्योहारों,प्रवचनों,हास परिहासों
के बावजूद भी 
भरी भीड़ में अनजान हूँ मै
जंगल नुमा किसी बहलावे को भोगते
किसी चिड़ियाघर  में ,तमाम खाध्य पदार्थों के बीच
दर्शकों के शोर से घिरे उदास हिरन सी |
उम्र के साथ आस्थाएं बढ़ती हैं
एकांत उन्ही में से जन्मा कोई
नक्षत्र होगा ,जो मैंने चुना
उस अद्भुत जीवंत प्रकृति के आगोश में
जिसे तुम सन्नाटा कहते थे और
मै आकाश ,तुम जिजीविषा मानते थे
और मै नदी
पेड़ फूल पत्तों को तुमने सिर्फ पतझड़ कहा  
और मैंने बीज
तुमने मुझे पलायन वादी कहा  
जब कि तुमने ही  
उसकी खूबसूरती में विभीषिकाएँ और
बसंत में से पतझड़ को चुना
तुम्हारे जीने के समस्त उपक्रम
उपलब्धियां,महत्वाकांक्षाएं  
खरीद फरोख्त,जलवे जलसे
क्या विस्मृति -भ्रम से कुछ अलग था ?
आज जब तुम्हे देख रही हूँ
महत्वाकांक्षाओं के आकाश में गोते लगाते
अगणित सितारों के बीच चाँद की तरह रोशन होते
चाँद ,जो घिरा है काले बादलों से
कहना चाहती हूँ सिर्फ तुमसे ये,
के वाकई  
‘’मेरा मन नहीं लगता ‘’