29 सितंबर 2010

अधेरे के बाद की सुबह ...

वो दोनों देर तक एक दुसरे को देखते रहे!आश्चर्य,अभूतपूर्व ,असोचा,!स्त्री और पुरुष लगभग साठ वर्ष बाद देख रहे थे एक दुसरे को !इससे पहले उन्होंने तब देखा था जब उनकी उम्र स्त्री और पुरुष में भेद करने लायक हो ही रही थी ! अचानक दोनों की आँखों मे स्वप्न उतर आए थे !विचित्र मगर अलौकिक अनुभव था वो !पर जब तक मन का पन्छी उड़ान भरने लायक होता उन्हें एक दुसरे से सप्रयास अलग कर दिया गया था और आज फिर दोनों का आमना सामना हो रहा था !पहचानने के बाद जब कुछ होश आया तो दस बारह बरस की उम्र की वो लालिमा स्त्री के झुर्राए चेहरे पर अनायास फ़ैल गई ऑंखें झुक गईं ! !पुरुष मुस्कुरा दिया !बोला ''मायूस होने का नहीं, उत्सव मनाने का मौका है !चलो आज हम अपने गुज़रे हुए जीवन का विश्लेषण करें !पहले तुम शुरू करो !पर शर्त यही रहेगी की कहीं भी उदासी और .मलाल .नहीं लायेंगे !स्त्री ने कहना शुरू किया ''रात के घुप्प अँधेरे के बाद की सुबह का धुंधलका था....संधि प्रकाश की बेला .......प्रकृति के उस असीम सौंदर्य के बीच मैंने अपनी ऑंखें खोली थीं...मेरा जन्म ....अँधेरे भरे .बीते स्वप्न के बोझ से भरी थकी थकी अलकें ! मेरे चारों और मनुष्यों की भीड़ थी !हँसते खिले चेहरे ,मुझ पर झुके हुए ...फूल की मानिंद सहेजा था मुझे जिन्होंने !धीरे धीरे सुबह का उजास प्रकृति के साथ ठिठोली करता प्रखर हो उठा .....पक्षियों ने मुखरित हो उसका स्वागत किया ...शायद मेरा भी !मै अपने ''होने''पर इतराती इठलाती उस पौधे के साथ उगने लगी जो मेरी ही तरह रोपा गया था !
मेरे अस्तित्व के कुछ मालिक थे जिनपर मेरे तमाम जीवन का जिम्मा था.जीवन मेरा था सपने उनके.देह मेरी थी देखभाल और सजावट उनकी ! ,शब्द मेरे चाह उनकी !,उन्हें माँ और पिता कहती थी मै!
पर सूरज की उगती किरणों ने जैसे मेरे अस्तित्व को मुझे सौंप एक अमूल्य और अनोखी भेंट दी थी मुझे !जगत और आरोपित नाते रिश्तों के मायाजाल को समेट मैं अपने खुद के भीतर समाने लगी...लोग मुझपे अंतर्मुखी होने का दोष लगाने लगे !!मेरी इच्छाओं की खिड़कियाँ खुल रही थीं जहाँ से सपनों का अनंत संसार दीख पड़ता था !मैं उसमे विलीन हो जाना चाहती थी सम्मोहित होना चाहती थी!पर सूरज की तपन अब तक एन सर के ऊपर आ पहुँची थी !मेरी तमाम वो इच्छाएं और जिज्ञासाएं उन लोगों की इच्छाओं की मोहताज़ थीं जो खुद पर मेरे ''होने''का दंभ पाले हुए थे
मेरे वो तथाकथित हितैषी अब शत्रु से लगने लगे थे मुझे जिसका एक सिरा मेरे तुम्हारे अधूरे प्रेम की शुरुआत थी !मैं जीना चाहती थी.एक इंसान की तरह .संसार को जी भर भोगना चाहती थी .पर तभी मुझे मेरी जड़ों से उखाड़ देने की साजिश रची जाने लगी ! विद्रोह की तपन दोपहर की चिलचिलाती धुप सी जिस्म को तपा रही थी पर जिन्दा रहने की शर्त के चलते मेरे अस्तित्व के ठेकेदारों की हर निर्णय और चाहत को धीरज से सहना मेरी मज़बूरी थी !जिस पेड़ की छांह के नीचे खडी हुई वो वहां से नदारत था ....ये वक़्त सुबह,जहाँ से मेरी शुरुआत हुई थी से मीलों दूर हो चूका था !मेरी जड़ों और रोपी गई शाखाओं के मध्य मैं एक बड़ा अंतराल था जो कभी भर नहीं पाया दो ऐसी लम्बी सड़कें जो सामानांतर चलने को श्रापित थी !!सुबह की तमाम ताजगी और सपने दोपहर की धूप की तपन से बचने की जुगत में जाया हो गए थे !कभी लगता ज़िन्दगी बहुत लम्बी खिंचती चली जा रही है .थकी देह ,विश्रांति पाने को रात की देहरी पर प्रतीक्षा रत थी,अपने समय का इंतज़ार करती! पर न जाने क्यूँ अब मुझे लग रहा है की बगैर रात आये सुबह की किरण फिर से मुस्कुराती मेरे अस्तित्व का बंद द्वार खटखटा रही है !क्या मै कोई स्वप्न देख रही हूँ ?''''स्त्री शांत हो गई !पुरुष जो एकटक स्त्री को देख रहा था फिर मुस्कुरा दिया ''सुबह ही तो है ...एक सुबह के बाद की सुबह .....वो एक लम्बा स्वप्न था जो तुमने जिया,आज ये हकीकत है की हम साथ हैं !सेम्युअल बेकेट ने अपने एक नाटक मै लिखा था कि ''ज़िन्दगी निरंतर अपने ''नहीं होने ''की दिशा की और बढती है'' !अतीत एक नाटक है जिसके पात्र घूम फिरके एक ही होते हैं माँ बाप पड़ोसी रिश्तेदार दोस्त दुश्मन प्रेमी बस शक्ल अलग होती हैं कृत्यों मै भी कोई खास फर्क नहीं !''
आज अपना ये घर व्रध्धाश्रम , जो बुढ़ापे की परिणिति ही है 'क्या फर्क पड़ता है,इससे की हम कहाँ हैं?दीवारों का ही तो फेर है !मोह माया से दूर ,एक निर्लिप्त ,और निर्मोह स्थान ,जो उस यात्री की तरह है जो एक निश्चित साफ़ लम्बी सड़क को छोड़कर अनायास एक पगडण्डी मै उतर आया हो !

27 सितंबर 2010

रिश्ते

कुछ रिश्ते नदी पर तैरती
कागज़ की नाव से लगे हैं, ,
जो पानी पर तैरे तो ताउम्र
पर गहरे उतर नहीं पाए
रिश्ते
न जले तो सुन्दर मोम की मूरत थे
परखा जरा सा तो पिघलते चले गए
रिश्ते
दो खुबसूरत फूल थे जैसे गुलशन में
तोडा ज़रा सा डाल से ,तो बिखरते चले गए
रिश्ते
मुठ्ठी भर रेत ,जों ठहरी थी फ़क़त मुठ्ठी में
खोली जरा सी हमने, तो फिसलते चले गए
रिश्तों का वुजूद तो है ,धागा महीन सा
जरा सी हवा चली खुद में सिमट गए !
आगाज़ जिस का बेहद संजीदगी का था
परवान ज्यूँ चढ़े तो आकाश हो गए!

25 सितंबर 2010

धोखा

किसी को देकर धोखा,
गिर जाते हैं खुद की ही नज़र में
हम,
पहचानो उस हलकी सी आवाज़ को
टूटती है जो,
भीतर तक कहीं......
मगर हौले से ,
किसी से खाकर धोखा,
सिमट हैं सारे यकीन
,टूट जाती हैं लकीरें
किस्मत की,
डूब जाते हैं सितारे
सरे शाम
बंद हो जाती हैं
खिड़कियाँ
आशाओं की

साजिश

दुनियां बंटी है ,सिर्फ दो हिस्सों में
अच्छा या बुरा
ज्यादा से ज्यादा
बहुत अच्छा या बहुत बुरा ,बस
मनुष्य,घटनाएँ,
,स्थिति,मौसम
नफरत,ख़ुशी,गम,प्यार,रस
ओहदे,देश,समाज,प्रेमी,संतान,सब कुछ
बीच किसी चीज़ का नहीं होता
पर हो ये रहा है आजकल
कि ''बीच'' के मुखौटे
बिक रहे हैं खुल्लम खुल्ला
सरेआम,अनैतिकता के
गलियारों में
और तथाकथित ''समर्थों''की जमात
जो इसी की आड़ में
कर रही हैं साजिश बाँटने की
देश,समाज,धर्म ,दल,
बेच चुके हैं खुद जो
अपने ज़मीर को भी
काश,कोई सुरत हो ऐसी
जो नोच फेंके इन
मुखौटों को ,ताकि
पर्दाफाश हो सके
मुखौटों के पीछे छिपे
इंसानियत के दुश्मनों का

24 सितंबर 2010

कुछ अलग सा... ...

जिंदगी क्या है क्यूँ हैं और कैसी है?कैसी है ये तो हम बता सकते हैं परन्तु क्या है और क्यूँ सदियाँ हो गई इन प्रश्नों के उत्तर में सर खपाते विद्वान् मनीषी दर्शन शाश्त्री भविष्यवक्ता साधू संतों न जाने कितने इस अबूझ पहेली को जाने बिना संसार से कूच कर गए!इन सारे आध्यात्मिक जटिलताओं के बीच एक बात तो स्पष्ट और सच है की ,जिंदगी की मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करते हम ये भूल ही जाते हैं कि हम यहाँ क्यूँ आये हैं या हम आखिर चाहते क्या हैं?खुद अपने से, दूसरों से अपने लिए, या समाज देश से?
बस एक कठपुतली की तरह सुबह से शाम और शाम से सुबह करते करते पता ही नहीं चलता कि कब जिंदगी की शाम की दहलीज़ पर पहुंच गए ?कुछ सोभाग्यशाली लोग ये तो स्पष्ट कर लेते हैं कि हम क्या चाहते हैं जिंदगी से ,लेकिन अपने चाहने को असंख्य विवशताओं के चलते क्रियान्वित नहीं कर पाते हैं.उलझे रहते हैं अपनी नौकरी,व्यवसाय,कला,साहित्य,आदि के जाल में मकडी की तरह जो जाल तो बनाती है अपनी सुरक्षा के लिए दिन रात एक करके,लेकिन अंततः उसी में फंसकर प्राण त्याग देती है !
)कल मैंने एक शख्शियत की जीवनी पढी ,और पढ़कर अभीभूत हो गई!(यूँ भी मै सच को पसंद करती हूँ,और जीवनियों का ताल्लुक सच से होता है!)वो थी हॉलीवुड की नामी गिरामी अभिनेत्री ''ग्रेटा गार्बो""!उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वार्ध में स्वीडन मे जन्मी इस अद्भुत अभिनेत्री की कर्मस्थली अमेरिका रही!वो बेहद खुबसुरत और मितभाषी महिला थीं!ख़ूबसूरती और प्रभावशाली व्यक्तित्व से नियति द्वरा नवाजी इस अभिनेत्री ने अनेक प्रसिध्ध फ़िल्में कीं!१९२५ से १९३५ तक फिल्मों में सक्रिय योगदान के बाद ,मात्र ३५ वर्ष की उम्र में ,जबकि उनका सितारा बुलंदी पर था,फिल्मों से सन्यास ले लिया और प्रशंषकों के लाख समझाने के बावजूद उन्होंने अपना निर्णय नहीं बदला ,और एकांत में अकेली रहना शुरू किया और अंत तक ८५ की उम्र तक एकांतवास किया!उनका कहना था की ''अपने शौक के लिए उन्होंने फिल्मों में काम किया,लेकिन शौक मेरी अपनी ज़िन्दगी पर हावी नहीं हो सकते लिहाज़ा मे अब अपने साथ रहना चाहती हूँ,,,आजकल ये सोच और अपने खुद के प्रति ईमानदारी निभाना असंभव सा लगता है!

रिश्ते

बहुत महीन देखें है धागे,
रिश्तों के हमने एय दोस्त
कहीं जरा सी हवा चली
और बेदर्दी से टूट गए
रिश्ते की तासीर यही है
बनना है मिटने के लिए
ढोने और निर्वाह में अंतर
सीने में ही दफन किये
राहगीर था चला जा रहा
सही कदम और सही वक़्त पर
किन्तु अचानक रस्तों ने ही
अपने रस्ते बदल लिए

23 सितंबर 2010

मै

सांस क्यूँ थम नहीं जाती
जिंदगी रुक नहीं जाती
मै भी नादाँ थी,न समझी
हर नब्ज़ को समय की
टटोलती अपनी कलाई को,
मै एक युग गँवा बैठी!
दोस्ती जब भी की मैंने
बेसहारा और हुई मैं,
दोस्त का मर्म समझने मै,
ज़िन्दगी यूँ तमाम कर दी!
अब तो हालात ही हैं दोस्त,
जो भी हैं,जैसे भी हैं
उन्हीं के साथ चलती हूँ,
उन्ही से गुफ्तगू करती!

सिर्फ तुम्हारे लिए

हर कदम पर रही हूँ इक फासले पर
ज़िन्दगी की रफ़्तार कुछ ऐसी रही
वक़्त तो आया हरेक चीज़ का मेरा भी एय दोस्त
आया मगर बेवक्त .....मै तनहा रही
तौलती मैं देह और मन की हदें
ग्लानी की परतों तले दबती रही
भीड़ से रिश्तों की ,निकल आई तो हूँ ,मैं दूर बहुत
याद एक दोस्त की ,अक्सर मगर आती रही

21 सितंबर 2010

कतरनें

आज बहुत कुछ कहने को मन कर रहा है अपने आप से!... गुफ्तगू ...मेरे और वुजूद के बीच की.....खुद के रूबरू होकर देखती हूँ जब अपनी शख्शियत को तो पाती हूँ कि ज़िन्दगी ने ने परखा तो शायद दिया भी बहुत....पर ज़िन्दगी मैं एक अच्छे दोस्त की कमी अखरती रही....दोस्त ...एक इमानदार अपेक्षारहित दोस्त.....जिसके सामने अपने विचारों ,अपनी चिंता ख़ुशी....प्यार सब शेयर कर सकूँ...इसी तरह उसकी चिंताओं ख़ुशी फिक्र सबमे हिस्सेदार बन सकूँ....दरअसल,रिश्तों की कशिश ,गरिमा या कह लें एक तरह का ""फ्लेवर''हर तथाकथित रिश्तों की अलग अलग पहचान और जरुरत होती है मसलन ..संतानों से,माता पिता से,भाई बहन से पति से पत्नी से सबसे अलग अलग अपेक्षाएं और रिश्ते होते हैं...लेकिन दोस्ती का रिश्ता एक ऐसा रिश्ता होता है,जो निस्वार्थ और अपेक्षारहित होने पर भी एक खास खुशबू से भरा होता हैं!इसकी खूबी इसकी निस्वार्थ प्रकृति ही है!अब सवाल ये था , कि दोस्ती को न तो खरीदा जा सकता था.न माँगा जा सकता था .ये एक नाज़ुक मामला होता है रिश्तों का तो फिर किताबों से दोस्ती की जो आज तक गतिमान है!बस वाही थोडा शेयर करना चाहती हूँ .......
छोटी थी तो ऐसी कहानियों और फिल्मों से बहुत आकर्षित होती t..ज्ञातत्व है(जिसे मैं बाकायदा त्रासदी के रूप मे ग्रहण करती थी और हूँ ) कि फिल्मों की प्रवृत्ति ही अतिवादी रही है और कई बार वास्तविकता से बहुत दूर चली जाती है ,लेकिन जब बड़ी हुई तो महापुरुषों की जीवनियों ने मुझे ''आकर्षित किया...इसमे डा हरिवंशराय बच्चन,अज्ञेय,महादेवी वर्मा महात्मा गाँधी आदि की जीवनियाँ पढना मुझे बेहद अच्छा लगता था..इस क्रम मे मे याद करना चाहूंगी उस जीवनी का जिसे मैंने मूलरूप मैं तो पढने का अवसर नहीं मिला पर उसकी व्याख्या पढ़ी...वो थी ''हिटलर की जीवनी''जिसे उनके पी ऐ ने लिखा था..बहुत रोमांचक लगी थी मुझे वो!.मुझे याद है अज्ञेय (जो मेरे प्रिय लेखकों मे से एक है )की ""शेखर एक जीवनी''मै आज तक नहीं भुला पाई!ये बात है तब की जब मै हिंदी स्नातकोत्तर की परीक्षा की छात्रा , थी और जब ''उपन्यास''पेपर मैं पता पड़ा की ''शेखर एक जीवनी''कोर्स मैं है तो पाठ्यक्रम मैं होने के कारन खरीद तो ली लेकिन जब पढने बैठी तो सब ऊपर से जा रहा था,सच एक बार तो अपने एम् ऐ करने के निर्णय को ही बदलने का विचार आया पर जैसे जब पहली बार तैरना सीखते हैं तो डर भी लगता है और ""रहने दें""ये विचार भी आता है ,लेकिन जब सीख जाते हैं तो इच्छा होती है की तैरते ही रहें बस यही ''शेखर एक जीवनी''पढने के दौरान हुआ...सात आठ बार पढने और समझने की चेष्टा करते करते जब वास्तविक मर्म समझ मै आया तो वो एक अजीब सी मह्सुसियत थी एक चमत्कार कह सकते हैं.....मनोविज्ञान की छात्रा होने के बावजूद कई कई बार पढने के बाद समझ मे आई....और जब समझ मे आया तो...वो अनुभव अकल्पनीय था...इतना खुबसूरत....अभूतपूर्व ...अकल्पनीय !दूसरी,विष्णु प्रभाकर की ''आवारा मसीहा'''जो उन्होंने महान लेखक ''शरत चंद''के जीवन पर लिखी... कोई कवी या लेखक सच्चाई को अपनी लेखनी मैं लाने के लिए कितने कष्ट और दुःख झेल सकता है कि वास्तविकता के निकट पहुँच सके....आज के उपन्यास (जितने भी गिने चुने लिखे जा रहे हैं,.कुछ को छोड़कर .)उनके सामने बहुत बौने लगते हैं.या हो सकता है कि ये बदलते हुए युग और परिवेश कि मांग हो?या जो लेखक विवादों का रसास्वादन करने के उद्देश्य से उपन्यासों कि रचना करते हैं !
कुछ बायोग्राफी बेहद दिलचस्प और रोचक तरीके से लिखी गई है जिसमे मुझे भीष्म सहनी (जिन्होंने महान,, कलाकार बलराज सहनी पर इंग्लिश बायोग्राफी भी लिखी थी)उनके नाटक जिनमे ''कबीरा खड़ा बाज़ार मैं ''और''तमस'' देखने का अवसर प्राप्त हुआ इसके अतिरिक्र कमला दस,(विवादस्पद जीवनी),आर.पी.नरोना कि ''अ टेल टोल्ड बाई एन इडियट'',रबिन्द्र नाथ टेगोर,और प्रेमचंद.!हलाकि विषयांतर होगा लेकिन बात चली है तो प्रेमचंद्र कि कहानियों और उपन्यास के बारे मे न लिखना हिमाकत ही होगी.!मुझ जैसे हिंदी के आम पाठक के लिए प्रेमचंद का साहित्य एक पवित्र गंगा की तरह ही है साहित्य कि गंगा ...जिसमे डुबकी न ली तो क्या किया...!सच है प्रेमचंद का तो कोई सानी नहीं...तब भी और आज भी....! प्रासंगिक...तब भी आज भी !ये एक बड़ी बात होती है किसी भी साहित्य या विधा के लिए कि रचना युगों का अंतर मिटा दे तब जबकि सामाजिक मूल्य .राजनीतिक स्थितियां सोच सब निरंतर परिवर्तन शील हों.!
मैंने गोदान पहला उपन्यास था वो भी मेरे पाठ्यक्रम मे था जिसे सबसे जल्दी पढ़ा था उसके बाद भोपाल मैं उसका नाटक जो रबिन्द्र भवन मैं खेला गया जिसे आकाशवाणी के श्री इकबाल माजिद साहब ने निर्देशित किया था और अभी कुछ दिन पहले दूरदर्शन पर देखा जिसमे मुख्या किरदार पंकज कपूर ने निभाया था.देखा!लाज़वाब...जितने बार और जिस रूप मैं देखो अद्वितीय...!जितनी महारत उपन्यास मैं उतनी ही छोटी कहानियों मे जिसमे मुझे ''बूढी काकी''बेहद पसंद है जिसका नात्यारुपंतर और निर्देशित करने का मौका भी मुझे मिला !दिल को छु लेने वाली कहानी.
इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक उपन्यास भी मुझे खासे आकर्षित करते रहे जिनमे मृगनयनी.,मोहम्मद तुगलक,(गिरीश कर्नाड ),''दिल्ली तेरी बात निराली ""(प्रेमचंद कश्यप ''सोज़'')आदि रहे!मेरा सौभाग्य था की मोहम्मद तुगलक और दिल्ली तेरी बात निराली मेरा चयन मुख्य भूमिकाओं के लिए किया गया ,! जिसे दिल्ली नाट्य विद्यालय(एन एस डी )के तत्कालीन निर्देशक श्री बी एम् शाह ने निर्देशित किया !दिल्ली.....मैं मुझे संगीत देने का अवसर भी प्राप्त हुआ !दिल्ली..... का प्रसारण दिल्ली दूरदर्शन पर भी हुआ !
चलिए ...आज बहुत सी बातें आपके साथ तरोताजा कीं !बहुत अच्छा लगा.....आगे फिर कभी ....!

16 सितंबर 2010

विवशता

न जाने क्या हुआ है सपनों को,
आजकल मेरे ,
बंद पलकों का लिहाज़ ही नहीं करते?
आते जाते हैं वक़्त बेवक्त
बिन बुलाये मेहमानों से
और दे जाते हैं हलकी सी दस्तक
दिल के दरवाजे पे वो
फिर चले जाते हैं,मेरी तन्हाई की
ऊँगली थामे
छोड़ जाते हैं मुझको ,
मन के कोलाहल के साथ
नशा उन्मुक्त सपनों का
बिखर जाता है मोती -सा
उन्हें बस बीनती रहती हूँ अक्सर
भीगी आँखों से

14 सितंबर 2010

अहसास

Ahsaas
कैसे होता है ये
कि अचानक चीजों के
न सिर्फ अर्थ बदल जाते हैं
बल्कि
समूची तासीर बदल देती है
खुद को
चंद लम्हों मे
मसलन...रात पहले भी आती थी
अँधेरे की उंगली थामे
और उसके पीछे पीछे
चला आता था चाँद
दिया लिए चांदनी का
और फिर ,
तमाम कायनात
जगमगा उठती थी
प्रक्रति नतमस्तक हो जाती थी
इश्वर के इस
चमत्कार पर
पर फुर्सत ही किसे थी की
खूबसूरती को
ज़हन मैं उतारने की,
रात के काले अँधेरे के
घूँघट से झांकती सुबह
खुबसूरत आगाज़ दिन का
पर हमेशा रात ,मेरे लिए
सुबह के इंतजामों का पर्याय से ज्यादा
कुछ नहीं रही
और सुबह?
मशीन की सुइयों पर
दौडती ज़िंदगी !
कल अचानक
''गुलमोहर''और चांदनी को
गुफ्तगू करते देखा और
रात की रानी की
खुशबू मे घुली चांदनी को
खिलखिलाते
तब जाना '' खुबसूरत ''लफ्ज़
के इजाद का मतलब
काश कि
इसी तरह मुस्कुराये
कायनात मेरे साथ
चांदनी गुफ्तगू करे मुझसे
और
सुबह थपकी दे जगाये
गहरी नींद से मुझे

13 सितंबर 2010

मै

एकांत !
हाँ शायद वही
पसंद है मुझे,
पर बेआवाज़ ,मौन और
निहायत व्यक्तिगत
चाहा यही सदा,
पर हुआ नहीं
बैठती हूँ जब भी
शांत .मौन और अकेली
खुद अपने साथ
बस और सिर्फ अपने लिए
ऑंखें बंद कर
भीतर को महसूसती ,कि
जाग जाता है अचानक
घटनाओं का कोलाहल
कुण्डलिनी की तरह
अतीत का व्यतीत
किसी डरावने धारावाहिक की तरह
और बैचेन कर जाता है मुझे .
भीतर तक
तब मै नहीं मिला सकती ऑंखें अपने
उदास मन से और
फिर आ बैठती हूँ उन्ही
दोस्तों के पास जो
दोस्त कभी थे ही नहीं
पर उन्हें दोस्त कहना
बस विवशता ही थी मेरी
क्युकी वो नहीं तो
इस भरी पूरी दुनियां में
और कौन जो
मेरे एकांत के शोर को बाँट सके
एक दोस्त की तरह

खिड़की

खिड़की
उस जंगल में ;जो बियाबान था बहुत
डरावना भी था
(दर असल उतना डरावना था नहीं;
जितना चेताया जाता था ;
किसी भविष्यगत दुर्घटना से
बचाने के लिए ,
बड़ों बुजुर्गों की
कूटनीति के तहत );
जैसे पौराणिक किस्सों के
कुछ अंश,
या फिर कोठरी की दीवारों पर टंगे
जंगली जानवरों पर विराजे
देवी देवताओं के चित्र
नतीजतन
घर की खिडकियों को
रखा जाता था बंद
ताकि.बाहरी हवा से
न हो स्वास्थ्य को कोई हानि
न बौछारों से गीली हों
कोठरी की कच्ची ज़मीन
न ही खिड़की से आते जाते राहगीर से
खुली खिड़की करे चुगली
अन्दर बैठी जागीरों की
समय के बूढ़े बुज़ुर्ग ने
करवट ली जम्हाई ले
खोल दी गईं खिड़कियाँ
वो सूरज जो
रोज़ खिड़की के बंद द्वार पर सर पटक पटक
अस्त हो जाया करता था ;
उसी की स्वच्छंद किरणें न सिर्फ आज़ादी से
टहल रही हैं कोठरी भर में
,बल्कि
कर रही हैं अठखेलियाँ
उन तमाम चीज़ों से जो
बंद खिड़की के अन्धकार में
भुला चुके थे अपना ही रंग
दीमक की लकीरों से
भदरंग हो चूका था
उनका वुजूद,पर
जबसे हटाये हैं पट खिडकियों के
अब रोशनी है,ताजगी है
निगाहों के लिए
हरी भरी धरती है
यहाँ से वहां तक फ़ैली
बस नहीं है तो
बचाव कीट पतंगों से जो
उन्ही खिडकियों से आते हैं
रोज़ बे रोक टोक
रोशनी और हवा के साथ साथ
और ज़माने भर की धूल
बिखर जाती है चंद पलों में
कोठरी भर में
अब तो देवी देवता भी ने
कोठरी से निकल
विराज चुके हैं बड़े बड़े
महलों में
सोने चांदी के
सिंघासनों पर और
देवी देवताओं के वे चहेते पशु पक्षी
और भटक रहे हैं जंगल भर में
ढूढ़ते अपना शिकार

7 सितंबर 2010

हवेलियाँ

सदियों से सुन रही
दीवारें,
कान लगाये
ज़िंदगी की आहट
पत्तों की फुसफुसाहट
देख रही अपनी फटी फटी आँखों से
युगों से युगों तक ,
इंसानों के बेतरतीब जंगल,
और
पेड़ों को इंसानों के
ख्वाबों को सजाने ,
शहीद होते
अलग अलग युगों के
अलग अलग चेहरे
पर सपने वही
वही षड्यंत्र
वही अमरता की चाहत
गवाह हैं उसके
बेतुके ख्वाबों और
दुस्साहस की
छोटे से जीवन के
लम्बे चौड़े इंतजामों की
भारी भरकम युक्तियों
और मार काट की
खंडहर हो गए अब तो
अकेले सूने पड़े
किलों के
मोटे मज़बूत द्वार..दालान और बावड़ियाँ
सात सात द्वारों की वो पहरेदारी
कि पक्षी भी पर न मार सके
नहीं जानते वो बेचारे
कि अब ये सात सात दरवाजे और हवेली के पुख्ता सुरक्षा इंतजाम
शान हैं सिर्फ पुरातत्व की
रह गया है जरिया
पर्यटन विभाग का पेट भरने का
अब इंसान इन तरीकों के
मोहताज़ नहीं
पर किले हवेली की
खँडहर हो चुकी दीवारों को आज भी इंतज़ार है
उस दिन का ,जब
होगा मुकाबला
दुश्मन से
तब हमें साबित करना होगा खुद को
इंतजार है अब तक...
बेखबर नियती से
आज भी प्रतीक्षारत