31 जुलाई 2013

गोर्की ,प्रेमचंद और मोपांसा के यथार्थवाद की समानताएं/ विषमतायें(प्रेमचन्द जयंती पर उन्हें सादर नमन सहित)


प्रेमचंद एक यथार्थवादी लेखक रहे हैं सहजता के भीतर गहन लेखन मंतव्य जो उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक है | उनके लेखन की या अप्रत्यक्षतः यथार्थवादी लेखन की आलोचना भांति भांति से की गई इसके बारे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि मौजूदा युग एक मशीन में तब्दील हो चुके विचारों या दिमागी शिराओं  के लचीला हीन हो जाने का युग है जहाँ सच्ची और सरल बातों से ज्यादा लोगों की रूचि असाधारण और मनगढ़ंत बातों में है जिसकी परिणिति ‘’यूज़ एंड थ्रो’’ के आधुनिक चलन में निहित है साहित्य भी इससे अछूता नहीं |यह एक वैचारिक,संवेदनात्मक क्रूरता का समय है और जैसा की गोर्की ने कहा कि ‘’क्रूरता का पूर्ण विस्तार होना चाहिए |तब हर आदमी इससे ऊब उठेगा उसके प्रत्ति उनमे घ्रणा जाग्रत हो जायेगी जैसे पतझड़ के इस गंदे मौसम है ‘’|मौसम से तुलना करने का उनका औचत्य संभवतः आशावादी है जिससे वह बदलकर कभी वसंत और एनी ऋतुओं में भी परिवर्तित होगा \
अद्भुत हैं वो साधारण लोग जिन्हें हासिल सबसे कम होता है और जो देते सर्वाधिक हैं |(ज्ञानरंजन )
साहित्य काल सापेक्ष गति है .. प्रेमचंदी यथार्थ परकता का अवसान (?)उसी नियति से उपजा एक ‘’यथार्थ ‘’ है  बहरहाल प्रेमचंद के समय की सामाजिक राजनैतिक स्थितियां वर्ग-पक्षीय और समाज विरोधी थीं |पूंजीवाद,सामन्तवाद और साम्राज्यवाद ने गरीबों को हलाकान कर रखा था | |देश की आजादी के उपरान्त समूची छिन्न भिन्न व्यवस्थायें अपना रूप सुनिश्चित करने और एक नए ढाँचे में परिवर्तित होने को अकुला रही थीं जो निश्चिततः देश के विकास और उसकी सम्रद्धि का स्वप्न आँखों में संजोये थी इसी ‘’ नवीनता और सुधार’’ कार्यक्रमों में सबसे पहले गांधी जी ने जो कुटीर नीति और ग्राम स्वराज की परिकल्पना /स्थापना की थी उसे स्थगित कर दिया गया |राजकुमार राकेश अपने निबंध में लिखते हैं कि उस समय आर्थिक विकास का जो मॉडल तैयार किया गया था वो बहुत हद तक सोवियत मॉडल जैसा था |नेहरु जी की धारणा थी कि वंचित तबकों को समता और समानता के आधारों पर खड़ा करके एक ऐसे समाज की स्थापना की जाए जो आर्थिक असमानताओं को नकारता हो (प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य का एक महास्वप्न...यूटोपिया)...लेकिन जैसा की सर्वविदित सत्य है कि साहित्य भी अन्य विचारधाराओं ,आदि की तरह समय सापेक्ष अपनी गति रखता है इंदिरा गांधी का समय इस ‘’महास्वप्न ’’ के टूटने का समय था |खैर |
हिन्दुस्तानी यथार्थवादी साहित्य (उपन्यास) के प्रतिनिधि प्रेमचंद सेवा सदन ,कायाकल्प ,निर्मला ,गोदान जैसे उपन्यास /कहानी से आधुनिक सामाजिक सुधारवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी परम्परा को यथार्थवादी शैली के ‘’झूठा सच ‘’ के लेखक यशपाल आगे बढाते हैं |(बलचनमा के लेखक नागार्जुन तक)|
आंचलिक उपन्यासों की शुरुआत फनीश्वरनाथ रेनू के ‘’मैला अंचल’’ से मानी जाती है और इसी यथार्थवादी आंचलिक साहित्य की यात्रा यहीं से होती हुई अब शिवमूर्ति,ज्ञानरंजन,संजीव आदि तक पहुँचती है |
उल्लेखनीय है की प्रेमचंद के आरंभिक उपन्यास /कहानियां आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से प्रभावित/प्रेरित रहीं लेकिन शनैः शनैः उनका इस आदर्शवादिता से मोह भंग हो गया |इसे उनकी दो रचनाओं के हवाले से जाना जा सकता है
आदर्शोन्मुख यथार्थ वाद  -
(१)-पञ्च परमेश्वर का एक अंश –‘’जुम्मनशेख के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही जिम्मेदारी का भाव पैदा हुआ उसने सोचा कि मैं इस वक़्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च स्थान पर बैठा हूँ मेरे मुहं से इस वक़्त जो कुछ निकलेगा वह देववाणी के सद्रश्य है मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नहीं है |’’
आदर्शवाद से मोहभंग -
(२)-‘’धनियाँ यंत्र की भांति उठी आज जो सुतली बेची थी उसी के बीस आने लाई और पति के ठन्डे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली ‘’महाराज,घर में न गाय है न बछिया ,न पैसा यही पैसे हैं यही इनका गो-दान है ..और पछाड़ खाकर गिर पडी |
गोदान का नायक सामन्तवादी विकृतियों से लड़ता हुआ अंतत समर्पण कर देता है और यह समर्पण ही उस परंपरागत सामंतवादी प्रथा से विशवास और आस्था का टूट जाना है |
ये तो उनकी प्रारंभिक और बाद की रचनाओं के अनुभव हैं लेकिन इनके अलावा भी उन्होंने व्यंग,नाटक,कहानी ,उपन्यास ,निबंध लिखे और कमोबेश सभी का विषय अन्ततोगत्वा सामाजिक स्थितियां ,व्यवस्थाएं और यथार्थ रहा |प्रेमचंद प्रगति वादी थे और प्रगतिशील विचारों को द्रढ़ता से उन्होंने अपनी कई रचनाओं में प्रस्तुत किया |यद्यपि प्रेमचंद के साहित्य में रूसी यथार्थवाद का काफी प्रभाव दिखाई देता है लेकिन गोर्की के साहित्य में हम यथार्थवाद और रोमांस का सम्मिश्रण देखते हैं |प्रेमचंद तौलास्तोय की तरह आस्थावान नहीं बल्कि नास्तिक थे |कुछ लोग उन पर विचारधाराओं के सम्बन्ध में अटकलें ज़रूर लगते हैं जैसे प्रेमचंद प्रगतिशील विचारधारा के थे और गोष्ठियों में जाते थे या उनकी विचारधारा मार्क्सवादी थी लेकिन प्रेमचंद ने कहीं भी स्वयं को मार्क्सवादी नहीं कहा |
गोर्की ,प्रेमचंद और मोपांसा के यथार्थवाद की समानताएं/ विषमतायें
उपरोक्त तीनों विख्यात कथाकारों के साहित्य की अपनी भिन्न कथावस्तु,कथा –मर्म,और शिल्प होते हुए भी प्रायः इनकी कथाओं में एक समानता परिलक्षित होती है वो ये कि उनका वर्ग या कथानायक समाज से बहिष्कृत,तिरस्कृत और लाचार घ्रणित समझे जाने वाले लोग हैं |
प्रेमचन्द ने महान उपन्यास ‘’गोदान’’ की जब रचना की तब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था उन्होंने सामाजिक राजनैतिक व्यवस्थाओं ,अराजकता,ज़मींदारी प्रथा ,शोषण ,धर्म आदि का बहुत वास्तविक और मर्म स्पर्शी वर्णन किया है |
वहीं ‘’माय चाइल्ड हुड ‘’ में गोर्की लिखते हैं ‘’मैं अपनी नहीं उस दमघोंट और भयानक वातावरण की कहानी कह रहा हूँ जिसमे साधारण रूसी अपना जीवन बिता रहा था ‘’
मोपांसा को यथार्थवादी साहित्य का पिता कहा जाता है |(रचनाकाल १८८०-१८९१)-फ्रांसीसी लोगों के मनोविज्ञान पर उनकी गहरी पकड़ थी |उस समय पेस्रिस पूरी तरह प्रुस्तियायी लोगों के कब्ज़े में था |नोरमंडी किसानों की दारुण स्थिति के यथार्थ को उन्होंने हू ब हू प्रस्तुत किया है |उनकी रचनाओं में गोर्की जैसा जीवट दिखाई देता है और ना तोलस्तोय जैसी आस्था |लेकिन यथार्थ का चित्रण अतुलनीय है
इन तीनों लेखकों ने अपने काल को अपनी रचनाओं में अविस्मरनीय बना दिया है उस यथार्थ को हर आने वाला काल अपने वर्तमान की कसौटी पर कसेगा ही | लेकिन प्रश्न सिर्फ एक है वो ये कि इतना वक़्त गुजरने के बाद भी क्या स्थितियां बदली हैं या फिर इन जैसे उपन्यास मात्र अपनी बौद्धिक भूख को शांत करने मात्र का उपक्रम रह गए हैं ?
गोर्की ने एक जगह लिखा भी है कि ‘’१८६८ की आधी रात को रूस में एक बच्चे की वो पहली चीख मुझे यकीन है घ्रणा और विरोध की चीख रही होगी ‘’| ये गोर्की और उनकी व्यक्तिगत ‘व्यथा’ नहीं बल्कि कमोबेश हर अविकसित/विकासरत देश के एक जागरूक व्यक्ति की परम्परानुगत अनुभूति और असमर्थता की कुलबुलाहट का संकेत भी है |






28 जुलाई 2013

कथादेश में ‘’प्रसंगवश’’ के अंतर्गत अर्चना वर्मा के लेख को पढ़कर - स्त्री लेखन और स्त्रीवादी लेखन


अभी कथादेश पत्रिका में जून २०१३ में प्रकाशित भास्कर सिंह और सुरेश नायक के पत्रों की प्रतिक्रिया स्वरुप अर्चना वर्मा जी का लेख ‘’प्रसंगवश’’ में पढ़ा |
भास्कर जी के विचार जिसे अर्चना जी ने असमंजस कहा है में रमणिका गुप्ता,उषा प्रियंवदा,राजी सेठ,मृदुला गर्ग ,नासिरा शर्मा ,अनामिका जैसी लेखिकाओं में उन्हें पुरुष का स्वस्ति वाचन या स्तवन नज़र आता है या ‘’उग्र नारी चेतना की टंकार ‘’सुनाई देती है |उनका आरोप है कि स्त्री लेखन में प्रायः पुरुष को शोषक,क्रूर,अत्याचारी, चरित्रहीन दम्भी आदि दर्शया जाता है...और पुरुषों के इन दुर्गुणों की ज़िम्मेदार भी उन्होंने स्त्री को ही माना है | पुरुष के इन ‘दुर्गुणों’ को भी स्त्री के माथे मढना स्त्री के प्रति एक गंभीर लांछन और क्रूरता है ?
भास्कर जी का यह वक्तव्य पढने के बाद मुझे मुनि याज्ञवल्क्य द्वारा लिखित एक श्लोक का स्मरण हो आया
‘’सर्वेशा दोष रत्नानां सुसमुद्रिक यान्या
दुःख श्रंखलाय नित्यमलमस्तु मम स्त्रियाँ ‘’
अर्थात परमात्मा नित्य हमारी रक्षा करे सभी तरह के दोष रत्नों की पिटारी जैसी दुखों की जंजीर जैसी इन स्त्रियों से (ये वही मुनि याज्ञवल्क्य हैं जिनकी दो पत्नियां मैत्रयी और कात्यायनी थीं और जिनका परित्याग वे कर चुके थे )
(२)सुरेश नायक का मानना बल्कि धारणा है कि लेखिकाएं प्रायः उच्च मध्यम वर्ग और लेखक निम्न मध्यम वर्ग के होते हैं (किन आंकड़ों के आधार पर पता नहीं )|इस लिहाज़ से वे अर्चना वर्मा द्वारा उद्धृत हिन्दी की पहली पांत की लेखिकाओं यथा अम्रता प्रीतम,मन्नू भंडारी,नासिरा शर्मा,अनामिका ,मृदुला गर्ग आदि के ‘’स्त्री रूपकों’’ को उक्त लेखिकाओं की पारिवारिक प्रष्ठभूमि,कृतित्व जीवन दर्शन ,जीवन मूल्य आदि की भिन्नता के मद्दे नज़र अर्चना वर्मा की ‘’सर्वमान्य सैद्धांतिकी’’ (?)को संदेह/अविश्वास की द्रष्टि से देखते हैं |
(२)-ये भी एक अजीब सोच है कि स्त्री यदि स्त्री वादी नहीं है तो उसका पुरुष स्वस्ति वाचक होना तयशुदा है | सच ये है कि ऐसा करना या मानना स्त्रियों के प्रति उनकी कुटिल राजनीति और भेदभाव का परिचायक है गौरतलब है कि इस तरह के षड्यंत्र पूर्ण लांछन ही स्त्री को सदियों से दबाते रहे हैं उन्हें दोयम दर्जे के होने का अहसास कराते रहे हैं, आत्म ग्लानी और आत्म क्षोभ के कुँए में धकेलते रहे हैं | ज़बान खोलने भर का दंड यदि उसे हिंसा और बलात्कार से दिया जाता है तो ज़बान बंद रखने पर क्या उसे बख्श दिया जाता है ?ये स्पष्ट करने से वे खुद को बचा गए |क्या उनका उपरोक्त कथन उन्हें स्वयं को (पुरुष को )कटघरे में खड़ा नहीं करता ?
(४)-यद्यपि इस तथ्य को भी पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता कि किसी घटना अथवा प्रकरण विशेष में दोषी स्त्री भी हो सकती है लेकिन हर स्त्री के प्रति उस विशेषता का यूँ सामान्यीकरण कर देना संभवतः उचित नहीं |
(५)_ये सही है कि स्त्री लेखन और स्त्रीवादी लेखन को एक संवाद की ज़रुरत है लेकिन सम्प्रेषण हीनता और संतुलन का अभाव ही संवादहीनता का परिणाम है| अधिकांश मामलों में स्त्रियों से सम्बंधित किसी मसले में एक पक्षीय निष्कर्ष और भर्त्सना का एक सामाजिक दंड मुक़र्रर कर दिया जाता है | ज्यादा दूर ना जाते हुए अभी अभी एक पत्रिका में छपे विभूति नारायण और मैत्रेयी पुष्पा की तस्वीर को लेकर किसी पुराने मुद्दे को फिर उठाया गया और मैत्रेयी जी पर अन्यान्य तरीकों से वाक्’हमले किये गए |यहाँ तक कि अन्ततोगत्वा उन्हें राय के कुत्सित और अश्लील संवादों को ‘’क्षमा ‘’ कर देने का निष्कर्ष भी मान लिया गया | न सिर्फ ये प्रकरण बल्कि उसके पहले भी ऐसे अनेकानेक प्रकरण हुए हैं जिसमे स्त्रियों के प्रति पुरुष की लगभग हर ज्यादती को स्त्री का दोष मान लिया गया |अभी पिछले वर्ष दिल्ली के सामूहिक गेंग रेप के प्रकरण में भी स्त्री विरोधियों (जिसमे स्वयं कुछ परम्परावादी स्त्रियाँ भी शामिल थीं )द्वारा लडकी के रात में घर से बाहर रहने और लड़के के साथ बस में सफर करने के दुस्साहस को भी उसकी वजह माना गया | क्या ये विसंगति और दकियानूसी सोच स्त्री को उसकी उपनिवेशवादी धारणा और पुरुष सत्तात्मकता को सही ठहराने की पक्षधर दिखाई नहीं देती?
अर्चना जी का ये कहना कि वाद विवाद भी संवाद का ही एक स्तर और एक प्रकार है ,सही है ये | संवाद किसी भी एक पक्षीय व्यक्तव्य और किसी धारणा विशेष के मस्तिष्क में कुण्डली मार न बैठ पाने का सबसे सही सरल और परिपक्व तरीका है लेकिन संवाद स्वस्थ्य और तटस्थ होना उसकी पहली शर्त है |
अर्चना वर्मा पर जिस ‘’ऐसे वैविध्यपूर्ण रूपकों से तथाकथित सर्वमान्य सैद्धांतिकी गढ़ने ‘का जो आरोप लगाया गया है वो आरोप कर्ता के अपरिपक्व अनुभवों से निकला एक विचार ही नहीं बल्कि हास्यास्पद भी है |उन का कहना है कि ‘’प्रायः पुरुष लेखन में निम्न मध्यम वर्गीय पुरुष सक्रीय होते हैं और स्त्री लेखन में उच्च मध्यम वर्गीय स्त्रियाँ ‘’(पता नहीं ये उनकी अपनी धारणा है ,विचार है या फिर अनुभव )|पितृ सत्तात्मकता वैश्विक स्तर पर स्त्रियों के प्रति एक आम धारणा और सोच (सत्य)है |जहाँ तक हिन्दुस्तान की बात है यदि इतिहास को ही टटोला जाये तो कितने ही ऐसे प्रकरण मिलते हैं जिसमे लोक गीतों ,लोक कविताओं ,लेखों आदि के माध्यम से स्त्री की कु-दशा अथवा उसकी नियति को वर्णित किया गया है क्या शताब्दियों पूर्व प्रचलित इन लोक गीतों के रचयिता स्त्री /पुरुष उच्च मध्यमवर्गीय रहे होंगे ?तद्भव के एक अंक में ऐसे ही लोक गीतों विशेषतौर पर उन लोकप्रिय और ‘’श्रद्धेय ’’ धार्मिक गर्न्थों की कथाओं में पौराणिक स्त्रीयों की दुर्दाषाओं संबंधी लोक गीतों .और स्त्रियों द्वारा ही उन्हें उलाहित करने पर एक लेख प्रकाशित हुआ था |इसके अलावा भी तमाम उदाहरण हैं -
हम तो बाबुल तेरी बगिया की चिड़िया,
भोर भये उड़ जाना रे...’’
या
तोहरे धरा मा रहिबे बैठी हम लुकाई
जोनों मिले रूखा सूखा तेने हम खाई
पहिनब फह्बा पुरान मोरे बिरना ..
एक दिन के दिहा हमरो बिदाई
हरे हरे बाँसवा के डोलिया सजाई
डोए दिहा बन के कहार मोरे बिरना |......
यदि इससे भी पुराने काल में जाएँ तो कुछ उदाहरन मिलते हैं जिसमे स्त्री ने स्वयं पुरुष की वर्चस्वता और अधीनस्थ होने को स्वीकारते हुए समर्पण किया है
‘’नमस्ये पुरुषं त्वाध्यमीश्वरं प्रक्रतैयः परम ‘’अर्थात ‘’मै उस पुरुष को नमस्कार करती हूँ जो इस भौतिक जगत से परे है |अर्थात ईश्वर परम पुरुष है(महारानी कुंती की शिक्षाएं)
स्त्री –पुरुष असमानता एक वैश्विक,शाश्वत और जटिल मसला है जिसे आज की नई पीढी इस तरह व्यक्त करती है

सीता निष्कासन
हम सब भोग लें आपस में
कितनी बार होगा
सीता बनवास
जारी है हर समय हर जगह
वन को जाते समय
सीता ने बाँट दिया था थोडा थोडा
हम सब में (नवनीता देव सेन –अवधेश मिश्र के तद्भव में लेख से साभार )
या फिर-
मानुष मानुषेर शिकारी
नारी के कोरेछ वेश्या
पुरुशेर कोरेछ भिखारी (शिवानी )...एक सत्य ...
(अर्थात मनुष्य ही मनुष्य का शिकारी है |वही नारी को वैश्या बनाता है और पुरुष को भिखारी |
ऐसी तमाम कवितायेँ /लोक गीत है
स्त्री लेखन का सम्बन्ध कम से कम वर्तमान में तो किसी ख़ास वर्ग का कृत्य नहीं रह गया है क्या भास्कर जी ने ये स्पष्ट करने की ज़हमत उठाई की निम्न वर्ग की स्त्री लेखन में सक्रीय क्यूँ नहीं क्या कारन हैं इनके ?क्या वो समाज से अलग है ?क्या वो पुरुष सत्ता के व्यवहार सोच की भुक्त भोगी नहीं ?क्या उस पर पुरुष का न्याय और प्रेम बरसता है या फिर उसके पास कुछ कहने को है ही नहीं इसलिए नहीं ?...बिलकुल सटीक प्रश्न है अर्चना जी का |निम्न और निम्न मध्यम वर्गीय औरतों को छोड़ दिया जाये जिनके लिए जीवन सिर्फ दो जून की रोटी का जुगाड़ ,दैनिक ज़रूरतों की पूर्ती ,दरूखोर मर्दों की ज्यादतियों से मुठभेड़ और बच्चों को पालना भर है अन्य वर्ग लेखन कर रहे हैं अनेकानेक तकनीकी सुविधाओं ने निस्संदेह उन्हें अधिक ज्ञानपूर्ण और जागरूक बनाया है |इस लेखन का स्वरुप कैसा है क्या है ये एक अलग मुद्दा है लेकिन आज स्त्री पहले की अपेक्षा अधिक आत्मविश्वासी और जागरूक हुई है इसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता लेकिन एक ये भी दुर्भाग्य पूर्ण सच है कि जहाँ स्त्री ने अपने विरोध को असहमति के रूप में दर्ज किया है वहीं पुरुष ने अपने बाहुबली और समर्थशीलता के दंभ से औरत की इच्छाओं का संहार किया है |इतिहास भी इस तथ्य का गवाह है – कुछ विद्वान मानते हैं कि सभ्यता के आरंभिक वर्षों से पुरुष मन पर नारी का आतंक रहा है वैदिक ग्रन्थ इनके साक्षी हैं बल्कि आठवीं सदी के शंकराचार्य से लेकर नाथपंथी योगियों,तुलसी ,कबीर तक नारी के विरोधी रहे हैं
उनका ये कहना कि स्त्रीवादी लेखन का दंभ छोड़कर लेखन को सिर्फ लेखन ही रहना चाहिए...इस वाक्य के पीछे उनकी मंशा अथवा औचित्य तो अस्पष्ट है या शायद अधूरा-वाक्य लेकिन कहीं न कहीं इसके एक (सकारात्मक)पक्ष में सच्चाई ज़रूर है कि आज का स्त्री द्वारा लिखा गया लेखन कम से कम सत्तर प्रतिशत स्त्रीवादिता से संदर्भित ही है |अब इसके अनेकानेक कारण कहे जा सकते हैं जैसे पुरुष सत्तात्मकता के चलते स्त्री का स्वयं के प्रति समानता और सह्रदयता की अनुपस्थिति जनित रोष,अवसाद, अभिव्यक्ति की आजादी का नतीज़ा इत्यादि लेकिन इसे ना तो अस्वाभाविक माना जा सकता है और ना ही गलत बल्कि इन तथाकथित स्त्री लेखन के समीक्षकों /आलोचकों द्वारा उनके लेखन के किसी विशेष विषय पर पर उंगली उठाना स्त्रियों की आजादी,समानता वादी अवधारणा(स्वक्प्न) को नकारना या खारिज करना माना जायेगा |
सुरेश जी अर्चना वर्मा की इस वकालत पर संदेह और छींटा कशी करने से भी नहीं चूकते कि उनकी (अर्चना वर्मा की )सैद्धांतिकी भारत के गरीब,सर्वहारा वर्ग,स्त्री ,दलित आदि को पार करते हुए लैटिन अमेरिका जैसे अति पिछड़े महाद्वीपों के स्त्री –पुरुषों के संबंधों की विषमताओं पर कैसे अपने विचार उद्धृत कर सकती हैं ? हलाकि अर्चना जी ने उनके इस पक्ष को उन्हीं के शब्दों व् ‘’उनकी स्वयं की सैद्धांतिकी ‘’ में लपेट लिया है ..’’लेखन के लिए लेखन ...तो फिर ये बात कहाँ से प्रकट हो गई ? सुरेश जी के इस कथन के पीछे उनका स्त्री –पुरुष (लैंगिक पक्ष से सम्बंधित ) अल्प ज्ञान अथवा संकीर्ण पक्ष भी कहीं न कहीं उजागर होता है | ८ मार्च १९०८ को प्रतिवर्ष मनाये जाने वाले महिला दिवस ,१२ फरवरी १९८३ को पकिस्तान की एक्टिविस्ट महिलाओं द्वारा लाहौर में अपने हकों के लिए उठाई जाने वाली आवाजें जो आज भी याद के तौर पर मनाया जाता है प्रसिद्द फ्रांसीसी लेखिका एलेन सियु की आवाज़ कि मर्दों ने स्त्री के प्रति सबसे जघन्य अपराध ये किया है कि उन्होंने स्त्री को स्त्री से नफरत करने को बाध्य कर दिया है |स्त्रियों की अपार शक्ति को अपने ही खिलाफ खड़ा कर दिया है और सियु का ये कहना कि पुरुष ने स्त्री को अपने लेखन और अपने शरीर के प्रति एक हीन भावना से भर दिया है |वो कहती हैं स्वयं लिखो तुम्हारे शरीर को सुना जाना आवश्यक है ‘’योर बॉडी मस्ट बी हर्ड..| ‘’ यही है लैंगिकता का मतलब यही पुरुषों को समझना है |
‘’आधुनिक जनतांत्रिक समाज में उत्पीडन का परिणाम द्रोह में होता ही है ‘’अर्चना जी का ये कहना आज के तथाकथित स्त्री लेखन और उन पर गढ़े गए आरोपों का एक बहुत सटीक और परिपक्व ज़वाब है |
स्त्री द्वारा अपनी असहमति दर्ज करने को हर काल में पुरुष सत्ता ने विभिन्न आरोपों, सैद्धांतिक भूलों ,और उन्हें अपनी ‘’हैसियत’’ को याद कराने के लिए भांति २ के दुष्प्रचार के द्वारा दबाने की कोशिश की है |सुरेश नायक के इस विरोध में भी ‘पुरुष प्रतिनिधि स्वरुप ‘’उसका एक अंश देखने को मिलता है |उनका यह मानना की स्त्री का लेखन किसी भी प्रकार का सामाजिक राजनैतिक परिवर्तन का वाहक नहीं रहा ‘’वस्तुतः उनका ये निराशावादी कथन स्त्री को पुनः सौ साल पहले की सोच और स्थिति में चले जाने की मंशा रखता है |इससे भी आगे वो अपना पुरुष दंभ ज़ाहिर करने से भी खुद को नहीं रोक पाते हैं जब मानते हैं कि स्त्री के हिस्से में जो रियायतें आई हैं वो भी पुरुष प्रदत्त मानवीय द्रष्टिकोण और (पुरुष निर्मित)संविधान की बदौलत |आज क़ानून पुरुषों के बहुमत द्वारा पारित होता है न कि सिर्फ महिलाओं के द्वारा |..’’उन जैसे कट्टरवादी पुरुष अपने इस वैचारिक उथलेपन (निष्कर्ष)को थोड़ा गहराई तक ले जाते हुए स्त्री पुरुष ‘’समानता’’ का भविष्य क्यूँ नहीं स्वीकार पाते ?क्या स्त्रियों के बिना पुरुष का अस्तित्व संभव है?..क्या कुछ भी सहयोग की भावना के बिना हासिल किया जा सकता है?
सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ प्रभाकर श्रोत्रीय स्त्री और दलित लेखन में उभरी एक नई चेतना और प्रासंगिकता को सही तो ठहराते हैं लेकिन स्त्री आंदोलनों की अतिवादिता और व्यापकता से सशंकित भी हैं |वे कहते हैं ‘’वे (आन्दोलन)बजाय उत्कृष्ट साहित्य सर्जन के अपनी वकालत और घ्रणा में केन्द्रित हो रहे हैं |’’वो ये भी मानते हैं कि सहजीवन की बजाय स्पर्धा जैसी उग्रता या स्वछंदता के लक्षण स्त्री लेखन में प्रकट हुए हैं |एक बहुत अच्छी बात वो कहते हैं ‘’स्त्री विमर्श को स्त्री के कटघरे से मुक्त कराना होगा ‘’|
वंदना 

24 जुलाई 2013

मेक्सिम गोर्की



मेक्सिम गोर्की जिनका बचपन का नाम अलेक्सेई पेश्कोव था एक मोची के बेटे थे |कहा जाता है की बचपन में वे अपने पिता के साथ मोची का काम सीखा और उन्हें करते देखते रहते थे |उसी बीच में एक कागज पर कलम से कुछ लिखते भी जाते और उसे घर ले जाते |पढने की अटूट इच्छा लिए जब वो सोलह वर्ष की आयु में कजान आये लेकिन जो भविष्य और द्रश्य वो आँखों में भर यहाँ आये थे उनसे बिलकुल उलटा माहौल देखा |और उन्हें यहाँ बेकरी मजदूर और बेहद कठोर जीवन में रहने को विवश होना पड़ा |मेरे विश्व्विद्ध्यालय इन्हीं घटनाओं व् सच्चाइयों से परिपूर्ण एक आत्म कथात्मक उपन्यास है |दरअसल उन्होंने तीन आत्मकथात्मक उपन्यास लिखे जिनमे ‘’माय चाइल्डहुड ,माय यूनिवर्सिटीज़ प्रमुख हैं |इन तीन उपन्यासों में गोर्की का स्वयं का व्यक्तित्व ,तत्कालीन परिस्थितियाँ ,एतिहासिक प्रष्ठभूमि आदि को जानने में मदद मिलती है |यद्यपि ये सारी सामाजिक राजनैतिक आदि घटनाएँ उनके अपने जीवन के आसपास ही घूमती  हैं और उन्हीं से सम्बंधित भी हैं लेकिन ये सिर्फ उनके ‘’आत्मकथा’’ के अलवा भी तमाम आर्थिक सामाजिक राजनीति स्थितियों व् समस्याओं का लेखा जोखा भी हैं जो पाठक की आँखों में एक द्रश्य बंध की तरह खिंचती चली जाती हैं | यही उनकी आत्मकथा की सबसे बड़ी कलात्मक खूबी भी है | ग्रीनवुड.वाल्जाक ,सर वाल्टर स्काट उनके प्रिय लेखक थे गौरतलब है की वो निरंकुश ज़ार का शासन था |जिन क्रांतिकारियों व् जनवादियों ने इसकी खिलाफत की ,उनके अगले दशक में नारोद्वादियों ने उसे एक नई क्रान्ति का रूप दे दिया |नारोद्वादियों की ये विशेषता थी कि वो दबे कुचले सामाजिक और राजनैतिक स्थिति से कमज़ोर किसानों के तरफदार थे और उन्हें आदर्श मानते थे |कहना गलत न होगा की मार्क्सवादी विचारों को इससे मदद मिली ताक़त मिली |अंत में लेनिन के नेतृत्व में ये आन्दोलन विजयी हुआ |गोर्की की रचनाओं की प्रष्ठभूमि भी प्रायः इसी इतिहास के इर्द गिर्द घूमती है और ये नितांत स्वाभाविक भी है |इन् तीनों उपन्यासों में से मेरे विश्वविध्यालय सबसे आख़िरी में लिखा गया तब तक स्थितियां बदल चुकी थीं |क्रांतिकारियों जनवादियों के बाद न्रोद्वादियों का वर्चस्व भी अंतिम सांसें गिन रहा था जिसका स्थान मार्क्सवादी विचारों ने ले लिया था |रूस में एक नए नायक का जनम हो रहा था जिसका ज़िक्र या भूमिका गोर्की अपने उपन्यास द मदर में पहले ही कर चुके थे |कहा जाता है की लेनिन को गोर्की का उपन्यास माँ इतना पसंद था की उन्होंने गोर्की से कहा था की ‘’माँ जैसी कोई चीज़ लिखो और बाद के ये तीनों उपन्यास जैसे लेनिन की इच्छा पूर्ति ही थे |
गोर्की की ‘’माँ’’ कम उम्र में विधवा हो गई थी |बेटा ‘पालभेन’ हमेशा कुछ सोचता रहता |माँ व्याकुल हो जातीं |उस समय में एक विधवा औरत को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता था |बेटा अलेक्सी कमरे में कुछ बोलता या गुनगुनाता रहता जो माँ को बिलकुल समझ में नाहीं आता |एक दिन जब माँ ने बेटे से पूछ ही लिया उसकी उदासी का कारण तो बेटे ने कहा कि ‘’हम आखिर इस पिंजरे में कब तक कैद रहेंगे ?माँ ये सुनकर अचंभित रह गईं |माँ मैं सिपाही बनाना चाहता हूँ |माँ अब केवल पालभेंन की ही माँ नहीं थी बल्कि ऐसे असंख्य बेटों की माँ थी जो सत्य की राह पर चलने वाले अहिंसावादी और इमानदार सिपाही रहे |
गोर्की को पुस्तकें पढने के लिए प्रेरित करने वाला जहाज का एक बावर्ची है ‘’स्मुरी ‘’जिसका ज़िक्र गोर्की ने ‘’जीवन की राहों में ‘’में किया है |वो कहता है ‘’तुम्हे किताबें पढनी चाहियें किताबें फ़िज़ूल की चीज़ नहीं होतीं |उनसे बड़ा साथी और कोई नहीं होता ‘’|वो कहते हैं ‘’किताबों ने मेरे ह्रदय को निखारा ..उन खरोंचों को निकाला जो मेरे ह्रदय पर अपने गहरे निशाँ छोड़ गए थे,अब मुझे लगता है कि दुनियां में मैं अकेला नहीं हूँ मेरे साथ और भी कोई है ‘’|गौरतलब है कि उस समय लोगों को पुस्तकों से अधिक से अधिक दूर रखा जाता था,यह कहकर कि पुस्तकें खतरनाक होती हैं |ये सब अफवाहें जारशाही द्वारा फैलाई जाती थीं इसी से ये साबित होता है की जारशाही साहित्य से कितना घबराती थी |यद्यपि माई यूनिवर्सिटीज़ में वे इस बात की तरफ इशारा कर चुके थे कि आम जनता और बुद्धिजीवियों के बीच अभी भी काफी फासला है इसकी प्रमुख वजह वो बुद्धिजीवियों की आपसी असंगतियों व् कथनी और करनी में अंतर को भी मानते हैं |
गोर्की का कथन - "दुनिया में अन्य कोई चीज़ आदमी को इतने भयानक रूप से पंगु नहीं बनाती जितना कि सहना और परिस्थितियों की बाध्यता स्वीकार कर उनके सामने सिर झुकाना।"
मेरा बचपन में एक जगह पर गोर्की लिखते हैं मैं अपनी नहीं बल्कि उस दमघोंट और भयानक वातावरण की कहानी कह रहा हूँ जिसमे साधारण रूसी अपना जीवन बिता रहा था |’’अलेक्सी ने अपने बचपन में अपने नाना द्वारा बेंत से पिटाई किये जाने की घटना को बहुत गहराई तक महसूस किया बल्कि उससे अपने अन्दर एक नई शक्ति के उदय की अनुभूति भी उन्हें प्राप्त हुई और इसी अनुभूति ने उन्हें दुःख दर्द पीड़ा के प्रति अत्यधिक संवेदन शील बना दिया |एक बार घोड़ों की जगह में गाड़ी में जुती हुई औरत का पक्ष लेने पर अपनी जान गंवाते भी बचे | 
गोर्की माई यूनिवर्सिटीज़ में लिखते हैं ‘’वस्तुतः आदमी जितनी ही नीची हैसियत का होता है उतना ही जीवन की वास्तविकता के सन्निकट होता है ‘’|एक जगह इसी उपन्यास में जब तोलस्तोयवादी गरज कर कहता है ‘’इंजील को गोली मारो तभी आदमी का झूठ बोलना खत्म होगा|ईसा को एक बार फिर सलीब पर चढ़ा दो |ईमानदारी का यही तकाजा है |’’
गोर्की कहते हैं ...मेरे सामने अब एक अथाह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि यदि धरती पर सुख के हेतु निरंतर संघर्ष का नाम जीवन है तो करुना या प्रेम क्या इस संघर्ष में राह के रोड़े नहीं ?’ एक और जगह वो कहते हैं कि ‘’करुना हानिकारक वस्तु है |करुना का मतलब क्या होता है ?ये कि बेकार के लोगों पर प्रायः ऐसे लोगों पर जो हानिकारक हैं रुपये बर्बाद किये जाएँ ?और जेलखाने और पागलखाने खोलने के लिए रुपये जाएँ ?लोग भिखमंगों को दान बाँट देते हैं पर विद्ध्यार्थी तबाह होते हैं |..वस्तुतः उनकी ये सोच लगभग हर काल में प्रासंगिक है और रहेगी जब तक मनुष्य मनुष्य के बीच शक्ति,सामर्थ्य,धन,पद आदि की असमानताएं मौजूद रहेंगी |
उनका स्पष्ट मानना था कि बहुत ‘विनीत’’ और यदि वो आस्तिक भी है ज्यादा खतरनाक  होता है क्यूँ कि बदमाश तो बदमाश होता है आदमी उससे स्वतः बचकर चलता है लेकिन विनीत व्यक्ति घांस में छिपा काला नाग की तरह होता है जो दिखाई नहीं देता और मौका आने पर काट लेता है |’’
वो मानते थे कि आदमी को केवल अनुभव ही सच्चाई बयान कर सकते हैं शब्द नहीं |अपनी एक प्रसिद्द कहानी ‘’सफर का साथी ‘’ में वे कहते हैं ‘’तब मैं बहस करना बंद कर देता था ,ये सोचते हुए कि एक आदमी जिसका विशवास है किज़िंदगी चाहे जैसी भी हो हमेशा सही होती है ,और न्यायपूर्ण होती है उसे शब्द नहीं केवल तथ्य ही कायल कर सकते हैं ‘’| आदमी की अपनी दयनीयता और दुर्दशा उसे ‘’सहने’’ और परिस्थितियों की बाध्यता स्वीकार करने के ही परिणाम हैं जो लम्बे समय से चली आ रही सच्चाइयां हैं|’’ ये जीवन के उस तपे हुए अनुभव और उनकी अनेक रचनाओं  की अंतर्ध्वनि के रूप में मुखर होती है |समाज की घिनौनी बातों उनके यथार्थ को ज्यूँ का त्यों वर्णित करने के पीछे के मकसद को बताते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि ‘’हाँ ये ज़रूरी था ...और फिर मनगढ़ंत और काल्पनिक रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियों को आप इतना रस लेकर पढ़ते हैं तो ये तो फिर जीवन की कटु सच्चाईयां हैं ‘’ बल्कि वो तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘’ऐसा करना मेरा अधिकार भी है और इच्छा भी कि इन सही और घ्रणित बातों का वर्णन करके मैं आपकी संवेदनाओं को कुरेदूँ ,एक चुभन पैदा करूँ ताकि आपको उस समय का सही सही अर्थ पता चले जिसमे आप रह रहे हैं |
बुद्धिजीवियों के बारे में भी उनके विचार कुछ अलग थे ‘’बुद्धिजीवियों की पूरी ज़मात ऐसी ही है हवाई ख्यालों के वास्ते विद्रोह का रास्ता थामने वाली | जब आदर्शवादी बगावत का झंडा उठाता है तो सब लुच्चे लफंगे उसके पीछे हो लेते हैं केवल द्वेषवश –समाज में उनके लिए स्थान नहीं हैं |
एक कहानी में उनका मजदूर कहता है कि ‘’क्या हम सिर्फ ये सोचते हैं कि हमारा पेट भरा रहे ...बिलकुल नहीं |हमें उन लोगों को जो हमारी गर्दन पर सवार हैं और हमारी आँखों पर पट्टियां बांधे हुए हैं यह जता देना चाहिए कि हम सब कुछ देखते हैं |हम इंसानों का सा जीवन बिताना चाहते हैं |’’
लेकिन इन्हीं मजदूरों का पक्ष लेने वाले वो स्वयं एक जगह ये भी लिखते हैं ‘’मजदूर क्रांति के लिए बगावत करते हैं ,उन्हें श्रम के साधनों और उत्पादों का उचित वितरण चाहिए जब सत्ता उनके हाथ में आ जायेगी तो क्या समझते हो कि वे राज्य को रहने देंगे ?हरगिज़ नहीं |सब एक दुसरे से टूटकर बिखर जायेंगे और हरेक अपने लिए एक शांतिपूर्ण कोना ढूँढने लगेगा |जहाँ एकांत और चैन की ज़िंदगी काटी जा सके |’’(माई युनिवर्सितीज़)वास्तव में मानव स्वभाव का ये एक अडिग सत्य और बहुत बारीक विश्लेषण है 
गोर्की की रचनाओं को पढ़कर एक पुरानी कहावत याद आती है जो बचपन में सुना करते थे कि ‘’अच्छाई’’ का अंत अच्छा होता है |वाकई गोर्की जैसे उन लेखकों में से एक हैं जिनकी रचनाएँ सम्पूर्ण मानव जाती के इतिहास की एक महीन पड़ताल हैं लेकिन अंतत वो स्वयं स्वीकारते भी हैं कि ‘’प्रगति एक ढकोसला है जिसे आदमी ने अपना मन बहलाने के लिए गढ़ा है |वास्तव में जीवन में कोई तुक नहीं बिना गुलामी के प्रगति हो ही नहीं सकती |’’
अंत में गोर्की की ही एक पसंदीदा कविता 
तुम कहते हो कि मैं दकियानूस बन गया ?
आश्चर्य!
क्यूँ कि मैं तो वही रहा जो था ,मैंने कब कहा कि
प्यादे को हटाओ और फ़र्जी को बढ़ाओ
मैं तो कहता हु मारो गोली पूरे खेल को ही 
बस क्रान्ति तो जगती ताल पर केवल एक हुई 
जो क्रान्ति थी सच्ची ,न धोखा ,ना फरेब 
जिसके आगे बाद की सारी क्रांतियाँ मात हैं |
वह था प्रलय 
आर उस वक़्त भी लुस्फिर खा गया गच्चा 
क्यूँ की नोए आर्क पर बैठा 
बन गया ताना शाह सच्चा 
तो आओ उग्रपंथी दोस्तों ,आओ 
नए सिरे से जोर लगाओ ,ऐसा कि काम अंजाम हो
(वंदना) 

22 जुलाई 2013

लोग उस ज़लज़ले की बातें
अपने हुनरों की तरह कर रहे हैं
रस्मों की तरह दुःख और
रिवाजों की तरह गढ़ रहे हैं कवितायें
एक एक द्रश्य को दूसरों की आँखों में भर
अपनी संवेदनाओं की कस रहे हैं खूंटियां
पसंदों/पत्रों की कसौटी पर
इस बार उनके उलाहनों ने
फिर कोसा है व्यवस्थाओं से लेकर
आस्तिकों तक को
जैसे कुछ दिन पूर्व हुए एक जघन्य काण्ड में
गालियाँ खाई थीं नक्सलियों की
गोलियों ने
उससे भी कुछ पहले
एक और नोचा खसोटी और दरिन्दगी
बन गई थी अखबारों सडकों आँखों की
बड़ी खबर 
उलाहित किया था पुरुष सत्ता और
दिल्ली पुलिस /सत्ता को
उससे पहले........
अब लगता है की यदि ये घटनाएँ समय २ पर न होंगी
तो कैसे चलेंगे चैनलों की ये
‘’आज की सबसे बड़ी खबर,,या २०० ख़बरें दो मिनिट में?
न होंगी तो कहाँ जायेंगे वो नए अखबार मालिक
जिनकी बड़ी प्रेरणा है
ये दुर्दांत ख़बरें  


13 जुलाई 2013

भविष्य की स्म्रति

                            
जीवन के किसी मध्य-बिंदु में उस अज्ञात उपसंहार से गुफ्तगू करना किसी ज्ञात प्रस्तावना को पुँनाह-स्मरण करना ही होता है ..डरे हुए देह मस्तिष्क की शिथिलता को पराजित करने का ये सबसे ज़हीन तरीका है
ज़िंदगी तमाम घटनाओं से भरी एक बे-उन्वान किताब है जिसकी जिल्द उसका हश्र बयान करती है |जिसके शुरू वाती पन्ने हमेशा एक खुशबूदार और ताजगी से भरे होते हैं बनिस्बत सबसे बाद के पीले सिकुड़े और थके हुए पन्नों के इस लिहाज़ से ये ‘’इतिहास’’ के सिद्धांतों से बिलकुल विपरीत है |मेरी ज़िंदगी की किताब के ‘’अंक’’ कम ही रहे ...बस एक ...दो ..या तीन तक उसके बाद जैसे ह्रदय गति जानने वाले मोनीटर पर अंततः धडकनों की एक सीधी सपाट लाइन बन जाती है और आदमी की सांसें और जीवन ‘स्थिर’ हो जाता है वैसे ही अब मैं बिलकुल उन धड़कन विहीन दिल की तरह सपाट ज़िंदगी जी रही हूँ ...लेकिन नहीं ये गलत होगा ...मैं खुश हूँ ...बहुत खुश ...सच |अपनी उम्रदार देह की कमजोरी के बाहर और कोई विवशता नहीं मेरी हालातों से जूझने की ...लेकिन हाँ मैं जिनके साथ रहती हूँ वो जितनी मेरी हमदर्द हैं उतनी ही कडक और क्रूर भी ..वो हैं मेरी यादें ...उनसे बात करना रूठना,खुश होना हंसना दुखी होना ये  मेरी अपनी ज़िंदगी को व्यतीत करने का एक सबसे सरलतम और सुन्दर तरीका है मेरे लिए |
प्रिय दोस्त  -  
तुम प्रथ्वी के किस कोने में होगे कैसे और क्या कर रहे होगे इस वक़्त ...कडकडाती जनवरी की इस बर्फीली रात  ...नहीं जानती |क्या मेरी ही तरह तुम भी एक आराम दायक गुदगुदी आराम कुर्सी पर फायर प्लेस के सामने बैठे पुरानी स्म्रतियों में डुबकियाँ लगा रहे होगे ?तुम ने यहाँ से जाने यानी मुझसे दूर चले जाने के बाद न जाने किन २ और कितनी सडकों से यात्राये की कितने शहरों में किराए के बड़े घरों में अपने किसी छोटे से आशियाने का सपना आँखों में भरे दिन गुज़ारे होंगे ?लेकिन मैं?....जनम लेना जिंदा रहना मर जाना एक ही घर में ...तुम नहीं जानते कितना विचित्र होता है ये संयोग |तुम्हे शिकायत थी मुझसे कि मैं अपने रूप सौन्दर्य से अहंकारी हो गई हूँ मेरे सपने मेरे जीवन के बगीचे में चंचल तितली की तरह उड़ते थे और मैं तुमसे बेफिक्र हो जाती थी जबकि तुम उस ज़मीन के एक सबसे ख़ूबसूरत और कोमल पेड़ थे जो सिर्फ अपने आसपास मुझे देखते रहना चाहता था | जब तुम्हारे अविश्वास और मेरी जिद बढ़ती गई तो उन सुगन्धित सपनों में एक धूल भरा बवंडर आ गया था सब उस धुल में अद्रश्य सा हो गया और जब वो हटा तो हमारी पीठें थीं |दूसरी लड़कियों की तरह मुझे भी मेरे परिवार ने सिर्फ एक खुशहाल भविष्य के सपने ही दिखाए थे उनसे संघर्ष सहने दुःख झेलने या कठिनाइयों को पार करने का हुनर नहीं सिखाया इसीलिये तुम्हारे उन अप्रत्याशित निर्णय से मैं कांप गई थी |
मित्र ,  
जब हम बूढ़े होते हैं तो लगता है कि आज से दस दिन पहले ही तो जवान थे !सच कहूँ ...मुझे भी कभी कभी जवान लडकी होने का मुगालता हो जाता है |कल्पनाओं में एक बार हम पूरी की पूरी ज़िंदगी दुबारा जीते हैं |स्म्रतियां संगृहीत होती हैं और कभी कभी वो आपस में गुंथ /उलझ जाती हैं |अच्छा ,एक बात बताओ,यदि तुम इस वक़्त यहाँ होते इस कडकडाती ठण्ड में फायर प्लेस के सामने ...क्या बात करते हम दौनों ? अपनी जवानी की ?...क्या दीवार पर टंगी उस ख़ूबसूरत खिड़की की जो अपने द्रश्य गाहे ब गाहे मौसम के हिसाब से बदलती रहती थी ...कभी सुगन्धित हवाओ को हमसे मिलाने कमरे में ले आती कभी बादलों को निचोड़ उसकी पारदर्शी  बूंदों के साथ खिलवाड़ करती और कभी दोपहर के सन्नाटों में अपने चेहरे पर नकाब डाल बस यूँ ही ऊंघती रहती !युद्ध के दिनों के उन बंद और सहमे से दरवाजों की याद है तुम्हे जिन की संधों में से गश्ती जवानों के भारी बूटों की आवाजें उनके पास और दूर जाने की खबरें  दिया करती थीं और हम डरकर एक दूसरे से चिपक जाया करते थे ?या फिर वो गीली रेत और ओस भरी पत्तियों की सोंधी सी सुगंध जिस्म में भरे हम हाथों में अपनी चप्पलें लिए समुद्र के किनारे किनारे टहला करते थे !जानते हो अब उस समुद्र का पानी नीला नहीं रहा ?उसके काले रंग में रंग बिरंगी बत्तियों की चमक भर दी गई है जैसे किसी भोले गोल मटोल शिशु की काजल भरी आँखों में अटके झिलमिलाते आंसुओ की दो बूँदें |
ग्रुशा ...मेरी सबसे अच्छी दोस्त
बिछड़ने के जो कारन अनायास नमूदार होते हैं और एक झटके में मजबूरी बन किन्ही सूखे पत्तों की तरह हवा में उड़ कहीं दूर चले जाते हैं वो कितने तकलीफदेह होते हैं ये मेरे तुम्हारे सिवा और कौन जान सकता है ?और दुखों की भीड़ में ये एक और दुःख हम अनजाने से दिल के किसी कोने में दबा लेते हैं मुट्ठी में मोती की तरह |दरअसल हम स्त्रयां अपनी जवानी के दिनों में खुशियों और उम्मीदों पर आंख मूंदकर भरोसा करती हैं और यही हमें अपने घरों में सिखाया भी जाता है ,जाहिराना तौर पर वो तमाम आशाएं और सपने साकार नहीं होते और हम हतप्रभ उनके न होने को देखते रह जाते हैं चुपचाप ...अकेले....घुटे हुए से ...|इन बेडौल और निराकार सपनों को सहना हमें अपने अतीत में देखे गए वो रंगीन सपने ही सिखाते हैं जैसे छिले हुए घुटनें किसी शिशु की बाल सुलभ जिज्ञासाओं को चलना |
मैं ....अपनी सत्तर वर्ष पुरानी उम्र से गुफ्तगू करती हूँ ...जो अचानक कभी भी आकर सामने खडी हो जायेगी  
मुझे इस वक़्त लग रहा है कि बीच के इन पचास सालों की आड़ को अपने ज़ेहन से खिसका मैं अपने अतीत के पुँराने खंडहरों में पहुंच गई हूँ |उनकी यादें आज भी उतने ही जीवंत हैं |सच कहूँ ये वही आधी शताब्दी है जिसने मेरे सपनों को पतझर और खून को ठंडा कर दिया है |घरों में एक जगह होती है न बेहद परित्यक्त सी और किसी अँधेरे से कोने में जिसे हम स्टोर रूम कहते हैं |उसे अपनी मोर्डन बैठक या बेड रूम की तरह सजाने की न तो ज़रुरत समझी जाती है और ना उसमे बेवजह जाया जाता है लेकिन वो स्टोर रूम धीरे धीरे सामान से ज्यादा हमारी स्म्रतियों का भण्डार गृह बनता जाता है और फिर मुझ जितना पुराना घर और यादें हों तब तो उसमे स्म्रतियां हर साल आती मेहमानों की तरह हैं पर फिर कभी नहीं जातीं |मैं अक्सर अपनी छडी टेकती हुई सेहन पार कर उस अंधेरी सी कोठरी में जाती हूँ जिसे स्टोर रूम कहा जाता है जाते ही वो छोटी सी खिड़की खोलती हूँ जो बहुमंजिला इमारतों की तरफ खुलती है |लेकिन उनमे रोशनी अब दीवारों से टकराकर आती है सीधे नहीं |मै भीतर जाकर वो पुँराना साठ वाट के लट्टू का काला खटका खोलती हूँ स्म्रतियां रोशन हो जाती हैं अपनी पीली मरियल धुंधलाहट के साथ |मैं उन सभी चीज़ों को छू छूकर देखती हूँ ...ये वो नकारा आउट डेटेड और तिरस्कृत चीज़ें हैं जिन्होंने दो साल से लेकर चालीस साल तक मेरी सुविधाओं का ख्याल रखा है |ये चीज़ें मुझे उन्हीं पुराने दोस्तों की तरह लगती हैं जो अपनी स्म्रतियों की धुन्ध्लाह्त छोड़ जीवन के इस अरण्य में कहीं खो गए थे |
मैं उस स्टोर रूम की एक एक चीज़ को गौर से देखती हूँ ...काठ की तीन पैरों वाली मेज़ जिसका एक पाया टूटकर न जाने कहाँ बेसुध पड़ा होगा,पुराने पत्थर की चक्की,चूहेदानियां,मज़बूत पलंग दरअसल इन सब चीज़ों से मेरा कोई वास्ता नहीं क्यूँ की इन का मेरे लिए कोई याद का सिरा नहीं |ये उस वक़्त की चीज़ें हैं जब स्टोर रूम नामकी कोई जगह घरों में नहीं होती होगी और इन पर जिन उँगलियों की छापें हैं उन हाथों को मैंने अपने होशोहवास में कभी देखा नहीं |जिन आँखों ने इन चीज़ों को देखा होगा इनकी कद्र और निष्ठां उन आँखों में ज़रूर होगी |ये चीज़ें सदियों से उदास हैं शायद इसलिए कि इनके पुराने दोस्त मर चुके हैं |

ओह ...फायर प्लेस की लकड़ियों के वो गट्ठे अब राख हो रहे हैं ...हर अंत नए की शुरुवात का बहाना होता है ....