8 अगस्त 2016

टी वी की बेतुकी ख़बरें और अजीबोगरीब सीरियल्स से उकताकर जो मन में सिर्फ एक भय, खीझ और वित्रिश्ना पैदा करते हैं किताबों व् फेसबुक की तरफ रुख किया था |हालाकि किताबें चूँकि हमारे स्वयं के द्वारा चुनी गयी होती हैं इसलिए उन्हें फ्री समय में पढ़ा जा सकता है लेकिन फेसबुक , जिस पर इस उम्मीद के साथ आये थे कि यहाँ साहित्यिक चर्चाएँ, ज्ञान,स्वस्थ्य बहस , तटस्थ असहमतियां होंगी तथा ज़रूरी सूचनाएं और स्तरीय चीज़ें पढने को मिलेंगी (बावजूद बेहद संक्षिप्त और बहुत सोच समझकर निर्धारित की गयी मित्र सूची के) यहाँ भी अब निराशा का अनुभव हो रहा है | असहमति और खीझ (इरीटेशन )तथा भाषा की अराजकता और धैर्य के बीच का फर्क लगभग मिट चुका है | मित्रों के पारिवारिक ‘’हैप्पी मूमेन्ट्स’’ अथवा व्यक्तिगत उपलब्धियां खुशी देती हैं लेकिन हस्याद्पद व् उबाऊ स्तर तक हर राष्ट्रीय , सामाजिक , राजनैतिक, साहित्यिक,भावनात्मक मुद्दों को जबरन जातिवादी या अलगाववादी जामा पहनाने , गुटबंदियां और भाषा व् तर्क की सब मर्यादाएं तोड़ देने का जो माहौल निरंतर पैदा किया जा रहा है ये समाज में कोई सार्थक बदलाव नहीं बल्कि एक खतरनाक स्थिति पैदा कर रहा है |बेकाबू भाषा , अफवाहें और तर्कहीन विचारों का सोशल साईट्स जैसे माध्यमों पर बढ़ते जाना भविष्य के लिए एक दुर्भाग्य पूर्ण संकेत है| देश नहीं बल्कि पूरी दुनिया जब प्रदूषण, पानी, मौसम, आतंक, जलवायु ,व्याधियों, युद्ध जैसे गंभीर विषयों व् विसंगतियों से जूझ रही है हमारे सामने वही सैकड़ों वर्ष पुराने मसले ( जो दुर्भाग वश प्रायः राजनैतिक क्रीडाओं के माध्यम रहे हैं ) प्राथमिकता से हमारे क्रोध और असहमतियों का विषय हैं क्या ऐसा करने से पूर्व एक बार गंभीरता से सोचा है कि ...
क्या हम इस प्रथ्वी पर अमर होकर आये हैं ?
 क्या इस तरह के अलगाववादी विचारों को प्रकट और भड़काकर हम धर्म व् जातिगत इन एतिहासिक समस्याओं को कम या हल कर पायेंगे ?
नक्सवादियों ,आतंकवाद जैसी विकट समस्याओं से लेकर, पडौसी देशों के खतरनाक इरादों तक से जुझते राष्ट्र में हम इस वैचारिक असावधानी , भड्कात्म्क कार्यवाही तथा  क्रोध से कहीं आपस की इस खाई को और चौड़ा कर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्षतः गृहयुद्ध जैसा वातावरण पैदा तो नहीं कर रहे ?
 क्या देश का हर सवर्ण साक्षर ,सुखी, संपन्न और सक्षम है और हर दलित विपन्न, सर्वहारा और प्रताड़ित? जैसा कि साहित्य (स्त्री विमर्श )में हर पुरुष ,सम्पूर्ण स्त्री जाति का गुनाहगार |
इस अधूरी वास्तविकता व् अतिवादिता के दुष्परिणाम क्या होंगे ?
इतिहास साक्षी है कि जहाँ पाकिस्तान जैसा अलग मुल्क बनाकर हिन्दुस्तान के दो हिस्से किये गए इस एतिहासिक त्रासदी के अलावा भी कुछ सच हैं जिन्हें एक ख़ास गुट के द्वारा निरंतर नज़र अंदाज़ किया गया वो है संगीत व् फिल्मों व् साहित्य में मुस्लिमों की बड़ी व् काबिलेगौर हिस्सेदारी जिसे यहाँ की कलाप्रेमी  जनता ने भरपूर प्रेम और इज्जत दी , आज भी देते हैं |

 बहरहाल,उन्हीं मित्रों की तरह अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का आंशिक इस्तेमाल करते हुए उन मित्रों की सूची से मैं स्वयं को माफी सहित अलग कर रही हूँ | 

6 अगस्त 2016

शुभम श्री की कवितायें बनाम ‘’बोल्ड कहानियों ’’ का काव्यात्मक संस्करण




ये प्रयोगों का युग है | कोई नई बात नहीं ..हर युग में उसकी सोच, समकालीनता आदि के मद्दे नज़र बदलाव होते हैं, होने चाहिए | कहा जाता है बदलाव हमेशा अच्छा होता है लेकिन ( यदि कालगत प्रयोगधर्मिता बनाम बदलाव का हवाला दे इस वाक्य की मीमांसा करें तो ) ऐसा होना ज़रूरी नहीं |संगीत में रेमो फर्नांडीज़ ने रैप सोंग्स की शुरुवात की |ज़ाहिर है वो एक नई टेक्नीक थी नया प्रयोग था जमकर सराहा गया , तब से शंकर महादेवन के ‘’ब्रीथ्लैस’’ सोंग तक आते वो प्रयोग फेल हो गया और उसके स्थान पर लोक संगीत के आधुनिक वर्शन और सूफी बेस्ड गीतों ने लोगों का दिल जीता लेकिन अब....| पारसी थियेटर या नाट्यशास्त्र पर आधारित नाटक जो प्रायः भरत मुनि के शास्त्र पर बेस्ड होते थे  ,वो परम्परा टूटते टूटते अब नुक्कड़ नाटक, एकल अभिनय, या कबीर के गीतों का नाट्यरूपांतरण तक पहुँच गयी |ज़ाहिर हैं प्रयोग आगे भी होते रहेंगे |प्रयोगवादिता तो हर काल की स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन क्या इन प्रयोगों का कोई दीर्घगामी प्रभाव भी होगा ? ज़रूरी ये हैं | कह सकते हैं कि किसी भी विधा में बदलाव काल और रूचि सापेक्ष होता है |ये एक सतत प्रक्रिया है |अर्थात ‘’तोड़ फोड़ में तोड़ फोड़ ‘’|शुभम श्री की पुरस्कार समेत कुछ कवितायें पढ़ीं | पिछले दिनों कहानी विधा में ‘’बोल्ड कहानियों’’ की धूम रही ज्ञातत्व है कि जो स्वीकार्य/ अस्वीकार्य के तर्क झेलती रही | पुरस्कृत कवियत्री की कवितायें इसी ‘’बोल्ड परम्परा’’ का काव्यात्मक संस्करण कही जा सकती हैं |ये सही है कि ये ‘’बोल्ड बनाम क्रांतिकारी’’ कवितायें हिन्दी साहित्य के स्थापित कवियों को तुलनात्मक रूप से अधिक पसंद आईं |लेकिन शेष पाठकों की नापसंदगी को खारिज नहीं किया जा सकता | आदरनीय अर्चना वर्मा के लेख जिसमे वो पुरस्कृत कवयित्री के कविताओं की विशेषताओं के सन्दर्भ में ‘’नए’’ शिक्षार्थियों को संबोधित कर रही हैं|पाठक  पूछना चाहेंगे ... क्या इसीलिये इसे कविता माना जाए क्यूँ कि....

(1)-‘’कवयित्री ऐसा कुछ कर के दिखा रही है जैसा और कोई कर नहीं सका है। यानी कविता के बने बनाये ढाँचे में तोड़-फोड़। तो यह तो अप-टू-डेट वाला सन्दर्भ हुआ?‘’
(पुनश्च)
(2)-‘’कविता का बना बनाया ढाँचा और तोड़ फोड़?‘’ 
(3)-यहाँ कविता से सम्बन्धित सुर्खियों में अप्रत्याशित दूरारूढ़ तुलनाएँ विस्मित करती हैँ?
(4)-कविता की तरह पेश की गयी चीज़ को कविता न मानने का सवाल नहीं उठता? 
(5)- बने बनाये ढाँचे तो बीसवीं सदी में घुसने के साथ ही टूट फूट रहे हैँ लगातार?
(6)-क्या ऐसा मानने का वक्त आ गया है कि साहित्य नामक सांस्कृतिक संरचना अपने संभावित विनाश का सामना कर रही है? 
(7)- ‘’(यदि)मान्यता एक "दी हुई" हुई चीज़ होती है, कोई अन्तरंग गुण नहीं ?’’क्या ये मान्यता (दी हुई चीज़) सिर्फ उनकी विरासत है जो इसे अनेकानेक उदाहरणों/ तर्कों में इसे ‘’श्रेष्ठतम ‘’ सिद्ध करने पर आमादा हैं ?