14 नवंबर 2012

औरत और प्रथ्वी


प्रथ्वी के गोल होने के साक्ष्य  
और भी बहुतेरे  हैं
जुगराफिया सबूतों के अलावा  
 बाइबल के सत्य (?)और
गेलीलियो /कोपर्निकस के विवादों  
और वैचारिक टकराहटों से परे भी 
असत्य सत्य पर शास्वत सत्य के वुजूद से इतर
अतीत के धुंधले अंधेरों में
कुछ प्रश्न-चिन्ह आज भी खड़े हैं  
सलीबों की मानिंद 
ठुकी हुई हैं कीलें  
हर काल की हथेली पर
अपने तमाम ज्ञानों, आदर्शों ,और
उपलब्धियों को झोली में भरे
औरत
प्रथ्वी के चक्र के साथ  
अंततः  
 उसी बिंदु पर आकर मिलती हैं
दुनिया की सबसे पहली औरत से
शिकायत करती है हर युग की  
 विकास और आधुनिकता के
हज़ारों दम्भों के बावजूद  
जो अंतत छलता रहा है
उसके वुजूद को  ही
पूछती हैं वो उससे
 फिर 
क्यूँ दुनियां के नक़्शे में
छाई हुई है औरत ही
और ,
क्यूँ वैश्विक कलाएं ,साहित्य ,त्रासदियाँ
घूम फिरकर
 टिका लेते हैं सिर औरत के कंधे पर ही  ?


10 नवंबर 2012


‘’आलोचना करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है कि आदमी स्वयं किसी निश्चित सत्य में विश्वास करे ‘’...गोर्की
पिछले दिनों वी एस नायपाल प्रकरण अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि गिरीश कारनाड ने एक और विवादास्पद टिप्पणी कर दी गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर को ‘’दोयम दर्जे का नाटककार ‘’कहकर |ख़बरों से लेकर फेसबुक तक पर खलबली कि ये कैसे हो सकता है |कुछ पाठकों ने सहमते हुए गिरीश जी की बात को ओथेंटिक मानने की हिम्मत दिखाई लेकिन ‘’आस्थावानों ‘’ने बकायदा उन्हें (बगैर किसी पुख्ता दलील के )हडका दिया |आइये अब इस प्रकरण पर भी बात की जाये |गुरुवार रवीन्द्रनाथ टैगोर निस्संदेह एक बहुआयामी और अद्भुत व्यक्तित्व के धनी रहे एक ऐसा व्यक्तित्व जो ना सिर्फ बहुत श्रेष्ठ कवि बल्कि उपन्यास कार ,वक्ता,नाटककार,समालोचक,दार्शनिक,लेखक,व अध्यापक रहा |एक ही व्यक्ति में इतनी प्रतिभा सचमुच अद्भुत व अतुलनीय |गुरुदेव को सन १९१३ में विश्व का सर्वश्रेष्ठ पुरूस्कार नोबेल पुरूस्कार से नवाजा गया  उल्लेखनीय है कि बाद में २००१ में साहित्य का नोबेल पुरूस्कार तथाकथित भारतीय मूल के वी एस नायपाल को मिला |निस्संदेह इन दो विभूतियों के प्रति भारत कृतकृत्य हुआ |नोबेल पुरूस्कार प्राप्ति के वक़्त जो पंक्तियाँ पुरूस्कार भाषण में कही गईं वो थीं ‘’टैगोर की काव्य रचना की आभ्यांतरिक गहराई और उच्च उद्देश्य ऐसे हैं तथा प्राच्य विचारों को इन्होने पाश्चात्य वर्णन शैली में ऐसी सुंदरता और नवीनता के साथ व्यक्त किया है कि वे वास्तव में पुरूस्कार पाने के अधिकारी हैं ‘’| संभवतः किसी भी कवि के लिए उसकी श्रेष्ठता तथा उत्कृष्टता का इससे बड़ा प्रमाण नहीं हो सकता |’’नोबेल पुरूस्कार उन्हें ‘’बंगाल की गीता ‘’ कही जाने वाली पुस्तक गीतांजलि पर ही मिला जिसकी अनेक विदेशी भाषाओँ में अनुवाद हुए |इसके अतिरिक्त उनकी अंग्रेज़ी कहानियों का संग्रह लन्दन के एक प्रकाशक ने निकाला |(मैकमिलन ‘से भी उनके कुछ उपन्यास ,कहानियाँ और नाटक प्रकाशित हुए )|गौर तलब है कि बहुमुखी प्रतिभा संपन्न इस विद्वान की ख्याति विदेशों तक उनकी कविताओं के कारन अधिक हुई |तुलनात्मक द्रष्टि से उन्होंने नाटक कम लिखे |उनके नाटकों में मुख्य हैं ‘नलिनी’,’मायर खेल’,मानसी,’राजा ओ रानी’,चित्रांगदा आदि |इसके अतिरिक्त उन्होंने बुद्ध पर आधारित एक नाटक नातीर पूजा (न्रात्यान्गना की पूजा ) भी लिखा था |
कोई भी साहित्य या कला अपने समय से अलग होकर नहीं जी सकती |अर्थात उसमे तात्कालीन समाज राजनीती,दर्शन आदि का समावेश एक बहुत सामान्य और सहज घटना है लेकिन ये कतई आवश्यक नहीं कि उसी रचना को पचास साठ वर्ष भी उतना ही सराहा जाये !जुबैदा,कानन कौशल सुरैया जैसी सिने अभिनेत्रियों की फ़िल्में उस वक़्त हाउस फुल रहती थीं क्या आज उनसे ये अपेक्षा की जा सकती है?या नाटक को ही देखें तो १९४७ के आसपास लिखे और खेले गए नाटकों की उस समय धूम रहती थी |आगा हश्र कश्मीरी,से लेकर स्वर्गीय कर्नल गुप्ते तक या एक के हंगल, उत्पल दत्त,भीष्म साहनी ,प्रथ्वी राज कपूर,सोहराब मोदी जैसे समर्पित लेखक/कलाकारों जिनमे से कुछ इप्टा के फाउन्दर्स में भी गिने जाते हैं के द्वारा लिखे या खेले गए तत्कालीन नाटक जो उस वक़्त काफी पसंद किये गए थे बल्कि कुछ पर बेहद लोकप्रिय होने के मद्दे नज़र ‘’देशद्रोही ‘’होने का दोष लगा प्रतिबंधित भी कर दिया गया था ...लेकिन आज हम आज़ाद हिन्दुस्तान में सांस ले रहे हैं स्थितियां बदल चुकी हैं समस्याओं,विकास,आधुनिकता,विचारधारों ,राजनीति,सामाजिक व्यवस्थाएं सभी के रूप और अर्थ बदल चुके हैं जो कालगत परिवर्तन के मद्दे नज़र स्वाभाविक है |तकनीक,कथ्य ,शिल्प,मंच सब का स्वरुप बदल चुका है |जहाँ तक टैगोर के नाटकों का प्रश्न है उनके नाटक स्त्री करुना,यानी दुखांत हुआ करते थे (नलिनी और मायर खेल निर्धन गृहस्थों के जीवन पर आधारित नाटक थे वहीं चित्रांगदा नाटक के लिए कुछ समीक्षकों का मत था कि सौंदर्य की द्रष्टि से इतना सुन्दर नाटक नहीं लिखा गया,लेकिन कुछ समीक्षकों ने इसके आलोचना करते हुए लिखा कि इस नाटक का सौंदर्य वर्णन भारतीय आदर्शों के अनुरूप नहीं इस द्रष्टि से ये हेय है ‘’ 

तथ्य केवल यही है कि लगभग सौ वर्षों के इस विशाल अंतराल के बीच दुनियां में तमाम परिवर्तन हुए भारतीय समाज यहाँ की राजनैतिक,सांस्कृतिक परिस्थितियां और परिवेश बदले |सोवियत संघ के विघटन का प्रभाव भी कला और साहित्य पर पड़ा |भूमंडली करण और बाजार वाद ने समाज परिवार सोच आदर्शों के मायने ही बदल डाले |स्वाभाविकतः साहित्य के नए मानदंड व मापदंड तय किये गए |गिरीश कारनाड एक समर्पित ,एवं प्रतिभावान नाटककार,लेखक निर्देशक हैं इसमें कोई शक नहीं | बचपन में मैंने उनका लिखा नाटक हयवदन देखा था जिसमे कलाकार ओम् शिवपुरी व सुरेखा सीकरी मुख्य पात्रों में थे |मेरा सौभाग्य है कि बाद में मुझे हयवदन व उनके लिखे एतिहासिक नाटक ‘’तुगलक’’(निर्देशक बी एम शाह भूतपूर्व निर्देशक राष्ट्रीय नाट्य विद्ध्यालय देहली)के निर्देशन में स्त्री मुख्य पात्र करने का सुअवसर प्राप्त हुआ |नाटक तुगलकजितने बार पढ़ा लेखक की श्रेष्ठता और बारीकियों का लोहा माना |
 बंगाल कला साहित्य की श्रेष्ठता में सर्वोपर है निस्संदेह |शरत चंद  ,बंकिम चंद ,अभिनेता हरेंद नाथ चट्टोपाध्याय ,उत्पल दत्त जैसे मूर्धन्य लेखक ,कलाकार हुए हैं |उत्पल दत्त का तो कोई सानी ही नहीं (मुझे उनके नाटक ‘’टीनेर तलवार’’में अभिनय करने का अवसर मिला हास्य,त्रासदी,व्यंग,गीत संगीत से परिपूर्ण ऐसा संतुलन मैंने ब्रेख्त के नाटक कॉकेशियन चौक सर्किल के अलावा किसी में नहीं देखा |)
बहरहाल इस विवाद में दो तथ्य महत्वपूर्ण है पहला कारनाड ने टैगोर को उनके सम्पूर्ण साहित्य के लिए  नहीं वरन सिर्फ नाटक में औसत माना ,अलावा इसके ये उस कलाकार का वक्तव्य है जो स्वयं लंबे समय से नाट्य लेखन व अभिनय के लिए समर्पित है और कला क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है उसके व्यक्तिगत विचारों को विवादों में घसीटते हुए खारिज नहीं किया जा सकता |दूसरे ,टैगोर को पूजनीय का दर्जा देने वालों (विशेषतौर पर उस महानगर विशेष से ताल्लुक रखने वालों )ने इस मसले को आस्थाओं पर प्रहार माना जो आज के युग व परिस्थितियों में निहायत दकियानूसी विचार है | जो लोग बगैर किसी तर्क के अंध आस्था के तहत ऐसा मान रहे हैं उनके लिए सिर्फ एक ही उद्धरण याद आता है सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक गेलीलियों ,कोपर्निकस और उनके युवा शिष्य ब्रूनो का जिन्हें बाइबिल के इस सत्य को कि ‘’सूर्य प्रथ्वी का चक्कर लगता है ‘’नकार कर ये सत्य उजागर व घोषित करने कि ‘’प्रथ्वी सूर्य का चक्कर लगती है’’अंध विश्वासी और आस्थावान मिश् नारियों ने देश निकाला दे दिया था ,नतीजतन  गेलीलियो को बहत्तर वर्ष की उम्र तक कचहरी के चक्कर लगाने पड़े थे वहीं ब्रूनो और उसकी प्रेमिका को उस ‘’असत्य’ सत्य को नकार देने के अपराध में चौराहे पर जिंदा जला दिया गया था |हर अति अपने चरम में आखिरकार अपनी ऊष्मा खो देती है चाहे वो आस्थाओं से सम्बंधित ही क्यूँ ना हों क्यूँ कि आस्थाएं कहीं ना कहीं अन्धं विश्वास की पडौसी ही होती हैं |
वन्दना
..........................................................................................................................

8 नवंबर 2012

गिरीश कर्नाड बनाम वी एस नायपाल-



सुप्रसिद्ध लेखक रंगकर्मी ,अभिनेता श्री गिरीश कर्नाड (जिनके लिखे नाटक तुगलक की पिछले दिनों धूम रही )को मुंबई की एक संस्था द्वारा एक साहित्य समारोह में रंगकर्म से जुड़े अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया था |लेकिन कर्नाड को अपने इस ‘’भाषण’’ में प्रसंशा के बावजूद कुछ असहमतियों जिन्होंने छोटे मोटे विवाद का रूप भी ले लिया था ,सामना करना पड़ा |हुआ यूँ कि उन्होंने ‘’रंगकर्म’’ के उस विषय से हटकर भारतीय मूल के लेखक वी एस नायपाल के बारे में भी अपने कुछ विरोध दर्ज लिए | ये मुद्दा इसलिए उठा क्यूँ कि उसके पहले आयोजकों ने इस बात को रेखांकित किया कि बुकर(१९७१) एवं नोबेल (२००१)जैसे प्रतिष्ठित पुरुस्कारों से सम्मानित भारतीय मूल के लेखक वी एस नायपाल ने अपनी भारत यात्रा के समय इसी जगह खड़े होकर अपना भाषण दिया था | इत्तिफाकन इसी मंच पर सुप्रसिद्ध रंग कर्मी,अभिनेता,लेखक गिरीश कर्नाड को रंगमंच से सम्बंधित अपने अनुभव व विचार प्रस्तुत करने को आमंत्रित किया गया था |गिरीश कर्नाड जैसे रंगमंच के अलावा भी अन्य विषयों में गहन अध्ययन एवं दखल रखने वाले बहुमुखी कलाकार के सामने जब नायपाल के कसीदे पढ़े गए प्रशस्ति गान किये गए तो वे स्वयम को संयत नहीं रख पाए विशेषकर नायपाल को भारतीय लेखक मानने के मुद्दे पर जिससे उन्हें आपत्ति थी |हलाकि नायपाल ने खुद भी कभी ऐसा नहीं माना |
 कर्नाड ने नायपाल से सम्बंधित कुछ तथ्य प्रस्तुत किये जिसके मूल में कुछ कारन थे जिसके लिए नायपाल के लेखिकीय जीवन व उनकी (भारतीय मूल का लेखक मानने )जैसी व्यक्तिगत मान्यताओं को जानना तर्कसंगत होगा |
विद्ध्याधर नायपाल के पूर्वज आज से डेड सौ वर्ष पूर्व कैरेबियन द्वीप समूह के तत्रिनिनाद नामक द्वीप में मजदूर बनकर गए थे |उनके पिता शासन में एक अधिकारी थे  वो लेखक बनना चाहते थे लेकिन नहीं बन पाए लेकिन उनके दौनों पुत्रों (विद्ध्याधर और शिव)विश्वविख्यात लेखक हुए |वी एस नायपाल ने जीवन भर नौकरी नहीं की आरंभिक शिक्षा त्रिनिनाद में करने के बाद वो उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफोर्ड चले गए और फिर लन्दन में ही बस गए |उनके शुरू के उपन्यासों के विषय प्रवासी भारतीयों की विदेशों में ज़िंदगी और समाज में स्थान बनाने के संघर्ष से सम्बंधित हैं |’(’ए हाउस फोर मि.बिस्वास’’)भारतीय मूल के और जन्म से त्रिनिदादी नायपाल इंग्लेंड के शुद्ध अंगरेजी वातावरण में तालमेल नहीं बिठा पाए इस संघर्ष को उन्होंने अपनी रचनाओं में भी चित्रित किया |उन्होंने कहा कि ‘’मुझ जैसे दो संस्कृतियों से जुड़े लोग अंधेरों में रोशनी तलाशते हुए अधूरी ज़िंदगी बिताते हैं |’’ इस ‘अवसाद’से वो हमेशा ग्रसित रहे जो उनके लिए उठाये गए विवादों का आधार माना जाता है | उन्होंने इस तरह की दो संस्कृतियों से टूटे हुए लोगों को अपने लेखन का विषय भी बनाया जिसमे मिश्र,ईरान,इंडोनेशिया,भारत आदि के मुसलमान का ज़िक्र एतिहासिक विश्लेषण के साथ प्रस्तुत किये हैं | इनकी दो किताबें ‘’एमंग ड बिलीवर्स ;एक इस्लामिक जर्नी’’और ‘’बियोंड बिलीफ ;इस्लामिक एक्स्कर्ज़ंस एमंग द कन्वर्टेड पीपुल्स’’इसी से संदर्भित हैं जो बेहद चर्चित हुईं |उनका मानना है कि इस्लामिक साम्राज्यवाद से बढ़कर दुनियां में अन्य कोई साम्राज्यवाद नहीं हुआ |कुछ समीक्षक मानते हैं कि ट्रेड टॉवर (न्यूयार्क)के हमलों के तुरंत बाद बाद इन्हीं पुस्तकों ने उन्हें नोबेल पुरूस्कार दिलवाया | सच तो ये है कि उन्होंने खुद को भी भारतीय नहीं माना और यदि माना भी तो एक विचित्र रूप में |उनके वक्तव्य प्रायः विरोधभासी रहे जैसे एक तरफ उन्होंने माना कि उन्हें हिन्दुस्तान की राजनीती में कोई रूचि नहीं जबकि दूसरी तरफ वो हिन्दुस्तान को एक हिंदू राष्ट्र का दर्जा देने के हिमायती रहे और मुस्लिमों के कट्टर विरोधी रहे |वो मानते हैं कि मुस्लिमों ने हिन्दुस्तान को भ्रष्ट कर दिया |
भारत के बारे में उनका मानना है कि मुसलमानों का आक्रमण भारत के लिए बेहद हानिकारक सिद्ध हुआ और फिर अंगरेजी राज्य के आधिपत्य से उनकी ये संस्कृतिक किलेबंदी ढहना शुरू हुई |आजादी के बाद अंगरेजी और मुसलमानों दौनों की दूरी बढ़ी |बावरी मस्जिद मसले पर उन्होंने कहा था कि ‘’मुझे नहीं लगता कि हिंदू इस्लामी आतंक से अभी उबर पाए हैं |अभी वो इस मसले में भ्रम की अवस्था में ही हैं और अयोध्या आन्दोलन उसे समझने की ही एक कोशिश है |’’
प्रवासी होते हुए (हमेशा विदेश में रहने के बावजूद)इन्होने भारत की संस्कृति से सम्बंधित तीन किताबें लिखीं जिनमे से दो में भारत की संस्कृति और जीवन की तीव्र आलोचना की |ये किताबें थीं ‘’एन एरिया ओव डार्कनेस ,इंडिया ;ए वूंडेड सिविलाईज़ेशन ‘’लेकिन इसके बाद एक किताब और लिखी जिसमे उन्होंने भारतीय संस्कृति का पुनुरुत्थान करने की बात कही वो किताब थी ‘’इंडिया ए मिलियन म्युतिनीज़ नाउ इसमें कोई दो राय नहीं ,कि नायपाल का भारत के प्रति लगाव (भारतीय मूल के होने के नाते )बहुत कम रहा है |हलाकि वो मानते हैं कि हिन्दुस्तान लंबी गुलामी के बाद अब उन्नति के रास्ते पर है |लेकिन जैसा की ऊपर कहा गया है इस्लाम के प्रति हमेशा उनमे एक अजीब स दुराग्रह रहा |राजनीति से दूर खुद को मानने और कहने वाले नायपाल नोबेल पुरूस्कार प्राप्त करने के बाद जब हिन्दुस्तान आये तो सबसे पहले भा जा पा के कार्यालय में गए |उल्लेखनीय है कि स्वयं आलोचना और विवाद में फंसे सलमान रश्दी नायपाल को नोबेल पुरूस्कार मिलने के पक्षधर नहीं थे | नायपाल को सामरसेट मॉम प्रुस्कार ,डेविड कोहेन ब्रिटिश लिटरेचर आदि पुरूस्कार भी प्राप्त हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘’सर’’ की उपाधि से भी नवाजा | उनके बारे में कहा जाता है कि वो बेहद चिडचिडे स्वभाव और स्पष्टवक्ता रहे |एक समय था जब प्रसिद्ध यात्रा वृत्तान्त लेखक पौल थोरु उनके बेहद प्रसंशक हो गए थे इन्हें तत्कालीन लेखकों में सर्वोपरि कहा था उन्होंने लेकिन बाद में वो उनके स्वभाव से उनके घोर विरोधी हो गए |
नायपाल ने ये स्वीकार किया है कि लन्दन में बसने के बाद उनका योवन बहुत कठिनाइयों में बीता |न्यू स्टेट्समेन में नौकरी करने के बाद भी वो अपने अकेला और बेसहारा महसूस करते थे |वे कहते हैं ये मेरे जीवन के सबसे बुरे दिन थे जिन्हें मै याद करना नहीं चाहता |लेकिन रचना गुण के कारण उनके चाहने वाले भी बढते गए | यदि एक वृहद रूप में देखा जाये (भारत या प्रवासी से अलग )तो मानव जाति की  समस्याओं को जानने में उनकी रूचि रही उल्लेखनीय है कि आंध्र और बिहार के नक्सल वादी क्षेत्रों में उन्होंने भ्रमण भी किया |अपने उपन्यास ‘’हाफ ए लाइफ ‘’ में उन्होंने एक टूटे परिवार से बिछुडे एक युवक की कहानी लिखी है |
साफगोई और स्पष्टता से सार्वजानिक आयोजनों में अपनी बात कहना विरोध दर्ज करना सभी के बूते की बात नहीं (कम से कम आज के माहौल में तो यही सच है )|उत्पल दत्त,गिरीश कर्नाड,या सफ़दर हाशमी जैसे  कुछ इने गिने दुस्साहसी लेखकों के ही बूते की बात थी |प्रश् यही है कि क्या उन लेखकों या अन्य कोई भी व्यक्ति को जिसने विदेश में ही जन्म लिया और जीवन भर वहीं की नागरिकता में रहा लेकिन सौ वर्शोंं पूर्व उनके पूर्वज भारतीय होने की वजह से उन्हें भारतीय प्रवासी (लेखक )माना जा सकता है(माना जाना चाहिए )? हलाकि भारतीय साहित्यकारों का एक धडा गाँव में कभी ना जाकर ना सिर्फ ग्रामीण जीवन पर उपन्यास लिख रहा है बल्कि पुरूस्कार भी प्राप्त कर रहे हैं , या विदेशी प्रष्ठभूमि पर बेहिचक लिखकर वाह वाही लुट रहे हैं ऐसे वातावरण में यदि नायपाल जैसे लेखक लन्दन में बैठकर (गाहे ब गाहे भारत का दौरा कर )भारत की समस्याओं और स्थितियों पर लिखते हैं मय मीमांसाओं के तो स्वाभाविक ही लगना चाहिए लेकिन ये साहित्य के पुरोधा व मील के पत्थर आज भी इस ‘’आडम्बर’’को सही नहीं मानते |
वंदना 




6 नवंबर 2012


प्रेम को नहीं चाहिए  
अपने होने के बीच 
कोई कविता ,शब्द  
 रंग , गीत या द्रश्य
 मौन प्रतीक्षा की
 प्रेम एक अद्रश्य ज़रूरत है
 एक नीली पारदर्शी नदी 
बहती रहती है जो चुपचाप  
कोमल विरलता में
आत्मा से आत्मा तक 

4 नवंबर 2012

कतरनें


कई चीज़ों को ना जानना ही अपने को सुरक्षित रखने का रास्ता है |...(निर्मल वर्मा)
इस छोटे से वाक्य का तात्पर्य  अपने में अनेक तर्क, संभावनाएं और एक वैचारिक विराटता को समेटे हुए है | सर्व ज्ञाता होने की अदम्य और आदिम इच्छा मनुष्य को सपनों के एक वीरान जंगल में ले जाती है , जहां विषयों की भीड़ और अराजकता है,कुछ होने और कुछ भी ना होने के बीच का एक खालीपन है जो हमें एक अदेखे अजाने अनुभव की प्यास की अनुभूति कराता है पर महत्वाकांक्षाओं की अभीप्सा में हम उस राह से चूक जाते हैं जो अज्ञात में है .. एकांत और कुछ अलग पाने की इस भीड़ में कुछ भी ना पा पाने की एक कुलबुलाहट लिए स्वयम को खो जाते हुए देखते है और यहीं वक़्त होता है जब हम  अपने sence of innocence  को अपने से दूर जाता हुआ देख रहे होते है जो शायद अब कभी नहीं मिलेगा
निर्मल वर्मा को पढ़ना सपनों की उस ज़मीन से गुजरना है जो पूरी तरह हवा से बनी है ....उनके पहले वाक्य को पढते हुए पाठक सपनों की एक घाटी जो सुगंधो और भीनी हवाओं से भरी है में प्रवेश करता है ओर उनके अंतिम वाक्य पर उसे लगता है जैसे वो किसी गहरी तन्द्रा से जागा हो ...किसी स्वप्न की सुरंग से निकल अपनी स्रष्टि के धरातल पर आ गया हो | एक अदम्य जिजीविषा का उदय होता है किसी भी जेन्युइन लेखक को पढकर फिर भी ना जाने क्यूँ जीवन में कुछ ज़रूरी हमेशा बना रहता है |बकौल निर्मल वर्मा ‘’इतनी चेतना हमेशा बनी रहनी चाहिए कि आप अपनी चेतना को माचिस की तीली की तरह बुझते हुए देख सकें ‘’|