26 नवंबर 2011

बीतना


 (1)
क्या बीत जाना होता है वैसा
जैसे बीतती है सभ्यता
पीढ़ियों की खाई में ?
जैसे बीत जाते हैं हुसैन
बेदखली को बेईज्ज़त छोड़
जैसे बीतती है संभावना
संस्कृति को बचाते हुए
या बीतती हैं उम्मीदें
इमोम की धडकनों में ? 
(2) 
कुछ अंश
बीत गई हूँ मै
और कुछ लम्हे बीत रही हूँ
देख रही हूँ बीतता हुआ खुद को
मा की गोद में बेवजह चीखने से होते हुए  
वजह और चुप्पी के दरमियान |
बीत रही हैं उम्मीदें ख़्वाबों के चिन्ह छोड़कर
बीते हुए समय के इश्तिहारों को
देख रही हूँ घुटन की दीवारों से चिपके हुए
बीत रही हूँ मै
कतरा कतरा
तमाम प्रश्नों को अनसुलझा छोड़,
बीत रही हूँ मै......

24 नवंबर 2011

कुहास


औरत
 औरत होने से पहले एक जिस्म है,
जैसे बबूल एक पेड़
गंगा एक नदी
गाय एक जानवर
ह्त्या एक अपराध
जैसे अहिंसा एक झूठ
विडम्बना का कोई नाम नहीं होता
वो तो बस होती है
जैसे ,
बस होता है एक ज़न्म ,
कुछ नियति ,कुछ विवशताएं
सब अपना अपना इतिहास गढ़  
फ़ना होते हैं 

23 नवंबर 2011

दिन के उजालों में


ना जाने क्यूँ
 कुछ खास किस्म के लोगों को
,कहते हुए इंसान
भीतर कुछ दरकता सा है
लगता है ज़ुबान फिसल गई
पछतावों पर मलहम लगाती हैं तब
पुनर्ज़न्म की कहानियां
किसी उगती सदी में
सूरज ने जो दी थी कुछ मोहलत
अंधेरों की ,सुकून पाने को हमें ,
अब वे अँधेरे सिर्फ डराने के लिए बचे हैं
गब्बर सिंह की तरह ,
वेश बदलकर अब भी घूमते हैं इन अंधेरों में राजा
नहीं नहीं ,अपनी प्रजा की खुश हाली देखने नहीं
बल्कि बटोरने कुछ अँधेरे कुछ स्याह कालापन
ताकि जनता की आँखों में झोंका जा सके उन्हें
दिन के उजालों में .....

8 नवंबर 2011

-मन नहीं लगता



‘’मेरा मन नहीं लगता ‘’
भीड़ से कहना चाहती थी मै
कि तुम्हारे मन बहलाने के तमाम ठिकानों   
रिश्तों ,बाज़ारों,धरनों,हडतालों,उपलब्धियों,संबंधों
मेले ठेलों,त्योहारों,प्रवचनों,हास परिहासों
के बावजूद भी 
भरी भीड़ में अनजान हूँ मै
जंगल नुमा किसी बहलावे को भोगते
किसी चिड़ियाघर  में ,तमाम खाध्य पदार्थों के बीच
दर्शकों के शोर से घिरे उदास हिरन सी |
उम्र के साथ आस्थाएं बढ़ती हैं
एकांत उन्ही में से जन्मा कोई
नक्षत्र होगा ,जो मैंने चुना
उस अद्भुत जीवंत प्रकृति के आगोश में
जिसे तुम सन्नाटा कहते थे और
मै आकाश ,तुम जिजीविषा मानते थे
और मै नदी
पेड़ फूल पत्तों को तुमने सिर्फ पतझड़ कहा  
और मैंने बीज
तुमने मुझे पलायन वादी कहा  
जब कि तुमने ही  
उसकी खूबसूरती में विभीषिकाएँ और
बसंत में से पतझड़ को चुना
तुम्हारे जीने के समस्त उपक्रम
उपलब्धियां,महत्वाकांक्षाएं  
खरीद फरोख्त,जलवे जलसे
क्या विस्मृति -भ्रम से कुछ अलग था ?
आज जब तुम्हे देख रही हूँ
महत्वाकांक्षाओं के आकाश में गोते लगाते
अगणित सितारों के बीच चाँद की तरह रोशन होते
चाँद ,जो घिरा है काले बादलों से
कहना चाहती हूँ सिर्फ तुमसे ये,
के वाकई  
‘’मेरा मन नहीं लगता ‘’