30 अक्तूबर 2010

बचपन



देखती हूँ  रोज़ सुबह 
घर के सामने से ,
स्कूल  को जाते  हुए 
कुछ उदास थके से बच्चे!
अपनी कोमल दुबली
 देह पर टांगे बोझिल बस्ते,!
ठसाठस भरे बस्तों  और
शुद्ध पानी की लटकाई गई 
बोतल से अपने कमज़ोर 
 कन्धों को झुकाए!,
भारी भरकम बस्ता ,जिसमे
 कैद है उनका भविष्य , 
एक जादू की पोटली- सा,
पोटली ,जिसमे भरे हैं
मम्मी डेडी के कुछ
अतृप्त तो कुछ,
विचित्र सपने, और
कहीं सहमी सी  दुबकी  हैं
समाज और देश की 
अपेक्षाओं की संभावनाएं भी !
इन्ही सपनों /अपेक्षाओं के
 बोझ में दबा वो टटोलता है अपना 
 बचपन, इन्हीं के बीच में कहीं !
जो उसे कहीं नहीं मिलता !
मिलता है तो,बस टोनिक से लेकर 
 मिनरल वाटर तक,फ्रूट जूस से लेकर
ड्राई  फ्रूट्स तक ,आधुनिक खेल -खिलौने 
आरामदायक बिस्तर या फिर,
इनमे से कुछ भी नहीं ,क्यूंकि 
माता  पिता की गाढी और 
मेहनत की कमाई खर्च  हो जाती है 
उसे ''योग्यता ''की इस
रेलमपेल में ''फिट''कराने  में 
तिस पर ,बहराई और  
भ्रमित  शिक्षा पद्धतियों 
और शिक्षा संस्थानों  के 
निरंतर बदलते पाठ्यक्रम  
और नित नए प्रयोग!
जिससे अभी दो -चार होना 
बाकी है उसका !
इन त्रासदियों से भी !
घर से स्कूल,स्कूल से ट्यूशन 
ट्यूशन से होम वर्क
और ''मनोरंजन ''के नाम पर
''कार्टून फ़िल्में'',और बस 
इन्ही के बीच भागता 
उनके बीच हांफता,ताल मेल बिठाता 
दौड़ता बचपन, देश का भविष्य !
परिवार समाज देश की 
आशाओं पर खरा उतरने 
एडी से चोटी तक चक्कर घिन्नी बना 
बच्चा अवसादित ,किंकर्तव्य विमूढ़ !
शिक्षा पद्धति के नवीन प्रयोगों की
 भीड़ के क्रम में अब,
 ''नैतिक शिक्षा की जगह
बैठा दिया गया है  एक
 'बाल मनोविज्ञान का काउंसलर भी  '
जो नज़र रखेगा बच्चे की तमाम 
गतिविधियों पर जैसे की  ,
बच्चे आखिर  क्यूँ 
अवसाद में रहते हैं?
 जिद्दी है पढता नहीं?
या  क्यूँ आत्महत्या जैसे 
खतरनाक कदम उठाते हैं ?
वगेरा वगेरा, और खोज
 निकालेगा सैंकड़ों 
उलजुलूल  वजहें!.काश की,
बच्चे को  ये पूछे जाने की मोहलत 
मिल पाती,की क्या चाहता है 
वो खुद?की,   उसके बचपन पर
उसका भी कोई हक है ?की,,
नहीं चाहिए उसे नर्म बिछौने,न
टेडी बिअर ,.न कार्टून फिल्मे ,न 
तमाम किस्म के विटामिन टोनिक,
फल कपडे खिलौने बस ,
छोड़ दिया जाय उसे खुले फैले 
मैदान में जहाँ दौड़ सके वो 
बिंदास ,स्वच्छंद 
निर्विघ्न ,जब चाहे !
खुबसूरत रंग बिरंगा बेड रूम 
देने के बजाय दे दें  एक
अदद  दीवार और पेंटिंग के
 कुछ ब्रुश और
कुछ रंग जिनको बिखेर,
वो भर पाए कुछ रंग
 अपने बचपन  में  भी !

28 अक्तूबर 2010

तलाश


अक्सर मैं 
ढूँढती  रही,हूँ 
खुद को कभी  
इंसानों की भीड़ में,
कभी रिश्तों के जं-जाल में,
कभी कंकरीट के घने 
जंगल में और कभी
विवशताओं के अथाह 
सागर में
जहाँ मै,
खो गई हूँ ऐसे
कि 
कभी भीड़ का कोई 
गैरज़रूरी सा हिस्सा  
बन गई लगती हूँ  , या कभी
ठोस मज़बूत  पुरानी ईंट
जो जड़  दी गई थी कभी 
प्राचीन ईमारत  की किसी
अँधेरी सी  दीवार में 
और कभी विवशताओं की
धुइली सी  राख,
जिसके अंगारों का ताप 
महसूसती हूँ आज भी 
संतृप्त मन की किसी
अनजाने से  कोने में! 
''सहारों '' का गणित 
या कहें ''दर्शन''
कभी समझ नहीं आया मुझे 
हाँ,पर खुद को खुद में
तलाशने का उपक्रम 
गाहे ब गाहे 
ज़रूर करती रही मै 
बदले में उसके पाती रही
''अंतर्मुखी''होने का आरोपण 
मिला है तो बस, 
बार बार यही दोहराव
वही अपेक्षाएं ,
वही म्रगत्रष्णा,
वही वादे
वही आशाएं 
और फिर....
वही पलायन... 
कभी खुद से कभी
ज़िन्दगी से 
पर अभी बाकी है
उम्मीद की एक
हलकी सी रौशनी 
एक हौसला 
कि पा लुंगी कभी
खुद को 
इस भीड़ से अलग
माना कि यह पगडण्डी नहीं जाती 
प्रसिध्धि की साफ़ सुथरी सड़क तक 
प्रशंसा  की महकती हवा तक भी  नहीं 
पर इतने भरे पूरे संसार की 
व्यस्त विडम्बनाओं की भूल भुलैया 
के बीच
खुद को खोज लेना
कम बड़ी उपलब्धि तो नहीं ! 

25 अक्तूबर 2010

अधूरे सपनों का सच

ये  पतझड़ का मौसम था ....
चाहकर भी देह पेड़ की
नहीं रोक सकी ये .विडम्बना 
और एक एक कर उसके,
नितांत अपने,
पल पल के साथी 
उसके ,सुख दुःख के गवाह
हर पत्ता फूल 
और बीमार
कमज़ोर शाखाएँ 
तीखी गर्म हवाओं 
की अग्नि में झुलस 
बिखरते चले गए 
तिनकों की तरह,
धरती  पर,
वही धरती, 
जो माँ थी उनकी 
जिसकी कोख से पैदा
 हुए  थे वे  सब !
कैसे सहा होगा माँ ने
अपनी ही सुंदर रचना को
इस क़दर 
ज़र्ज़र होते,
इस तरह टूटते बिखरते
पर ,सच था ये !
बस यही त्रासदी 
 सूनी देह पेड़ की
याद करती है,किसी 
बुजुर्गवार के खंडित
संस्मरणों की शेष 
कतरनों  की तरह,
उनका पैदा होना,
और उसी तरह बिखर  जाना,
और सुनाती है
हवाओं,और उदास 
आसमान को,
वो दृश्य 
 जब
उगी थीं नीरस देह पे उसकी
सुकोमल पत्तियां,.शाखाएं,
और फिर कलियाँ,
जो फूल बनकर इतराया करती थीं
और वह उसे खिलखिलाते
मुस्कुराता,मंत्रमुग्ध हो 
इठलाते देखा करता था
पर ,
न जाने कैसे 
और कहाँ गए वो सब
आहिस्ता आहिस्ता ,और
शेष  रह गया पेड़ ठूठ सा
झुर्राई सूखी  देह लिए
लेकिन....
फिर एक दिन
मन-जीवन के सन्नाटे को 
चीरते ,हरहराते पड़े 
अमृत के छींटे  कुछ
मुस्कुराते आसमान  से,
फिर उगीं पत्तियां...
शाखें ...कली...फूल
हरिया गई देह फिर से
रौनक भर गई 
आसपास में,
फिर खिलखिलाहटें 
 बिखर  गई 
बगिया मे,
आबाद हो गया चमन ,
फिर से,
नए फूलों की ताजगी भरी 
खुशबूओं से,
तितलियों और 
भौरों से !
भूल गया पेड़
वो बिखरे पत्ते फूल,तिनके 
नाचने लगा
उन्हीं के साथ ,,
और तभी ये 
अहसास भी हुआ उसे 
कि निराशा के घनघोर 
अंधेरों के बीच कहीं,
रौशनी की लकीर 
का अस्तित्व भी
हुआ करता है,
जिसका वुजूद होता है
सिर्फ 
अँधेरे के किसी कोने मे
और ये भी कि
''बिखरना''
इस तरह 
शुरुआत भी हो सकती है
किसी नए सपने की 
या फिर सपनों भरी
जिंदगी की !

 

24 अक्तूबर 2010

किरचें


बहुत कुछ छोड़ चुकी हूँ  पीछे,
रिश्ता,दोस्ती,जगह,परिवेश
परिचय,धरती,लोग और युग!
और उन सभी का  
छूटते  या फिर टूटते चले जाना,
महज़ एक संयोग नहीं रहा !
सच कहूँ तो,
उन पर मेरा वश भी नहीं था!
दरअसल 
जब किसी चीज़ पर 
अपना वश नहीं  होता
तो,वो विवशता ही तो 
होती  है!
कुछ रिश्ते ज़ेहन से,
ओझल-से होते चले गए,
और कुछ ,अंतर्लीन,
और कुछ बाकायदा गायब...!.
पर कुछ खुबसूरत रिश्ते,
जो कांच से पारदर्शी
पर नाज़ुक थे ,संभल नहीं सके
मुझसे शायद ,और 
छूटकर बिखर गए,,
भीतर ही भीतर  कहीं,
जिन्हें टूटकर बिखरने 
न देने  की सभी कोशिशें
नाउम्मीदों  के साथ 
खारिज होती गईं!
टूटा हुआ कांच कुछ
ज्यादा ही चमकता है 
जिसकी नुकीली किरचों से 
आत्मा तक 
आहत हो जाती है!
ये चुभन अपेक्षाकृत 
कुछ 
ज्यादा ही  तकलीफदेह
होती है ,क्यूंकि 
इसमें शामिल होता है
 दिल भी !

23 अक्तूबर 2010

सुबह



हर मुस्कुराती  सुबह
आगाज़ होती है 
एक उम्मीद भरे दिन का 
या फिर ,,
बीते दिन का आईना,
झिलमिलाते हैं जिसमे,
प्रतिबिम्ब जीवन के !
बीता दिन....
जो जिया गया,कभी 
ख़ूबसूरत सपनों  के साथ,
उम्मीदों से भरपूर,
बेहतरीन 
सपनों के लिए....
या फिर बिताया गया,
 टूटे सपनों के
गम में ,या 
अपूरित इच्छाओं के
सागर में डूबते उतराते
जैसे तैसे!
कभी देखा  है तुमने
उगती हुई भोर  का
खुबसूरत नज़ारा,और 
 की है गुफ्तगू  कभी
उत्फुल्लता से दमकती
चमकती,सुबह से?
गौर से सुनो उसे ,
कि तुम्हारी  ही तरह
उसने 
कल भी दस्तक  दी थी
आकाश पर ....
उतरी थी धरती पर,
इसी तरह मुस्कुराती 
ताजगी से लबरेज़,
उर्जा से भरी!
,पर क्या दोपहर की तपन ने उसे 
तपाया नहीं था?
रात के घटाटोप अँधेरे ने उसे
डराया नहीं था?
पर आज वो 
फिर हाज़िर है अपनी
सदाबहार मुस्कराहट के साथ
यही महसूस कराने कि
ज़िन्दगी नाम है 
सिर्फ एक 
मुस्कराहट का 

21 अक्तूबर 2010

''किंग लियर''



कहते हैं,सुख के क्षण टुकड़ों में और छोटे होते हैं जो जितनी जल्दी आते हैं उतनी ही शीघ्रता से संतृप्त व् ,नगण्य हो पानी के बुलबुले की तरह फूट भी जाते हैं पर त्रास के  पल काटे नहीं कटते!  दुःख के पल ,बोझिल रात की तरह लम्बे होते जाते हैं ...काटना मुश्किल हो जाता है! सुख की तासीर ही यह है कि उसे हम और और प्राप्त करना चाहते हैं पर वो टिकता नहीं,वहीँ दुःख से पीछा छुड़ाने के लाख जतन के बावजूद वो हमारे दिलो दिमाग पर अरसे तक अपनी छाप छोड़ जाते हैं.जो अवचेतन तक गहरा जाती हैं.
विलियम शेक्सपिअर के मशहूर नाटक ''किंग लियर ''में अपनी चापलूस बेटियों को अपना साम्राज्य सौंप चुके राजा को ,जब अपनी कुटिल और स्वार्थी बेटियों की असलियत का पता पड़ता है तो उसका वर्णन अत्यंत मार्मिक किया गया है ....शब्दशः....

''इधर राजा की आँखों से आंसुओं की वर्षा हो रही थी,उधर आसमान में सहसा घनघोर घटायें घिर आईं!पल भर में तूफान गरजने लगे बिजलियाँ कड़कने लगीं,व् आसमान कटकर ज़मीन पर उतरने लगा!चिड़ियाँ घोंसले में सिमट गईं  ...अगर कोई खुले आकाश तले खड़ा था तो वो था किंग लियर!वही लियर,जिस पर छत्र तानने के लिए आज से कुछ ही दिनों पहले सहस्त्रों हाथ आगे बढ़ते थे!तथा जिस पर चंवर डुलाने में लाखों अमीर अपना अहोभाग्य समझते थे,आज वही लियर नंगे असमान के तले खड़ा है और  उसकी तरफ कोई देखता तक नहीं!
''शोक की अंतिम हद तक पहुँच जाने पर मनुष्य का विवेक जाता रहता है,""!लियर,पागलों की भांति बडबडाता हुआ तूफान में कूद पड़ा!
   ''आंधियों,तूफानों आओ...बहो...इतने वेग से कि यह आसमान धरती हिल जाये,घटाओं बरसो....कि ज़मीन का पाप तुम्हारी लहरों में समां जाये...संसार से मानव और कृतघ्नता का नाम सदा के लिए मिटा दो'''तूफानों को चीरता हुआ राजा अँधेरे में खो गया !
""

20 अक्तूबर 2010

अंतहीन

एक  निश्छल,सरल ,और
बिंदास ,
बचपन के बीच भी
लडती रही परम्परगत 
मान्यताओं से मै,
बेकसूर होने के बावजूद,
बेवज़ह रोकटोक और
तथाकथित ''समाज की ''
 फिक्रों  से घिरी 
उन 
डांट फटकार और 
नियमों  के खिलाफ
जो ''पराये घर ''जाने 
के आतंक से
डरी हुई थीं !
लडती रही.....,
जवानी में खुद के 
''अस्तित्व को''
उसी ''समाज''के एक हिस्से से
''सुरक्षित''रख पाने और
नारी स्वातंत्रय''की
पारंपरिक कुंठा के
द्वन्द के साथ !
जूझती रही मै
अपने ही घर में
पराये  व्यवहार और
पराये घर में
''अपने से ''व्यवहार की
अपेक्षाओं तथा ,
अनगिनत असोचे कर्तव्यों की
उम्मीदों  के खिलाफ!
तब से अब तक,
बस जूझती ही  रही हूँ मै
और लडती रहूंगी
तब तक ,
जब तक कि
मेरी कोशिशों को
सम्मान नहीं मिल जाता! !

19 अक्तूबर 2010

एक कोशिश



गंतव्य की तलाश में,
दौडती रेलगाड़ी की,
 खुली खिड़की,
और एक निहायत ही,
खूबसूरत सुबह
कितना सुकून देती हैं ये
दो चीजें ,मन-देह को? 
सुदूर तक फैला
आसमान
मैदान,पेड़ पौधे,पगडंडी,
और पोखर
अपनी अपनी जगह पर स्थित
शांत और धैर्यवान,
पर नज़र आ रहे
बेइंतिहा
भागते
दौड़ते
रेल की गति के साथ,
अतीत ,वर्त्तमान और
भविष्य के द्वंदों की तरह,
कोशिश है मेरी कि
 खारिज होती जाये मन से
वो तमाम तकलीफें,,
पछतावे  और ग़म 
,हवा को चीरती
रेल की गति से 
 पीछे छूटते जाते,
गुजरते हुए,वक़्त और,
बीतेते वनस्पतियों की तरह,
ताकि
तारतम्यता 
 कायम रह पाए,
नए सपनों,और विचारों के
अगले पड़ाव और
सुबह की ताजगी के बीच 

14 अक्तूबर 2010

अंतर्व्यथा


मसूरी की उन,
खुबसूरत वादियों में
उदास और बेमन से
घूमते हुए
देखा , चट्टानों के बीच 
गुलाबों को खिलते...
सूने दिल को
राहत महसूस हुई कुछ!
पीठ और पेट एक लिए
झुकी कमर और रूठी किस्मत 
के साथ एक बहुत बुज़ुर्ग
औरत को देखा स्टेशन पे
भीख मांगते बेबस दयनीय...
खुद के सर पे
देव स्पर्श  का आभास हुआ मुझे..!
एक निःसंतान दंपत्ति को
पूजा स्थलों  में
 माथा रगड़ते देखा,
अपनी पूर्णता पे गर्व हुआ मुझे!..
तूफान पीड़ितों को,घर से बेघर
 और शोक संतप्त देखा,
अपनी सुरक्षा  पर
 निश्चिन्त हुई मै!
कुछ बंजारों  को
घनघोर बारिश के बीच
त्रिपाल की छत  तानते देखा
अपनी अ-पारंपरिक सोच पर
फख्र हुआ मुझे!
अब भी न जाने
क्यूँ उदास हूँ मै?

10 अक्तूबर 2010

कड़ियाँ




वो ऐसी ही एक 
खामोश शाम थी,जब,
लौट रहे थे पक्षी,घोंसलों तक,
पशु,चारागाहों
से,
रौनक वापिस लौट रही थी 
पेड़ों, और पत्तों  की,
घर लौटते पक्षियों के
कलरव से
जल गईं थीं बत्तियां घरों की,
सूरज की रौशनी की परियां

बतियाती,खिलखिलाती
वापस घर लौटने लगीं थीं,
सभी  लौट रहे थे
 अपने अपने ठिकानों पर
नहीं थे तो 
सिर्फ तुम!
हाँ मगर,तुम्हारी जगह,
तुम्हारी  याद लौट आई थी
उस दिन भी बैठ गई थी
बगल में मेरे
देहरी पर ही,
और 
बतियाती  रही थी  देर तक
और फिर,हौले से
मेरा हाथ थाम,
 लिवा लाइ थी 
कमरे तक
थपकियाँ दे सुला दिया था
उसने मुझे,
और फिर 
 जुडती गईं इसमें
सिलसिलेवार कड़ियाँ 
बस वही
मै .....देहरी......और याद.....
शुक्रिया तुम्हे .........!

9 अक्तूबर 2010

वक़्त


जिंदगी से अब कोई 
शिकवा नहीं हैं 
सिवा इस दर्द  के कि 
वक़्त का बेवक्त आना
और गुज़र जाना 
किसी तूफान सा और 
कुछ पलों तक
यादों  की कश्ती का                      
फिर से  
डगमगाना 
ज़िन्दगी के
अनखुले प्रष्टों को 
जो मै देख पाती
बहुत मुमकिन था
कि तब,
ख्वाबों को कुछ
बेहतर सजाती 
अब तो सच और
ख्वाब में अंतर नहीं
कुछ भी रहा  है !
नींद में सच देखती और,
दिन में  सपने पालती हूँ
बस सुकून देने खुद को
सैंकड़ों करती जतन हूँ
वक़्त की हर चाल  वर्ना,
किंचित सही
पहचानती हूँ!

7 अक्तूबर 2010

रास्ते


मेरे बचपन की वो पगडंडी
.बारिश की सोंधी 
महक  से गुलज़ार,
खुशबूदार खुबसूरत
फूलों से लदी डालियों से
घिरी,और
झरे हुए पतों और फूलों पर
दौड़ता मेरा बिंदास
बचपन
आदि और अंत से 
बेखबर
और  एक दिन अचानक 
पगडण्डी,मेरी उंगली थामे
दुलारती  ,पुचकारती
मुझे छोड़ आई थी
उम्र के अगले पड़ाव तक 
यानि 
एक भीड़ भरी
सुनसान सड़क,
जहाँ सिर्फ शोर था
और अकेली  मैं
जैसे,माँ की उंगली से छूट,
कोई बच्चा  मेले में अचानक 
गुम हो जाये 
भरी भीड़ में
अकेला रह जाये!
भीड़ 
अकेलेपन की कसक को
मिटा नहीं सकती,
बल्कि और बैचेन कर देती है,
एकांत के एक अदद  पल के लिए!
उस भीड़ का हिस्सा न बनने के
एवज में 
अवसाद,कुंठा और 
निराशा से मित्रता भी हुई
पर ये मित्र
भीड़ से बेहतर थे शायद
तभी तो 
ये दौर मेरे जीवन का
सबसे अहम दौर था
जिसने मुझे
खुद अपने से बाहर आने को 
प्रेरित  किया और
यही वो हिस्सा था
मेरे जीवन का
जब मैं सबसे मज़बूत हुई
हालाकि,
बहुत दूर छुट गई है पगडण्डी
शायद अस्तित्वहीन हो गई हो
पर 
आज भी इंतजार है मुझे
उस सोंधी मिटटी की
खुशबू का
आज भी दौड़ना चाहता है मन
फूलों भरे  रास्तों पर

6 अक्तूबर 2010

ख़ामोशी ?

कितना तकलीफदेह होता है
अधूरे सपनों को
फिर सी पलकों में
भींच लेना?
या कि,खुबसूरत यादों को
ज़हन से बेदखल कर पाना
या ,
अविस्मरनीय पलों की
कसमसाहट से
खुद को समेट सकना
और कितना आसान होता है
किसी को सपने दिखा
खामोश हो जाना

5 अक्तूबर 2010

एक रात की सुबह

वो एक सर्द
कोहरे भरी रात थी,
तिस पर लगातार होती
हलकी बूंदा बांदी ने
वातावरण को और धूमिल
बना दिया था ,
इतना ,कि सामने के घर की
अमूमन देर तक
,रोशन रहने वाली
खिड़की जो ,
अक्सर मेरे रात काटने का
हौसला हो जाया करती थी,
कुहरे में गायब हो
उसी का एक हिस्सा बन
गई थी!
शाम के धुंधलके में
मेरे साथ सैर पर
जाने वाले,
खूंटी पर टंगे उदास कपडे
मुझे अपलक घूर रहे थे!
छत के नीचे वाले आले में,
रात को कलरव से
आबाद रहने वाला
चिड़िया का घोंसला
जो अपनी चाहचहातों से
मेरे मन और नींद में
खलल पैदा करता था,
उसका खालीपन
आज मुझे काटने को
आ रहा था!
सिरहाने रखी
उलटी किताब के उड़ते
पन्नों
का शोर मुझे
बैचेन कर रहा था!
ये एक बैचेन रात थी,
ज़िन्दगी की तरह!
आज भी बारिश आते ही
बत्ती रूठकर चली गई थी
हमेशा की तरह!
हवा से चीत्कार करते
खुले दरवाज़े और
खिड़कियाँ मेरे बचे खुचे
धैर्य की परीक्षा ले रहे थे
और मुझे उठने को
उकसा रहे थे,
पर जिद्दी मन को भला कोई
धमका सका है?
अचंभित करने वाला सपना था वो,
जिसने मुझे नींद का अहसास कराया था,
और जब आंख खुली तो
रोशन खिड़की का अस्तित्व
ख़त्म हो चुका था,
आले का घोंसला आबाद था,
धूप की चमक
पूरी कायनात को
रोशन कर चुकी थी,
खिड़की के बाहर गुलाब की
ओस भरी पत्तियां
अपनी खूबसूरती पर
इठलाती मुस्कुरा रही थीं!
मैं हैरान था ,
रात सपना थी
या जो अब देख रहा हूँ
वो सपना है?

3 अक्तूबर 2010

सुबह

धीमी पड़ी है जबसे
रौशनी सितारों की,
,तरस गई हैं चांदनी
करने को धरती का आलिंगन
भीमकाय इमारतों के
बेतरतीब फैले
सायों के पहरों में
ठिठकी आती है रोजाना
रात के घनघोर सन्नाटे में
और लौट जाती है उदास
सवेरा होते ही
क्यूंकि जाना ही होता है उसको
फिर वापस आने के लिए
यूँ इस तरह अट जाना धरती का
पेड़ों की जगह
मनुष्यों से,
हवा की जगह
भय से
यकीन की जगह
नाइंसाफी से,
सुकून की जगह
अँधेरे भय के प्रेत से
फ़ैल चुका हैं जो
चेहरों से असमान तक,
आस्था से आत्मा तक,
चोटों से विशवास तक,
सच से झूठ तक
सत्ता के लिए सत्ता को
विस्मृत कर देना
वास्तव में,
खारिज कर देना है खुद को
या शायद,
एक निकट है किसी अंत का
ये सच है
उतना ही जितना कि
किसी बुरे अंत को
किसी शुरुवात का माना जाना
एक शुभारम्भ
और आरंभ कोई या किसी का हो
होता है हमेशा ही
हरा भरा
प्रथ्वी की तरह
या किसी नवजात शिशु की
उनींदी मुस्कराहट सा
या फिर ताज़े कोमल फूलों की
खुबसूरत सुगंध सा
इंतजार है अब तो बस
उसी एक सुगन्धित
अहसास का
जीवन जीने के लिए
ये उम्मीद क्या काफी नहीं?

2 अक्तूबर 2010

चेहरे

कितने चेहरे हैं
आदमी के पास
वक़्त के इस दौर में?
शायद उसे खुद नहीं पता!
बस बदलता रहता है ,
चेहरे पे चेहरा
मुखौटों की शक्ल में!
संबंधों,वक़्त या ओहदे के हिसाब से
या फिर किसी निरीह की
संवेदनाओं व् विवशताओं को
भुनाते '
ताजिंदगी ये खेल
बदस्तूर जारी रहता है!
कितनी महारत हासिल कर ली है उसने
चेहरों की इस अदला बदली में,
कि असली चेहरा खो ही गया है उसका
हैरानी होती है कभी कभी
कि इस
बेवुजूद और अदना सी ज़िन्दगी
के लिए
कितने फितूर
इस क़दर ज़द्दोज़हद?
क्या लगता है उसे
की वुजूद है उसका तब तक!
जब तक नष्ट नहीं हो जाते
धरती पर से
हवा पानी
और चेहरे?