29 दिसंबर 2010

19 दिसंबर ''रसरंग''भास्कर में प्रकाशित कहानी - विरक्ति

अंधकार का धनधोर सन्नाटा ।वह अविचलित,अनिश्चित  सा चला जा रहा था,अगंतव्य की ओर ।.ब्लैक-आउट.....बाहर भी,और मस्तिष्क के भीतर भी।हवा की सांय.सांय ,जंगल के मुहाने पर और तीव्र और तीखी होने लगी थी । भव्य ड्राइंगरुम के सरसराते एयरकंडीशनरों में स्थित गर्वोन्मत इंसान के खोल को फैंक वह चुपचाप बगैर किसी पूर्वनियोजित कार्यक्रम के निकल पडा था,नितांत अपरिचित और अभूतपूर्व यात्रा की ओर ।सांसारिक झंझटों से पलायन की विकट इच्छा..इतनी घनीभूत हो चुकी थी कि देह की मौन चीख भी उसे विचलित करने में नाकाम हो रही थी ।पर नादान मनुष्य....देह से विद्रोह?...भला कब तक?सांसों की घौंकनी मुंह को आ चली थी ।पैर लडखडा रहे थे....अब वह जंगल के दायरे में दाखिल हो चुका था ।एक घने पेड़ का सहारा ले वह टिककर खडा हो गया ।पानी की मोटी बूंदों ने जंगली वातावरण  की भयावहता में इजाफा कर दिया था ।पशु पक्षी भी अपने अपने ठिकानों की ओर लौटने लगे थे,।ऐसे धटाटोप अंधेरे में एकाध भटकते जुगनू की कमजोर सी रोशनी उसे सहारा दे रही थी  ।उसने चारों ओर नजर धुमाई....सिवाय अंघकार के कुछ भी नहीं था! ।देह ठंड और भय से सिहरने लगी थी ।उसने आंखें बंद कर लीं ।दौनों हाथ छाती से लपेटे वह उकडूं हो तने से सटकर वहीं बैठ गया ,और धुटनों में मुह छिपा लिया ।अचानक एक कर्कश और डरावनी आवाज पूरे जंगल में गूंज उठी ।प्रतिक्रिया में कई घ्वनियां अंधरे में तैरने लगीं ।संभवतः वह किसी पक्षी का कातर स्वर था,जो साथियों से कुछ गुहार कर रहा था ।वह भय से और सिमट गया ।उसने गर्दन उठाकर उपर देखा,करीब पचास फर्लांग पर उसे रोशनी का एक टुकडा तैरता सा दिखाई पडा।...अप्रत्याशित.... ।मिचमिचाती आंखों को उसने और फैलाया....धूरकर देखा...वह रोशनी ही थी ।एक बार तो वह भय से कांप गया ।फिर घीरे घीरे उठा,'किसी' की उपस्थिति का सुखद अंदेशा .....तिनके का सहारा... ।।रोशनी से उपजी संभावनाओं को समेटे वह रोशनी की दिशा में बढ चला ।....लडखडाते कदम....धिसटती देह.... ।चुनौती और विश्वास की विखंडितता थी वह रोशनी,अथवा अस्तित्व को बनाए रखने की शर्त या जरुरत?...किंकर्तव्यविमूढ... ।पैर यंत्रवत उजास के उस नन्हें से टुकडे की ओर बढने लगे,जिसके अचानक और रहस्यमयी प्राकटय से अभी अभी वह सिहर गया था ।निकट जाकर उसके पैर उसी  शून्यता में ठिठक गए ।उजास का स्त्रोत वह लालटेन थी,जो एक पेड के मोटे तने पर झूल रही थी ।पेड के तने को धास फूस और कबेलू से ढंककर एक वारांडे की  शक्ल दे दी गई थी ।जिसके नीचे एक अलाव जल रहा था,और उस अलाव के निकट ही एक बूढा आदमी टूटी सी कुर्सी पर उकडूं बैठा था ।निर्विध्न,निर्विकार।वह बूढे की पीठ थी,अतः उसने बूढे का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के उद्देश्य से धीरे से पुकारा''महोदय मैं यात्री हूं ।धने अंधकार में रास्ता भटक गया हूं ।क्या आप मेरी मदद करेंगे?........गहन चुप्पी.....'श्रीमान,क्या आप मुझे सुन रहे हैं?मै.....''भीतर आ जाओ.....बूढे ने बगैर उसे देखे  कहा ।वह अंदर आ गया ।भीग गए हो ।भीतर जाकर देह पौंछ लो....ठंड खा जाओगे नहीं तो ।बूढे ने उसी अनुत्तेजित भाव से कहा ।बरांडे में से ही एक छोटा सा दरवाजा था,जो एक झोंपडी नुमा छोटे से कमरे में खुलता था ।कमरा छोटा मगर व्यवस्थित था । कोने में एक मेज ,जिस पर एक पत्थर के उपर एक अंगीठी रखी थी ।बाकी कमरे में कुछेक कपडों और रोजमर्रा के सामान के अतिरिक्त पुस्तकें ही पुस्तकें ।

जमीन पर बिछे बिस्तर पर एक किताब अधखुली और उल्टी रखी थी ।''एक बात सुनो बरखुरदार....अचानक बूढे की कमजोर सी आवाज से वह चौंककर पलटा....''उधर रस्सी पर मेरा गमछा पडा है,कपया उसका इस्तेमाल ना करें......क्या फर्क पडता है?पर...बस मुझे ये पसंद नहीं ।''बेफिक्र रहें.....नहीं करूँगा।‘’अनमना सा ज़वाब !तर बतर ना सही पर बदन में फुरफुरी पैदा करने लायक गीले कपडों को बदलने का कोई  इंतजाम तो था नहीं,अलबत्ता सिवाय अलाव के अन्य कोई उपाय नहीं था उसके पास ।वह चुपचाप आकर अलाव के पास बिछे एक पत्थर पर बैठ गया ।


''तो भागकर आये हो धर से''....बूढे ने उंगली में फंसी अधजली सिगरेट को जमीन पर धिसकर बुझाते हुए कहा ।
 ''जी नहीं....प्रश्न अप्रत्याशित था ।अतः वह थेाडा झिझकते हुए बोला ।''राह भटक गया था ,रात और खराब मौसम के कारण....!

 बूढा मुस्कुराया बोला '' निश्चिंत रहो तुम्हे मुझसे डरने या कुछ छिपाने की जरुरत नहीं ।मुझे तुमसे कुछ लेना देना नहीं ।...मैं भी संसार को छोडकर ही आया हूं यहां,सारे आडंबरों और विडंबनाओं का परित्याग करके ।फर्क सिर्फ इतना है,कि तुम संसार से भागकर आये हो यहां और मैं बाकायदा सब कुछ छोडकर आया  हूं मोह पाश के व्यर्थ बंधनों से मुक्त होकर । 

.....कुछ देर बूढा शून्य में ताकता रहा ,फिर बोला...''तुम्हे नींद आ रही होगी ।सो लो .!वो उस कमरे में जो जमीन पर बिछा है,उसे बिस्तर मान सकते हो!मै देर से सोता हूँ!’’और फिर विचारलीन हो गया ।वह बूढे कहे अनुसार कमरे में चला गया ।सचमुच कब नींद ने उसे आगोश में ले लिया ,पता ही नहीं चला ।सुबह सोकर उठा तो तरोताजा था बिलकुल!

 .''इतनी गहरी और सुकून भरी नींद.?.अदभुत..... ।उसे याद ही नहीं कि कब वह इतनी गाढी नींद सोया था,।अंधेरा हमे अपने स्व से साक्षात्कार कराता है, पर उजाला होते ही हमारा संपूर्ण व्यक्तिपरक अनुभव और महसूसियत उजाले के साथ पूरे वातावरण में बिखर जाती है ।हर रोशन वस्तु के साथ चिपक कर उससे ऐसे धुलमिल जाती है,मानो हम स्वयं के साथ कभी थे ही नहीं ।वह अनमना सा मिचमिचाती आंखेां के साथ बाहर बरामदे में आ गया ।वातावरण की रंगत ही बदल चुकी थी।आसमान बरसाती नमी समेट चुका था,और सूर्य भगवान ने अपनी महीन किरनों के जाल से समूची धरती को आच्छादित कर दिया था ।अलाव की गर्माहट अलबत्ता अभी बाकी थी ।''लो ये नीम की दतौन है,कर लो तब तक मैं चाय खौला कर लाता हूं ।''कहकर बूढा वापिस कमरे में चला गया!''वह चुपचाप अलाव के नजदीक पडे पत्थर पर बैठ गया  ।उसे सम्पूर्ण ब्रम्हांड ही बदला हुआ लग रहा था ।''लो मित्र चाय पियो''...बूढे के हाथ में चाय के दो प्याले थे ।रात की उदासी और किंचित क्षुब्धता अब विलीन हो चुकी थी,और अब वो तरोताजा लग रहा था ।सामने पडे बैंचनुमा पत्थर पर बैठते हुए बूढा बोला''तुम्हारे मन में संभवतः ये प्रश्न उठ रहा होगा,कि अकर्मण्यता के बावजूद जीविकोपार्जन का जुगाड किस प्रकार हो पाता है?...वो सामने देख रहे हो सौ.पचास धर उन्हीं के परोपकार का नतीजा है  । ...वो किंचित व्यंग में मुस्कुराया ।...ये संसार बडा विचित्र है बंधु.. ।धरवालों को लगता था,कि मेरे उपस्थित रहते जायदाद उन्हें प्राप्त नहीं हो पायेगी,अतः वे मेरे पलायन के इच्छुक थेो ।वहीं दूसरी ओर ये गांववाले मुझ जैसे असहाय बुजुर्गेा की सेवा सुश्रूषा कर अपना परलोक सुघारना चाहते हैं ।...दौंनों के अपने अपने स्वार्थ है।...अंतर मात्र इतना था,कि वो मेरी अनुपस्थिति से अपना लोक सुघारना चाहते थे,और ये लोग मेरी उपस्थिति से अपना परलोक ।....अच्छा बरखुरदार..अब तुम आराम करो मैं अभी आता हॅं...कुछ  भेोजन का भी इंतजाम करना है....बूढा जंगल की ओर चला गया  ।वह किंकर्तव्यविमूढ सा बैठा रहा ।आत्मग्लानि का अंगारा भीतर कहीं सुलग उठा । देह की उपस्थिति को नजरअंदाज कर मन कुलांचे मारता हुआ धर पहुंच गया... ।पत्नी नियति की स्म्रति उभरने लगी दश्य पटल पर ।क्या दोष था उस बेचारी का?क्या यही कि नियति भी आम स्त्रियों की भांति एक भरा पूरा धर सुख और समद्धि चाहती थी?अभी अभी तो पदोन्नति हुई थी उसकी?

......कितनी प्रसन्न थी नियति?...उसके सपनों का पति.? मन और उसके भीतर खैालते उबलते नितांत व्यर्थ और अनचाहे विचारों को कैसे देह से अलग करुं? वह उत्तेजित हो गया ।''अभी तो बेटे ने जवानी में कदम ही रखा था,कितना चाहता है वो मुझे....पर अब,जबकि मेरे पास उस भ्रष्टाचार से पूर्णतः लिप्त ऑफिस  में जहां पहली  शर्त थी अपने स्वाभिमान और वुजूद को दर किनार रखकर  बाकायदा बौस के उन चमचों को स्वयं को कुचलने का हक दिया जाये...जिनकी हैसियत निकट खडे होने देने तक की नहीं है,.बस  अपने आप को कीडा बना देना और कुचलते चले जाना बर्दाश्त नहीं हुआ मुझसे । जब भी अपनी  शर्तों पर जीने की जिद मन ने की,कोई ना कोई विवशता आंकर दयनीय स्त्री की भांति सामने रस्ता रोककर प्रकट हो गई ,और हर बार उसे ही रास्ता बदल देना पडा! ।कार्यालय ने कहा''प्रेक्टीकल बनो,ईमानदारी और चापलूसी का आवरण ओढे धाध और बेईमान बनो तभी यहां सर्वाइव कर सकते हो तब विवेक ने कहा''नहीं ये गलत है.....अन्याय है...धोखा है,तब सर्व सुविधा जीवी उसके परिवार ने नसीहत दी''क्या बुराई है,थोडी बहुत बेईमानी और भ्रष्ट बनने में?तुम्हे क्या लगता है, तुम्हारे ईमानदार बनने से समाज बदल जाएगा?सब कुछ ढर्रे पर आ जाएगा?।तो तुम निरे मूरख और सिरफिरे ही हो ।''

प्रायश्चित से उसका बदन सिहरने और कांपने सा लगा ।अचानक उसे लगने लगा कि वह ठीक उसी तरह भावशून्य और देहवश में होता जा रहा है जैसे धर से भागने का निर्णय लेते वक्त हुआ था ।अब मस्तिष्क की कमान शरीर ने संभाल ली थी....वह उठा..नितांत चेतना शून्य सा. घर की और जाने के लिए!

कुछ दूर ही चला था,कि सामने से बूढा हाथ में कुछ सूखी हुई लकडियों का गटठर लिये आता दिखाई दिया ।उसने बगैर किसी कौतुहूल के युवक की ओर देखा' निर्भाव बोला ;;'मोह पाश का अंघा मनुष्य जीवन पर्यन्त अपने क्रत्यों और उसूलों के बीच झूलता सही और गलत का निर्णय ही नहीं ले पाता ।खैर...तुम भी तो उसी दुनियां के हिस्से ही  ।पर अनुरोघ ही मान लो इसे मेरा कि जंगल से निकलते तुम्हें रात हो जायेगी ।बस अडडा भी दूर है वहां से,अतः रात्रि विश्राम कर के सुबह चले जाना ।''जी नहीं महोदय....अपराध बोध से मैं दबा जा रहा हू ।अतिशीध्र वापस धर पहुचना चाहता हू।''और वह चल पडा ।ठीक है ।अभी तपन बाकी है...और प्रारब्ध भी । बूढा बुदबुदाया....पीछे मुडते हुए बोला...अलविदा मित्र ।और ठौर की ओर चल दिया ।

 मौसम लुभावना था ।चांदनी प्रक्रति के साथ किलोल कर रही थी!कुछ क्षण बूढा प्रक्रति के उस अनुपम सौंदर्य को अपलक निहारता रहा,।''आले में रखी बीडी को बंडल में से निकाला और सुलगाकर उंगली में फंसा लिया ।तन भी किस कदर दोगला होता है..''हदद है कमीनेपन की.....जिन मनुष्यों से भागकर यहां आया था,अब उन्हीं के ना होने का अहसास और कमी आज क्यूँ  खल रही है?युवक का चेहरा न चाहकर भी दिपदिपाने  लगा ।वह विचलित हो उठा!पत्नी सत्यवती का मुरझाया चेहरा बूढ़े कि आँखों में कौंधने लगा!।कितनी रोई थी जब उसने ग्रहत्यागने का निर्णय था ?पत्नी के  दुःख का जिम्मेदार और कोई नहीं वो स्वयं है ! क्या कसूर था उस बेचारी का?..क्या हालत की होगी  संबंधियों की  शक्ल में उन आतिताइयों ने?.....भावावेश में उसकी देह पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी बेऔलाद,बेसहारा वो औरत जिसे उसके परिवार ने उसे सौंपा था ।...क्या और किसने उसे अधिकार दिया इस अन्याय का?.एक कंपकंपाहट सी होने लगी देह में!..

.....रात गहरा गई थी.....आसमान साफ और निर्मल था ।...युवक ,लौट रहा था,निश्चिन्तता  और संकल्प के साथ वापस जंगल की और  ।झोंपडी के बरामदे में खडा हो वह बोला...''लो बरखुरदार मैं आ गया...आपके जाने के बाद मुझे अहसास हुआ कि वाकई में मैं मोहजाल में फंस गया था ।...सचमुच धना अंधकार है ।..दोबारा  फिर उसी जंजाल में जाकर मैं सचमुच बहुत नादानी कर रहा था ।अब मै वापस आ गया हूं  ।इस स्वार्गिक आनंद का अवसर देने और आँखें  खोलने के लिये धन्यवाद... ।काफी देर तक भीतर से कोई आहट न पाकर युवक कमरे में गया ।कमरा खाली और अव्यवस्थित था ।वहां कोई नहीं था ।

बूढा जा चुका था । 

23 दिसंबर 2010

वंशवृक्ष


पिता
लिखा करते थे, अक्सर
न जाने क्या?
झुके–झुके ,
झुकने से पहले भी
लिखा करते थे बकायदा
मेज़ –कुर्सी पर रौब से तनकर !
आँखों में गर्व का समंदर लहराता था उनके
लिखते वक़्त!, दमकती पेशानी ...!
पर उम्र और उपियोगिता के हिसाब से
लिखने के ठिकाने और साधन सिकुड़ते रहे
देह के सिकुड़ने के एवज में !
और फिर....
फेंके जाने की मंशा लिए ,या इसी तरह की
तमाम अनुपियोगी वस्तुओं की भीड़ के बीच
उस सीलन भरी धुंधली सी कोठरी में
खुद को समेट वो 
चले आये अपने एकमात्र रहनुमा 
उस टूटे बक्से समेत 
जिस पर लगी जंग का इतिहास
करीब-करीब उनकी झुर्रियों की उम्र का
रहा होगा ...
बक्से की दरारें भी कांपती
लिखते हाथ के साथ साथ !
भोजन, द्रष्टि, उर्जा, श्रवण सब ऊबने लगे 
सिवाय लिखने के !
झुकी पीठ किये बैठे रहते वो उलाहनों व्
कटु वचनों से! वही पीठ
जिस से चढ़कर उनके वंशज ,कंधे पे बैठ
उनसे ऊँचे होने की होड किया करते थे
और पिता , हमेशा ही हारते रहे  
उन्हें जिताने को ! !
खींचते रहे वो शाखाएं वंश वृक्ष की
वटवृक्ष हो जाने तक ..
हर ज़न्मने  वाला पुरुष अपनी शाख लेकर उगता
जाते जाते लिखते गए
‘’वंश वृक्ष को आगे बढ़ाने की बात !
वंश वृक्ष के उन पीले,उदास 
सिकुड़े पन्नों को बटोर तो लाइ हूँ
गेर-ज़रूरी सामान की पोटली में से
रख भी दिए हैं संभालकर
पिता के चित्र के निकट ,
बस यही पूछना चाहती हूँ पिता से की  
अनब्याही बेटी की शाख कहाँ होती है ?





16 दिसंबर 2010

व्यतीत

एक बादल,शब्दों का
रास्ता भटक ,
घिर आया था  
अवछन्न आसमा पर ,
भीगीं संवेदनाएं ,
सराबोर होने तक
डूबी आकंठ, निर्दोषिता,
उग आये कुछ अर्थ
बेनाम रिश्तों के
शिराओं में
चमकता/बहता इन्द्रधनुष
समां सके जो तेरी आँखों में
बस इतना ही था आसमा मेरा !
मिटाना चाहती हूँ
छद्म के
उस इतिहास को मै ,
समय की पीठ पीछे
जो दुबका सा खड़ा है!


11 दिसंबर 2010

बे -ख्वाब

    


अब ये ज़रूरी नहीं
 कतई ,कि
स्वप्न आने के लिए
नींद  का होना
हो ज़रूरी!
नितांत जागते हुए भी
देखती हूँ सपने ,
जैसे...
चांदनी से झिलमिलाती
खूबसूरत रात में
लंबी सुनसान सड़क पर
टहलने के
बेख़ौफ़...अकेले !
जैसे.....
अलस्सुबह ,अँधेरी  धुआती
कच्ची झोंपड़ी से
शोकगीत की  जगह
प्यार के स्पन्दन के!
जैसे.....
अँधेरी सीलन भरी
झोपडी में
बकायदा एक हिस्सा
रौशनी और धुप के
जैसे ....
खेत खलिहानों की
बेफिक्र और
आजाद हंसी  के
जैसे.....
अन्नदाता के नौनिहालों की ,
भरपेट मुस्कराहट के !
जैसे......
घर से निकलते हुए
वापिस लौट आने के
पुख्ता यकीन के !
पर हमेशा ही
होता है यूँ कि
सपनों में घुलने
लगता है
एक दमघोंट अँधेरा
चौंधियाने लगती हैं
आँखें
घिरने लगते हैं
सपने
 और फिर
गहरी नींद
सो जाती हूँ,मै
बेख्वाब ....!

10 दिसंबर 2010

विवशता

सपनों का वो अंतिम छोर
जहाँ खत्म होती हैं संभावनाएं
शुरू होता है वहीँ से
प्रकृति का मौन सत्य!
न बहस,न दलीलें,न विवाद
न अच्छा कहने की मोहलत
ना बुरा मानने  का रोष
न इच्छाओं-सा
कुछ सार्थक
न जीवन-सा कुछ ,
निरर्थक!
न वांछित
न अवांछित!
बस होना एक
होने की तरह जैसे
सूर्य का होना
उगकर
अस्त होकर !
जैसे
एक सधे नियम सा
रात के बाद दिन
और रात का पुनः आ जाना !
वनस्पति,हवा,रौशनी ,बादल
ज़न्म-म्रत्यु
एक अटल सत्य की तरह!
अवश विवशता
''होने ''में तिरोहन की
और फिर इस ''होने
 के बीच
थमते जाना शोर
एक इतिहास का !

5 दिसंबर 2010

उलझन


जब भी देती हूँ बेटे को
सच बोलने की नसीहत
अपराधबोध से झूठ के 
घिर जाती हूँ मै!
वो पूछता है मुझसे
सच बोलना क्या होता है?
क्या वो जो
सत्यवादी हरिश्चंद्र  या  
गांधी ने बोला था?
मै कहती हूँ नहीं
अब सत्य  भी लिखा कर लाता है 
उम्र अपनी ,
अपने कंधे पे टांग ,
आदमी की तरह,
आदमी के साथ , ताकि 
भीष्म होने की वेदना 
से बच  सके!
और शायद 
ज़रुरत का लिहाज़ कर 
अब अर्थ भी बदल लिए हैं 
सच ने अपने ...बदलते फैशन के साथ!
बेटा अपनी
 मासूम  
 आँखों के सपने 
टांग  देता है मेरी 
खोखली आस्था की खूंटी   पर 
निरुत्तर हो जाती हूँ सहमकर 
शब्द अटक जाते हैं हलक में
पर कहना चाहती हूँ उससे 
की सच का सच है ,,
किसी फूल का  हंसते हुए खिलना
मुरझाने तक ...
कि....
किसी प्यार का 
चमकदार होना 
ओस कि बूँद की तरह .....
पिघल जाने तक...
कि .
यकीन  को जीने के 
अनंत  से निहारना
क़यामत     तक....
कि
पानी को बादल  की तरह घिरना  और
आंसू को  सपने की तरह खिलना
झिलमिलाने तक.....
और तब देखती हूँ उसे मै
देखते हुए ,
एक उदास सी चुप्पी 
के साथ किसी जंगल में
खड़ा 
पाती हूँ उसे.... 
प्रतीक्षारत...!.
.....

29 नवंबर 2010

दादी


एक अरसे बाद,
देखी दादी,
गाँव में,
गाँव की ही तरह सिकुड़ी!
खँडहर दीवारें,एक दुसरे को
हौसला देती
जीने का!
ज़र्ज़र उघडी ईंटें ,
इतिहास सिसकता है
जिनमें ,सुगन्धित पकवान और
गूंजती किलकारियों का!
ढोलक की थाप और शगुन गीत
अब भी कहीं किसी कोने में
दुबके ,दादी की साँसों का
लिहाज़ करते हैं शायद,!,
झूलती खटिया की
गोद में सिमटी
गठरी दादी
आंगन के उसी नीम की छांव लेटीं जहाँ कभी
खनकती चूड़ियों और महकते गीतों को
गुनगुनाते झूला झुलाया करती थीं,
नौनिहालों को!
सपने बुनतीं आसमान के
आस्मां तक !
ठीक उसी जगह खुले आसमान तले ,
खटिया पर लेटे मेरे बचपन
ने भी सुनी थीं,
दादी के मुहं से
चंदा मामा की लोरी और
सप्तरिशी की कहानी!
एन उसी जगह आज,
खडी है एक
बहुमंजिला ईमारत
दादी और सप्तरिशी के बीच
सीना ताने!
खोजती हैं दादी की
मिचमिचाती ऑंखें
आज भी,
रात के अंधरे में
रौशनी से नहाई
 ईमारत के इर्द गिर्द
वो  सपने का आंगन 
जिसमे बठकर
चरखा काता करती थी वो 




26 नवंबर 2010

तुम चंद लोग.....

क्या कहा तुमने?कि
धरती माँ है हम सबकी?
जना  है जिसने हमें  भी
घोडा, कुत्ता, बिल्ली, कीट पतंगों
वनस्पतियों की  तरह?
तुमने लगा दिया माथे पे तिलक उसके
और क़र्ज़ मुक्त हुए तुम
बंधन मुक्त होने तक?
और इसी के एवज में  ,
लाल छींटों से रंग दी है तुमने 
न जाने कितनी ही बार,
आत्मा तक उसकी,पर 
सोख लिया देह ने 
वो रोष  भी
जब चाहा तुमने छितरा दिए 
उसी के हिस्से 
उसी के जिस्म पे!
तितर बितर कर,
पर देह का टेका  लिए वो
कराहती 
हर हिस्से को समेटे 
अपने धैर्य में 
फिर खड़ी हो गई कांपती
थरथराती लौ-सी!
 नहीं जानते तुम शायद कि,
इसी माँ के सीने में
उफनते  रहे   हैं कितने तूफ़ान
सुलगी  हैं कितनी ही  नदियाँ
उठी  हैं लपटें भीतर ही भीतर!
पर हर बार ही
न जाने क्यूँ,गायब होते रहे  ये 
भूचाल.ये दावानल,ये अग्नि
और
दिल के बोझ, पहाड़ की शक्ल ले
हिस्सा बनते रहे बुतों की 
 अंतहीन कतार के !
अपराधबोध की  ,
इस मौन स्वीकृति के  साथ कि,
''लो तैयार हैं हम
इतिहास में एक पन्ना 
और जोड़ने को!''
काश कि,
बुतों का सिलसिला ख़त्म होता
यहीं पर......!
काश कि 
ये ज्वालामुखी
यूँ ठंडा  हो
तब्दील न हुआ होता  
चट्टानों में........!
सुलगता....बहता...दहकता रहता
सदा से सदा तक
 तो
चुकाना न पड़ता मोल पीड़ियों को
उनके पत्थर हो जाने का !

18 नवंबर 2010

पहचान



सब कुछ दर्ज है,मेरी पहचान में

नाम,उम्र,चित्र,शहर,शिक्षा ,पता
बस लापता हूँ,तो कहीं मै उसमे !
जब कभी रु ब रु होते हैं
मै और मेरी पहचान तो
पूछती है वो मुझसे,
की ''कौन हो तुम ?''
मै कहती हूँ ध्रुव  तारा ,
टांग दिया गया जिसे
सुदूर आसमान पर
एक व्यतीत  बना ,या फिर
समुद्र हूँ मै, जिसकी
विशालता में समाहित है
न जाने कितनी  कलपती नदियाँ
पुछा कभी उससे की कितना खुश है वो
खुद में खारेपन  की
महानता को समेटे 
आंसू की तरह?
या फिर आइना हूँ मैं ,
 यथार्थवादिता से श्रापित ,
 नकारता रहा जो मेरे
उस प्रतिबिम्ब को जिसे
देखना चाहती थी मै!
या वो स्त्री जिसे
प्रतिष्ठा की कीमत के तहत
छोड़ दिया गया घने वन में
नाम,पता पत्नी,देवी,
सब तो थे उसके पास
बस वो नहीं थी
न तब....
न अब....!

15 नवंबर 2010

प्रायश्चित


बचपन में माँ   ने 
कुछ पौधे रौंप दिए थे 
मन की बगिया में मेरी!
सींचा था खाद पानी से उन्हें!
संतोष''और सहन शीलता'' की जड़ को
खूब गहरे दबा   दिया था !और  ,
 इसी बागवानी के रख रखाव के जतन में  ,
गीता प्रेस गोरखपुर और अमर चित्रकथा सी 
तमाम ज्ञानवर्धक पुस्तकों  से लेकर 
 मसालों  की ताज़ा गंध से गंधाते
माँ  के पल्लू से लिपट के 
शिक्षाप्रद कहानियां सुनने तक बचपन ,यानि 
उम्र का एक हिस्सा सौंप दिया गया  था, मेरी  !
माँ  चाहती थीं ,उन  तमाम 
प्राप्य और परंपरागत संसकारों  को
मुझमे उंडेल देना जो उनके पुरखे
सौंप गए थे उन्हें!
ताकि
बरी  हो सकें वो
एक ''बेटी''पैदा करने के 
अपराध बोध से !
और खूब आग्रह के साथ कहा था उनने 
की सूखने मत देना इन्हें ! 
जड़ को संभालोगी तो
बाकी चीजें  खुद ब खुद संभल जायेंगी!
माँ, बहुत प्रायश्चित के साथ कह रही हूँ की 
तुम्हारी इस धरोहर को मैं सहेज न  सकी   ''
क्यूंकि 
न जाने कब  और कैसे  तुम्हारे बोए पौधों पर,
अतृप्त इच्छाओं और विवशताओं के कीटों ने 
 कर दिया आक्रमण ,ले लिया अपने चपेट में!
की संक्रमित हो दूषित हो गई 
जड़ें तक इसकी 
और अब तो वो पौधे 
तब्दील हो चुके हैं एक 
घने जंगल में  ,इतना घना की 
रोशनी की किरण तक न पहुँच सके!
सुना है की आस्मां की चादर में कहीं हो गया है
एक छेद ,जिसमे से गर्मी  का ताप
सीधे  पहुच रहा है जंगलों तक 
रोज़ देखती हूँ सपने में
आग का भीषण तांडव
उस बगिया में
जो बोई  थी कभी तुमने माँ!





10 नवंबर 2010

कुली

पसीने से तरबतर मै,
थककर चूर खड़ी थी उस
रेलवे स्टेशन पर जहाँ 
भीड़ के कई वर्ग ,हिस्सों में खड़े थे
एकाकी परिवारों के साथ ,या
कोई अकेला हाथ बांधे,,चेहरे की  ऊब को 
पैरों की बेताली थाप से बहलाता!
चेहरों पर बासीपन और बैचेनी के 
मिले जुले भाव ....!लोग
जिनकी ''गाडी'ने अपनी प्रतीक्षा 
ख़त्म कर पहुँचने की घोषणा कर दी थी,
उसके यात्री बौराए से इधर उधर भाग रहे थे!
यात्रियों के चेहरों पर जल्दी थी
 स्टेशन से चले जाने की !
 ,स्टेशन के उन स्थाई वाशिंदों से दूर,
जो अपने टूटे फूटे अंग लेकर दयनीय मुद्रा में 
अलग अलग चेहरों के साथ रिरियाते हुए किसी
अनचाही घटना की तरह प्रकट हो जाते थे!
 यात्रियों के साथ टाईट  जींस और टॉप में
कसी नवयौवनाएं ,अपनी सुन्दर तीखी नासिका को
हेन्की'' से ढापे,एक वर्ग विशेष की,,
एक वर्ग विशेष के लिए
प्रतिक्रिया दर्शाती मुह फेरकर खडी हो जाती थी ,लिहाज़ा
उनके शुभचिंतक ''कुत्तों की तरह''भाषा से ठेलकर
 उन ''घ्रणित''जीवों को 
भगा , धमका रहे थे !
,तभी एक उम्रदराज़ व्यक्ति जिसकी 
खून के रंग की लाल पोशाक देखकर मैंने
बुलाया...वो बिना किसी भाव के आकर खड़ा हो गया
मैंने कहा ''पुल  पार करके गाडी पकडनी है 
चलोगे ?,वो बोला 
सामान ज्यादा है बहनजी''नग के हिसाब से होगा!
मैंने बिना किसी जिरह के कहा ''सामान उठाओ'!'
वो यंत्रवत ,सामान अपने शरीर पर
 बाकायदा जमाकर मेरे
आगे आगे चलने लगा ,मै पीछे पीछे!
सीडियों पर भीड़ जैसे पेड़ पर
 चढ़ते कीड़ों के समूह!
सीडियां अट  गई थीं यात्रियों से
हांफती हुई कुली की तरह!
आखिरकार सीडियां ख़त्म हुईं
सदियों की तरह !
राहत की सांस ली सीडियों और
''उसने!''
 'वो'हांफता सा खड़ा हो गया,
मैं भी!
मैंने कहा -
गाडी में वक़्त है अभी ,सुस्ता लो!वो बोला 
''बहनजी'अभी वो सामने वाली
 गाडी भी तो निकालनी है?
सुस्ताने का वक़्त कहाँ?
उसने कांपती सी आवाज़ में कहा !
मै कुछ कहती इससे पहले ही वो 
शरीर और वक़्त के  ताल मेल की  
असफल चेष्टा करता ,पसीने से गंधाती देह के साथ 
अपने शरीर को घसीटता सा चल पड़ा!
मुझे बाकायदा कोफ़्त हो रही थी 
अपने से उम्रदराज़ व्यक्ति से 
इस तरह  ''बोझे'' को उठवाने की!वैसे,
उम्र का हिसाब किताब ,एक आभिजात्य शगल 
 होता होगा इस वर्ग के लिए!इसीलिये शायद
इसी से संदर्भित 
एन वक़्त मुझे याद आया एक तथाकथित ''रिएलिटी शो''
(उसमे कितनी वास्तविकता होती है ये खोज का विषय है)
जिसके एक गोरे चिट्टे चमकते चहरे वाले  अधेड़ जज की
,उस शो के
एंकर और कलाकारों की (नितांत फूहड़ )प्रस्तुति के दौरान
बार बार पीठ ठोकी जाती है ,उम्र को छिपा लेने की कोशिशों की !)
अंततः देह की रफ़्तार ने चाह की गति  की उंगली छोड़ दी
और वो मेरे पीछे पीछे चलने लगा !
एक पीढी  की तरह,
अपने आदर्शों और सन्सकारों को ढोती
 एक युग की तरह
सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते!
लोगों के बोझ को जीवन के अभिशाप की तरह ढोते 
उम्र की गिनती ही भूल जाता होगा ये वर्ग
,उम्र का मतलब 
इनके लिए पैदा होना,सामान ढोना,और
मर  जाना ही तो होता होगा?

6 नवंबर 2010

पीड़ा

                                     

अव्यक्त वेदनाओं के प्रस्फुटन सा  स्वर, सारंगी का!
न जाने क्यूँ ,जब भी सुनती हूँ ',बैचेन होती हूँ !
लगता है ज्यूँ ,  इतिहास की  अंधेरी सुरंग में ,
चली जा रही हूँ मै ,जहाँ रोशनी में कैद  हैं ,अँधेरे अब भी!,
 कसे तारों पे घूमता  कमज़ोर ''गज'जैसे,
जीवन  के सच पर,निस्सारता के दोहराव!
 तारों पर घुमती कमज़ोर उँगलियों के करतब 
,ज्यूँ , सत्य की ढलान से  फिसलता वक़्त  !..
उमराव जान '''से  ''बेगम अख्तर'' तक,
और ''रोशन गलियों के अंधेरों ''..से लेकर,
''शोक घटनाओं ''के पार्श्व संगीत तक का सफ़र 
वक़्त के कितने उतार  चढाव देखे तुमने ,
फिर,वो दौर भी जो ,
आधुनिकता के नाम पर ''परंपरा''के 
खारिज होते जाने का था,यानी की,
निरंतर  दोहराव, अवहेलनाओं का !
शेष बची साँसें गिनता अस्तित्व .....!
वादा किया था जिनने मंजिल तक साथ निभाने का
क्या हुए,कहाँ गए वो तेरे साथी ?
जो बगैर तेरे निष्प्राण कहा करते थे?
शायद सबकी मंजिलें थीं अलग ,
सो रस्ते खुद ब खुद लिवा गए उनको !,,तुम  नहीं गए!
सपने जो बुने  थे  तुमने संस्कृति के भविष्य के,
की आज खुद इतिहास बन गए हो!
साक्षी  बन देखता रहा वक़्त ये हिदायत देता
चमकती चीज़ यहाँ द्रश्य कही जाती है 
की अंधेरों का कोई अस्तित्व  नहीं होता!


-- 






4 नवंबर 2010

स्त्री

                                                                                              

 वो ,मजदूर स्त्री ,गर्भवती ,पेड़ के नीचे पैर फैलाकर
पसीना पोंछती बैठी है,अधलेटी सी ...
,पेड़ के तने से लटके झूले पर ,
 कुनमुनाता बच्चा,भूखा सा, एक हाथसे 
झोके देती स्त्री अनमनी ..सी,और 
दुसरे हाथ से पेट को सहलाती ,दुलारती  ! .
''ठेकेदार''की कनखियाँ   ,जिसमें शामिल हैं
तरेरना आँखों का ,और महसूसना स्त्री का
किसी बहुत बोझिल पत्थर का अपने सीने पर !
साँसों की धौंकनी.व् भीतर के स्पंदन को 
सम पर  लाने की  मोहलत'' से जूझती ज़िन्दगी ,
थक चुकी है वो पत्थरों के साथ खुद के सपनों को तोड़ते ,बिखराते, !
वो नहीं जानती, की प्रथ्वी कैसे और क्यूँ घुमती है 
उसे ये भी नहीं पता की सूरज और प्रथ्वी  के ''होने' के,
 क्या मायने  होते  है? 
महसूसता  है तो बस  
भूख के अलावा , पेट के भीतर कुछ प्रथ्वी सा घूमता 
सैकड़ों विवशताओं   की धुरी पर ! 
उगना -अस्त होना  सूरज का !
,क्या फर्क पड़ता है?
उगे-उगे न उगे न सही...उसके लिए तो नियमित 
तमाम नई उगती ज़द्दोज़हद के साथ मजदूर साथियों  के साथ
''गाड़ी में  ''भरकर काम पर जाना , उगना होता है सूरज का ,
और निढाल होकर सबके साथ भरकर वापस लौटना 
सूरज का अस्त हो जाना!
उसकी कुल जमा  ज़िन्दगी के दर्शन की तरह !
खुदा का  लाख शुक्र की स्त्री  में उसने
केवल उत्तर  भरे हैं.प्रश्न नहीं,
तभी तो प्रथ्वी अस्तित्वमय है अब तक 
अपनी तयशुदा ,धुरी पर?
,

1 नवंबर 2010

एकालाप


मेरे बचपन के ठीक सामने वाले
सपनों के  आँगन में 
एक कोमल सा पेड़ उगा था कभी 
जिसे एक बाल जिज्ञासु 
प्रतिबध्दता की तरह
पाला पोसा था मैंने!
और वो मेरे  
सपनों के साथ बढ़ता  गया  
फिर अचानक एक दिन 
उभरने  लगे  उसके 
कोमल तने  पर 
अनायास 
कुछ कठोरता के चिन्ह 
और फिर बनता गया वो
एक कंटीला झाड़ ,झरबेरी का
जिसने  मौसम का लिहाज़ छोड़ ,
 अपनी कटिबद्धता का दंभ
और निर्वहन करते हुए
काँटों के बीच बीच भी टांक दिए  थे
सुर्ख  लाल लाल छोटे  छोटे फल.
आशाओं के 
कि कभी उस पर भी दृष्टि पड़ेगी किसी 
तितली,चिड़िया या किसी और पक्षी की 
इतराएगा वो भी गर्वित हो ,
अपनी प्रासंगिकता पर,
भले ही पक्षी ,चोच से अपनी
उसकी कृति,उसके हौसले को 
ध्वस्त कर बिखरा दें उसे
तार तार कर ज़मीन पर 
निर्दयता  से !,
अपने ''होने ''की 
सार्थकता की ये कीमत
चुकाना भी मंज़ूर था उसे 
पर नहीं हुआ ऐसा,
दरअसल ऐसा हो नहीं सका ,
क्यूंकि 
 आधुनिक 
सभ्यता के उसूलों का निर्वहन करते 
उसे नहीं आता था अपना चेहरा
मुखौटे से छिपा पाने  का गुर,
यानी कि  
खुद की तासीर को बेच पाने का हुनर 
,अलबत्ता
सींचा नहीं गया उसे गुलाब के फूलों और 
सब्जियों की तरह, प्यार से 
या दुधारू पशुओं की तरह दुलराया ,
और तो और उसकी प्रासंगिक हीनता के बोध को 
उसी के खुरदुरे अस्तित्व के साथ 
  खूंटी पर टांग दिया जाता रहा
उपदेशों की,
 बार बार , यीशु के 
सलीब की तरह