26 जून 2010

स्वीकारोक्ती

लघुकथा
स्वीकारोक्ती
एक शहर के गधों ने अपने धोबी एवं बोझा ढुलवाने वाले मालिकों के खिलाफ आपातकालीन बैठक शहर के बाहर वाले मैदान पर बुलाई!संचालन एक बुजुर्ग गधे को सौंपा गया!सबसे पहले गधा यूनियन के सेक्रेटरी ने अपनी बात शुरू की ''आदरणीय गधाधिराज महोदय,सर्वप्रथम मैं आप का ध्यान हम गधों की मार्मिक स्थिति की और केन्द्रित करने की अनुमति चाहता हूँ!महोदय,ये मनुष्य जाति बहुत ही अहसान्फरोश कौम है!हमें निरा मूर्ख समझती है.दिन भर बोझा ढोते हैं तब कहीं भोजन मिलता है ऊपर से हम पर दुनियां भर के लतीफे बनाये जाते हैं.ये दम्भी मनुष्य किसी मूर्ख को मूर्ख न कहकर हमारे नाम से ही संबोधित करता है!हम पर तमाम व्यंग लिखे जाते हैं कॉमेडी नाटक लिखे और खेले जाते हैं.आखिर कब तक हम अपमान का घूंट यूँ ही पीते रहेंगे?बुजुर्गवार का खून खौल गया बोले ""हमें इस मनुष्य नामक प्राणी को सबक सिखाना ही पड़ेगा ....काफी विचार विमर्श के बाद तय हुआ कि शहर भर के गधे यहाँ से भाग कर (जिसे गधा समूह द्वारा पलायन का नाम दिया गया )पास के जंगल मे चले जायेंगे बाद की रणनीति वहीं पर तय की जायेगी!
जंगल मे पहुंचकर सभी बहुत थक गए थे थोडा रेस्ट किया !एक दूसरे को देखकर खूब हँसते रहे कुछ देर! एक बोला मस्त मज़ा आ गया यार !कैसा हमें मूर्ख कहते थे न सोचते थे कि हम उन से डरते हैं अब मज़ा आएगा!भोजन की समस्या पर विचार करने के बाद सलाह करके सब निकट के खेत मे घुस गए!खेत का मालिक सीधा सदा था निश्चिन्त होकर घर आराम करने गया हुआ था!सभीने खूब छककर हरी हरी घांस खाई! जैसे ही किसान आता दिखा सब भाग खड़े हुए!किसान बड़ा दुखी हुआ!अब तो किसान के लिए ये रोज़ की समस्या ही हो गयी!और गधों की टोली तंदुरुस्त !हारकर उसने अपना खेत बिल्डर को बेच दिया!दुसरे दिन भोजन के समय जब सारे गधे मस्ताते हुए खेत पर गए तो उन्होंने देखा कि वहां तो खेत है ही नहीं!कुछ मनुष्य खड़े हुए हैं और बुल्डोसर चलाया जा रहा है!सबके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी!आसपास भी कोई खेत नहीं था भूख के मारे जान अलग निकली जा रही थी!एक बोला''दिखा दिया न आदमी ने अपना कमीनापन? मै तो पहले ही मना कर रहा था पर तब तो ''यूनिटी''की कसमें भकोसी जा रही थीं!अब मरो भूखे ""वो रुंआसा हो गया बुजुर्गवार ने सांत्वना दी!सब झाड़ के पीछे छिपकर आदमियों की कार्यवाही देखने लगे !तभी उन्होंने जो देखा उस पर खुद ही विशवास नहीं हुआ उन्हें !कुछ पैदल और कुछ गाडी मै जुटे गधे ईंटें और बजरी लादकर चले आ रहे थे!एक बोला''अरे हम तो सब यहाँ आ गए थे ये कहाँ से आ गए?सामान उतारकर उन गधों के सामने हरी घास डाल दी गई जिसे देखकर सबके मुह मै लार आने लगी!एक दुसरे की तरफ देखकर बोले ""साले दगाबाज़ ....स्वाभिमान नाम की तो चीज़ ही नहीं है इनमे!''तभी उन्होंने सुना कार मै बैठे बिल्डर से मजदूर हाथ जोड़कर कह रहा था ''का करें साब पेट्रोल इतेक महंगा हो गया है कि मोटर ला नहीं पाए गधा भे जाने कहाँ चले गए इतेक ही बचे हैं ....वो पूरा वाकया बोल पाता इससे पहले ही सारे के सारे उग्रवादी गधे सर झुकाए एक दुसरे को ठेलते हुए मजदूर के सामने आकार खड़े हो गए !मानो कह रहे हों ''हमें माफ़ कर दीजिये आपसे कोई नहीं जीत सकता हम वही हैं आप जो समझते हैं

25 जून 2010

औलाद

छगन लाल उर्फ़ गन्नू गाँव के माध्यम दर्जे के किसान थे!तीन बच्चे बड़ा रमेश मझला महेश और चोटी बेटी लक्ष्मी !महेश और लक्ष्मी पढने मे बचपन से ही काफी तेज पर मंझला बेटा महेश मंद बुद्धि रहा!बड़े बेटे और लक्ष्मी ने जब आठवी कक्षा में राज्य भर मे टॉप किया तो गाँव भर का नाम ऊँचा हो गया!लड्डू बंटे! अखबार मे छगनलाल और पत्नी सोमा देवी की तस्वीर भी छपी!तीन चार दिनों तक घर मे आने जाने वालों का ताँता लगा रहा!गन्नू और सोमा देवी सातवें आसमान पर!फिर दोनों बच्चे सरकारी छात्रवृत्ति पर पढ ने शहर के नामी स्कूल मे दाखिल हो गए !गन्नू की इज्जत गाँव भर मे अचानक बढ़ गयी!महेश बहुत भोला और अनपढ़ रह गया था अतः उसे पिता के साथ खेती मे हाथ बंटाना पड़ता था!गाँव की ही एक गरीब घर की लड़की से उसका ब्याह कर दिया गया!! छुट्टियों मे बड़ा बेटा रमेश और बेटी लक्ष्मी होस्टल से घर आते तो उनका खूब सत्कार होता!माँ सोमादेवी होस्टल वापस जाते वक़्त दोनों के साथ घर के घी के लड्डू गुझिया आचार वगेरह बांध देती !
समय बीतता गया!बेटी डॉक्टर और बेटा इंजीनिअर बन गया!फिर से गाँव मे खुशियाँ मनाई गईं!बेटी जब डाक्टर बनकर पहली बार गाँव ई तो गाँव के लोगों और सरपंचजी ने गाँव मे अस्पताल खोलने की इच्छा जताई तब उसने कहा की वो शहर के ही एक डॉक्टर से शादी कर रही है वहीं रहेगी और चली गयी!बड़े बेटे को छगन ने साफ़ हिदायत दे दी थी की यदि तुमने भी अपनी पसंद की लडकी से ब्याह किया तो बिटिया की तरह तुम्हारे लिए भी इस घर के दरवज्जे सदा के लिए बंद हो जायेंगे और जब बड़े बेटे रमेश ने भी ने शहर मे अपने लिए लडकी पसंद करली और पिता को सूचित किया व् समझाने की कोशिश की तो उन्होंने कहा की आज से कभी मुह मती दिखाना हम डोकर डोकरी को !पिता छगनलाल ने साफ़ कर दिया की अब उनका बेटा सिर्फ महेश है वो उसी के साथ रहेंगे!दिन बीतते गए...छगनलाल के सपने ध्वस्त हो गए थे तनाव बर्दाश्त न कर सके और खटिया पकड़ ली!किसानी भी मद्दी होने लगी!महेश के भी दो बच्चे हो गए परिवार चलना मुश्किल हो गया!खटिया पर पड़े पड़े छगनलाल बेटे रमेश को खूब भला बुरा कहते और दुखी होते रहते !घर बाहर के लोग खूब समझाने की नाकाम कोशिश करते!माँ सोमा भी सूखके कांटा हो गई!तभी सरपंचजी ने पंचायत बुलाई और कहा की शहर के कुछ बिल्डर गाँव की जमीन खरीदना चाहते हैं जो लोग बेचना चाहें बेच दें!ज्यादातर लोगों ने मना कर दिया!पहले तो छगना ने भी न कर दी पर घर की हालत देखकर जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा बचाकर बाकी का बड़ा हिस्सा बेच दिया!सोमा खूब रोई बोली""ऐसे व्बाप दादन की जायदाद कोई बेचता है क्या""पर छगन ने एक ने सुनी!बहू लीला ने भी पूछ बैठी दद्दा अब एक कमरा मे कैसे रहेंगे सब लोग?सब तो बेच दियो""तो उदास होकर छगना ने कहा ''अरे पर ज़िंदा रहने के लिए भी तो पैसा चाहिए"एक छोटी मोटी दुकान डाल देंगे परचून की हम दोनों आदमी तो है ही कितने दिन के''बहु चुप हो गई
युद्ध स्तर पर काम शुरू हो गया.महीने भर मे फ्लैट तनने लगे!छगन अपने आँगन की झोलदार खटिया पे पड़ा पड़ा बिल्डिंग बनती देखता रहता...बिकुल उदास और खीझ से भरा!छह आठ महीने मे चार मंजिला ईमारत बनकर तैयार हो गई!वो उदघाटन का दिन था!बड़ी बड़ी करों की लम्बी कतारें लगी हुई थी!पुरी बिल्डिंग लाइटों और पन्नियों से सजाई गई थी!नियत समय पर एक बड़ी कार आकर रुकी बिल्डिंग के आगे !लोगों ने उन्हें फूलों का गुलदस्ता दिया!पति पत्नी को घेरके सब खड़े हो गए.!पंडित ने मंत्रोच्चार शुरू कर दिए!अचानक आगंतुक पति पत्नी छगन लाल के घर के सामने जाकर रुक गए!कुंडी खटखटाई...महेश बाहर निकला!जब तक वो कुछ पूछता आगंतुक घर के अन्दर चले गए पत्नी सहित!दुर्बल कायी छगनलाल घबराकर खटिया पर बैठ गए!घर लोगों से भरने लगा!आगंतुक के बॉडी गार्ड उनको बाहर ठेलने का असफल प्रयास करते रहे !आगंतुक ने काला चश्मा उतार कर गीली ऑंखें रुमाल से पोंछते कहा दद्दा उठो ...अपने घर चलो !

23 जून 2010

बेटियां

फूल की मुस्कान सी होती हैं बेटियां,
इक मकान को घर करती हैं बेटियां
घर के भले ही नासमझ भोली कहें उनको
पर पढो तो इक किताब होती हैं बेटियां
घर की हे वो रौनक नाजों से है पली
माता पिता की लाडली वो नन्ही सी कली
बढ़ती ही जो जाये है मौसम के संग में
पींगें बढ़ाती हुई vo नटखट सी बेटियां
ऊँचे पदों पे वो आसीन हैं
यादों से घर की उदासीन हैं
आती जो घर पे वो दो चार दिन
कर जातीं तरोताजा माहौल बेटियां
जाना है उनको इक दिन इस घर को छोड़कर
अपनी जड़ें समेटकर और मन को मारकर
यादों को मायके की इक पोटली बना
घर के किसी कोने मैं दबा जाती हैं बेटियां
बेटा तो है चिराग करने को रोशनी
दस्तूर को निभाती जाती हैं बेटियां

माँ

अवतरण के बाद अपनी नन्ही आँखें खोल
जब देखता है माँ को पहली बार और
अपने छोटे छोटे सुकोमल हाथ पैरों से
ठेलता है माँ के पेट को
रोता है उससे चिपक तो
उस वक़्त दुनियां की सबसे किस्मत वाली
लगता है उसे, कि वो है
तमाम सुख सुविधाओं के बीच पाले या फिर
गुदड़ी की शोभा हो,वो तो
समझता है माँ को ही अपना
भगवान्,भूखा तो माँ प्यासा तो माँ
खुश तो माँ
दरद तो भी वही
माँ कहे आंटी को गाना सुनाओ
तो वो शुरू
आल इस वेळ पर नाचो
तो जैसे भर जाती है उसमे चाभी
गर्व से सातवें आसमान पर होती वो उसे
उंगली पकड़ ले जाती है
स्कूल जब डिब्बा बोतल पेन पेन्सिल के
साथ मे अपने तमाम आशीर्वाद और शुभकामनायें भी
सहेजकर रख देती है बस्ते मे
माथे के सिरे पर बैठा देती है
एक काजल के टीके का पहरेदार
बुरी नज़र को डपटने के लिए
स्कूल से छोड़कर घर आते वक़्त
सुखद भविष्य की निश्चिन्तता के साथ
सपनों की भीड़ से घिरी अकेली
माथे का पसीना पोंछती
मुस्कुराती'लौटती है घर जहाँ प्रतीक्षा कर रही होती
तमाम जिम्मेदारियां घर भर की
कमर मे ठुन्सके पल्लू जुट जाती
रोज़ की किल किल मे
देर से नाश्ता देने की पति की फटकार,हो कि
सास के सुबह की तफरी के बहाने पर
उलाहनों पगे भाषण सब मंजूर है उसे
लाडले की कीमत पर
जवान होते जाते सपने उसके भी
बेटे के साथ
पर वही बेटा जब माँ की किसी समझाइश पर
कहता झिड़ककर कि ''माँ तुम नहीं समझतीं
कुछ ,ये नया जमाना है या फिर
अपने बेटे की बहु जिसका चेहरा उसकी आँखों मे
तबसे पनप रहा है जब वो
पैदा हुआ था ,अपने पति को
माँ के आँचल से जुदा कर ले जाती है बेटे को
उससे बहुत दूर और बेटा कहता कि
ऐसा ही होता है माँ ये तो समय का तकाजा है
तो वो समझ नहीं पाती इसका अर्थ कि
क्या नए समय के साथ माँ का दिल और सपने भी बदल दिए जाने चाहिए?
काश ज़माने के साथ साथ माँ का दिल भी बदलता जाता
तो सपनों को ध्वस्त होने की त्रासदी तो नहीं झेलनी पड़ती?
अब वो खाली है बिलकुल न स्कूल का डिब्बे का झंझट
न बस के लिए भागना न घरवालों की उलाहना
बस एक खालीपन सा बैठ गया है मन के किसी कोने में दुपककर
जिसे याद से भरने का उपक्रम करती रहती है दिन भर
झरते रहते हैं आँखों से
आशीर्वाद के बोल और
भीगती रहता है आँचल आंसुओं से

17 जून 2010

एक सच

समस्त विश्व जूझ रहा,आतंक से उद्वेगों के,अव्यवस्था जनित कुंठाओं से
उफनती,उबलती,वेदनाओं संवेदनाओं व
मन-मस्तिष्क को लाने,सही सही ठिकाने पर
"सकारात्मक सोच'' खुश है ज्ञानियों की गोद में बैठकर
''नियंत्रित श्वसन का नियंत्रण ठोके पीठ योगियों की
नई नई वैज्ञानिक तकनीकों से उपजा शक
मनोचिकित्सकों के प्रयास को
बिठाए सर माथे पर ,परन्तु क्या
वे सफल हैं?
परिस्थितियां,राजनीती के गंदे दांव पेच
सामाजिक विसंगतियां समूचे अर्जित ज्ञान संसार और
तमाम संस्कारवान कोशिशों के बावजूद
विरोधी ताकतों के चलते क्या
ज्ञान ,विचार शुन्य देह को
मनोचिकित्सकों के भरोसे छोड़
अथवा जीवन को समाप्त कर देने की
बद हवासियत की वो शक्लें ,जो
कभी विवश किसान या फिर किसी
बलात शिकार औरत के रूप मैं
रोक सके ये ग्यानी,ध्यानी या चिकित्सक?
या अलस्सुबह विभिन्न धार्मिक चैनलों पर स्थापित
प्रवचन कर्ताओं के वो गोल मटोल तंदरुस्त चहरे?
....वे रोज़ सुबह उपदेश दे गर्वित और
चैनल टी रार पी के फेर मैं
जनता ..कभी मुग्ध कभी छुब्ध
नहीं होगा कुछ
जड़ रहित पौधे को सींचते चले जाने सेया फिर
दूध पी रही बिल्ली की तरह
ऑंखें बंद कर लेने से

ख्वाब

हर शुरुवात एक मौन खूबसूरती का
पर्याय हुआ करती है
एक दुधमुंहे शिशु के
जीवन के रुप मे हो या फिर
तरोताजगी से भरी अधखिली गर्वित
नई नवेली कली के प्रस्फुटन की या फिर
रात के अंधेरे मे धने काले मेधों के
पर्दे से झांकती मदमाती मुस्कुराती सुबह की
काल के इस जादुई सम्मोहन में जकडे जीव द्धारा
समय के चक्र को फेरने के तमाम जतन
तमाम उपकरण औचित्यहीन हो जाते हैं अंततः ।
काश कि संपूर्ण जीवन ही होता
शुरुवात की तरह
आदि से अंत तक
सरल निश्छल और बिंदास तो
वो दुनियां ये दुनियां न होती
और तब अस्तित्वहीन हो जातीं
स्वर्ग की जादुई परिकल्पना
इस धरती से ।

14 जून 2010

ठान लो
अन्याय के विरुद्ध
कार्यवाही
जो नहीं की गई
अब तक
डर से, लिहाज से
या फिर
महज एक
टी वी चैनल की
रोजमर्रा की
रोजी और
स्वयं का टाइम पास समझ
बिसराने की
कोशिश की गई
और इस कोशिश में
बीत गई पीढियां,कुनबे और
युग
कभी सोचा?कि
अत्याचार बाकायदा
एक जधन्य अपराध
होता है?,चाहे वों
प्ुालिस का फर्जी एनकाउंटर की शक्ल में ही
या कि वकील के
द्वारा झूठी गवाही के द्धारा
या फिर
प्ति का अपनी पत्नी पर हो
या,फिर
समाज के उन मुटठीभर
ठेकेदारों के द्धारा
जिन्होंने
देश को अपनी
बपौती मान रखा है
दुनियां का सबसे विशाल प्रजातंत्र
हमसे है ,पर जिसकी लगाम
चंद अरबपतियों के हाथ?
भला क्यों?
कभी सोचा?
नहीं लाभ इस इंतजार में कि
कभी खैालेगा खून किसी
नौजवान का
और वो बनकर मसीहा
बदलेगा समूची व्यवस्था
दिलायेगा न्याय
हर गरीब,दुखिया और
भ्रष्टाचार से
ये शुरुवात हमसे
और आज से क्यों नहीं?
दोहराव नहीं झेलना है यदि
अंग्रेजों की गुलामी की
वजहों का
तो वक्त ह ैअब भी
सोचो,समझो और
जुट जाओ
रात के बाद सुबह का आना तय है
एक साफ उजली और
स्ंुादर सुबह
जिसका सदियों को
इंतजार है

13 जून 2010

औरत

नारी, तुम नहीं अबला,
आजाद हो तुम अब ।
चीख-चीख कर कह रहे
तमाम चैनल,मंत्री,संतरी और स्वयं तुम
यही तो कह रही नारी दिवस पर,आयोजित वार्ताएं ।
टीवी स्क्रीन पर एक से एक ताजातरीन,
मुस्कराते चेहरे, चेहरों की नकल करते चेहरे
और चेहरे, और जिस्म
सच कहा तुमने,
अब औरत आजाद है
दौडो जहां तक दौड सकती हो,
खुला है आसमान, फैली है धरती
बगैर किसी नकेल के
सच कहा तुमने, अब आजाद है औरत
स्वयं को नग्नता की हद तक पेश करने के,
दारुखोर निकम्मे मर्दों और
आधे दर्जन बच्चों के निवाले के लिये,
हाड-मांस एक करती
पर जिंदा रहने की मोहलत के साथ
आजाद है औरत।
वेलेंटाइन डे के विरोधियों से, अपनी आजादी का दंभ भरती
हुंकारती,तर्क कुतर्क करने को, आजाद है औरत ।
जहरीली शराब पीकर मारे गए मजदूर की मौत के मौके पर
टीवी में दिखने, और मुआवजे की रकम पाने को
बिचैलियों के ठिकानों के बदस्तूर चक्कर लगाने को
आजाद है औरत ।
आतंकियों की गोली से भून दिये गये कांस्टेबल पति की
मरणेापरांत मैडल लेने को,या फिर
तपती दोपहर में दो की उगली थामे और
एक नोनिहाल को सूखे स्तन से चिपकाये,
नेताओं द्वारा दो जून का भोजन के वादे के साथ,
जुलूस में भीड बढाने को
आजाद है औरत ।
तथाकथित महातपस्वियों के, दानपुण्य के जलसों में
थाली लोटा लेने को बहराई,और भीड में कुचले जाने के लिये
आजाद है औरत ।
दमदार सास और दंुस्साहसी पति के बेढंगे आदशों को,
बेशर्मी से प्रस्तुत करते होड में भागते चैनल, और ये स्वीकारने कि
सीरियल तो प्रतिबिंब हैं समाज के
आजाद है औरत
और कितनी आजादी चाहिये तुम्हे?

7 जून 2010

अनुभूति 2

वे सूखा पत्ता ,जो कभी,
विश्वसनीय हिस्सा हुआ करता था
उस विशालकाय पेड का
आज,गर्म हवाओं की साजिश ने
पतझड की आड ले
कर दिया बेरहमी से,ध्वस्त उसे
शाख से विलग
शायद इसलिये क्योंकि,मर चुका था उसमें,
हवा का रुख बदल देने का जज्बा,
या चुक गई थी ताकत,तूफान के आगे
बेखैाफ सीना ताने खडे रहने की
वक्त कोई रेलगाडी तो नहीं,
कि हर स्टेशन पर रुककर
प्रतीक्षा करेगी यात्री की
सूरज की लकीर से टिका और
आकाश से ठिठोली करता वो पेड
बेखबर सूखे पत्ते से,जो कभी
सहयात्री हुआ करता था
आज पडा है बेबस उदास,
उसी विशाल धने पेड के नीचे
उसी के आश्रय में
बिल्कुल अपरिचित सा
एक दिन उसे,एक परिंदे ने
हिस्सा बना
अपने धरोंदे का,
टांग दिया
कटोरेनुमा धोंसले की शक्ल में
बुजुर्गवार के एन मस्तक पर,
वहीं जहां कुछ रोज पहले
वसन्तोत्सव में
झूल झूम जाती थीं शाखे।
हवा के साथ,
अठख्ेालियां करती,
शाखों के संग सींकें,और
सींकों में टंका
वेा हरियाली पत्ता
ब्ूाढा पेड
मुस्कुरा रहा था
रुई के नरम फोहे जब
चहचहाते खोलेंगे नन्ही आंखें
उसकी गोद में
आशीष झरेंगे तब
उसकी सूनी आंखेंा से भी
हरी हो जाएगी जिंदगी फिर से
नहीं जानता
कि धेंासले का वक्त
गुजर जाने पर उड जायेंगे
जब विहग आकाश में
और सूने धोंसलों का अस्तित्व होता नहीं,बुढियाई सींकों
और सूखी पत्तियों से बेहतर

अनुभूति 1

जब देह थी उर्जा से लबरेज,और भावनाओं का
समंदर मारता था हिलोरें कच्ची देह के भीतर
चेहरा साफ साफ,व नाक नक्श थे,ठिकानों पर
दुनियां थी मुटठी में,मां बाप रिश्ते नाते
सपनों से भरा था आसमान
उडते उडते थकी देह तलाशती
एकांत को,जो हो जाया करता
आधी रात का सूरज या फिर
बेटी के ब्याह की रात का चैन
सपनों अपनों से धिरी
ढूुढती सी खुद को
वो आधुनिकता का शेार,और फैशन का दौर
खूब भाता था मुझे
खेाजती थी सिरहाना सपनों भरी नींद का
सरल सुरक्षित और निहायत खूबसूरत थी दुनियां ।
फुरसत ही कहां थी पथ्वी के निरंतर धूमने का सत्य जानने की,
और ये कि परिवर्तन है इस लोक का नियम
अपने भीतर की पथ्वी को निरंतर धूमते महसूसते
उसके साथ ताल मे ताल मिलाते आ गई हूं सत्य के निकट
जानती थी पर असोचा था सब कुछ
चली थी कहीं से मैं,यहां पहुंच गई हूं
अब तिरपन साल की उम्र हर तरफ है धनधेार शांति
इतनी कि खैाफ खाने लगी हूं एकांत से,
क्योंकि एकांत जवानी की तरह अब बतियाता नहीं,
देह में रोमांच नहीं रिक्तता पैदा करता है
कहां गुम हो गए न जाने
अवसर,रिश्ते,स्वास्थ्य और व्यस्तता
तयशुदा था कि जिम्मेदारियों से मुक्त होते ही
मिलूंगी प्रकति से बहुत करीब से
समेटूंगी तिनके बिखरे रिश्तो के
अनभिज्ञ थी मैं इस सच से कि
संबंधेंा के भी युग हुआ करते हैं ।
अंतराल यहां प्रावधनरहित या औचित्यहीन है ।
जब अर्थ निरर्थक हुआ करते थे रिश्तों के मेरे लिये
तब धिरी रहती थी गैरों से भी
आज जब अपने भी हो गए है अप्रासांगिक
तो समझ पा रही हूं अर्थ रिश्तों के ।
जीने के तरह तरह के उपक्रम में
टीवी जो हमउम्रों के वक्त की लाठी बन जाया करता है अमूमन
भाग्यहीन कहूं कि मूर्ख खुद को
कि उसका तिलस्मी मायाजाल भी,सहन नही होता मुझसे
क्यों कि उन झूठों से नफरत है मुझेे
जो सपनों की शक्ल में रिझाया व बरगलाया करते हैं
और मूक बनाम मूर्ख दर्शक बनना मुझे मंजूर नहीं,शुद व निखालिस चीजें पसंद हैं मुझे,जैसे
सत्य के पडौस की कथाएं,दिल को स्पर्श करती कविताएं
अपने आसपास के नाटक और खूबसूरत मुशायरे,
संधिप्रकाश की बेला में ,पक्षियों के कलरव और,मंद सुगंधित हवाओं के साथ बहती
हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी या सुदूर किसी टापू से आता
झीना सा स्वर किसी सूफी गायक का इसी आभामंडल की गिरफत में गुमना सोचा है
तुम कहोगे मेरे बच्चों कि बुढिया गई ही मां तुम
पर मै कहूंगी,कि तिलस्म से बाहर आ गई हूं