24 मई 2014

वागर्थ 2014 ''समकालीन कथा साहित्य और बाज़ार ''विषय पर कुछ साहित्यकारों के साक्षात्कार लिए गए थे उन प्रश्नों पर बतौर पाठक एक प्रतिक्रिया

(प्रतिक्रया-बतौर पाठक )
बिना एक निश्चित ढांचा तैयार किये ये एक कुंठा की अभिव्यक्ति है |
प्रश्न एक -कथा पुस्तकों की मांग अन्य विधाओं की बनिस्बत प्रकाशकों के यहाँ अधिक है विशेष रूप से विवादास्पद और ‘’बोल्ड’’ कथा साहित्य की |इस द्रष्टि से आज के कथा साहित्य का क्या बाज़ार से भी कोई सम्बन्ध बनता है ..घोषित या अघोषित रूप में ?
मत -भू मंडलीकरण के इस दौर में जब पूरा विश्व एक ग्लोबल मंडी में तब्दील चुका है यहाँ तक कि परिवार,समाज रिश्ते नाते वर्तमान भविष्य सब इस महा -बाज़ार की गिरफ्त में हैं तब साहित्य/कलाओं को उससे दूर कैसे रखा जा सकता है ?ज़ाहिर है कि बाज़ार का हिस्सा बनकर बाज़ार के कायदे कानूनों को स्वीकारना ही होगा |बाज़ार का स्वभाव चंचल और गतिमान है लिहाजा नज़र रखनी होगी नित नई बदलती दुनियां और ट्रेंड पर | आगे आना है तो दौड़ना ही पड़ेगा ...पेश करना होगा कुछ नया ....कुछ अलग ...अनोखा  .
–ब्यूटीफुल नहीं सिर्फ बोल्ड....
(.यदि‘’बोल्ड’’ का अनुवाद ‘नई लकीर ‘’माना जाए तो ....)
अभी कुछ रोज़ पहले जाने माने कथाकार प्रियवंद की कहानी ‘’बूढ़े का उत्सव पढी’’ एक अच्छे शिल्प में गढ़ी एक विचित्र कहानी |हलाकि इसका विषय हटकर था .. कब्रों पर ‘’समाधि लेख’’ लिखने वाले एक अघोरी टाईप बूढ़े का उसकी अजीबोगरीब आदतें और स्वभाव |लेकिन उस ‘’अलग हटके ‘’ के प्रयास में कहानी किस क़दर वीभत्स और अनैतिक हो गयी इसका अंदाज़ इससे लगा सकते हैं कि उसे पढने के बाद बहुत देर तक सामान्य नहीं हो सके | कहानी का एक अंश ‘’बूढ़े ने दरवाज़ा बंद किया और कांपते पांवों को उसी तरह घसीटता हुआ चूल्हे के पास चढ़े बर्तन के पास बैठ गया |अजनबी ने देखा बर्तन में मसाले से लिपटी दस बारह छिपकली पडी थीं बूढा उन्हें भून रहा था |...तुम थोड़ी देर बैठो मैं इन्हें पीसकर इसका चूर्ण बना लूं ‘’|
सुना है कि अफ्रीका में लोग सांप छिपकलियाँ खाते हैं यानी ये एक अनहोनी बात नहीं लेकिन हिन्दुस्तान में जहाँ अहिंसा को परम धर्म कहा गया है जहाँ की लगभग साठ प्रतिशत आबादी शाकाहारी है और जिस समाज में हजारों विसंगतियां अंधविश्वास उस समाज में ऐसी कहानियाँ ?...क्या इनसे मनोरंजन हो रहा है पाठकों का ?ज्ञानवर्धन?शिक्षा ?या फिर ये हमारे समाज में व्याप्त कोई विक्षिप्तता का नया आकार है ? कहानी की मूल कथा ये भी नहीं | मूल कथा तो और भी भयानक है जिसे यहाँ लिखना संभव नहीं| आदर्शों और संस्कारों की तलछट में कुछ रहे सहे रिश्ते और मूल्य बचे हैं उनके साथ भी खिलवाड़ ? बावजूद इसके कि संसार घोर आश्चर्यों ,वीभत्सताओं व् अनहोनियों से भरा पड़ा है ..फिर भी ...|कुछ अलग करने की चाह में हम ये कैसा साहित्य परोस रहे हैं अपने समाज के सामने और यदि इसमें कोई हर्ज़ नहीं तो हिन्दी साहित्य में पाठकों का टोटा होने का रोना क्यूँ ,ये जानते हुए भी कि मध्य वर्ग ही हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा पाठक है तमाम आधुनिकताओं के चोंचलों के बावजूद उसके अपने संस्कार हैं परिवेश और समाज है ?
उत्तर आधुनिक काल के मौजूदा हिस्से में ‘’मुक्ति चाह ‘’ से लथपथ कुछ अति महत्वाकांक्षी लेखिकाओं के लिए स्वयं को बोल्ड कहलाना गर्व का विषय है |अर्थात इस एक शब्द से उनके सामने स्वछंदता के कई द्वार खुलते हैं ..रहन सहन में , बातचीत में,लेखन और विचारों में ,व्यवहार में यानी की जीवन में बोल्ड जिसे वो कहीं न कहीं वूमन फ्रीडम (नारी मुक्ति) के लिए ज़रूरी मानती हैं और स्त्री विमर्श या मुक्ति की आड़ में काफी ‘’खुलकर’’ अपनी आज़ादी का उद्घोष करती दिखाई देती हैं लेकिन उनकी इस सेंसर हीन रचनाओं को ज़रा खुलकर अश्लील कह दिया जाए तो वो और उनके प्रशंसक भड़क उठते हैं|( उनकी कहानियों /उपन्यासों के वो विवादस्पद अंश पुनः यहाँ देना आवश्यक नहीं|जानी मानी स्त्री –विषयक लेखिका शालिनी माथुर अपने लेख में शब्दशः दे चुकी हैं |) इसे जस्टीफाय करते हुए एक बोल्ड और चर्चित लेखिका कहती हैं ‘’(दरअसल)अपने भीतर और बाहर खड़ी कर दी गई परंपरा,शिष्टाचार और मर्यादा की तथाकथित दीवारों को लांघने के संकल्प के साथ जारी इस यात्रा में अपनी अग्रज लेखिकाओं द्वारा देखे गए स्वप्न भी शामिल हैं। ..स्त्रियों को सिर्फ मादा होने तक सीमित कर दिये जाने की साजिश के विरुद्ध उन्हें मनुष्य रूप में प्रतिष्ठित करने का जो बीड़ा ‘रचना’ ने उठाया हुआ है, आलोचना को भी उसके मर्म तक पहुँचने की जरूरत है। (स्त्री काल ब्लॉग में ‘’साहित्य में स्त्रियों की भागीदारी विषय पर एक लेख से उद्धृत अंश ) |अब इसमें दो तथ्य हैं जिन पर हमें विचार करना होगा पहला - परम्परा ,मर्यादा और शिष्टाचार की तथाकथित दीवारें अश्लील या बोल्ड कहानियाँ लिखकर ‘’ही’’लांघी जा सकती हैं |,दूसरे ,यदि स्त्रियों को सिर्फ मादा बनाने तक पुरुषों की साजिश है तो अति बोल्ड कथानकों व् विवरण से उन्हें (स्त्रियों को ) मनुष्य रूप में प्रतिष्ठित करने का बीड़ा इस एकमात्र हथकंडे से ही उठाया जा सकता है|
‘’अग्रज लेखिकाओं’’से उनका तात्पर्य कदाचित बोल्ड साहित्य लिखने वाली ,मुक्ति की घनघोर हिमायती  जैसे इस्मत चुगताई (लिहाफ), कृष्णा सोबती (मित्रों मरजानी और अन्य ),कर्तुएल एन हैदर (पतझड़ की आवाज़ ) मैत्रेयी पुष्पा (चाक) ,कमला दास ,रमणिका गुप्ता ,अम्रता प्रीतम –(आत्मकथाएं )आदि से रहा होगा |उक्त लेखिकाएं निस्संदेह हिन्दी कथा साहित्य की अग्रिम पांत की और मशहूर लेखिकाएं हैं | ये अलग बात यह है कि मशहूर और ‘’बिकाऊ’’ (पठनीय साहित्य )होने के बाद भी शिवानी जैसी लेखिका कभी साहित्य की मुख्य धारा में नहीं मानी गईं |क्यूँ ...इसका ठोस प्रमाण है लिहाफ की लेखिका इस्मत चुगताई द्वारा स्वतः किया गया एक खुलासा कि मैंने तमाम साहित्य लिखा लेकिन मुझे लोग जानते सिर्फ ‘’लिहाफ’’ के कारण हैं |’’
गौर तलब है कि तथाकथित लेखिकाओं ने समवेत स्वरों में स्वीकारा है कि ये ‘’बोल्ड लेखन’समाज में व्याप्त यथार्थ से रू ब रू कराने की एक कोशिश है
कथाकार नाट्य लेखक ,रंगमंच आलोचक श्री हृषिकेश सुलभ कहते हैं ‘’यथार्थवाद एक दृष्‍टि‍है, यह आवश्‍यक नहीं कि‍यथार्थ की सघन अभि‍व्‍यक्‍ति‍के लि‍ए यथार्थवादी शैली में ही प्रस्‍तुति‍हो। उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा ‘’रतन थि‍यम के कर्णभारम् में कुंती के काँधे की एक चादर सरकती है और प्रसव की पीड़दायी प्रक्रि‍या समाप्‍त होती है। चक्रव्‍युह में मृदंग के बजाता अभि‍नेता रथ के गति‍शील पहि‍ए में बदल जाता है। प्रोबीर गुहा के नमकीन पानी में एक अभि‍नेत्री के पेट से लाल वस्‍त्र नि‍काल उसे चबाने का नाट्य करता अभि‍नेता स्‍त्रीभ्रूण हत्‍या का ऐसा दृश्‍य रचता है कि‍दर्शक हतप्रभ रह जाते हैं ‘’ यद्यपि लेखन में द्रश्य की सुविधा नहीं बावजूद इसके क्या ऐसी ही ‘’शब्द सांकेतिकता’’का प्रयोग कथा साहित्य में नहीं किया जा सकता या कभी नहीं किया गया?
 डॉ श्रोत्रीय इसकी मनोवैज्ञानिक वजह बताते हुए कहते हैं कि‘’यौन मुक्ति ये नारा भारतीय स्त्री  विमर्श ने पाश्चात्य से ही लिया है पर पश्चिम में ये कोई मामला ही नहीं इसलिए इस मामले में पश्चिमी लेखिका एक अनुत्तेजक सहजता में बात  करती है लेकिन भारतीय लेखिका इस प्रकरण पर बेहद उग्र हो जाती है |’’
प्रश्न दो - नेट्वर्किंग और मार्केटिंग के बहाने अमरता की होड़ -
मत -ये एक बहुत ही बचकाना और बेवकूफी भरा स्वपन है या भ्रम |जहाँ किताबो ,पत्रिकाओं ,पुरुस्कारों ,सम्मानों की बाढ़ सी आई हुई है रोज एक नई किताब (लेखक) अवतरित हो रही है ज़ाहिर है दूसरी को पीछे धकेलकर ऊपर से फेसबुक जैसे सोशल मीडिया ने जहाँ एक एक पल में बदलाव और डिलीट का ऑप्शन दे रखा है वहां ‘’बोल्डनेस ‘’ के बूते ‘’अमरता’’ हासिल ...ये सिर्फ अपने मन को बहलाने के लिए एक झुनझुना है और कुछ नहीं | ये भी सच है कि इन तथाकथित बोल्ड और विवादास्पद कहानियों के लिए कुछ प्रकाशक और संपादक भी ज़िम्मेदार हैं जो अपनी पत्रिका/पुस्तक की बिक्री के लिए ऐसे विवादास्पद मामले तलाशते रहते हैं क्यूँ की वे साहित्य-सेवक बाद में पहले व्यवसायी हैं लिहाजा समय ,प्रतिस्पर्धा व् बाज़ार पर भी नज़र रखना उनकी ज़रुरत है | शायद इसीलिये मशहूर लेखिका कृष्णा सोबती का कहना है कि बोल्ड,गर्म,कल्पना या यथार्थ के टुकड़ों से बुनी सामग्री सुथरी हो या अश्लील संपादक द्वारा चुन लिए जाने पर उसे ‘’बिकाऊ’’ का खिताब देना उचित नहीं |
सच है ...सारा खेल मार्केटिंग का ही है साहित्य में ये मार्केटिंग आन्दोलन के नाम पर हो रही है | सुप्रसिद्ध लेखक/आलोचक डॉ प्रभाकर श्रोत्रीय कहते हैं ‘’बिना एक निश्चित ढांचा तैयार किये ये एक कुंठा की अभिव्यक्ति है |’
 वरिष्ठ लेखिका और स्त्री मुक्ति की प्रबल दावेदार मैत्रयी पुष्पा कहती हैं ‘’ये विवरण (बोल्डनेस)कहानी की मांग है ‘’| बाज़ार के नियमानुसार मांग है तो उसकी आपूर्ति भी होगी और स्थिति तब विचित्र हो जाती है जब आपूर्ति ..मांग से ज्यादा और पहले बाज़ार में आ जाए |सच पूछा जाए तो कहानी की ये मांग बड़ी खतरनाक चीज़ है जिसका न कोई और छोर है और ना तोड़ ..|यदि ये कहानी की मांग ही है तो मन्नू भंडारी ,प्रभा खेतान ,सूर्यबाला ,नासिरा शर्मा आदि का ज़माना या तो सात्विक आदर्श और स्त्री पुरुष की समानता का ज़माना था या फिर ये लेखिकाएं स्त्री के उस ‘’मर्म ‘’ (यथार्थ )को समझ पाने में असफल रहीं जो कहानी की ‘’मांग’’ थी और जिन्हें आज की यथार्थवादी और अति संवेदनशील लेखिकाएं ही समझ पा रही हैं | क्या इस परिपेक्ष्य में एक बार पुनःआशापूर्णा देवी ,महादेवी वर्मा,शिवानी ,व् मालती जोशी जैसी मशहूर लेखिकाओं के नामों को दोहराने की ज़रुरत नहीं हैं जिन्होंने नैतिक मूल्यों व् मर्यादा के साथ स्त्री के संघर्ष बनाम स्त्री मुक्ति के संघर्षों को अपनी रचनाओं में लिखा और इससे भी ज्यादा महत्वूर्ण बात कि समय की शिला पर आज भी इन लेखिकाओं का नाम खुदा हुआ है ?जहाँ तक आज की लेखिकाओं की बात है कई लेखिकाएं इस तथाकथित ‘’यथार्थ वादी आवश्यकता’’से इतर भी यथार्थवादी  लेखन कर रही और सराही जा रही हैं | स्त्री मुक्ति और स्त्री देह मुक्ति .. स्त्री विमर्श आन्दोलन आज स्पष्टत इन दो खेमों में बंट गया है |सूसन कहती हैं ‘’ स्त्री मुक्ति,स्त्री के सम्पूर्ण जीवन को मानवीय संघर्ष में शामिल करता है और स्त्री देह मुक्ति का अर्थ है स्त्री देह पर मिलकियत |वो कहती हैं ‘’ये देह का उत्सव नहीं देह का अपमान है ‘’|दिस इज नॉट अ सेलीब्रेशन बट द ह्युमेलियेशन ऑफ़ बॉडी’’|( कथादेश २००८ से उद्दृत )
 प्रश्न -३ ‘बाज़ार’ ‘’सर्जना’ और ‘बिकाऊ’ - अंतर्संबंध
मत-बाज़ार का स्वभाव चंचल और गतिमान है |नीतियाँ ,अर्थशास्त्र ,मनोविज्ञान सहित बाज़ार का अपना एक समाजशास्त्र भी होता है | कोई भी नया उत्पाद जब बाज़ार में दस्तक देता है तो वो ग्राहकों की पहली पसंद हो जाता है ये भीड़ का एक मनोविज्ञान भी है और बाज़ार का उसूल भी |यानी बाज़ार नित नया बदलाव चाहता है अच्छा या बुरा |मिसाल के तौर पर बर्तन मांजने के न जाने कितने साबुन नए नए रैपर या लिक्विड फॉर्म में बाज़ार में उपलब्ध हैं फिर भी रोज़ एक नयी कंपनी कोई नई डिजायन ,सुविधा के साथ अपना प्रोडक्ट बाज़ार में ले आ रही है क्यूँ कि व्यवसायी बाज़ार की नब्ज़ पहचानता है और ग्राहक की कमजोरी भी |वो जानता है कि उपभोक्ता हर चमकती लुभाती नई चीज़ पर टूटे पड़ते हैं , फैशन हो ,कोई प्रोडक्ट हो या साहित्य/कला का कोई नया ‘’चलन’’ ही लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि बाज़ार में दूसरा नया प्रोडक्ट उतरते ही उपभोक्ताओं का ये भ्रम शीघ्र ही टूट जाता है जब तक कि उसकी उपियोगिता ,स्थायित्व व् गुण ‘नए’ से बेहतर न हों |कला में इसके उदाहरण देखना है तो हिमेश रेशमिया और अल्ताफ राजा हैं जिन्होंने एक समय में बौलीवुड में धूम मचा दी थी आज कहाँ हैं कुछ नहीं पता |यदि साहित्य में देखा जाए तो बोल्ड और विवादस्पद साहित्य की ये बहस इसी ‘’बदलाव’’ का अर्क है |बदलाव यानी नवीनता और नयापन यानी नई सोच नयी पीढी | बदलाव की इस ‘’नई खेप’’ (जिसकी स्त्रोत व् प्रेरक पुरानी पीढ़ी की कुछ प्रगतिवादी लेखिकाएं भी है ) पर लेखिका नमिता सिंह कहती हैं पोर्न साहित्य को आज साहित्य की मुख्य धारा में लाने की कोशिश की जा रही है |जबकि वरिष्ठ कथाकार और ‘’मित्रों मरजानी ‘’ जैसे विवादास्पद कहानी की लेखिका इस ‘’नयेपन’’ को खामोशी से स्वीकारने की सलाह देती हैं |उनका कहना है कि नई पौध को निरुत्साहित करना मुनासिब नहीं |
इसी बदलाव को एक और विवादास्पद और सुपरिचित लेखिका (जिनकी कुछ रचनाओं की मैं भी मुरीद हूँ )मैत्रेयी पुष्पा अपने चिर परिचित अंदाज़ में इस तरह व्याख्यायित करती हैं | ‘’बाज़ार में रफ़्तार तब आती है जब बदलाव का लेखन आता है |किन्ही पिटी लकीरों का कब तक कोई सुमिरन या जाप करता रहे |जबकि समय के साथ इन सुमिरन कथा का कोई ताल मेल ना बैठता हो |’’ (वागर्थ मई २०१४)उनके इस कथन में तीन अर्थ अन्तर्निहित हैं  –(१)-अश्लील लेखन समय की मांग है ?(२)- ‘’प्रेमचंद ,रेनू,अज्ञेय ,मन्नू भंडारी जैसे लेखक उनका साहित्य (सुमिरन कथाएं )अब पिटी हुई लकीरें हो चुका है ? (३)-संभवतः इसीलिये लेखिका स्वयं इस ‘’बोल्ड लेखन ‘’ की ट्रेंड सेटर लेखिकाओं की कतार में आ चुकी हैं कि कभी उनकी स्वयं की ये तथाकथित ‘सुमिरन कथाएं’ भी ‘पिटी लकीरों’ में शामिल न कर ली जाएँ |
कह सकते हैं कि साहित्य में ये परिपाटी पश्चिम की नकल और भारतीय अतिवादिता,असम्भव प्रकरणों व् स्वप्नदर्शी ‘’करोड़ों का बिजनेस ‘’ करने वाली फिल्मों के चमत्कारों का मिला जुला परिणाम हैं |रही सही कसर धारावाहिकों ने पूरी कर दी है |गौर तलब है कि मध्यम वर्ग साहित्य ,फिल्मों और धारावाहिकों का सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है और औज़ार भी और इन का प्रभाव भी इसी वर्ग पर सबसे ज्यादा पड़ता है | |जिसका सीधा सीधा लाभ संपादक/प्रकाशक व् लेखक को अपने उत्पाद की मार्केटिंग में मिलता है |नेट्वर्किंग या सोशल मीडिया ने लेखकों व् संपादकों/प्रकाशकों का रास्ता और साफ़ कर दिया है | लब्बे लुबाव ये कि साहित्य भी अब इस ग्लोबल बाज़ार का अटूट हिस्सा है और बाज़ार जहाँ अपने नए नवेले उत्पाद को सर माथे बिठाने का आग्रह और उत्साह रखता है, साहित्य में जिसका सबसे बड़ा ग्राहक साहित्येतर पाठक ही है वही उसे बिकाऊ और लोकप्रिय बनाता है ,एक ही ‘’चलन ‘’ से उकताकर वही उसे फेंक देने में भी कोई हिचक या कोताही नहीं बरतता |बाज़ार को बनाए रखना पुरोधाओं अकेले की वश की बात नहीं | यहाँ ये कहना शायद प्रासंगिक होगा कि  मसाले दार बिकाऊ और लोकप्रिय साहित्य (?) जिसका औजार औरत ही है को पुरुष ने ही सबसे ज्यादा उत्साहित किया है और दुत्कारा या रोंदा भी सबसे ज्यादा उसी ने है |
प्रश्न चार  -मसाला कथा साहित्य का क्या सर्जनात्मकता से कोई सम्बन्ध बनता है या केवल कथावस्तु के आधार पर ही यह ‘’साहित्य ‘(?) चर्चा का अधिकारी हो गया ?
मसाला कथा साहित्य का अर्थ भी अंततोगत्वा ‘’बोल्ड लेखन ‘’ से ही है कुछ मसालेदार, कुछ हटके लिखना या पाठकों /दर्शकों की दबी हुई इच्छाओं को बाहर निकालना (जो करोड़ों के बजट से बनी और दुगना तिगुना मुनाफ़ा कमाती हिन्दुस्तानी फ़िल्में और सालों तक घसीटते हिन्दी धारावाहिक करते रहे हैं |)गुलशन नंदा,ओमप्रकाश शर्मा ,रानू अपने ज़माने में मसाला साहित्य के द्रोणाचार्य रहे |गुलशन नंदा की  किताबें लाखों में बिकती थीं ..| लोग रेलगाड़ियों में यात्रा करते हुए ,कॉलेज की छात्राएं अपनी कोर्स की किताबों में छिपाकर उन्हें पढ़तीं | करुना से लबालब उनके उपन्यासों पर बनी फिल्मों में अपार भीड़ होती और औरतें ऑंखें सुजाये हॉल के बाहर निकलतीं ,लेकिन गुलशन नंदा बिकाऊ व् लोकप्रिय होते हुए भी मुख्य धारा में नहीं समझे गए | लोकप्रियता को स्तरीय होने से कदापि नहीं जोड़ा जा सकता | गुलशन नंदा /रानू,ओमप्रकाश शर्मा को अपने ज़माने में लोकप्रिय और बिकाऊ तो माना जा सकता है लेकिन सर्जनात्मकता नहीं |ऐसे लेखकों के लिए प्रसिद्द लेखक काशीनाथ सिंह कहते हैं ‘’लिखना और बिकना उनका व्यवसाय था ||एक रचना अथवा पुस्तक स्तर हीन होने के बावजूद लोकप्रिय हो सकती है या इससे उलट कोई पुस्तक स्तरीय और अर्थवान होते हुए सामने नहीं आ पाती |ये भी साधनों पर निर्भर करता है ,जिनमे प्रचार प्रसार ,विज्ञापन प्रस्तार,पद ,गुटबाजी,मित्रता ,आदि हो सकते हैं | हेतु भारद्वाज कहते हैं ..चर्चित कृतियों में प्रचार योजनाओं की काफी हिस्सेदारी होती है | )|
लेकिन वास्तविकता यह है कि ख्यात होने का कोई शोर्ट कट नहीं होता इसके उदाहरन हैं भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा ),प्रेमचंद (गोदान),शिवानी (क्रष्ण कली )धर्म वीर भारती (अंधायुग ) जैसे कालजयी लेखक |
जहाँ तक आलोचक की बात है ,ज़ाहिर है की जब समूचा परिवेश साहित्य कलाएं सब बाज़ार के अधीन हैं तो फिर आलोचक भी तो उसी बाज़ार का एक हिस्सा हुआ ?(इससे आगे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं) लेकिन सभी आलोचकों को इस कोटि में रखना ज्यादती होगी |
मैत्रेयी पुष्पा बोल्ड ,विवादास्पद ,या बिकाऊ जैसे (दकियानूसी ) शब्दों को हटाकर उनकी जगह सिर्फ एक शब्द विज़न की सलाह देती हैं |और उस ताकतवर विजन की खिड़की पाठक की और खोलने का मशविरा भी देती हैं |सिर्फ एक प्रश्न विजन की भी एक सीमा तो होती होगी  ?
अंत सुपरिचित लेखिका अनामिका के की पंक्ति से “”कितना ही सभ्य समाज हो औरत को तमाशा बनते देखते देर नहीं लगती “|