27 जनवरी 2011

भीड़



देखा..
मजदूर को  
तेज रफ़्तार के नीचे-
दम तोड़ते तडपते,
बहते खून के अगल - बगल से
बचते बचाते 
निकल गई भीड़ .
देखा....
पीड़ित लडकी पर लांछनों  की 
बौछार करते आरोपी को 
कनखियों से सोखती ख़बरों को,
अन्याय पी गई भीड़ !
देखा,भूख के सीने पे  
 आत्महत्या  करते 
किसान और उसके- 
बिलखते परिवार को ,
अपने २ काम पे 
निकल गई भीड़ !
देखा ,
बेटी की चिता पर इज्ज़त दारों को,
शान से मूंछें मरोड़ते 
लाश को घेरे ,
मूक दर्शक  बन  गई भीड़ 
देखा सफेद पोशों को 
भूख के कन्धों पर चढ़ 
मुट्ठियाँ तानते भुखमरी के खिलाफ 
नारे लगते,.... 
जुलुस बन गई भीड़  
देखा.....
‘’देह’’का उसकी
तमाशा बनते
अलग अलग चेनलो पर
अलग अलग एंगल से
तमाशबीन   बन  गई भीड़ 
 और इस तरह समाज/देश  के प्रति 
अपनी अपनी जिम्मेदारियां निभा 
रात को ,रिश्तों से लिपट   
गहरी नींद में 
सो गई भीड़ 

23 जनवरी 2011

रंगों का पटाक्षेप


तिलस्मी धुंध  की  उस
अँधेरी  कैद  से ,
मुक्ति का ज़श्न मनातीं
स्पंदित संभावनाएं
नमूदार होती  हैं अचानक  
अनजाने  लोक में ! 
चमक उठता है एक और-
अबूझा  संसार ,रोशनी का !  
ज्यूँ उगता है बीज,
धरती की छाती फोडके,
 खूबसूरत बाग ,या सूखे जंगल में ,
क्या फर्क पड़ता है,?
लेकिन नहीं  
पड़ता है फर्क ,.क्यूंकि  
 इसी ‘फर्क’ की धरती पर
उगाए जायेंगे अवसर,
की जायेगी षड्यंत्रों की खेती !
षड्यंत्र जो हथियार बनेंगे,
उन हाथों के ,
जिन्हें आते हैं  गुर  खारिज करने के  ,
मानवीयता,सच और ईमानदार को,
मासूमियत से.!.. ,
तपता रहेगा  सूरज 
पिघलती रहेंगी संभावनाएं !  
सवेरे के स्वप्न से
 सांझ कि उदासी  तक 
एक मुट्ठी धुप ,  ,
 आकार लेती, धरती 
धीरे धीरे ...और   
 पेड़,फूल,पत्ते,झाड,
दीवारें,किले ,हवेलियाँ,खंडहर,और वो 
पांच सितारा होटल ,
जहाँ मुंह छिपाने लगती है 
धुप भी आकर, .क्यूंकि,.
 उसी के   एन सामने
झक्क सफ़ेद इमारतों  की
  झिलमिलाहट में  ,
कीचड के स्याह मनहूस धब्बों सी,या  ,  
सुन्दर - सलोनी देह पर  
ज़ख्म  सी मनहूस  झुग्गियां
जो अँधेरे में उजाले के स्याह  भ्रम,को
पोसती जीती/मरती  रहीं हैं,
सदियों से,पीढ़ियों तक!  
 ,जिन्हें खुद रोशन होना नहीं आया कभी ‘
पर बनती रहीं ‘उनकी’ उजालों की वजहें,  
बल्कि सीखा ही नहीं है उन्होंने रोशन होना
या शायद चाहा ही  नहीं
बस अंधेरों को सोख ,
बिखेरती रहीं उजाले
अब तो पीढियां  हो गईं हैं अभ्यस्त,
,देह को दीपक बना,
पसीने से रोशन करने में,
उनके अँधेरे!  ..
,याद नहीं किस सदी से
अलग हुईं लकीरें
शायद तबसे जबसे ,रंग इतने,
 रंग बिरंगे नहीं हुआ करते थे !
सिर्फ दो ही रंग थे शब्दों की आँखों  में,
काला  या सफ़ेद! ...  
रटा दिया गया था जिन्हें ,
पहाड़ों की तरह,
झूठ की पाठशालाओं में!और ,
रोप दिया गया था  बीज सा
, रक्त के साथ शिराओं में!
बह रहा है वही रक्त खौलता-सा,     
परंपरा से - नसीब तक...!
संस्कार से - जाती तक.....!
सच से - अत्याचार  तक.....!
न्याय से - चीत्कार  तक......!
भूख से - मौत तक.......!
छटपटाते से
आज  भी घूम रहे हैं ,वो छद्म  
धैर्य  के ओरबिट में
शायद करवट बदलने को है युग,
या/शायद होने को हैं ,
 रंगों का पटाक्षेप  

19 जनवरी 2011

विद्रोह का ज़श्न

शब्द आजकल
खोने लगे हैं अर्थ अपने   
,मची है अफरा – तफरी
मंतव्यों और विचारों की दुनियां में
अभिव्यक्ति की आज़ादी,
लोकतंत्र  की आड़ में
लहराने लगी है मुट्ठियाँ!
खेमों में तब्दील हो गए हैं यकायक ,
तमाम विचार /संवाद/आक्रोश!
संवादहीन ये सत्तर फी सदी जनता,
आभिजात्य दांव पेचों  से अनभिग्य,
ढूँढ रही है खाली झोलों में,
अपने बच्चों का भरपेट भविष्य!    
वही धरती,जो सोना उगलती रही
 विदेशों तक
और धरती-सुत करते रहे आत्महत्याएं ,
माँ की सूनी छाती पे लोटकर       
आकाश में मदमस्त डोलती  पतंगों कि
पेट भर आलोचना करते ये
ज़मीन से जुड़े कुछ,    
जुझारू –जागरूक पढ़े लिखे लोग ,
रंगते रहे पन्ने किसानों की मौत के,
खाते हुए बर्गर पीजा !
लहराती पतंगों ने
हवाओं का रुख भांप  ,
,फूल बरसाए
किसानो की लाश पर!
और इस तरह एक सभ्य-रीत को निभा
उड़ चलीं भिन्न भिन्न आकृति की पतंगें
और ऊपर आसमान के ,बलखाती हुई,
देखने ,कि बाढ़ की तबाही में 
बिलखते ,बेघरबार परिवार
कैसे  दीखते हैं ‘’ऊपर ‘’से !!
काले चश्मों का पर्दा डाले  
फिकवाते रहे रोटी के पैकेट
लपकते रहे नंगे भूखे बच्चे
कैच करते रहे कैमरे ,
‘’सहानुभूति’’के मर्म- स्पर्शी द्रश्य
 आंख पर पट्टी बांधे वो कुशल राजनेता
करते रहे अगुआई एक राष्ट्र प्रमुख की!
दो घटनाएँ एक साथ जीती रहीं खुद को
एक ही समय में ,अलग अलग मंच पर
एक परिणिति,हत्यारी भूख की ,
और  ,दूसरी,
भव्य कॉमन वेल्थ की शानदार
शान  शौकत और रंगीनियों की..
क्यूँ न हो  ,आखिर 
पूरा विश्व देख रहा है रौनक
देश के विकास और सम्रद्धि की ! 
बेबस,दीन हीन
ज़मीन पे खड़े लोग देखते रहे  
ज़मीन से जुड़े लोगों को
‘खड़े और ‘जुड़े’’होने के फर्क के साथ  
आस भरी नज़रों से!
सुलगते रहे न जाने कितने समुद्र
चमकती बिजलियों  कि आग  में  
ज़मीन से जुड़े लोग
 देते रहे धरने करते रहे आन्दोलन
‘वो’ ‘चीखते करते रहे गुहारें,
‘’लुटेरों से बचाने की  ,
कभी’महगाई डायन की माला जपते ’’
कभी ‘’खेलों के पीछे के सच को
नंगा करने की नाकाम कोशिश करते 
या,किसान की ताजा बेवा हुई औरत को
ट्रक पे अपने पति की लाश के साथ
शहादत का दर्ज़ा दिलाने ,
,चमकते कैमरे  ,गवाह बनते  
एक लाचार मौत के
मौत ,जिसका प्रसारण होना बाकि है  
मुद्दों की उपजाऊ धरती  पर
और जिन्हें एन्जॉय करेंगे दर्शक
डिनर की टेबल पर चिकन खाते
बतियाते,खिलखिलाते,
हो सकता है बोर होकर
राखी सावंत का नाच लगा लें !
टूटने लगी निराश/डूबती  सांस
सिमटती - सिकुड़ती  आंत
अखबार -चेनल रंगे रहे /मनाते
  जश्न सा...
अबोधों की बर्बादी का 
,अकूत खजानों  के वो गुलाबी चेहरे
उड़ाते   रहे मजाक
चिथड़ों का!
ज़मीन से जुड़े लोग  
भींचते रहे दांत,
 लहराती हुई मुट्ठियों के साथ 
एयर कंडीशंड कारों के 'रथ'में  ,
पैदल ,भूखी ,नंगी जनता
घिसटती  रही धोखों को ढोते
नारों की पीठ पे !
सदियों से चल रहा  ये खेल
बस बदले हैं तो
वाहनों  के मॉडल और
अंदर के चेहरे, पर
चीखने की तर्ज़ पर
मिमियाती जनता  
आज भी ,घिसटती हुई,  पीछे पीछे   
 कुछ थक चुकी ज़र्ज़र 
कडकडाती हड्डियां और
बिलबिलाते भूखे अशक्त
ज़मीन पे बिछे लोग
रोटी के साथ
इंतज़ार   रहे हैं
अगली मौत का  !
मौत, जिसे आदत सी हो गई है
सुर्ख़ियों में रहने की ...

11 जनवरी 2011

अभिव्यक्ति की आजादी


वर्जनाओं,परम्पराओं ,रिवाजों के
ज़र्ज़र ,दीमक खाए  बाड़ों को
 रौंदता /खारिज करता, अपने ताज़ा विचारों
सोच और तकनीक के
तमाम ताम झाम के साथ
मौलिकता के दंभ से उत्प्रेरिक,
नया युग चलता है हमेशा ही
पिछले युग से,कई कदम आगे
रीतता –सा कुछ ,बीतता व्यतीत
समाता जाता है  अंधेरी सुरंग में जहाँ
पहले से ही दफ़न  हैं सदियाँ ,
तहों में छिपे से, हर परत के बीच-बीच ,
कई चेहरे ,कई नारे, कई उपदेश
हजारों दावे,सैंकडों किंवदंतियाँ,
,चेहरे ,जिनके नाम भी थे कभी,
और जो थे ,समय कि स्याही से लिखे
सहूलियत के रजिस्टर में दर्ज  
अब सिर्फ चेहरे हैं यहाँ बेजान और
नाम ज़िंदा हैं पाठ्यपुस्तकों के पन्नों में
एक विचार,  जो करेगा तुलनात्मक विवेचन
चूल्हे और कुकिंग गैस का,
बैलों और ट्रेक्टर का,
इंसान और आदमी का
नैतिकता और तकनीक का
यथार्थ और ‘ज़रूरत’’का
हर बीता सच  ,करता है  तय हद्दें
भविष्य की नैतिकता की,और
हर प्रगतिशील युग तोडता है सीमाएं
अपने इतिहास की !
कहीं यही मौलिकता तो
‘’अभिव्यक्ति कि आज़ादी ‘’नहीं ?

1 जनवरी 2011

सर्द-पौष की सुबह



ओस की बूँद,जो टपकी  हैं,अभी ही 
नाज़ुक पंखुड़ी  के  माथे पर,
 सिहर गयी  है  शाख तक
उस  कोमल अहसास से!
अंगडाई ले, उठी  है कलियाँ!
मुस्काती गीली अलकों से,
बूँद खिलखिलाती हुई  
ढुलकती है कोपल पर!
गोद में पत्तों की,छिपती 
खेलती,दुलराती हवा,
हलकी सी गुदगुदाती तपन  
करतीं हैं चुहल मोती से!
मोती,जो बिखर जायेंगे,
खुशबुओं-से , तितली बन ! 
इंतज़ार करेंगी कलियाँ,
उस भीगते अहसास का , 
मुस्कुराते हुए फिर से,
 कल सुबह होने तक ....

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नए वर्ष की शुभकामनायें          
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