14 दिसंबर 2012

धोबीघाट

घर के
पिछवाड़े एक नदी है छोटी,उथली सी  
जिसके पाट पर बिछी हैं तमाम पटिया
रोज तडके आतीं हैं आवाजें वहाँ से
कुछ सपनों के पछीटे जाने की
और कुछ गैर सपने
जो बंधे रखे होते हैं गठरियों में अभी 
रंग बिरंगे गुमडे हुए ,
किन्ही में महक बसी कुछ कमसिन जिस्मों की
और कुछ गाढ़े पसीने से लिथड़े हुए
कुछ पर सिलवटें हैं प्यार की  
अब तक
सबको डुबो दिया है उसने बेदर्दी से
नदी की धारा में
और निचोड़ दिया है उन्हें  
उन जंगली घांसों के चेहरे पर  
बेवजह बेज़रूरत उग आई हैं जो
पटियों के बीच उनके इर्द गिर्द
ज़रूरी था ये दुनिया में
कुछ ताज़ी उम्मीदें बची रहने लिए  
पसीनों से लथपथ अपनी देह और
गंधाते कपड़ों में उन्हें अक्सर
आने लगती हैं सहसा गठरियों की गंध
 ,वो और ज़ोर से पछीटने लगते हैं
अपनी साँसें ,
जैसे बहा देंगे आज ही वो अपने सपनों की पूरी नदी    
और अपनी इच्छाओं को निचोड़ डाल देंगे सूखने किसी
उम्मीद की डोरी पर फिर से

14 नवंबर 2012

औरत और प्रथ्वी


प्रथ्वी के गोल होने के साक्ष्य  
और भी बहुतेरे  हैं
जुगराफिया सबूतों के अलावा  
 बाइबल के सत्य (?)और
गेलीलियो /कोपर्निकस के विवादों  
और वैचारिक टकराहटों से परे भी 
असत्य सत्य पर शास्वत सत्य के वुजूद से इतर
अतीत के धुंधले अंधेरों में
कुछ प्रश्न-चिन्ह आज भी खड़े हैं  
सलीबों की मानिंद 
ठुकी हुई हैं कीलें  
हर काल की हथेली पर
अपने तमाम ज्ञानों, आदर्शों ,और
उपलब्धियों को झोली में भरे
औरत
प्रथ्वी के चक्र के साथ  
अंततः  
 उसी बिंदु पर आकर मिलती हैं
दुनिया की सबसे पहली औरत से
शिकायत करती है हर युग की  
 विकास और आधुनिकता के
हज़ारों दम्भों के बावजूद  
जो अंतत छलता रहा है
उसके वुजूद को  ही
पूछती हैं वो उससे
 फिर 
क्यूँ दुनियां के नक़्शे में
छाई हुई है औरत ही
और ,
क्यूँ वैश्विक कलाएं ,साहित्य ,त्रासदियाँ
घूम फिरकर
 टिका लेते हैं सिर औरत के कंधे पर ही  ?


10 नवंबर 2012


‘’आलोचना करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है कि आदमी स्वयं किसी निश्चित सत्य में विश्वास करे ‘’...गोर्की
पिछले दिनों वी एस नायपाल प्रकरण अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि गिरीश कारनाड ने एक और विवादास्पद टिप्पणी कर दी गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर को ‘’दोयम दर्जे का नाटककार ‘’कहकर |ख़बरों से लेकर फेसबुक तक पर खलबली कि ये कैसे हो सकता है |कुछ पाठकों ने सहमते हुए गिरीश जी की बात को ओथेंटिक मानने की हिम्मत दिखाई लेकिन ‘’आस्थावानों ‘’ने बकायदा उन्हें (बगैर किसी पुख्ता दलील के )हडका दिया |आइये अब इस प्रकरण पर भी बात की जाये |गुरुवार रवीन्द्रनाथ टैगोर निस्संदेह एक बहुआयामी और अद्भुत व्यक्तित्व के धनी रहे एक ऐसा व्यक्तित्व जो ना सिर्फ बहुत श्रेष्ठ कवि बल्कि उपन्यास कार ,वक्ता,नाटककार,समालोचक,दार्शनिक,लेखक,व अध्यापक रहा |एक ही व्यक्ति में इतनी प्रतिभा सचमुच अद्भुत व अतुलनीय |गुरुदेव को सन १९१३ में विश्व का सर्वश्रेष्ठ पुरूस्कार नोबेल पुरूस्कार से नवाजा गया  उल्लेखनीय है कि बाद में २००१ में साहित्य का नोबेल पुरूस्कार तथाकथित भारतीय मूल के वी एस नायपाल को मिला |निस्संदेह इन दो विभूतियों के प्रति भारत कृतकृत्य हुआ |नोबेल पुरूस्कार प्राप्ति के वक़्त जो पंक्तियाँ पुरूस्कार भाषण में कही गईं वो थीं ‘’टैगोर की काव्य रचना की आभ्यांतरिक गहराई और उच्च उद्देश्य ऐसे हैं तथा प्राच्य विचारों को इन्होने पाश्चात्य वर्णन शैली में ऐसी सुंदरता और नवीनता के साथ व्यक्त किया है कि वे वास्तव में पुरूस्कार पाने के अधिकारी हैं ‘’| संभवतः किसी भी कवि के लिए उसकी श्रेष्ठता तथा उत्कृष्टता का इससे बड़ा प्रमाण नहीं हो सकता |’’नोबेल पुरूस्कार उन्हें ‘’बंगाल की गीता ‘’ कही जाने वाली पुस्तक गीतांजलि पर ही मिला जिसकी अनेक विदेशी भाषाओँ में अनुवाद हुए |इसके अतिरिक्त उनकी अंग्रेज़ी कहानियों का संग्रह लन्दन के एक प्रकाशक ने निकाला |(मैकमिलन ‘से भी उनके कुछ उपन्यास ,कहानियाँ और नाटक प्रकाशित हुए )|गौर तलब है कि बहुमुखी प्रतिभा संपन्न इस विद्वान की ख्याति विदेशों तक उनकी कविताओं के कारन अधिक हुई |तुलनात्मक द्रष्टि से उन्होंने नाटक कम लिखे |उनके नाटकों में मुख्य हैं ‘नलिनी’,’मायर खेल’,मानसी,’राजा ओ रानी’,चित्रांगदा आदि |इसके अतिरिक्त उन्होंने बुद्ध पर आधारित एक नाटक नातीर पूजा (न्रात्यान्गना की पूजा ) भी लिखा था |
कोई भी साहित्य या कला अपने समय से अलग होकर नहीं जी सकती |अर्थात उसमे तात्कालीन समाज राजनीती,दर्शन आदि का समावेश एक बहुत सामान्य और सहज घटना है लेकिन ये कतई आवश्यक नहीं कि उसी रचना को पचास साठ वर्ष भी उतना ही सराहा जाये !जुबैदा,कानन कौशल सुरैया जैसी सिने अभिनेत्रियों की फ़िल्में उस वक़्त हाउस फुल रहती थीं क्या आज उनसे ये अपेक्षा की जा सकती है?या नाटक को ही देखें तो १९४७ के आसपास लिखे और खेले गए नाटकों की उस समय धूम रहती थी |आगा हश्र कश्मीरी,से लेकर स्वर्गीय कर्नल गुप्ते तक या एक के हंगल, उत्पल दत्त,भीष्म साहनी ,प्रथ्वी राज कपूर,सोहराब मोदी जैसे समर्पित लेखक/कलाकारों जिनमे से कुछ इप्टा के फाउन्दर्स में भी गिने जाते हैं के द्वारा लिखे या खेले गए तत्कालीन नाटक जो उस वक़्त काफी पसंद किये गए थे बल्कि कुछ पर बेहद लोकप्रिय होने के मद्दे नज़र ‘’देशद्रोही ‘’होने का दोष लगा प्रतिबंधित भी कर दिया गया था ...लेकिन आज हम आज़ाद हिन्दुस्तान में सांस ले रहे हैं स्थितियां बदल चुकी हैं समस्याओं,विकास,आधुनिकता,विचारधारों ,राजनीति,सामाजिक व्यवस्थाएं सभी के रूप और अर्थ बदल चुके हैं जो कालगत परिवर्तन के मद्दे नज़र स्वाभाविक है |तकनीक,कथ्य ,शिल्प,मंच सब का स्वरुप बदल चुका है |जहाँ तक टैगोर के नाटकों का प्रश्न है उनके नाटक स्त्री करुना,यानी दुखांत हुआ करते थे (नलिनी और मायर खेल निर्धन गृहस्थों के जीवन पर आधारित नाटक थे वहीं चित्रांगदा नाटक के लिए कुछ समीक्षकों का मत था कि सौंदर्य की द्रष्टि से इतना सुन्दर नाटक नहीं लिखा गया,लेकिन कुछ समीक्षकों ने इसके आलोचना करते हुए लिखा कि इस नाटक का सौंदर्य वर्णन भारतीय आदर्शों के अनुरूप नहीं इस द्रष्टि से ये हेय है ‘’ 

तथ्य केवल यही है कि लगभग सौ वर्षों के इस विशाल अंतराल के बीच दुनियां में तमाम परिवर्तन हुए भारतीय समाज यहाँ की राजनैतिक,सांस्कृतिक परिस्थितियां और परिवेश बदले |सोवियत संघ के विघटन का प्रभाव भी कला और साहित्य पर पड़ा |भूमंडली करण और बाजार वाद ने समाज परिवार सोच आदर्शों के मायने ही बदल डाले |स्वाभाविकतः साहित्य के नए मानदंड व मापदंड तय किये गए |गिरीश कारनाड एक समर्पित ,एवं प्रतिभावान नाटककार,लेखक निर्देशक हैं इसमें कोई शक नहीं | बचपन में मैंने उनका लिखा नाटक हयवदन देखा था जिसमे कलाकार ओम् शिवपुरी व सुरेखा सीकरी मुख्य पात्रों में थे |मेरा सौभाग्य है कि बाद में मुझे हयवदन व उनके लिखे एतिहासिक नाटक ‘’तुगलक’’(निर्देशक बी एम शाह भूतपूर्व निर्देशक राष्ट्रीय नाट्य विद्ध्यालय देहली)के निर्देशन में स्त्री मुख्य पात्र करने का सुअवसर प्राप्त हुआ |नाटक तुगलकजितने बार पढ़ा लेखक की श्रेष्ठता और बारीकियों का लोहा माना |
 बंगाल कला साहित्य की श्रेष्ठता में सर्वोपर है निस्संदेह |शरत चंद  ,बंकिम चंद ,अभिनेता हरेंद नाथ चट्टोपाध्याय ,उत्पल दत्त जैसे मूर्धन्य लेखक ,कलाकार हुए हैं |उत्पल दत्त का तो कोई सानी ही नहीं (मुझे उनके नाटक ‘’टीनेर तलवार’’में अभिनय करने का अवसर मिला हास्य,त्रासदी,व्यंग,गीत संगीत से परिपूर्ण ऐसा संतुलन मैंने ब्रेख्त के नाटक कॉकेशियन चौक सर्किल के अलावा किसी में नहीं देखा |)
बहरहाल इस विवाद में दो तथ्य महत्वपूर्ण है पहला कारनाड ने टैगोर को उनके सम्पूर्ण साहित्य के लिए  नहीं वरन सिर्फ नाटक में औसत माना ,अलावा इसके ये उस कलाकार का वक्तव्य है जो स्वयं लंबे समय से नाट्य लेखन व अभिनय के लिए समर्पित है और कला क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है उसके व्यक्तिगत विचारों को विवादों में घसीटते हुए खारिज नहीं किया जा सकता |दूसरे ,टैगोर को पूजनीय का दर्जा देने वालों (विशेषतौर पर उस महानगर विशेष से ताल्लुक रखने वालों )ने इस मसले को आस्थाओं पर प्रहार माना जो आज के युग व परिस्थितियों में निहायत दकियानूसी विचार है | जो लोग बगैर किसी तर्क के अंध आस्था के तहत ऐसा मान रहे हैं उनके लिए सिर्फ एक ही उद्धरण याद आता है सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक गेलीलियों ,कोपर्निकस और उनके युवा शिष्य ब्रूनो का जिन्हें बाइबिल के इस सत्य को कि ‘’सूर्य प्रथ्वी का चक्कर लगता है ‘’नकार कर ये सत्य उजागर व घोषित करने कि ‘’प्रथ्वी सूर्य का चक्कर लगती है’’अंध विश्वासी और आस्थावान मिश् नारियों ने देश निकाला दे दिया था ,नतीजतन  गेलीलियो को बहत्तर वर्ष की उम्र तक कचहरी के चक्कर लगाने पड़े थे वहीं ब्रूनो और उसकी प्रेमिका को उस ‘’असत्य’ सत्य को नकार देने के अपराध में चौराहे पर जिंदा जला दिया गया था |हर अति अपने चरम में आखिरकार अपनी ऊष्मा खो देती है चाहे वो आस्थाओं से सम्बंधित ही क्यूँ ना हों क्यूँ कि आस्थाएं कहीं ना कहीं अन्धं विश्वास की पडौसी ही होती हैं |
वन्दना
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8 नवंबर 2012

गिरीश कर्नाड बनाम वी एस नायपाल-



सुप्रसिद्ध लेखक रंगकर्मी ,अभिनेता श्री गिरीश कर्नाड (जिनके लिखे नाटक तुगलक की पिछले दिनों धूम रही )को मुंबई की एक संस्था द्वारा एक साहित्य समारोह में रंगकर्म से जुड़े अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया था |लेकिन कर्नाड को अपने इस ‘’भाषण’’ में प्रसंशा के बावजूद कुछ असहमतियों जिन्होंने छोटे मोटे विवाद का रूप भी ले लिया था ,सामना करना पड़ा |हुआ यूँ कि उन्होंने ‘’रंगकर्म’’ के उस विषय से हटकर भारतीय मूल के लेखक वी एस नायपाल के बारे में भी अपने कुछ विरोध दर्ज लिए | ये मुद्दा इसलिए उठा क्यूँ कि उसके पहले आयोजकों ने इस बात को रेखांकित किया कि बुकर(१९७१) एवं नोबेल (२००१)जैसे प्रतिष्ठित पुरुस्कारों से सम्मानित भारतीय मूल के लेखक वी एस नायपाल ने अपनी भारत यात्रा के समय इसी जगह खड़े होकर अपना भाषण दिया था | इत्तिफाकन इसी मंच पर सुप्रसिद्ध रंग कर्मी,अभिनेता,लेखक गिरीश कर्नाड को रंगमंच से सम्बंधित अपने अनुभव व विचार प्रस्तुत करने को आमंत्रित किया गया था |गिरीश कर्नाड जैसे रंगमंच के अलावा भी अन्य विषयों में गहन अध्ययन एवं दखल रखने वाले बहुमुखी कलाकार के सामने जब नायपाल के कसीदे पढ़े गए प्रशस्ति गान किये गए तो वे स्वयम को संयत नहीं रख पाए विशेषकर नायपाल को भारतीय लेखक मानने के मुद्दे पर जिससे उन्हें आपत्ति थी |हलाकि नायपाल ने खुद भी कभी ऐसा नहीं माना |
 कर्नाड ने नायपाल से सम्बंधित कुछ तथ्य प्रस्तुत किये जिसके मूल में कुछ कारन थे जिसके लिए नायपाल के लेखिकीय जीवन व उनकी (भारतीय मूल का लेखक मानने )जैसी व्यक्तिगत मान्यताओं को जानना तर्कसंगत होगा |
विद्ध्याधर नायपाल के पूर्वज आज से डेड सौ वर्ष पूर्व कैरेबियन द्वीप समूह के तत्रिनिनाद नामक द्वीप में मजदूर बनकर गए थे |उनके पिता शासन में एक अधिकारी थे  वो लेखक बनना चाहते थे लेकिन नहीं बन पाए लेकिन उनके दौनों पुत्रों (विद्ध्याधर और शिव)विश्वविख्यात लेखक हुए |वी एस नायपाल ने जीवन भर नौकरी नहीं की आरंभिक शिक्षा त्रिनिनाद में करने के बाद वो उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफोर्ड चले गए और फिर लन्दन में ही बस गए |उनके शुरू के उपन्यासों के विषय प्रवासी भारतीयों की विदेशों में ज़िंदगी और समाज में स्थान बनाने के संघर्ष से सम्बंधित हैं |’(’ए हाउस फोर मि.बिस्वास’’)भारतीय मूल के और जन्म से त्रिनिदादी नायपाल इंग्लेंड के शुद्ध अंगरेजी वातावरण में तालमेल नहीं बिठा पाए इस संघर्ष को उन्होंने अपनी रचनाओं में भी चित्रित किया |उन्होंने कहा कि ‘’मुझ जैसे दो संस्कृतियों से जुड़े लोग अंधेरों में रोशनी तलाशते हुए अधूरी ज़िंदगी बिताते हैं |’’ इस ‘अवसाद’से वो हमेशा ग्रसित रहे जो उनके लिए उठाये गए विवादों का आधार माना जाता है | उन्होंने इस तरह की दो संस्कृतियों से टूटे हुए लोगों को अपने लेखन का विषय भी बनाया जिसमे मिश्र,ईरान,इंडोनेशिया,भारत आदि के मुसलमान का ज़िक्र एतिहासिक विश्लेषण के साथ प्रस्तुत किये हैं | इनकी दो किताबें ‘’एमंग ड बिलीवर्स ;एक इस्लामिक जर्नी’’और ‘’बियोंड बिलीफ ;इस्लामिक एक्स्कर्ज़ंस एमंग द कन्वर्टेड पीपुल्स’’इसी से संदर्भित हैं जो बेहद चर्चित हुईं |उनका मानना है कि इस्लामिक साम्राज्यवाद से बढ़कर दुनियां में अन्य कोई साम्राज्यवाद नहीं हुआ |कुछ समीक्षक मानते हैं कि ट्रेड टॉवर (न्यूयार्क)के हमलों के तुरंत बाद बाद इन्हीं पुस्तकों ने उन्हें नोबेल पुरूस्कार दिलवाया | सच तो ये है कि उन्होंने खुद को भी भारतीय नहीं माना और यदि माना भी तो एक विचित्र रूप में |उनके वक्तव्य प्रायः विरोधभासी रहे जैसे एक तरफ उन्होंने माना कि उन्हें हिन्दुस्तान की राजनीती में कोई रूचि नहीं जबकि दूसरी तरफ वो हिन्दुस्तान को एक हिंदू राष्ट्र का दर्जा देने के हिमायती रहे और मुस्लिमों के कट्टर विरोधी रहे |वो मानते हैं कि मुस्लिमों ने हिन्दुस्तान को भ्रष्ट कर दिया |
भारत के बारे में उनका मानना है कि मुसलमानों का आक्रमण भारत के लिए बेहद हानिकारक सिद्ध हुआ और फिर अंगरेजी राज्य के आधिपत्य से उनकी ये संस्कृतिक किलेबंदी ढहना शुरू हुई |आजादी के बाद अंगरेजी और मुसलमानों दौनों की दूरी बढ़ी |बावरी मस्जिद मसले पर उन्होंने कहा था कि ‘’मुझे नहीं लगता कि हिंदू इस्लामी आतंक से अभी उबर पाए हैं |अभी वो इस मसले में भ्रम की अवस्था में ही हैं और अयोध्या आन्दोलन उसे समझने की ही एक कोशिश है |’’
प्रवासी होते हुए (हमेशा विदेश में रहने के बावजूद)इन्होने भारत की संस्कृति से सम्बंधित तीन किताबें लिखीं जिनमे से दो में भारत की संस्कृति और जीवन की तीव्र आलोचना की |ये किताबें थीं ‘’एन एरिया ओव डार्कनेस ,इंडिया ;ए वूंडेड सिविलाईज़ेशन ‘’लेकिन इसके बाद एक किताब और लिखी जिसमे उन्होंने भारतीय संस्कृति का पुनुरुत्थान करने की बात कही वो किताब थी ‘’इंडिया ए मिलियन म्युतिनीज़ नाउ इसमें कोई दो राय नहीं ,कि नायपाल का भारत के प्रति लगाव (भारतीय मूल के होने के नाते )बहुत कम रहा है |हलाकि वो मानते हैं कि हिन्दुस्तान लंबी गुलामी के बाद अब उन्नति के रास्ते पर है |लेकिन जैसा की ऊपर कहा गया है इस्लाम के प्रति हमेशा उनमे एक अजीब स दुराग्रह रहा |राजनीति से दूर खुद को मानने और कहने वाले नायपाल नोबेल पुरूस्कार प्राप्त करने के बाद जब हिन्दुस्तान आये तो सबसे पहले भा जा पा के कार्यालय में गए |उल्लेखनीय है कि स्वयं आलोचना और विवाद में फंसे सलमान रश्दी नायपाल को नोबेल पुरूस्कार मिलने के पक्षधर नहीं थे | नायपाल को सामरसेट मॉम प्रुस्कार ,डेविड कोहेन ब्रिटिश लिटरेचर आदि पुरूस्कार भी प्राप्त हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘’सर’’ की उपाधि से भी नवाजा | उनके बारे में कहा जाता है कि वो बेहद चिडचिडे स्वभाव और स्पष्टवक्ता रहे |एक समय था जब प्रसिद्ध यात्रा वृत्तान्त लेखक पौल थोरु उनके बेहद प्रसंशक हो गए थे इन्हें तत्कालीन लेखकों में सर्वोपरि कहा था उन्होंने लेकिन बाद में वो उनके स्वभाव से उनके घोर विरोधी हो गए |
नायपाल ने ये स्वीकार किया है कि लन्दन में बसने के बाद उनका योवन बहुत कठिनाइयों में बीता |न्यू स्टेट्समेन में नौकरी करने के बाद भी वो अपने अकेला और बेसहारा महसूस करते थे |वे कहते हैं ये मेरे जीवन के सबसे बुरे दिन थे जिन्हें मै याद करना नहीं चाहता |लेकिन रचना गुण के कारण उनके चाहने वाले भी बढते गए | यदि एक वृहद रूप में देखा जाये (भारत या प्रवासी से अलग )तो मानव जाति की  समस्याओं को जानने में उनकी रूचि रही उल्लेखनीय है कि आंध्र और बिहार के नक्सल वादी क्षेत्रों में उन्होंने भ्रमण भी किया |अपने उपन्यास ‘’हाफ ए लाइफ ‘’ में उन्होंने एक टूटे परिवार से बिछुडे एक युवक की कहानी लिखी है |
साफगोई और स्पष्टता से सार्वजानिक आयोजनों में अपनी बात कहना विरोध दर्ज करना सभी के बूते की बात नहीं (कम से कम आज के माहौल में तो यही सच है )|उत्पल दत्त,गिरीश कर्नाड,या सफ़दर हाशमी जैसे  कुछ इने गिने दुस्साहसी लेखकों के ही बूते की बात थी |प्रश् यही है कि क्या उन लेखकों या अन्य कोई भी व्यक्ति को जिसने विदेश में ही जन्म लिया और जीवन भर वहीं की नागरिकता में रहा लेकिन सौ वर्शोंं पूर्व उनके पूर्वज भारतीय होने की वजह से उन्हें भारतीय प्रवासी (लेखक )माना जा सकता है(माना जाना चाहिए )? हलाकि भारतीय साहित्यकारों का एक धडा गाँव में कभी ना जाकर ना सिर्फ ग्रामीण जीवन पर उपन्यास लिख रहा है बल्कि पुरूस्कार भी प्राप्त कर रहे हैं , या विदेशी प्रष्ठभूमि पर बेहिचक लिखकर वाह वाही लुट रहे हैं ऐसे वातावरण में यदि नायपाल जैसे लेखक लन्दन में बैठकर (गाहे ब गाहे भारत का दौरा कर )भारत की समस्याओं और स्थितियों पर लिखते हैं मय मीमांसाओं के तो स्वाभाविक ही लगना चाहिए लेकिन ये साहित्य के पुरोधा व मील के पत्थर आज भी इस ‘’आडम्बर’’को सही नहीं मानते |
वंदना 




6 नवंबर 2012


प्रेम को नहीं चाहिए  
अपने होने के बीच 
कोई कविता ,शब्द  
 रंग , गीत या द्रश्य
 मौन प्रतीक्षा की
 प्रेम एक अद्रश्य ज़रूरत है
 एक नीली पारदर्शी नदी 
बहती रहती है जो चुपचाप  
कोमल विरलता में
आत्मा से आत्मा तक 

4 नवंबर 2012

कतरनें


कई चीज़ों को ना जानना ही अपने को सुरक्षित रखने का रास्ता है |...(निर्मल वर्मा)
इस छोटे से वाक्य का तात्पर्य  अपने में अनेक तर्क, संभावनाएं और एक वैचारिक विराटता को समेटे हुए है | सर्व ज्ञाता होने की अदम्य और आदिम इच्छा मनुष्य को सपनों के एक वीरान जंगल में ले जाती है , जहां विषयों की भीड़ और अराजकता है,कुछ होने और कुछ भी ना होने के बीच का एक खालीपन है जो हमें एक अदेखे अजाने अनुभव की प्यास की अनुभूति कराता है पर महत्वाकांक्षाओं की अभीप्सा में हम उस राह से चूक जाते हैं जो अज्ञात में है .. एकांत और कुछ अलग पाने की इस भीड़ में कुछ भी ना पा पाने की एक कुलबुलाहट लिए स्वयम को खो जाते हुए देखते है और यहीं वक़्त होता है जब हम  अपने sence of innocence  को अपने से दूर जाता हुआ देख रहे होते है जो शायद अब कभी नहीं मिलेगा
निर्मल वर्मा को पढ़ना सपनों की उस ज़मीन से गुजरना है जो पूरी तरह हवा से बनी है ....उनके पहले वाक्य को पढते हुए पाठक सपनों की एक घाटी जो सुगंधो और भीनी हवाओं से भरी है में प्रवेश करता है ओर उनके अंतिम वाक्य पर उसे लगता है जैसे वो किसी गहरी तन्द्रा से जागा हो ...किसी स्वप्न की सुरंग से निकल अपनी स्रष्टि के धरातल पर आ गया हो | एक अदम्य जिजीविषा का उदय होता है किसी भी जेन्युइन लेखक को पढकर फिर भी ना जाने क्यूँ जीवन में कुछ ज़रूरी हमेशा बना रहता है |बकौल निर्मल वर्मा ‘’इतनी चेतना हमेशा बनी रहनी चाहिए कि आप अपनी चेतना को माचिस की तीली की तरह बुझते हुए देख सकें ‘’|

29 अक्तूबर 2012


मैंने एक किला देखा था
देखे तो ज़िंदगी में कई किले हैं
अब तो एक सी रूहें भटकती हैं उनके सन्नाटों में
ना तो किस्सों के पैर होते और
ना ही रूहों की शक्ल
हाँ तो एक किला देखा  
 मांद के बाहर
 घिसे हुए नखों वाले पंजों में ‘
अपना सिर घुसाये उदास   
बूढ़े लाचार शेर सा निरीह
खंडहर खंडहर हो जाता हुआ  
ईमारत की बुलंदी तो
भ्रमों की ऐयाशी है
ताड़ पत्र पर लिखी अमोल पांडुलिपियों सी
खस्ता हाल मज़बूत दीवारें  
छींटे थे कुछ पुराने खून के धब्बों के
दीवारों पर
यदि नहीं बताता गाइड खून के बारे में तो
पर्यटक यही समझते कि ये
बरसाती काई की जमाहट है पुरानी
पर नहीं वो खून था, जिसका इतिहास ज़रूर
लाल निखालिस और चमकीला रहा होगा
पर वर्तमान काला ,बुझी राख सा   
अलावा इसके थे
 पुराने माँस के कुछ लिथड़े हुए अंश
जो दीवारों पर दीमकों के ठुहों का भ्रम पैदा कर रहे थे  
कुछ भ्रम असलियत से कम क्रूर होते हैं |
ये हमारी पुरातात्विक संपत्ति है
जो संस्कृति की अनमोल धरोहर होती है
और धरोहरें झूठ और दिखाबे से
छल नहीं पातीं खुद को
ये बारीक नक्काशी ,मूर्तियां,छतें,दीवारें  
गाइड के चेहरे पर
गर्व की दिप्दिपाहत थी
ये बताते हुए
पर वो नहीं ज़वाब दे पाया इस प्रश्न का कि
दीवारों पर खून के धब्बे और मटमैले माँस के टुकड़े
देशी थे या विदेशी ?
रानियों के सात दरवाजों के पीछे बने
आराम गाहों और
राजा के एश्गाहों के दरवाजे
दो ध्रुव थे किले के
रानियाँ जहाँ अपने सपनों को सुलाती थीं थपकियाँ दे
ठुमरियों और मुजरों की अश्रु पूरित लोरियों से
संगमरमरी कमरों की एक एक उधड़ी टीप
और नीले-पीले चमकीले रंगों की
भद्रंग होने होने को नक्काशियां
बचे हुए पक्के रंगों ने जैसे  
कसकर पकड़ी हुई थीं छतें
और किस्सों ने महराबें  
डरकर .......
खम्भों मेहराबों पर
वास्तुशिल्पियों के हुनर के  
ध्वस्त उधड़े चहरे
जैसे झुर्रीदार त्वचा में से दिखता 
गुलाबी ताज़ा मांस
ज़मीन के चिकने फर्श में से झांकती
 इतिहास के खुरदुरेपन की टीपें गोया  
 किसी सोये मासूम बच्चे के गालों पर
सूखे आंसुओं के धब्बे
बड़ी छोटी तोपें
जिन से कभी आग के गोले बरसा करते होंगे  
उन मुहं पर दूरदर्शी मकड़ियों ने बुन दिये थे जाले
कर दिये थे उनके मुहं बंद
(ये मकड़ियाँ ,चिमगादड,दीमकें
ना हों तो कितने निरीह/अकेले हो जाएँ सन्नाटे और उनके इतिहास )
अलावा इसके एक विशाल गोलाकार कमरा
जिसका एकमात्र दरवाजा इतना छोटा कि
मुश्किल से जा सके कोई मानव उसमे
बताया गाइड ने कि ये अस्त्र ग्रह कहलाता था
जिसमे गोला बारूद और अस्त्र शस्त्र भरे जाते थे
किसी संभावित युद्ध के लिए  
साथ में ये जोड़ना भी नहीं भूला वो
कि अंग्रेजों,चीनियों,पाकिस्तानियों ने इस पर गोले बरसाए
मिसाइलें छोड़ीं,आक्रमण किये
तिलिस्म कहें अचम्भा या कारीगरी वास्तुशिल्पियों की
 इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाए  
पर ना जाने कैसे और क्यूँ
इतना पुरानाऔर मज़बूत अस्त्र ग्रह खुद ब खुद ढहता जा रहा है
 खंडहर हो जाता हुआ
टूट टूट कर गिरते हैं इसके टुकड़े ज़मीन पर गाहे ब गाहे ,यूँ ही
जैसे शोक मनाता हो अपने अकेले छूट जाने का 
अब बेवजह बेमौसम ढह रही हैं दीवारें इस अस्त्र ग्रह की
ज़र्ज़र महराबें,टूटे झरोखे ,जंग लगे लोहे की मोटी जंजीर
और जंजीर में गुंथा एक विशालकाय बूढा ताला
जिसे अपने जंजीर में बंद होने की सदी याद नहीं
ये सब कहते हैं यही कि
अब तबाही को ज़रूरत नहीं किसी
औरंगजेब की
 नहीं है अब दरकार
 देश की आजादी हथियाने के लिए
पहले उसके भाषा और संस्कृति पर आक्रमण करने की
अब हम मशीनी युग में हैं .... 

3 अक्तूबर 2012

युद्ध



युद्ध एक शब्द है जिसके अर्थ का रंग लाल है
और चीत्कार स्वर हीन  
युद्ध कुरुक्षेत्रों के मोहताज नहीं अब    
आधुनिकता के इस बाज़ार में युद्ध भी
एक उत्पाद की तरह चमकता है बड़े २ शो रूमों में
प्रलोभनों,विज्ञापनों,,महंगाई और विवशता के हथियारों से लड़ता
कुछ युद्ध जीतने के लिए नहीं ,
 लड़े जाते हैं जिंदा रहने के लिए
और जिनको लड़ने की ना कोई तरकीब होती
ना ही मियाद जैसे भूख गरीबी,महंगाई,अन्यायों
दुखों,विडंबनाओं लंबी फेहरिस्त है     
ये युद्ध चलते हैं सदियों से पीढ़ियों तक
घुलता जाता है इनका काला धुआं  
एक धीमे ज़हर की तरह
बेबसों पीढ़ियों की जीवन शिराओं में
और गाढा होता हुआ
सर्वहारा शब्द की यात्रा जहाँ से भी शुरू हुई हो
अब तो सिर्फ मतलब एक ही है इसका
मनुष्य से हारा हुआ मनुष्य
संघर्षों की नियति सिर्फ एक अफ़सोस जो
संक्रमित होता है
जातियों,पीढ़ियों,भूखमरियों और अन्यायों में
देह गढ़न के पहले ही
आत्मा में घुस बैठ जाते हैं कुछ युद्ध
अपने संतापों और दुखों के औजार संभाले
दीमक की तरह कुतरते रहते हैं
न्याय की उम्मीदें ,किसी खास वर्ग में  
युद्ध ...
इंसानियत का हैवानियत से
सच का झूठ और
न्याय का अन्याय से
शब्दों का विचारधारा से
व्यवस्था का संविधानों से
जाति का धर्मों से
पुरुषवादी सोच का स्त्री मुक्ति से
अहं का विवशताओं से
ये वो लड़ाइयां हैं जो बंदूकों से नहीं
लड़ी जाती हैं विचारों से ,
 भूख से महंगाई और गरीबी से  
थक चुके हैं वो अब लड़ते २
अब उन्हें कुछ आराम चाहिए
बस दे सकते हो दे दो
एक युद्ध विराम
ताकि अगले किसी अघोषित युद्ध के लिए
बदल लिए जाने की मोहलत मिले उन्हें  
नियति की लहुलुहान त्वचा और चिथड़ी आशाओं को    

18 सितंबर 2012

हिंदी दिवस और हिंदी



लीजिए आ गया ,लगभग पैंसठ वर्षीय देश की आजादी की एक और रस्म अदायगी का मौक़ा एक और बार फिर ...हिन्दी दिवस के रूप में | बड़े छोटे आयोजन , अंग्रेज़ी का रुदन, हिन्दी की दुर्दशा का संताप ,कुछ नए पुराने वाक्यों-घटनाओं का लेखा जोखा ,कुछ वार्षिक संकल्पों का दोहराव और ....बस |वैसे ही जैसे देश का हर प्रधान मंत्री हर गणतंत्र दिवस पर लाल किले की प्राचीर से देश से भ्रष्टाचार खत्म करने और एक नया राष्ट्र बनाने का वादा और सकल्प लेता है आव्हान करता है |जो उसी दिन भाषण की समाप्ति के बाद ‘’जय हिंद’’ का नारा देकर सीढियां उतर जाने के बाद अस्तित्वहीन हो जाता है |
हिन्दुस्तान एक अतीत जीवी देश है |यहाँ उम्रदराज परम्पराएं हैं पीढ़ियों और सदियों को अपनी आँखों में जिया है जिन्होंने | उन्हीं सांस्कृतिक ,वैचारिक एतिहासिक स्मृतियों (विरासत)को अक्षुण बनाने की मंशा से उसके ‘’दिवस’’की घोषणा कर दी जाती है | शिक्षक दिवस,बाल दिवस,गणतंत्र दिवस,स्वतन्त्रता दिवस,मजदूर दिवस,शहीद दिवस, या हिन्दी दिवस | इतिहास को स्मरण करने और परम्परा को बनाये रखने की ये एक अच्छी रीत है निस्संदेह |इसी की तर्ज़ पर अंगरेजी के अरण्य में अभी अभी अन्खुआये नए नवेले अवतरित ‘’डे’’...मदर डे,फादर डे,वेलेंताईन डे, फ्रेंड शिप डे वगेरह २ |यानी वर्ष में एक दिन संबंध निभाने और उन्हें इज्ज़त बख्शने का दिन | सामाजिक गर्भिर्तार्थों में इन दिवसों का होना उस एक महत्वपूर्ण दिवस विशेष का स्मरण होता है इनमे त्यौहार भी शामिल हैं |अब तो इनकी अदायगी भी एक ‘’अटल सत्य’’ हो गई हैं गणतंत्र दिवस यानी लाल किला –प्रादेशिक झांकियां,बाल दिवस यानी नेहरु जी, शिक्षक दिवस अर्थात डॉक्टर राधा कृष्णन ,दो अक्टूबर यानी वैष्णव जन तो...या जय जवान जय किसान’’ ,महिला दिवस... कुछ ‘’संपन्न’’स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा गरीब महिलाओं को सिलाई मशीन बांटते चित्र या दो चार जुझारू महिलाओं के जोशीले लेख ,स्वतन्त्रता दिवस यानी स्कूलों में झंडा वंदन और परेड |हिन्दी दिवस ... हिंदी में प्रतियोगिताएँ, हिंदी के पाठ्यक्रम में बदलाव/संशोधन की चर्चा इत्यादि |क्या इन अवसरों का प्रादुर्भाव इन्हीं औपचारिकताओं या खानापूर्ति के लिए हुए होगा?
आज हम ‘’हिन्दी दिवस ‘’मना रहे हैं |क्या सचमुच आज हिन्दी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्र भाषा होने पर गौरवान्वित है? जो देश भाषा में गुलाम हो, वह किसी क्षेत्र में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन जाता है।कुछ लोगों को हिन्दी को राष्ट्र भाषा मानने में आपत्ति है और जो लोग ऐसा मानते हैं इसमें कोई संदेह नहीं कि वो इस देश को एक बार फिर हिस्सों में बंटता हुआ देखना चाहते हैं ..ये सच है |
किसी देश को गुलाम बनाना हो तो सबसे पहले उसकी संस्कृति और भाषा को गुलाम बनाना होता है | लार्ड मैकाले की नीति थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है। कहने को हिन्दी को राष्ट्र भाषा ,राजभाषा और संवाद भाषा होने का गौरव प्राप्त है ,लेकिन ये कितना सच है और कितना भ्रम ये इस देश के वासी भली-भाँती जानते हैं विशेषतः हिन्दी भाषी प्रदेश और नागरिक |पूरे विश्व में एक भारत ही है जहाँ शासन का काम काज,संवाद (अमूमन),बैठकें,संसद की कार्यवाही आदि विदेशी भाषा में होते हो जबकि दुनिया के लगभग सारे मुख्य विकसित व विकासशील देशों में वहाँ का काम उनकी भाषाओं में ही होता है।
उल्लेखनीय है कि 12 सितम्बर 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने अंगरेजी में भाषण देते हुए कहा कि ‘’ हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है, जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी।‘’लेकिन विचारणीय तथ्य यह है कि भाषा से संदर्भित संविधान के संकल्प और उसका महत्व हम अक्षुण रख पाए ?
वास्तविकता ये भी है कि आजादी के बाद के कुछ दशकों तक यानी जब तक बाजार ने लोगों को अपने माया जाल में नहीं जकडा था,कई शहरों को साहित्य प्रेमी उनके लेखकों के नाम से जानते थे |शानी,दुष्यंत कुमार,फज़ल ताबिश,सत्येन कुमार,नवीन सागर ,भगवत रावत भोपाल की पहचान थे तो इलाहबाद भी साहित्य सम्पन्नता में पीछे नहीं रहा |निराला,पन्त,महादेवी वर्मा,अश्क,अमरकांत,इलाचंद जोशी और बाद में शैलेश मटियानी जैसे लेखकों ने इस शहर को गौरवान्वित किया |दिल्ली तो साहित्यकारों की शरण स्थली ही रही |तब हिन्दी पत्रिकाएं खूब पढ़ी जाती थीं |धर्मयुग ,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,दिनमान,माया व बच्चों की पत्रिकाएं चन्दामामा ,नंदन,चम्पक,बाल हंस,सुमन सौरभ,नन्हे सम्राट ,अमर चित्रकथा आदि | कहा जाता है कि उस दौर में पत्रिकाओं ने हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य की दिशा निर्धारित की |ये सिद्ध भी हुआ कि मीडिया (तब प्रिंट मीडिया ही था )हिन्दी के प्रचार प्रसार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है |बाद में टी वी (इलेक्ट्रोनिक मीडिया)जब संचार माध्यमों के आसमान पर सूर्य सी चमक के साथ उदयमान हुआ तब शुरू में हिन्दी के प्रचार प्रसार व लोकप्रियता में निस्संदेह कुछ तेज़ी आई |गौरतलब है कि तब इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर चैनलों का हमला नहीं हुआ था दिल्ली दूरदर्शन के कार्यक्रमों में हिन्दी ख़बरें, ख़बरें होती थीं ,कृषि दर्शन बकायदा खेती समाचार और संगीत कार्यक्रम व साहित्यिक वार्ताओं जैसे कार्यक्रम वही लगते थे जो होते थे |तब तमस,बुनियाद,हम लोग,बेस्ट सेलर्स,नई कहानियों में  चेखव,रविन्द्रनाथ टैगोर,भीष्म साहनी जैसे सुप्रसिद्ध लेखकों की कहानियां धारावाहिक रूप में दिखाई जाती थीं |
ज़ाहिर तौर पर टी वी तो अब बेतरह बाज़ार की गिरफ्त में है लेकिन हिन्दी अखबारों में कम से कम रविवार को हिन्दी साहित्य/कला /कार्टून जैसा कुछ पढ़ने को मिल जाता है गाहे ब गाहे  देशी विदेशी लेखकों की कहानियां /कवितायेँ लेख/कार्टून आदि भी ,लेकिन ना जाने किस रणनीति के तहत ‘’देश के एकमात्र सबसे बड़े अखबार’’ का दावा और हर साल छः महीने में सर्वाधिक सर्क्युलेशन और लोकप्रियता के आंकडे प्रस्तुत करने वाले समाचार पत्र तक ने ये सब बंद कर दिया और उनकी जगह सूचनाओं व ख़बरों (राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय )देना शुरू कर दिया| उसकी देखा  देखी कुछ और ने भी | (यद्यपि कुछ अखबार अब भी साहित्य पन्ना देते हैं )
हिन्दी ने कई पड़ाव देखे,अनेक झंझावत सहे |अंगरेजी को आजादी के बाद भी राज करते ही नहीं बल्कि खूब फलते फूलते भी देखा |जिसके पीछे पुरोधाओं द्वारा अनेकानेक कारण बताये गए जैसे ‘’अंगरेजी संवाद की एक सार्वभौमिक भाषा है ,या आधुनिक सूचना प्रोद्योगिकी अंगरेजी के बिना पंगु है ,उच्च शिक्षा हिन्दी में प्राप्त नहीं की जा सकती,अंगरेजी के बिना देश का विकास संभव नहीं इत्यादि |लेकिन उन ‘विद्वानों’ की इस सोच को तब बड़ा झटका लगा जब गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एरिक श्मिट ने कुछ समय पहले यह कह कर ज़बर्दस्त हलचल मचा दी कि 'इंफोर्मेशन टेक्नॉलॉजी की शुरुआत भले ही अमेरिका में हुई हो, भारत की मदद के बिना वह आगे नहीं बढ़ सकती थी और ये भी कि आने वाले पाँच से दस साल के भीतर भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट बाज़ार बन जाएगा।
‘’बाज़ार का कोई भी दिग्गज भारत की अनदेखी करने की ग़लती नहीं कर सकता। वह भारतीय भाषाओं की अनदेखी भी नहीं कर सकता। चाहे वह याहू हो, चाहे गूगल हो या फिर एमएसएन, सब हिंदी में आ रहे हैं। माइक्रोसॉफ्ट के डेस्कटॉप उत्पाद हिंदी में आ गए हैं। आईबीएम, सन माइक्रोसिस्टम और ओरेकल ने हिंदी को अपनाना शुरू कर दिया है। लिनक्स और मैंकिंटोश परह भी हिंदी आ गई है। इंटरनेट एक्सप्लोरर, नेटस्केप, मोजिला और ओपेरा जैसे इंटरनेट ब्राउजर हिंदी को समर्थन देने लगे हैं। ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी हिंदी की धूम है। आम कंप्यूटर उपभोक्ता के कामकाज से लेकर डाटाबेस तक में हिंदी उपलब्ध हो गई है। यह अलग बात है कि अब भी हमें बहुत दूर जाना है, लेकिन एक बड़ी शुरुआत हो चुकी है। और इसे होना ही था।‘’(बालेंदु शर्मा)
हिन्दी विश्व की एकमात्र वैज्ञानिक भाषा है जो बोलने और लिखने में समान है |हलाकि कहा जाता है कि हिन्दी विश्व में तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है लेकिन सुप्रसिद्ध शिक्षा विद एवं शोधार्थी डॉक्टर जयन्ती नौटियाल के हिन्दी और विश्व की भाषाओँ पर गहन शोध के उपरान्त प्रस्तुत किये गए आंकड़ों से यह सिद्ध होता है कि हिन्दी भाषियों की संख्या चीनी से ज्यादा है | हिन्दी फीजी,सूरीनाम,त्रिनिदाद ,मलेशिया अदि देशों में बोली जाती है |और अठारह करोड से भी ज्यादा भारतीयों द्वारा प्रयोग की जाती है |
सोवियत संघ के विघटन के बाद व भूमंडली करन के इस दौर में राष्ट्रीय और अंतर्रष्ट्रीय परिद्रश्य तेजी से बदले हैं |चाहे वो राजनैतिक हों आर्थिक हों सामाजिक हों या साहित्यिक | पूरा विश्व एक बाजार में तब्दील हो गया है |जो लोग हिन्दी भाषा की घटती लोकप्रियता के लिए सिर्फ अंगरेजी स्कूल,टेक्नोलोजी का फैलाव या अंगरेजी पुस्तकों की मांग ,इटरनेट आदि को ही ज़िम्मेदार मानते हैं ये वाक्य संभवतः उन्हीके लिए कहा गया है कि हमारी चुनौती हमारी अपनी हीनता ग्रंथि है अपने पन का अतिमोह है अध्ययन के प्रति उदासीनता है |
कुछ आलोचक मानते हैं कि हिन्दी के रचनाकार के पास शब्द संख्या बहुत सीमित है नवीनता और प्रयोग की एक व्यापक द्रष्टि भी हमारे पास नहीं है | हिन्दी लेखक लेखिकाएं आज खूब लिख रहे हैं ,धडल्ले से किताबें छप रही हैं, नए नए प्रकाशन ग्रह खुल रहे हैं ,यहाँ तक कि उत्साही और महत्वाकांक्षी लेखक खुद पैसा देकर किताबें छपवा रहे हैं कुछ भी गलत नहीं इसमें बल्कि खुशी इस बात की है कि हिन्दी क्षेत्र बढ़ रहा है समृद्ध हो रहा है लेकिन जिस तादाद में प्रकाशन ग्रह या ,पुस्तकें,आयोजन, प्रचार प्रसार लोकार्पण,सम्मलेन आदि हो रहे हैं क्या साहित्य की गुणवत्ता उसी के अनुरूप है?पाठकों की हिन्दी में घटती रूचि कहीं प्रसिद्धि की होड में इसी जल्दबाजी का नतीज़ा तो नहीं ?क्या हिन्दी की जितनी किताबें छप रही हैं प्रकाशक इनकी गुणवत्ता को लेकर  (सरकारी थोक खरीद के अलावा )कोई दिलचस्पी दिखा रहे हैं ?इस विषय में लेखक /संपादक आर अनुराधा कहती हैं ‘’लेखकों को रोयल्टी ना मिलने के पीछे प्रकाशकों की अपारदर्शी नीतियां भी हैं |जहां अंगरेजी के प्रकाशक ज्यादा प्रतियाँ (मुनादी की हद तक)बेचने पर गर्व महसूस करते हैं ,हिन्दी की पुस्तकों की कितनी प्रतिया बिकीं पता ही नहीं रहता “”(राजकमल प्रकाशन पुस्तिका से साभार )|
जहाँ तक हिन्दी लेखकों की अंगरेजी या कोई अन्य भाषा से गुरेज़ की बात है ,यदि हम सिर्फ हिन्दी पढ़ना लिखना और बोलना तक खुद को सीमित रखेंगे तो ना सिर्फ भाषा बल्कि वैश्विक साहित्यिक परिवेश (अनुवाद आदि)से भी पिछड़ जायेंगे जिसे सुप्रसिद्ध आलोचक श्री रमेश दवे ने ‘’कूप मंडूकता का संकीर्ण स्वदेशीपन’’कहा है |भूमंडलीकरन और बाजारवादी संस्कृति के इस उत्तर आधुनिकी दौर में हम वैश्विक साहित्यिक स्तर पर उस अनुभव क्षेत्र को हासिल नहीं कर सकते जो आज के समय की मांग है ना सिर्फ कला साहित्य बल्कि प्रोद्योगिकी,संचार,मीडिया आदि क्षेत्रों में |अतः सच यही है कि भाषा के मामले में हमें तय करना होगा कि हम कितने स्वदेशी है और कितने विदेशी | चाहे भाषाई हो अथवा विचारगत ,आज के युग में कट्टरता का मतलब है किसी क्षेत्र विशेष से अन्तोगत्वा स्वयं को खारिज कर दिया जाना |
हम भले ही सलमान रश्दी ,अरुंधती रॉय,चेतन भगत आदि पर भाषाई आक्षेप मढ़ें ‘’हिन्दी बाजार’’बिगाड़ने की तोहमतें लगाएं पर एक सच ये भी तो है कि अब तक भारतीय मूल के पांच उपन्यासकार वी एस नायपाल (इन अ फ्री स्टेट -1971 ),सलमान रश्दी (मिड नाईट चिल्ड्रेन -1981 ),अरुंधती रॉय (गौड ऑफ स्माल थिंग्स -1997),किरण देसाई –(दि इन्हेरिटेंस ऑफ लॉस -2006),और अरविन्द अडिगा (दि व्हाईट टाइगर-2008),बुकर पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं |1993 में हिन्दी मूल के विक्रम सेठ के ‘’ए सुटेबल ब्बोय)की चर्चा ब्रिटेन में खूब रही |
बेशक हम पुरुस्कारों पर धांधलेबाजी और प्रकाशकों पर बेईमानी का दोष मढ़ एक निंदा सुख पा लें लेकिन सच यही हैं कि बावजूद भरपूर प्रतिभा के हिन्दी पट्टी में गुटबंदियों, दोषारोपणों ,बहसों, अनर्गल प्रलापों,विचारधाराओं के मतभेद ,परस्पर विरोधों और अंगरेजी के रुदन पर ज्यादा तवज्जोह दी जा रही है| विचारधारा के प्रश्न पर एक सुप्रसिद्ध कवि ,आलोचक का ये कथन सही लगता है ‘’अगर आप कवि हैं तो आपसे प्रथमतः और अंतत कविता ,जीवन और भाषा का स्पंदन चाहिए कल्पना का साहस और सच्चाई का अभिग्रहण चाहिए ना कि आपकी आस्था का इजहार |सच ,समाज,परिवर्तन,क्रान्ति पर मार्क्सवाद का एकाधिकार नहीं है और ना होने देना चाहिए |
दूसरी तरफ  भले ही आलोचकों ,साहित्यकारों,चिंतकों या बुद्धिजीवियों द्वारा आधुनिक व उत्तर आधुनिक लेखन की समीक्षा/आलोचना/विश्लेषण लेखक के कसीदों अथवा कमियों के रूप में की जा रही हो पर बुद्धिजीवियों का एक समूह ये नहीं मानता कि इस दौर में कुछ नवीन और मौलिक वैचारिक लेखन हो रहा है |
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वन्दना 

3 सितंबर 2012

स्मृति



स्मृति का मेरे जीवन से
वही रिश्ता है जो
हरियाली का जल से
धडकनों का दिल से और
इंसान का गर्भ से |
स्मृति जीती है खुद को मेरे भीतर
एक शिशु की तरह  
हंसना रोना बात करना और
खुश होना सिखाया है मैंने ही उसे |
करवटों की गिनती उसे याद है
मुहं जुबानी
नींद को उसी ने पढ़ाया है
पहर गिनना 
आँखों के हर मौसम की आहट है वो |
उसे मैंने दे दिया है एक कोना
 अपने अंतर्जगत का
बना लिया है जिसमे उसने अपना एक
ख़ूबसूरत घर
स्मृति मुझमे रहती हैं
मै ही स्मृति हूँ .... 

30 अगस्त 2012


अभी अभी रात मेरे सिरहाने आकर बैठी है
अभी ही चाँद को मेरी आँखों ने छुआ है
अभी ही कोई रंगीन सपना नींद के हाथों छूट
बादलों में उड़ा है
 कोई तारा टूटा है आसमान से अभी ही 
तुमने कहा था एक दिन टूटते तारे को देख
मांग लो जो मांगना चाहती हो इससे
मैंने मांग लिया था तुम्हे
लेकिन सोचती रही थी देर तक
क्या टूटने में इतनी तासीर होती है?
हर तारा अपने आसमान से छिटक  
पत्थर ही तो हो जाता है लावारिस ,
लौटा देता है वो अपनी चमक चाँद को
टूटने से पहले