29 अक्तूबर 2012


मैंने एक किला देखा था
देखे तो ज़िंदगी में कई किले हैं
अब तो एक सी रूहें भटकती हैं उनके सन्नाटों में
ना तो किस्सों के पैर होते और
ना ही रूहों की शक्ल
हाँ तो एक किला देखा  
 मांद के बाहर
 घिसे हुए नखों वाले पंजों में ‘
अपना सिर घुसाये उदास   
बूढ़े लाचार शेर सा निरीह
खंडहर खंडहर हो जाता हुआ  
ईमारत की बुलंदी तो
भ्रमों की ऐयाशी है
ताड़ पत्र पर लिखी अमोल पांडुलिपियों सी
खस्ता हाल मज़बूत दीवारें  
छींटे थे कुछ पुराने खून के धब्बों के
दीवारों पर
यदि नहीं बताता गाइड खून के बारे में तो
पर्यटक यही समझते कि ये
बरसाती काई की जमाहट है पुरानी
पर नहीं वो खून था, जिसका इतिहास ज़रूर
लाल निखालिस और चमकीला रहा होगा
पर वर्तमान काला ,बुझी राख सा   
अलावा इसके थे
 पुराने माँस के कुछ लिथड़े हुए अंश
जो दीवारों पर दीमकों के ठुहों का भ्रम पैदा कर रहे थे  
कुछ भ्रम असलियत से कम क्रूर होते हैं |
ये हमारी पुरातात्विक संपत्ति है
जो संस्कृति की अनमोल धरोहर होती है
और धरोहरें झूठ और दिखाबे से
छल नहीं पातीं खुद को
ये बारीक नक्काशी ,मूर्तियां,छतें,दीवारें  
गाइड के चेहरे पर
गर्व की दिप्दिपाहत थी
ये बताते हुए
पर वो नहीं ज़वाब दे पाया इस प्रश्न का कि
दीवारों पर खून के धब्बे और मटमैले माँस के टुकड़े
देशी थे या विदेशी ?
रानियों के सात दरवाजों के पीछे बने
आराम गाहों और
राजा के एश्गाहों के दरवाजे
दो ध्रुव थे किले के
रानियाँ जहाँ अपने सपनों को सुलाती थीं थपकियाँ दे
ठुमरियों और मुजरों की अश्रु पूरित लोरियों से
संगमरमरी कमरों की एक एक उधड़ी टीप
और नीले-पीले चमकीले रंगों की
भद्रंग होने होने को नक्काशियां
बचे हुए पक्के रंगों ने जैसे  
कसकर पकड़ी हुई थीं छतें
और किस्सों ने महराबें  
डरकर .......
खम्भों मेहराबों पर
वास्तुशिल्पियों के हुनर के  
ध्वस्त उधड़े चहरे
जैसे झुर्रीदार त्वचा में से दिखता 
गुलाबी ताज़ा मांस
ज़मीन के चिकने फर्श में से झांकती
 इतिहास के खुरदुरेपन की टीपें गोया  
 किसी सोये मासूम बच्चे के गालों पर
सूखे आंसुओं के धब्बे
बड़ी छोटी तोपें
जिन से कभी आग के गोले बरसा करते होंगे  
उन मुहं पर दूरदर्शी मकड़ियों ने बुन दिये थे जाले
कर दिये थे उनके मुहं बंद
(ये मकड़ियाँ ,चिमगादड,दीमकें
ना हों तो कितने निरीह/अकेले हो जाएँ सन्नाटे और उनके इतिहास )
अलावा इसके एक विशाल गोलाकार कमरा
जिसका एकमात्र दरवाजा इतना छोटा कि
मुश्किल से जा सके कोई मानव उसमे
बताया गाइड ने कि ये अस्त्र ग्रह कहलाता था
जिसमे गोला बारूद और अस्त्र शस्त्र भरे जाते थे
किसी संभावित युद्ध के लिए  
साथ में ये जोड़ना भी नहीं भूला वो
कि अंग्रेजों,चीनियों,पाकिस्तानियों ने इस पर गोले बरसाए
मिसाइलें छोड़ीं,आक्रमण किये
तिलिस्म कहें अचम्भा या कारीगरी वास्तुशिल्पियों की
 इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाए  
पर ना जाने कैसे और क्यूँ
इतना पुरानाऔर मज़बूत अस्त्र ग्रह खुद ब खुद ढहता जा रहा है
 खंडहर हो जाता हुआ
टूट टूट कर गिरते हैं इसके टुकड़े ज़मीन पर गाहे ब गाहे ,यूँ ही
जैसे शोक मनाता हो अपने अकेले छूट जाने का 
अब बेवजह बेमौसम ढह रही हैं दीवारें इस अस्त्र ग्रह की
ज़र्ज़र महराबें,टूटे झरोखे ,जंग लगे लोहे की मोटी जंजीर
और जंजीर में गुंथा एक विशालकाय बूढा ताला
जिसे अपने जंजीर में बंद होने की सदी याद नहीं
ये सब कहते हैं यही कि
अब तबाही को ज़रूरत नहीं किसी
औरंगजेब की
 नहीं है अब दरकार
 देश की आजादी हथियाने के लिए
पहले उसके भाषा और संस्कृति पर आक्रमण करने की
अब हम मशीनी युग में हैं .... 

3 अक्तूबर 2012

युद्ध



युद्ध एक शब्द है जिसके अर्थ का रंग लाल है
और चीत्कार स्वर हीन  
युद्ध कुरुक्षेत्रों के मोहताज नहीं अब    
आधुनिकता के इस बाज़ार में युद्ध भी
एक उत्पाद की तरह चमकता है बड़े २ शो रूमों में
प्रलोभनों,विज्ञापनों,,महंगाई और विवशता के हथियारों से लड़ता
कुछ युद्ध जीतने के लिए नहीं ,
 लड़े जाते हैं जिंदा रहने के लिए
और जिनको लड़ने की ना कोई तरकीब होती
ना ही मियाद जैसे भूख गरीबी,महंगाई,अन्यायों
दुखों,विडंबनाओं लंबी फेहरिस्त है     
ये युद्ध चलते हैं सदियों से पीढ़ियों तक
घुलता जाता है इनका काला धुआं  
एक धीमे ज़हर की तरह
बेबसों पीढ़ियों की जीवन शिराओं में
और गाढा होता हुआ
सर्वहारा शब्द की यात्रा जहाँ से भी शुरू हुई हो
अब तो सिर्फ मतलब एक ही है इसका
मनुष्य से हारा हुआ मनुष्य
संघर्षों की नियति सिर्फ एक अफ़सोस जो
संक्रमित होता है
जातियों,पीढ़ियों,भूखमरियों और अन्यायों में
देह गढ़न के पहले ही
आत्मा में घुस बैठ जाते हैं कुछ युद्ध
अपने संतापों और दुखों के औजार संभाले
दीमक की तरह कुतरते रहते हैं
न्याय की उम्मीदें ,किसी खास वर्ग में  
युद्ध ...
इंसानियत का हैवानियत से
सच का झूठ और
न्याय का अन्याय से
शब्दों का विचारधारा से
व्यवस्था का संविधानों से
जाति का धर्मों से
पुरुषवादी सोच का स्त्री मुक्ति से
अहं का विवशताओं से
ये वो लड़ाइयां हैं जो बंदूकों से नहीं
लड़ी जाती हैं विचारों से ,
 भूख से महंगाई और गरीबी से  
थक चुके हैं वो अब लड़ते २
अब उन्हें कुछ आराम चाहिए
बस दे सकते हो दे दो
एक युद्ध विराम
ताकि अगले किसी अघोषित युद्ध के लिए
बदल लिए जाने की मोहलत मिले उन्हें  
नियति की लहुलुहान त्वचा और चिथड़ी आशाओं को