25 जून 2013

कालजयी साहित्य और साहित्यकार

नोबेल पुरूस्कार तमाम आरोपों विवादों  के बावजूद आज भी विश्व के सर्वोपरि सम्मानीय पुरुस्कार हैं |नोबेल पुरुस्कार प्राप्त अनेक विजेताओं का बचपन और किन्ही किन्ही का तो पूरा जीवन ही कष्टों व् संघर्षों में बीता ,इनमे से कुछ अपनी पारिवारिक प्रष्ठभूमि के कारण संघर्षरत रहे और कुछ तत्कालीन सामाजिक अर्तिक राजनैतिक विसंगतियों की वजह से इनमे से इम्रे कर्तेज़,गोर्की,मोपांसा आदि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की भयंकर त्रासदी से होकर गुजरे |और जब उसकी असहनीयता और दुर्दशा ने उन्हें विचलित कर दिया यही विचलन उनके उपन्यास कहानियों कविताओं आदि में दरपेश/प्रकट हुआ |साहित्य की अनेक विधाएं ,विचारधाराएँ ,सोच ,विषय अपनी उत्क्रश्तता के शिखर पर सिर्फ एक ही प्रयोजन के फलस्वरूप पहुँचती हैं वो है सम्पूर्ण मानव जाति से सरोकार और संभावनाएं न की अपने समाज अपने देश और अपनी समस्याओं गुण दोषों का प्रकटीकरण रुदन या चिंता (कालजयी साहित्य इसका साक्षी है )|इनमे से कुछ साहित्यकारों का जीवन चरित सुनकर तो आश्चर्य होता है जैसे १९७४ के नोबेल पुरूस्कार विजेता स्वीडिश कवी हैरी मार्टिनसन जिनकी माता अपने पति का देहांत होने के बाद अपने छः बच्चों को बेसहारा छोड़कर अमेरिका चली गईं एउर हैरी का बचपन अनाथालयों में गुजरा वहीं १९९९ के विजेता जर्मन उपन्यासकार गुंथर ग्रास भी महायुद्ध की घटनाओं के साक्षी रहे उन्होंने अपने कई उपन्यासों में इन्ही त्रासदियों को विषय बनाया |उनका उपन्यास ‘’कैट एंड माउस डॉग ईयर्स आदि हैं |‘’,डॉग इयर्स,तो बिलकुल अनोखा ही उपन्यास है जिसमे कोई एक केन्द्रीय पात्र न होकर सिर्फ आवाजें हैं सपने हैं लेकिन सबसे अधिक प्रसिद्धि उन्हें अपने उपन्यास ‘’दि तिन ड्रम’’ के लिए मिली इसे जर्मनी में एक नया युग आरम्भ करने वाला उपन्यास कहा गया |इसके अलावा पुर्तगाली विजेता कवी/लेखक जोस सारामागो,रूसी साहित्यकार मिखाइल शोलोखोव (१९६५)|यद्यपि संघर्षों से गुजरना और उसी पर रचना करना किसी साहित्यिक सच्चाई या विशेषता /उत्क्रश्तता को नहीं सिद्ध करता |जैसे फ्रांस के रोजे मारते दुगार,चर्चिल आदि लेखक संपन्न परिवारों से वास्ता रखते थे लेकिन इन सभी में जो एक समानता है वो यही है की इनके सरोकार मानवता के पक्षधर रहे |(क्रमशः)
वंदना 

10 जून 2013

सिंगापुर डायरी

नाईट सफारी -
हम लोग जब नाईट सफारी पहुंचे तब शाम के करीब सात बजे थे अन्धेरा घिर गया था बादल और हल्की बारिश भी थी |नाईट सफारी एक जू है जिसका समय रात के छः बजे से ग्यारह बजे तक है |मुझे बताया गया था कि जंगल में खुली ट्राम में से सभी जंगली जानवरों को आसपास घूमते हुए देखा जा सकता है थोडा डर तो लग रहा था लेकिन डर से ज्यादा रोमंचित थी |टिकिट लेकर हम ट्राम की प्रतीक्षा करने लगे रात और गहरा गई थी |कि तभी ट्राम आकर नियत स्थान पर खडी हो गई |ट्राम चारों और से वाकई खुली हुई थी एक छत ज़रूर थी उस पर जो बारिश से बचने के लिए होगी |उसमे हम लोग बैठ गए ट्राम छोटी थी सो जल्दी ही सवारियां भर गईं हलाकि ज्यादा लोग नहीं थे क्यूँ की दो ट्राम अनवरत चलती रहती हैं रात ग्यारह बजे तक | जो थोड़ी बहुत ‘’आड़’’ थी वो भी कांच की पारदर्शी दीवारों की लिहाजा हमें अपने केबिन से सभी यात्री दिखाई दे रहे थे और उन्हें हम | ट्राम ऐसे चल रही थी जैसे उड़ रही हो या हम उड़ रहे हों क्यूँ की उसमे ज़रा भी आवाज़ नहीं थी |वजह पता पडी कि आवाज़ होने से जानवर इसकी और आ सकते हैं |जैसे जैसे ट्राम पटरियों पर लहराते हुए ‘’उड़ रही थी जंगल व् अन्धेरा और घना हो रहा था ..सुई पटक सन्नाटा ...|मारे डर के मेरी सिट्टी पिट्टी गुम ..मैंने देखा कि अन्य यात्री जिनमे ज्यादातर विदेशी थे भी डरे से उस घनघोर अँधेरे जंगल की और देख रहे थे |मेरी रही सही हिम्मत ट्राम के ड्राइवर को देख कर खोने लगी ट्राम की ड्राइवर एक बेहद दुबली पतली कम उम्र की चीनी लडकी थी | अनायास कई अधूरे काम याद आने लगे और ये भी अहसास होने लगा कि अधूरे रहना ही उन बेचारों की नियति होगी | लेकिन मुझे ये सुनकर कुछ राहत मिली के ये बहुत ट्रेंड होती हैं और ट्राम में फोन ,इमरजेंसी आदि की सभी सुविधाएँ मौजूद हैं | ट्राम के बाहर घने अंधेरों के बीच २ में स्पॉट लाईट की रोशनी में जानवर चहलकदमी करते या बैठे दिखाई दे रहे थे |कुछ विशाल शरीर के जानवर भी थे जिन्हें कभी नहीं देखा था ये ज्यादातर अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले जानवर थे | भारतीय जानवरों में बब्बर शेर हाथी वगेरह थे |अचानक ट्राम घने जंगल के अँधेरे में रुक गई |सामने गेंडा हाथी सपरिवार विचरण कर रहा था हमारे और उनके बीच की दूरी बस कुछ फर्लांग ही थी |माइक पर एक उद्घोषणा हो रही थी कि जो पेसेंजर जानवरों को और नजदीक से देखना चाहते हैं वे ट्राम से उतर जाए कुछ देर बाद आकर हम आपको ले लेंगे लेकिन इस एहतियात के साथ की जो पैदल मार्ग आपके लिए बनाये गए हैं उनसे बाहर न जाएँ |बहुत जिद्द करके मैं भी आखिरकार अन्य यात्रियों के साथ ट्राम से उतरने में सफल हो गई |मार्गों पर लोहे की जालियां लगी थीं स्पॉट लाईट की रोशनी में करीब से जानवरों को देखना उनकी गतिविधियाँ आदि अद्भुत था |\कुछ देर बाद ट्राम आ गई और हम लोग उसमे बैठ गए | (वहां फोटो लेने की मनाही थी )


4 जून 2013

देहरी

उम्र के चौसठवें बरस में
सुबह की सैर से वापिस लौटते हुए उस दिन
अचानक लगा बिशन बाबू को कि
नहीं नहीं ...जीना कुछ और तरह था
और जी कुछ और तरह लिए
घर की देहरी करीब आ रही थी
बनिस्बत पीछे छोड़ आये पिछली लम्बी सडक  
 और उनसे भी
लम्बे सायेदार दरख्तों से....  
वो रुक गए सहसा  
जिसे छोड़ आये थे वो अपनी  
पीठ पीछे
पलटकर देख रहे थे उस लम्बी सडक को
उन नई साफ़ शफ्फाक चमकती सडकों पर  
 बिछ गए थे कुछ पीले कुरमुरे पत्ते अब
दरख्तों को नए पत्तों की आदत है ना
और सडकों को हवा की  
सड़क के उस छोर पर   
दूर बहुत दूर धुंधली सी दिखाई दे रही हैं मानव आकृतियाँ
उड़ती हुई सी ,जो दौड़ी आ रही हैं इसी सड़क पर
चश्मे का नंबर बहुत बढ़ गया है कमबख्त ....
वो हाथ उठाकर रोकना चाहते हैं उन्हें
दौड़ों नहीं चलो क्यूँ कि
सूखे पत्ते दब रहे हैं तुम्हारे पैरों के नीचे
और  
दौड़ते हुए देख नहीं पाओगे तुम
पेड़ों की सघनता और सडकों की लम्बाई
पर वो कुछ नहीं कहते क्यूँ कि
देहरी घर की फुसफुसा रही है
शायद यही कि

 आ जाओ अब धूप तेज़ हो रही है |

3 जून 2013

कुछ लोग ....

जैसे दौडती हैं सडकें चमकती हुई चौड़ी और लम्बी
दमकते हुए चेहरों,कपड़ों और बरक्कत के आगे आगे
सलाम ठोकती हुई   
क्या ऐसी उखड़ी ऊबड़ खाबड़ खड्डों से भरी
सडकों के लायक ही होते हैं कुछ लोग?