17 सितंबर 2013

यादें

उस स्मृति की परछाईं बहुत लंबी होती है
जिसकी जड़ें गहरी और ज़मीन गीली हो

12 सितंबर 2013

चेखव और आनरे रेना आल्बेर गे द मोपांसा

                 
किसी कहानी का कहानी होते हुए भी इस क़दर जीवंत होना कि वो पाठक को द्रश्य का एक हिस्सेदार बना ले यही किसी कहानी की सफलता है और यही कुशलता कुछ चुने हुए कथाकारों की कृतियों को  असंख्यों की भीड़ से अलग कर एक शिखर तक पहुंचा देती है! हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक स्वयं प्रकाश कहते हैं’’कुछ ही किताबें ऐसी होती हैं ,जो आपको कुछ बताती .सुनाती  कहती नहीं सीधे एक द्रश्य और एक काल के सामने ले जाकर खडा कर देती हैं !
उनीसवीं सदी के अंतिम दशकों में यथार्थवादी कहानी को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने का श्रेय निस्संदेह जिन दो लेखकों को जाता है वो हैं मोपासा और चेखव !अराजकता ,निर्ममता के समक्ष निरुपायता की निराशा ,निर्धनों की विवशताएं,दासता की त्रासदी,सामाजिक राजनैतिक विसंगति ,नोर्मंडी किसानों के जीवन का अत्यंत जीवंत एवं वस्तुपरक वर्णन मोपासा के रचना संसार की विविधता एवं विशेषता रही !
सर्वश्रेष्ठ फ्रांसीसी कथाकार (1850-1893)आनरे रेना आल्बेर गे द मोपांसा का ज़न्म 5 अगस्त 1950 को फ़्रांस के शैतो द मिरोमेस्निल में एक नोर्मन परिवार में हुआ था !मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में माता पिता में सम्बन्ध विच्छेद हो गया,और मोपासा अपने छोटे भाई और माँ जो सुसंस्कृत,साहित्यिक रूचि वाली सभ्रांत महिला थीं के साथ रहने लगे !यद्यपि माता की रुचियों और संस्कार का उन पर गहरा प्रभाव था  बावजूद इसके  माता पिता के अलगाव का उनके बाल मन पर बुरा असर हुआ !कहा जा सकता है कि इस दुर्दांत त्रासदी ने उनकी अधूरी और बिखरी जिंदगी को एक सर्जनात्मक भटकाव की परिणिति में मोड दिया था,पर नियति की विडम्बना का यही अंत नहीं था ,उन्हें युवावस्था में एक लाइलाज बीमारी ने जकड लिया ,जो उस युग में यूरोप की  सर्वाधिक भयावह बीमारी मानी जाती थी !दरअसल मोपांसा को यह रोग वंशानुगत रूप से मिला था !मोपांसा अपने आयु की अल्पता जानते थे ,अतः एक ओर तो उन्होंने संभवतः इसी नैराश्यपूर्ण सत्य से ग्रसित हो  दुराचारी और मौज मस्ती भरा जीवन जीने की ओर रुख कर लिया ,वहीं दूसरा पक्ष यह था ,कि जीवन की सीमित परिधि की इसी अनुभूति ने उन्हें सर्जनात्मकता और तीव्रता भी प्रदान की !यही वजह थी कि मात्र तैंतालीस वर्ष की आयु अर्थात सिर्फ   बारह वर्षों के साहित्यिक जीवन में उन्होंने तीन सौ से अधिक कहानियां और छः उपन्यास लिख डाले !ये केवल संख्यात्मक द्रष्टि से चौकाने वाला करिश्मा नहीं था बल्कि उससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात ये थी कि उनकी अधिकांश रचनाएं यथार्थ वादी कहानी की उत्कृष्ट श्रेणी में गिनी गईं !गौरतलब है कि बाल्जाक के बाद सबसे लोकप्रिय लेखक मोपांसा ही थे !लोकप्रियता में वे कई मूर्धन्य और वरिष्ठ कथाकारों को पीछे छोड़ चुके थे ! उनके समकालीन महान लेखक उनकी सशक्त शानदार रचनाओं के स्वयं भी कायल रहे जिनमे तुर्गनेव,टोलास्तोय,गोर्की आदि शामिल हैं !दरअसल साहित्य या कोई रचना  प्रायः लेखक के अनुभव और भोगे हुए यथार्थ की गहराइयों से निकली अनुभूतियाँ ही होती हैं !
मोपांसा की कहानियों में वैविध्य पूर्ण विस्तार है !अमूमन किसी भी कहानी का केन्द बिंदु या तो कोई पात्र हो सकता है ,कोई विशेष स्थिति/घटना ,या कोई विशिष्ट स्थान जिनके आसपास कहानी बुनी जाती है , खुद को बयाँ करती है! मोपांसा की  कहानी/उपन्यासों  में इसी केन्द्रीय धुरी की विविधता बहुलता में देखने को मिलती है !उनकी कहानियों को पढकर जहां एक ओर व्यक्तिगत,पारिवारिक,तथा सामाजिक स्थितियों व संबंधों की तस्वीर खिंचती है ,आर्थिक –राजनैतिक समस्याएं उजागर होती हैं,वहीं हमें मानव चरित्र को गहराई से जानने और उसके मनोविज्ञान को समझने का अवसर भी मिलता है!वो एक अराजकता और आतंक का दौर था !प्रुशियाई लोग जिन्होंने पेरिस को घेर लिया था बहुत ताकतवर थे  और फ़्रांस को तबाह करने ,लूटमार और आतंक फैलाना जिनका मकसद था !उनकी ज्यादातर कहानियां इसी दौर में लिखी गई हैं !हालाकि उनकी रचनाओं में सभी महानता की कोटि में आती हों ये कहना तर्कसंगत नहीं होगा और शायद ये किसी भी लेखक के लिए संभव भी नहीं ,तब जबकि रचनाएँ इतनी तीव्रता और समय की तुलना में इतनी अधिक संख्या में लिखी गई हों ! पर उनकी सशक्त रचनाओं की गिनती और ऊँचाई ,उनकी कामचलाऊ रचनाओं को नज़रंदाज़ करने के लिए पर्याप्त है !
1880 में लिखी गई कहानी ‘’चर्बी की गुडिया’’जिसे तब ही नहीं आज भी लेखक/आलोचक उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते हैं !यह कहानी ज़र्मनी के कब्ज़े वाले शहर से बचने के लिए एक घोडा गाड़ी में यात्रा कर रहे विभिन्न वर्ग,स्वभाव, रहन सहन वाले कुछ स्त्री पुरुष और उनके साथ ही यात्रा कर रही एक महिला एलिजाबेथ रूसो की है ,जिसकी सामाजिक छवि ठीक नहीं है!इस कहानी में प्रिशियाई आतंक ,सामाजिक वर्गों की भावनात्मक-संवेगात्मक रिक्तता ,संवेदन हीनता और स्वार्थपरकता का चित्रण किया गया है!
1880  से  1891 तक का समय मोपांसा के लेखन कार्य का सर्वश्रेष्ठ काल कहा जा सकता है!1883 में मोपांसा के दो कहानी संकलन मद मोजाल फीफी और हंस के किस्से प्रकाशित हुए !और पहला उपन्यास ‘’इउन वी’’(A Woman’s life)प्रकाशित हुआ !इस उपन्यास में उन्होंने एक निरीह असुरक्षित स्त्री की कहानी के माद्ध्यम से मानवता की त्रासदी को वर्णित किया है !1890 तक उनके पांच और कहानी संग्रह प्रकाशित हुए !फ्लाबेयर,जोला,तुर्गनेव और टोलास्तोय उसके जबरदस्त प्रसंशक थे !उनके बारे में कहा जाता है कि फ्रांसीसी लोगों के जीवन और मनोविज्ञान पर मोपांसा की  गहरी पकड़ थी !सधी हुई संप्रेषणीय भाषा ,उनकी रचनाओं में धूर्त क्लर्कों,पियक्कड नाविकों,कंजूस किसानों,के जीवन की वास्तविकताओं,रिक्तता ,का चित्रण वास्तविकता से भी अधिक वास्तविक रूप में किया गया है !मनुष्य जीवन के छोटे बड़े सरोकारों को आरपार देखने की द्रष्टि है उनकी !मोपांसा की कहानियों में जीवन का कटु सत्य विशेषरूप से उभर कर आया है ! कहानी संग्रह ‘’कलेर द ल्यून ‘’और ‘’मिस हैरियट’’ तक आते आते मोपांसा की कृतियाँ फ्रांस में ‘’बेस्ट सेलर’’ बन चुकी थीं !
समाज में व्याप्त वर्ग –संघर्ष ,तथा इसी अनियमितता से उपजे ‘’इनफीरियारिटी’’ अथवा  ‘सुपीरियरिटी कोम्प्लेक्स ,सामाजिक छवि कायम करने के लिए दिखावे और उन दिखावों  के कारन जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा तनाव ग्रस्त होना ,यही दिखाया गया है उनकी कहानी ‘’हीरों का हार’’में !दरअसल ये कहानी मध्यम वर्ग में व्याप्त कुंठाओं को उजागर करती है !नियति के फेर में एक सुन्दर महत्वाकांक्षी स्त्री का एक साधारण क्लर्क से विवाह हो जाता है ,और किसी सभ्रांत और विशिष्ट व्यक्ति की पार्टी में जाने के लिए वो पति से एक महंगी पोशाक,जो उसका पति उधार पैसे लेकर खरीदता है बनवाती है !अपनी घनिष्ट अमीर मित्र से अत्यंत मंहगा हीरों का हार ‘’कल तक वापिस कर देने’’ का कहकर ले आती है,जो उस पार्टी में खो जाता है !फिर उस बेहद महंगे  हीरे के हार को उसे वापस करने के लिए किन- किन दुर्दम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है पति पत्नी को ,इन कुपरिस्थितियों और संघर्ष से जूझते हुए पिछले दस सालों में उनकी आर्थिक और शारीरिक स्थिति की क्या दुर्दशा होती है ?इसका कारुणिक  वर्णन है इस कहानी का अंत चौंकाने वाला और त्रासद है !
मोपासा को ‘’Father of short stories’’भी कहा जाता है!1881 में लघु कथाओं का पहला संस्करण आया !मोपासा की कहानियों में कल्पना –शक्ति ,अंतर्द्रष्टि,और यथार्थ बोध बहुत गहरा होता है! अर्नेस्ट हेमिंग्वे व ,चेखव ने ज्यादातर प्रतीकात्मक कहानियां लिखीं वहीं आधुनिक कहानी में फेंटेसी की शुरुआत जर्मन लेखक काफ्का  से मानी जाती है!मोपासा की कहानियों की ये विशेषता थी कि उन्होंने यथार्थवादी और फंतासी दोनो प्रकार की कहानियां लिखीं !मोपासा फ़्रांसिसी साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की आखिरी कड़ी थे जिन्होंने उस श्रंखला के शीर्षस्थ लेखक बाल्जाक और स्तान्द्हल की समृद्ध परंपरा को ही आगे ले जाने का काम किया !
 ‘’रस्सी का टुकड़ा’’एक अत्यंत मार्मिक कहानी है !एक बूढ़े किसान को मेले में जाते वक़्त एक रस्सी का टुकड़ा ज़मीन पर पड़ा हुआ मिलता है !उसकी पीठ में बेहद पीड़ा होने के बावजूद वो उसे उठा लेता है ये सोचकर कि कौन सी चीज़ कब काम आ जाये !उस रस्सी के टुकड़े को उठाते हुए उसका एक पुराना दोस्त जो अब शत्रु था देख लेता है !उसके दूसरे  दिन ही एक धनी व्यक्ति का रुपयों से भरा बटुआ उसी सड़क पर खो जाता है ! धनी व्यक्ति उस बूढ़े किसान को बुलवाता है ,तब किसान को पता चलता है कि उस व्यक्ति जिसने उसे रस्सी उठाते हुए देख लिया था और जो उसका अपमान चाहता था उसी ने शिकायत की है !बूढा तरह तरह से अपने को निर्दोष साबित करने की कोशिश करता है जेब से रस्सी का टुकड़ा निकाल कर दिखाता है,कसमे खाता है ,लेकिन उसकी बात कोई नहीं मानता,और उसे दोषी करार दे दिया जाता है !फैलते फैलते  ये बात पूरे गाँव में फ़ैल जाती है और लोग उसे उलाहने देने लगते हैं उसे कोसते हैं !वो खुद को सिद्ध करना चाहता है कि वो निर्दोष है, पर कोई उसकी बात नहीं सुनता !बाद में वो बटुआ किसी अन्य व्यक्ति को सड़क पर पड़ा मिल जाता है और वो उस धनी  आदमी को सौंप देता है इसके बावजूद भी लोग उस बूढ़े किसान पर  विशवास नहीं करते ,उसका मजाक उड़ाते हैं ,उससे घृणा करते हैं और अंत में असमय ही वो यही बडबडाता हुआ मर जाता है कि ‘’मैंने बटुआ नहीं लिया था ‘’!
कहानी ‘’ज़िंदा मछलियाँ ‘’वस्तुतः एक क्रूरता और भोलेपन या एक ताकतवर और एक कमज़ोर नस्ल की कहानी है !पेरिस पूरी तरह प्रुशियाई लोगों के कब्ज़े में था !स्थितियां बेहद खराब थीं लोग भूखों मर रहे थे !पूरे समाज में घनघोर अराजकता व्याप्त थी !एक घडीसाज़ जिसका नाम मोरिसात था और जो मछली पकड़ने का बेहद शौक़ीन था ,अपने मित्र सौवेज़ के साथ रोज टीन का डिब्बा और मछली पकड़ने का जाल लेकर नदी किनारे  जाते, और घंटों मौन या बात करते हुए वे दोनो बैठे मछली पकड़ा करते !ज़र्मन सैनिक जनता पर अत्याचार कर रहे थे स्थितियां दुष्कर थीं और जाहिरतौर पर मछली पकड़ने में व्यवधान भी !वो दौनों मित्र ,मछली पकड़ने के जूनून जो उनकी आदतों में शामिल हो चूका था, का लोभ संवरण नहीं कर पाते और जाल और डिब्बा लेकर दुश्मनों से छिपते छिपाते पहुँच जाते हैं उस नदी के किनारे जहाँ  दुश्मनों का डेरा था !बहुत दिनों बाद अपनी पुरानी जगह पर पहुँच जाने पर उन्हें अवर्णनीय खुशी होती है और सरकंडे के पेड़ों के बीच छिपे हुए वे मछली पकड़ने का जाल बिछा देते हैं,और अत्यंत प्रसन्न होते हैं !पर कुछ समय बाद ही उनको दुश्मनों द्वरा पकड़ लिया जाता है !उनसे कुछ खास बातें पूछी जाती हैं जिनसे वो अनभिग्य होते हैं और तब उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया जाता है और उसी नदी में उनकी टांग और हाथ पकड़कर निर्दयता पूर्वक फेंक दिया जाता है !अंत में कर्नल जिंदा तडपती मछलियों जो उन्होंने पकड़ीं थीं को देखकर कहता है ‘’इन्हें ऐसे ही ज़िंदा फ्राय करके लाओ!
 ‘’हीरों के हार ‘’में जहाँ विभिन्न सामाजिक वर्गों की  भावनात्मक –संवेदनात्मक समस्याओं से उपजी कुंठा और विसंगति का दिग्दर्शन है वहीं ‘’रस्सी’’कहानी में नोर्मन किसानों के जीवन से जुडी व्यथा –कथा जो ,तथा समाज में व्याप्त अराजकता झूठ और संवेदन शून्यता को दर्शाता है !’’चर्बी की गुडिया’’में नौकरशाही ,स्वार्थपरकता संवेदनहीनता बुर्जुआ समाज के निजी जीवन में नैतिकता का अभाव ,अनुभूतियों और रिश्तों का खोखलापन एवं संबंधों में पाखंड जैसी सामाजिक विसंगतियाँ उजागर होती हैं तो ‘’ज़िंदा मछली’’में फ्रांस-जर्मनी युद्ध विषयक विसंगति , प्रुशियास का आतंक,वहशीपन क्रूरता और बर्बरता का वर्णन है !
मोपासा के समकालीन रुसी लेखक गोर्की के कुछ उपन्यासों में विषयात्मक साम्यता द्रष्टिगत होती है उल्लेखनीय है कि 19 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में गोर्की ने तीन उपन्यास लिखे थे ‘’मेरा बचपन ‘’मेरे विश्वविद्यालय’और जीवन की राहों पर’’ इन तीनों आत्मकथात्मक उपन्यासों की प्रष्ठभूमि एतिहासिक है!इन्ही विसंगतियों और बर्बरता का वर्णन करते हुए ‘मेरा बचपन’ में एक जगह वो लिखते है ‘’मै अपनी नहीं उस दमघोंट और भयानक वातावरण की कहानी कहने जा रहा हूँ जिसमे साधारण रुसी अपना जीवन बिताता था और बिता रहा था !’’ये उपन्यास ,कहानियां एक ऐसा इतिहास है जिनसे हमारी आँखों के सामने उनका समूचा युग चलचित्र की भांति उभरता चला आता है!नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचीबे कहते हैं ‘’जब हम किसी कहानी को पढते हैं ,तो हम केवल उसकी घटनाओं के द्रष्टा ही नहीं बनते, उस कहानी के पात्रों के साथ हम तकलीफों में भी साझा करते हैं !’’
 तुर्गनेव और फ्लाबेयर मोपासा के जबरदस्त प्रसंशक थे !यही वो समय था जब आधुनिक कहानी के प्रणेता चेखव ने प्रतीकात्मक कहानियां लिखीं! मोपासा की अंतिम समय में लिखी गई रचनाओं में उनकी सर्जनात्मक क्षमता का निरंतर ह्वास हो रहा था तथा मानसिक दशा  बदतर हो रही थी !अवसादित क्षणों में उन्होंने आत्म हत्या करने की भी कोशिश की थी ,लेकिन उन्हें बचा लिया गया था !6 जुलाई 1893 को अपने तेंतालीस्वें ज़न्म दिन के कुछ पहले ही उनकी म्रत्यु हो गई! मोपांसा को पूरे विश्व में अब तक का सर्वश्रेष्ठ फ्रांसीसी कथाकार माना जाता है





ख्वाहिश
सोलहवीं मंजिल की खिड़की के 
कितना पास होता है आसमान
और 
कितने दूर लगते हैं लोग
सब कुछ दीखता है वैसा 
जैसा नहीं सोचा होता कभी
कि ‘’दिखना’’ हो सकता है ऐसा भी
किसी घटना का होते हुए ....
टेढ़े मेढे लोगों को
सीधे रस्ते ले जाती सड़कें
हांफ जाते हैं ऊँचाई तक आते 
अन्यायों,मलालों और विडंबनाओं के कोलाहल 
बंजर धरती को ढँक लेती हैं
चींटियाँ
आँखों में उतर आता है हरा रंग  
दरख्तों के ठूंठ मूर्ती हो जाते हैं
किसी देवता की
अलावा इसके बस  
दिखाई देते हैं रंग
बहुत थोड़े ....
हवा के धुंधले केनवास पर 
काश ,ज़िंदगी की दीवार में भी
होती कोई खिड़की
और ज़िंदगी खड़ी होती

सोलहवें माले पे | 

9 सितंबर 2013

कहानी -लॉफिंग क्लब

कहानी                                  लौफिंग क्लब
वो पांच थे ...शुरू में तो दो ही ..जोशी और खरे |मित्रता की वजहें पड़ोसी और हमउम्र होने के अलावा रुचियों में साम्यता भी थी जिनमे सबसे प्रमुख था सुबह शाम की सैर को जाना |रिटायर्मेंट के बाद आदमी अपने स्वास्थ्य के प्रति ज़रा ज्यादा ही सजग हो जाता है जीने की जिजीविषा बढ़ने लगती है | जोशी और खरे उन खुशनसीब लोगों में कहे जा सकते थे जिनका अतीत सामान्यतः संतुष्ट रहा |दौनों ही सरकारी नौकरियों से रिटायर हुए |बाल बच्चे ठीक ठाक नौकरी में लग गए बेटियाँ अपने घर की हो गईं | सैर उनके सेवा निवृत्ति के खाली वक़्त का सबसे भरा पूरा पन थी लिहाजा अब शेष ज़िंदगी की एक ज़रूरी आदत में शुमार हो गयी थी
अतीत के भोगे हुए यथार्थ वर्तमान में कभी कभी औचित्यहीन हो जाते हैं | कुछ बरसों पहले तक वो ज़मीन जहाँ कूड़े के अम्बार दिखाई देते थे राहगीर उस तरफ से मुंह फेर ज़ल्दी २ निकल जाना चाहते थे वहां अब नगर निगम ने फेंसिंग और एक गेट लगवा दिया था और फिर इस घूरे के दिन भी पलटे.... अब ये शहर के लगभग बीचोंबीच बना एक ख़ूबसूरत और आबाद पार्क था |सुबह रंग बिरंगे पक्षियों के कलरव ,सैर करने वालों जॉगिंग या ऐसे ही बेंचों पर बैठ यहाँ के दिलकश नज़ारे देखने वालों से आबाद रहती, दोपहर के सन्नाटों भरे कोनो में प्रेमी प्रेमिकाएं एक दूसरे का हाथ पकडे घूमते या कंधे पर सर टिकाये किसी सुनसान बेंच पर बैठे बतियाते नज़र आते रंगीन फव्वारे बच्चों के खेलने कूदने गेट के बाहर खोमचे ठेले वालों से गर्मियों की शामें गुलज़ार रहतीं| पार्क में दो तलीय रेशमी दूब का लॉन खुशबूदार फूलों की क्यारियाँ बैठने के लिए छोटे अनगढ़ पत्थर और कुछ बेंचें भी थीं |पूरी पक्की चोहद्दी पाम और अशोक के पेड़ों से घिरी थी और पत्थर की बाउंड्री से ही पीठ टिकाये बैठा वो ख़ूबसूरत नीला सरोवर भी था जिसमे रंग बिरंगी मछलियाँ और बत्तखें तैरती रहतीं |अब जोशी और खरे स्टेडियम जाने के बजाय इसी पार्क में आने लगे थे सुबह की सैर के लिए | कुछ दिनों बाद उन्होंने ही वहां आकर जोर जोर से तालियाँ पीटना और हंसना शुरू किया शुरू में लोग उन्हें अचम्भे से देखते लेकिन फिर धीरे धीरे ये एक रोजमर्रा की सामान्य सी गतिविधि मान ली गई ..मोर्निंग वॉक की तरह |
जोशी ने रिटायर होने से पहले हंसने के कई लाभ सुने थे और दो एक बार अपने दोस्त के साथ एक लोफिंग क्लब में गए भी थे |उन्हें तीस पैंतीस लोगों का एक साथ जोर जोर से हंसना तालियाँ बजाना .तालियाँ बजाते हुए हंसना वो भी बेवजह बेतरह सचमुच बहुत अजीब लगा  लेकिन उसके फायदे सुनकर वो उसकी और आकर्षित हुए थे | तर्क थे, इस आधुनिक और बेफुर्सत ज़माने में खुलकर हंसने के मौके ख़ास तौर से मध्यम वर्ग के पास ज़रा कम होते हैं अलावा इसके छोटे बंद फ्लेट्स में पंखों या एयर कंडीशनर की घुटी हवा आराम तो देती है पर फायदा नहीं ,उलटे नुक्सा ही करती है | उम्र बढ़ने के साथ ऑक्सीजन की ज़रुरत भी अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा होती है इसलिए पार्कों में आदमी घूम सकता है ताज़ी हवा और वातावरण का लाभ ले सकता है | लम्बी लम्बी सांसें खींचकर ऑक्सीजन अपने फेंफडों में भरना और जोर जोर से हंसना फेफड़ों को तो तरोताजा रखता ही है साथ ही मन को भी चिंता मुक्त करता और ताजगी भर देता है|
रिटायरमेंट बुढ़ापे के आमद की पुख्ता घोषणा होती है और वे बूढ़े घोषित कर दिए गए थे | |लिहाजा खरे और जोशी का सुबह सवेरे सैर को जाना बाग़ में हलके फुल्के व्यायाम करना नित्यप्रति के ज़रूरी कामों में शामिल हो गया था |अब जब पार्क उनके घर से कुछ दूरी पर बन गया था तो उन्होंने यहाँ लौफिंग क्लब बनाने का निर्णय ले ही लिया |पहले तो जोशी और खरे बस दौनों ही थे धीरे धीरे पार्क में सैर को आने वाले उनके हमउम्र स्त्री पुरुष उस क्लब से जुड़ने लगे |होते होते वहां बीस पच्चीस पुरुष स्त्रियाँ उस क्लब के सदस्य बन गए| इसके अलावा जोगिंग करते हुए कुछ युवक युवतियां कान में हेड फोन लगाये संगीत और मोर्निंग वॉक का दोहरा मज़ा लेते पार्क में आते ,कभी २ कुछ देर बैठकर बातें भी करते और चले जाते |जबकि कुछ लोग वहां सिर्फ कसरत करने आते थे |सबकी अलग दुनियां लेकिन मकसद एक ...फिट रहना ....|
अब लौफिंक क्लब में चुटकुले ,देश की ख़बरें ,व्यक्तिगत चर्चाएँ आदि भी होने लगीं,अपनापा बढ़ने लगा | शर्मा जी रोज़ आते थे वहां |वो प्राकृतिक चिकत्सा करते थे और आते वक़्त नीम तुलसी की पत्तियाँ तोड़ कर लाते और सभी को प्रसाद की तरह बांटते |क्लब में ज्यादातर रिटायर्ड लोग ही थे लेकिन वो सिर्फ पांच ही थे जो अचूक नियमित आते |
उनमे सबसे बूढ़े सक्सेना जी थे करीब पैंसठ बरस के |यूँ आजके ज़माने में पैंसठ बरस की उम्र होती ही क्या है ?अरे इस उम्र में तो लोग बाग़ मैराथन में हिस्सेदारी करते हैं नाटकों सिनेमाओं में बिंदास अभिनय करते हैं | राजनेताओं की तो आधी से ज्यादा कौम इन्हीं बुजुर्ग ‘जवानों’ से आबाद है ,लेकिन सक्सेना जी का बुढापा दरअसल उनकी वास्तविक उम्र को लांघकर आगे बढ़ गया था |सक्सेना जी ने इस पार्क में एक महीने पहले ही आना शुरू किया था | अपने हमउम्र लोखंडे से उनकी दोस्ती यहीं आकर हुई थी |जब और सब लोग कसरतों के बाद हंसी मज़ाक या यूँ ही घांस में टहलने लगते तब वो दौनों बातें करते रहते |लोखंडे सक्सेना जी से दो चार बरस छोटे ही थे लेकिन देह से कमज़ोर|वो अपने झुके कन्धों और दुबली पतली काया को लेकर चले आते सुबह मुंह अँधेरे आकर सूर्य को नमस्कार कर वहीं बेंच पर बैठ जाते |जैसे ही सक्सेना जी आते पार्क में लोखंडे के चेहरे पर खुशी तिर जाती | सक्सेना जी आते ही दो एक चक्कर तेज़ कदमों से लगाते पार्क का |बीच बीच में अपने से आगे जा रहे जोगिंग करते नौजवानों को देखते जाते अपने घिसटने का ख्याल किये बिना फिर अंत में क्लब के सभी सदस्यों के साथ घेरे में खड़े हो वो बेतहाशा हँसते और जोर से तालियाँ पीटते पूरी ताक़त लगाकर| उसके बाद थककर वहीं बेंच पर बैठ जाते कुछ देर वो और लोखंडे बातचीत करते | लोखंडे पार्क में नियमित नहीं आते थे अब तो वो बहुत कम कभी कभार ही आते  |
सक्सेना जी का मुंह पोपला था और आँखों में निराशा की परत स्थाई रूप से छलछलाई रहती लेकिन इस उम्र में ऐसा होना अमूमन मन में कोई शंका पैदा नहीं करता |हँसते में उनकी गर्दन की नसें अजीब तरीके से फूलतीं हाथों की कंपकंपाहट खुद को छिपा नहीं पाती | कभी २ उनकी साँसें फूलने लगतीं और वो वहीं बैठ जाते... कुछ देर सुस्ता हाथ ऊपर कर फिर जोर जोर ठहाके लगाने लगते | लोग बताते हैं कि वो ‘अपने ज़माने में’ काफी मस्त इंसान थे और कम सुनाई देने से पहले उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी गजब का था | उनकी गीली हंसी पसीने के साथ झिलमिला उठती |
दो दिन वो नहीं आये थे पार्क में |जब तीसरे दिन आये तो सभी ने कारण पूछा  
उन्होंने कहा ‘’कुछ नहीं थोडा सर्दी जुकाम हो गया था |आप तो जानते हो कि इस उमर में सर्दी जुकाम ही हलाकान कर डालता है ...वो मुस्कुराने लगे ...वैसे कल दिखाया था डॉक्टर को ..अब कुछ ठीक है
‘’अरे फोन कर दिया होता बाउजी (उन्हें सब वहां बाउजी ही कहते थे )...मै आ जाता स्कूटर से ले जाता आपको डॉक्टर को दिखाने..जोशी जी ने कहा
अरे नहीं नहीं जोशी साब अभी इतने भी व्रद्ध नहीं हुए हैं पैदल निकल जाते ...वैसे बेटी थी घर में लेकिन उसकी परिक्षा चल रही है सो उसे डिस्टर्ब नहीं किया |
                                 (२)
रात जाने और सवेरा उगने के बीच की बेला थी |वृक्षों दीवारों पर धीमी और धूसर सुबह पहुँच चुकी थी पर अन्धेरा अभी छंटा नहीं था |झाड़ियों में से अभी भी अँधेरा झड रहा था |खरे शहर से बाहर थे सो जोशी जी अकेले ही अपनी दरी और पानी की बोतल लेकर पार्क में आ गए थे वही सबसे पहले यहाँ आते थे | पूरा पार्क खाली था लेकिन बेंच पर कोई छाया सी दिखी शायद कोई बैठा है उन्होंने सोचा| पास आये ..सक्सेना जी थे
‘’अरे बाउजी आप इतनी जल्दी ?
‘’हाँ यार मन नहीं लगता घर में |सुबह उठते ही यहाँ आने का मन होता है ‘’
एक फीकी मुस्कुराहट हमेशा की तरह उनके चेहरे पर चस्पा थी |फिर वो कहने लगे ...
‘’छः महीने पहले जब से पत्नी गुज़री है घर में थोडा अकेलापन सा लगता है |सुबह तो यहाँ कट ही जाती है थोडा हंस बोल भी लेते हैं आप लोगों के साथ|वैसे दुःख कोई नहीं है हमें |बेटा और बहू नौकरी करते है घर में ही ऊपर रहते हैं |छोटी बेटी पढ़ रही है और बाकी सब सुविधाएं हैं ही ... उनके चेहरे पर संतुष्टि की छाया लौक गई
वो कुछ देर ज़मीन पर देखते रहे फिर बोले ...’मै सिंचाई विभाग से रिटायर हुआ छः बरस पहले |बड़ी बच्ची की शादी कर दी है ..बहुत दहेज़ देना पडा ..क्या करें लड़का अच्छा था | मकान खरीदा तो अपने ही फंड और कुछ जमा पूंजी से था लेकिन पत्नी की म्रत्यु के बाद एक विरक्ति सी हो गई जीवन से ‘हम भी अब न जाने कब तक’ सोचकर बच्चे के नाम कर दिया |
जी ..अच्छा ही किया..
सुनो पानी है क्या तुम्हारे पास ?कुछ दूर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा  
जी हाँ लीजिये ...जोशी जी ने पानी दिया उन्हें तब तक क्लब के और सदस्य भी आ गए थे और बात वहीं रुक गयी |
अब सक्सेना जी सुबह अँधेरे ही आ जाते और जोशी जी को बैठे मिलते क्लब की गतिविधियों के बाद जब सब चले जाते उसके बाद सबसे बाद में जाते |जाते वक़्त तक धूप आ जाती इसलिए ज्यादातर लोग अपने वाहनों से आते थे |लेकिन सक्सेना जी छाता लगाकर धीरे धीरे पैदल ही जाते |जोशी जी ने एकाध बार उनसे स्कूटर पर छोड़ आने के लिए कहा भी लेकिन उन्होंने मना कर दिया |
उस दिन जब जोशी रोज की तरह सुबह सवेरे पार्क में आये तो देखा पार्क के बाहर भीड़ के कुछ गुच्छे यहाँ वहां धब्बों से बिखरे हुए हैं और सक्सेना जी बंद गेट के सींखचे पकडे निरीह से भीतर देख रहे हैं |चौकीदार ने बताया कि कल इस सरोवर में एक आदमी ने कूदकर आत्महत्या कर ली थी अब ये पार्क कुछ दिनों के लिए बंद रहेगा |
सुनकर जोशी जी अचंभित रह गए ...अरे ये तो बड़ा बुरा हुआ ...कौन था वो कुछ पता चला ?
हाँ कोई लोखंडे नाम का बुजुर्ग आदमी बताते हैं ...
जोशी जी के मुहं से आवाज़ ही नहीं निकली ..उनका चेहरा सफ़ेद पड़ गया
अरे वो अपने लोखंडे बाबू?ये कैसे हो सकता है वो तो बहुत सीधे साधे और खुश मिजाज़ आदमी थे जोशी ने सक्सेना जी की तरफ देखते हुए कहा जो अब भी गेट के सींखचों को पकडे पार्क के भीतर ही देख रहे थे |
..चलिए फिर आपको छोड़ देता हूँ घर तक ...उन्होंने सक्सेना जी से कहा|  
जोशी ..यार एक रिक्वेस्ट है तुमसे ..सक्सेना जी के चेहरे पर तटस्थता का भाव था  |
जी बाउजी कहिये ..
तुम फ्री हो तो किसी और पार्क में चलते हैं . स्कूटर तो है ही तुम्हारे पास ...फिर मुस्कुराकर  बोले थोड़ा एडिक्शन सा हो गया है हंसी का मेरा मतलब आदत !
 चलिए...जोशी ने अनमने मन से कहा खबर सुनकर उनका मन विचलित हो रहा था |सक्सेना जी जोशी के स्कूटर पर बैठ गए ....
हंसना भी कभी कभी कितनी बड़ी ज़रुरत बन जाती है ज़िंदगी की ,और हंसी भूल जाने का डर  मौत से भी बड़ी दहशत | यहाँ पार्क में इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई वो भी इनके मित्र की मौत और ये उतने ही सहज और तटस्थ हैं ...शायद इसे ही सठियाना कहते हैं जोशी ने ये भी सोचा |
जोशी उन्हें एक जगह ले गए जो बड़े बड़े पेड़ों से घिरी थी और एकांत थी ...वो भी कोई पार्क ही था पर एकाध आते जाते लोगों को छोड़कर लगभग खाली था ...|
सक्सेना जी स्कूटर से उतरे ..उनका चेहरा उतरा सा लग रहा था
‘’बाउजी अभी तो सुबह ही है और आप अभी से थके से लग रहे हैं तबीयत तो ठीक है न आपकी?जोशी ने कहा   
सक्सेना जी ने अप्रत्याशित रूप से ठहाका लगाया फिर बोले  ...जोशी ...ज़िंदगी की शाम में सुबह नहीं होती यार शाम और उसके बाद सीधे रात ही होती है ..जोशी कुछ समझ पाते इससे पहले ही उन्होंने देखा सक्सेना जी दीवार की और मुहं फेरे दौनों हाथ ऊपर करके जोर जोर से हंस रहे हैं...जोशी कुछ देर अचम्भे से उन्हें देखते रहे ..न बात न चीत आते ही हंसना शुरू कर दिया ? ’’चलो अब आ ही गए हैं तो मै भी कुछ देर ये कसरत कर ही लेता हूँ उन्होंने सोचा और घड़ी उतारकर बेंच पर रख वो भी सक्सेना जी के साथ जोर जोर से हंसने लगे |

अचानक उनकी नज़र सक्सेना जी पर पडी वो बेतरह हंस रहे थे जैसे कई बीते या आने वाले दिनों की हंसी आज ही पूरी कर रहे हों |उनका हंसना सामान्य नहीं था जोशी के हाथ उनकी हांफती हुई सांसों को सम पर लाने के लिए उठ गए और वो जैसे ही उनकी और मुखातिब हुए  उन्होंने देखा सुबह की उस ताज़ी रोशनी में सक्सेना जी की बुझी हुई आँखों से अविरल अश्रु धार बह रही है जो मुलायम धूप में चमक रही थी | नकली हंसी के आंसू बिलकुल असली होते हैं या शायद बुढ़ापे में चेहरा ही हंसी और रोने का फर्क भूल जाता है !