27 अप्रैल 2017

मौजूदा हालतों में साहित्य की भूमिका और दखल

अब जो हालात हैं देश दुनिया के उनमे एक आम आदमी के सामने दो ही रास्ते ज़िंदा रहने के बचे हैं |या तो वो इन्हें नज़र अंदाज कर घुटते हुए खामोशी से अपनी नौकरी, परिवार ,कर्तव्य निभाता चले या फिर इन्हें देख देखकर अवसाद की चरम स्थिति तक पहुँच जाए |
क्या साहित्य कलाओं का भी कोई हस्तक्षेप है इन हालातों में / होना चाहिए?
सरहदें, नियम, क़ानून मनुष्य ने बनाये हैं प्रकृति के लिए सब मनुष्य समान हैं | साहित्य कलाओं को भी खण्डों में नहीं बांटा जा सकता |भौगोलिक, संवैधानिक आदि मानव निर्मित मसले अलग हो सकते हैं लेकिन प्राकृतिक नियम यथा संवेदनाएं , दुःख, खुशी, व्याधि की पीडाएं समस्त दुनिया में समान हैं | सैनिक चाहे किसी देश के मारे जाएँ , चाहे किसी देश की स्त्री यातनाएं भुगते, समाज चाहे किसी सत्ता की ज्यादतियां सहे , बम से चाहे कहीं की निर्दोष जनता उड़ा दी जाए, तकलीफ समान है | कमोबेश हर देश का समाज कहीं न कहीं सत्ता का भुक्त भोगी है |उनके अपने मसले हैं ,विभीषिकाएँ और सुख दुःख हैं | आज के भूमंडलीय दौर में साहित्य की भूमिका और दखल का को उचित और पर्याप्त ठहराया जा सकता है ? अब साहित्य (?) स्पष्टतः दो हिस्सों में बंटता दिखाई देता है |एक है वामपंथी सोच जो इन दिनों मुब्तिला है सत्तारूढ़ सरकार की कमियों, उनकी योजनाओं पर फब्तियों और लांछन लगाने में |उनके पास समाधान के कोई तरीके नहीं | कौन सा शख्श, कौन सी पार्टी उचित है इस समय देश की दुरूह स्थिति को ठीक करने के लिए? हम बिना किसी समाधान को सुझाए सिर्फ आलोचनात्मक रुख अपनाएँ ये एक अवसादित और किंकर्तव्य विमूढ़  समाज का प्रमाण है | दूसरा वर्ग वह है जो सब कुछ देखकर नज़र अंदाज़ करता हुआ अपने परिवार तक सीमित हो गया है |पूरा विश्व बदल रहा है, उसकी सोच , विभीषिकाएँ, क्रूरताएं ,क्रमशः चिंतनीय हो रही है लेकिन हमारे विषय सदियों से वही हैं |स्त्री- दलित संघर्ष ,गरीबी, बदहाली, प्रेमचन्द से पहले भी यही थे आज भी मुस्तकिल है |बस शैलियाँ बदलती रहीं |

जब दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है, मौत के नए नए खतरनाक तरीके इजाद किये जा रहे हैं , बेक़सूर समाज जन , सैनिक , आदि सैंकड़ों की संख्या में मारे  जा रहे हैं | विदेशों की दिल कंपाऊ खबरें आये दिन टी वी पर सुन रहे हैं , ह्रदय विदारक द्रश्य देख रहे हैं | जब बहु राष्ट्रीय कंपनियों की आमद बे रोक टोक है, भूमंडली करन और पूरी दुनिया सिमट आने की बातें हम गर्व से करते हैं तो अपने उस ‘’आस पास ‘’ की दुनिया तक हमारी संवेदनाएं क्यूँ नहीं पहुंचतीं ? हमें क्यूँ नहीं सिहरातीं ?साहित्य की इस माहौल में क्या भूमिका होती है /होनी चाहिए? हमारा साहित्य आज भी स्त्री/ दलित साहित्य पर अटका हुआ है |उनके संघर्षों की व्यथा कथा के लिए काफी बोल्ड शैलियों का इस्तेमाल कर रहा है प्रसंषित पुरस्कृत हो रहा है | यद्यपि वैश्विक स्थितियां इस कदर दुरूह और खतरनाक हो चुकी हैं की साहित्य जैसी कोशिशें उनके लिए नाकाफी है बावजूद इसके क्या हमें अपने विषयों को विस्तृत नहीं करना चाहिए, अब समाज, देश नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर एकजुटता की दरकार है |सुनने में ये असंभव लगता है लेकिन ऐसा होना आज के हालातों के लिए ज़रूरी है |