29 नवंबर 2010

दादी


एक अरसे बाद,
देखी दादी,
गाँव में,
गाँव की ही तरह सिकुड़ी!
खँडहर दीवारें,एक दुसरे को
हौसला देती
जीने का!
ज़र्ज़र उघडी ईंटें ,
इतिहास सिसकता है
जिनमें ,सुगन्धित पकवान और
गूंजती किलकारियों का!
ढोलक की थाप और शगुन गीत
अब भी कहीं किसी कोने में
दुबके ,दादी की साँसों का
लिहाज़ करते हैं शायद,!,
झूलती खटिया की
गोद में सिमटी
गठरी दादी
आंगन के उसी नीम की छांव लेटीं जहाँ कभी
खनकती चूड़ियों और महकते गीतों को
गुनगुनाते झूला झुलाया करती थीं,
नौनिहालों को!
सपने बुनतीं आसमान के
आस्मां तक !
ठीक उसी जगह खुले आसमान तले ,
खटिया पर लेटे मेरे बचपन
ने भी सुनी थीं,
दादी के मुहं से
चंदा मामा की लोरी और
सप्तरिशी की कहानी!
एन उसी जगह आज,
खडी है एक
बहुमंजिला ईमारत
दादी और सप्तरिशी के बीच
सीना ताने!
खोजती हैं दादी की
मिचमिचाती ऑंखें
आज भी,
रात के अंधरे में
रौशनी से नहाई
 ईमारत के इर्द गिर्द
वो  सपने का आंगन 
जिसमे बठकर
चरखा काता करती थी वो 




26 नवंबर 2010

तुम चंद लोग.....

क्या कहा तुमने?कि
धरती माँ है हम सबकी?
जना  है जिसने हमें  भी
घोडा, कुत्ता, बिल्ली, कीट पतंगों
वनस्पतियों की  तरह?
तुमने लगा दिया माथे पे तिलक उसके
और क़र्ज़ मुक्त हुए तुम
बंधन मुक्त होने तक?
और इसी के एवज में  ,
लाल छींटों से रंग दी है तुमने 
न जाने कितनी ही बार,
आत्मा तक उसकी,पर 
सोख लिया देह ने 
वो रोष  भी
जब चाहा तुमने छितरा दिए 
उसी के हिस्से 
उसी के जिस्म पे!
तितर बितर कर,
पर देह का टेका  लिए वो
कराहती 
हर हिस्से को समेटे 
अपने धैर्य में 
फिर खड़ी हो गई कांपती
थरथराती लौ-सी!
 नहीं जानते तुम शायद कि,
इसी माँ के सीने में
उफनते  रहे   हैं कितने तूफ़ान
सुलगी  हैं कितनी ही  नदियाँ
उठी  हैं लपटें भीतर ही भीतर!
पर हर बार ही
न जाने क्यूँ,गायब होते रहे  ये 
भूचाल.ये दावानल,ये अग्नि
और
दिल के बोझ, पहाड़ की शक्ल ले
हिस्सा बनते रहे बुतों की 
 अंतहीन कतार के !
अपराधबोध की  ,
इस मौन स्वीकृति के  साथ कि,
''लो तैयार हैं हम
इतिहास में एक पन्ना 
और जोड़ने को!''
काश कि,
बुतों का सिलसिला ख़त्म होता
यहीं पर......!
काश कि 
ये ज्वालामुखी
यूँ ठंडा  हो
तब्दील न हुआ होता  
चट्टानों में........!
सुलगता....बहता...दहकता रहता
सदा से सदा तक
 तो
चुकाना न पड़ता मोल पीड़ियों को
उनके पत्थर हो जाने का !

18 नवंबर 2010

पहचान



सब कुछ दर्ज है,मेरी पहचान में

नाम,उम्र,चित्र,शहर,शिक्षा ,पता
बस लापता हूँ,तो कहीं मै उसमे !
जब कभी रु ब रु होते हैं
मै और मेरी पहचान तो
पूछती है वो मुझसे,
की ''कौन हो तुम ?''
मै कहती हूँ ध्रुव  तारा ,
टांग दिया गया जिसे
सुदूर आसमान पर
एक व्यतीत  बना ,या फिर
समुद्र हूँ मै, जिसकी
विशालता में समाहित है
न जाने कितनी  कलपती नदियाँ
पुछा कभी उससे की कितना खुश है वो
खुद में खारेपन  की
महानता को समेटे 
आंसू की तरह?
या फिर आइना हूँ मैं ,
 यथार्थवादिता से श्रापित ,
 नकारता रहा जो मेरे
उस प्रतिबिम्ब को जिसे
देखना चाहती थी मै!
या वो स्त्री जिसे
प्रतिष्ठा की कीमत के तहत
छोड़ दिया गया घने वन में
नाम,पता पत्नी,देवी,
सब तो थे उसके पास
बस वो नहीं थी
न तब....
न अब....!

15 नवंबर 2010

प्रायश्चित


बचपन में माँ   ने 
कुछ पौधे रौंप दिए थे 
मन की बगिया में मेरी!
सींचा था खाद पानी से उन्हें!
संतोष''और सहन शीलता'' की जड़ को
खूब गहरे दबा   दिया था !और  ,
 इसी बागवानी के रख रखाव के जतन में  ,
गीता प्रेस गोरखपुर और अमर चित्रकथा सी 
तमाम ज्ञानवर्धक पुस्तकों  से लेकर 
 मसालों  की ताज़ा गंध से गंधाते
माँ  के पल्लू से लिपट के 
शिक्षाप्रद कहानियां सुनने तक बचपन ,यानि 
उम्र का एक हिस्सा सौंप दिया गया  था, मेरी  !
माँ  चाहती थीं ,उन  तमाम 
प्राप्य और परंपरागत संसकारों  को
मुझमे उंडेल देना जो उनके पुरखे
सौंप गए थे उन्हें!
ताकि
बरी  हो सकें वो
एक ''बेटी''पैदा करने के 
अपराध बोध से !
और खूब आग्रह के साथ कहा था उनने 
की सूखने मत देना इन्हें ! 
जड़ को संभालोगी तो
बाकी चीजें  खुद ब खुद संभल जायेंगी!
माँ, बहुत प्रायश्चित के साथ कह रही हूँ की 
तुम्हारी इस धरोहर को मैं सहेज न  सकी   ''
क्यूंकि 
न जाने कब  और कैसे  तुम्हारे बोए पौधों पर,
अतृप्त इच्छाओं और विवशताओं के कीटों ने 
 कर दिया आक्रमण ,ले लिया अपने चपेट में!
की संक्रमित हो दूषित हो गई 
जड़ें तक इसकी 
और अब तो वो पौधे 
तब्दील हो चुके हैं एक 
घने जंगल में  ,इतना घना की 
रोशनी की किरण तक न पहुँच सके!
सुना है की आस्मां की चादर में कहीं हो गया है
एक छेद ,जिसमे से गर्मी  का ताप
सीधे  पहुच रहा है जंगलों तक 
रोज़ देखती हूँ सपने में
आग का भीषण तांडव
उस बगिया में
जो बोई  थी कभी तुमने माँ!





10 नवंबर 2010

कुली

पसीने से तरबतर मै,
थककर चूर खड़ी थी उस
रेलवे स्टेशन पर जहाँ 
भीड़ के कई वर्ग ,हिस्सों में खड़े थे
एकाकी परिवारों के साथ ,या
कोई अकेला हाथ बांधे,,चेहरे की  ऊब को 
पैरों की बेताली थाप से बहलाता!
चेहरों पर बासीपन और बैचेनी के 
मिले जुले भाव ....!लोग
जिनकी ''गाडी'ने अपनी प्रतीक्षा 
ख़त्म कर पहुँचने की घोषणा कर दी थी,
उसके यात्री बौराए से इधर उधर भाग रहे थे!
यात्रियों के चेहरों पर जल्दी थी
 स्टेशन से चले जाने की !
 ,स्टेशन के उन स्थाई वाशिंदों से दूर,
जो अपने टूटे फूटे अंग लेकर दयनीय मुद्रा में 
अलग अलग चेहरों के साथ रिरियाते हुए किसी
अनचाही घटना की तरह प्रकट हो जाते थे!
 यात्रियों के साथ टाईट  जींस और टॉप में
कसी नवयौवनाएं ,अपनी सुन्दर तीखी नासिका को
हेन्की'' से ढापे,एक वर्ग विशेष की,,
एक वर्ग विशेष के लिए
प्रतिक्रिया दर्शाती मुह फेरकर खडी हो जाती थी ,लिहाज़ा
उनके शुभचिंतक ''कुत्तों की तरह''भाषा से ठेलकर
 उन ''घ्रणित''जीवों को 
भगा , धमका रहे थे !
,तभी एक उम्रदराज़ व्यक्ति जिसकी 
खून के रंग की लाल पोशाक देखकर मैंने
बुलाया...वो बिना किसी भाव के आकर खड़ा हो गया
मैंने कहा ''पुल  पार करके गाडी पकडनी है 
चलोगे ?,वो बोला 
सामान ज्यादा है बहनजी''नग के हिसाब से होगा!
मैंने बिना किसी जिरह के कहा ''सामान उठाओ'!'
वो यंत्रवत ,सामान अपने शरीर पर
 बाकायदा जमाकर मेरे
आगे आगे चलने लगा ,मै पीछे पीछे!
सीडियों पर भीड़ जैसे पेड़ पर
 चढ़ते कीड़ों के समूह!
सीडियां अट  गई थीं यात्रियों से
हांफती हुई कुली की तरह!
आखिरकार सीडियां ख़त्म हुईं
सदियों की तरह !
राहत की सांस ली सीडियों और
''उसने!''
 'वो'हांफता सा खड़ा हो गया,
मैं भी!
मैंने कहा -
गाडी में वक़्त है अभी ,सुस्ता लो!वो बोला 
''बहनजी'अभी वो सामने वाली
 गाडी भी तो निकालनी है?
सुस्ताने का वक़्त कहाँ?
उसने कांपती सी आवाज़ में कहा !
मै कुछ कहती इससे पहले ही वो 
शरीर और वक़्त के  ताल मेल की  
असफल चेष्टा करता ,पसीने से गंधाती देह के साथ 
अपने शरीर को घसीटता सा चल पड़ा!
मुझे बाकायदा कोफ़्त हो रही थी 
अपने से उम्रदराज़ व्यक्ति से 
इस तरह  ''बोझे'' को उठवाने की!वैसे,
उम्र का हिसाब किताब ,एक आभिजात्य शगल 
 होता होगा इस वर्ग के लिए!इसीलिये शायद
इसी से संदर्भित 
एन वक़्त मुझे याद आया एक तथाकथित ''रिएलिटी शो''
(उसमे कितनी वास्तविकता होती है ये खोज का विषय है)
जिसके एक गोरे चिट्टे चमकते चहरे वाले  अधेड़ जज की
,उस शो के
एंकर और कलाकारों की (नितांत फूहड़ )प्रस्तुति के दौरान
बार बार पीठ ठोकी जाती है ,उम्र को छिपा लेने की कोशिशों की !)
अंततः देह की रफ़्तार ने चाह की गति  की उंगली छोड़ दी
और वो मेरे पीछे पीछे चलने लगा !
एक पीढी  की तरह,
अपने आदर्शों और सन्सकारों को ढोती
 एक युग की तरह
सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते!
लोगों के बोझ को जीवन के अभिशाप की तरह ढोते 
उम्र की गिनती ही भूल जाता होगा ये वर्ग
,उम्र का मतलब 
इनके लिए पैदा होना,सामान ढोना,और
मर  जाना ही तो होता होगा?

6 नवंबर 2010

पीड़ा

                                     

अव्यक्त वेदनाओं के प्रस्फुटन सा  स्वर, सारंगी का!
न जाने क्यूँ ,जब भी सुनती हूँ ',बैचेन होती हूँ !
लगता है ज्यूँ ,  इतिहास की  अंधेरी सुरंग में ,
चली जा रही हूँ मै ,जहाँ रोशनी में कैद  हैं ,अँधेरे अब भी!,
 कसे तारों पे घूमता  कमज़ोर ''गज'जैसे,
जीवन  के सच पर,निस्सारता के दोहराव!
 तारों पर घुमती कमज़ोर उँगलियों के करतब 
,ज्यूँ , सत्य की ढलान से  फिसलता वक़्त  !..
उमराव जान '''से  ''बेगम अख्तर'' तक,
और ''रोशन गलियों के अंधेरों ''..से लेकर,
''शोक घटनाओं ''के पार्श्व संगीत तक का सफ़र 
वक़्त के कितने उतार  चढाव देखे तुमने ,
फिर,वो दौर भी जो ,
आधुनिकता के नाम पर ''परंपरा''के 
खारिज होते जाने का था,यानी की,
निरंतर  दोहराव, अवहेलनाओं का !
शेष बची साँसें गिनता अस्तित्व .....!
वादा किया था जिनने मंजिल तक साथ निभाने का
क्या हुए,कहाँ गए वो तेरे साथी ?
जो बगैर तेरे निष्प्राण कहा करते थे?
शायद सबकी मंजिलें थीं अलग ,
सो रस्ते खुद ब खुद लिवा गए उनको !,,तुम  नहीं गए!
सपने जो बुने  थे  तुमने संस्कृति के भविष्य के,
की आज खुद इतिहास बन गए हो!
साक्षी  बन देखता रहा वक़्त ये हिदायत देता
चमकती चीज़ यहाँ द्रश्य कही जाती है 
की अंधेरों का कोई अस्तित्व  नहीं होता!


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4 नवंबर 2010

स्त्री

                                                                                              

 वो ,मजदूर स्त्री ,गर्भवती ,पेड़ के नीचे पैर फैलाकर
पसीना पोंछती बैठी है,अधलेटी सी ...
,पेड़ के तने से लटके झूले पर ,
 कुनमुनाता बच्चा,भूखा सा, एक हाथसे 
झोके देती स्त्री अनमनी ..सी,और 
दुसरे हाथ से पेट को सहलाती ,दुलारती  ! .
''ठेकेदार''की कनखियाँ   ,जिसमें शामिल हैं
तरेरना आँखों का ,और महसूसना स्त्री का
किसी बहुत बोझिल पत्थर का अपने सीने पर !
साँसों की धौंकनी.व् भीतर के स्पंदन को 
सम पर  लाने की  मोहलत'' से जूझती ज़िन्दगी ,
थक चुकी है वो पत्थरों के साथ खुद के सपनों को तोड़ते ,बिखराते, !
वो नहीं जानती, की प्रथ्वी कैसे और क्यूँ घुमती है 
उसे ये भी नहीं पता की सूरज और प्रथ्वी  के ''होने' के,
 क्या मायने  होते  है? 
महसूसता  है तो बस  
भूख के अलावा , पेट के भीतर कुछ प्रथ्वी सा घूमता 
सैकड़ों विवशताओं   की धुरी पर ! 
उगना -अस्त होना  सूरज का !
,क्या फर्क पड़ता है?
उगे-उगे न उगे न सही...उसके लिए तो नियमित 
तमाम नई उगती ज़द्दोज़हद के साथ मजदूर साथियों  के साथ
''गाड़ी में  ''भरकर काम पर जाना , उगना होता है सूरज का ,
और निढाल होकर सबके साथ भरकर वापस लौटना 
सूरज का अस्त हो जाना!
उसकी कुल जमा  ज़िन्दगी के दर्शन की तरह !
खुदा का  लाख शुक्र की स्त्री  में उसने
केवल उत्तर  भरे हैं.प्रश्न नहीं,
तभी तो प्रथ्वी अस्तित्वमय है अब तक 
अपनी तयशुदा ,धुरी पर?
,

1 नवंबर 2010

एकालाप


मेरे बचपन के ठीक सामने वाले
सपनों के  आँगन में 
एक कोमल सा पेड़ उगा था कभी 
जिसे एक बाल जिज्ञासु 
प्रतिबध्दता की तरह
पाला पोसा था मैंने!
और वो मेरे  
सपनों के साथ बढ़ता  गया  
फिर अचानक एक दिन 
उभरने  लगे  उसके 
कोमल तने  पर 
अनायास 
कुछ कठोरता के चिन्ह 
और फिर बनता गया वो
एक कंटीला झाड़ ,झरबेरी का
जिसने  मौसम का लिहाज़ छोड़ ,
 अपनी कटिबद्धता का दंभ
और निर्वहन करते हुए
काँटों के बीच बीच भी टांक दिए  थे
सुर्ख  लाल लाल छोटे  छोटे फल.
आशाओं के 
कि कभी उस पर भी दृष्टि पड़ेगी किसी 
तितली,चिड़िया या किसी और पक्षी की 
इतराएगा वो भी गर्वित हो ,
अपनी प्रासंगिकता पर,
भले ही पक्षी ,चोच से अपनी
उसकी कृति,उसके हौसले को 
ध्वस्त कर बिखरा दें उसे
तार तार कर ज़मीन पर 
निर्दयता  से !,
अपने ''होने ''की 
सार्थकता की ये कीमत
चुकाना भी मंज़ूर था उसे 
पर नहीं हुआ ऐसा,
दरअसल ऐसा हो नहीं सका ,
क्यूंकि 
 आधुनिक 
सभ्यता के उसूलों का निर्वहन करते 
उसे नहीं आता था अपना चेहरा
मुखौटे से छिपा पाने  का गुर,
यानी कि  
खुद की तासीर को बेच पाने का हुनर 
,अलबत्ता
सींचा नहीं गया उसे गुलाब के फूलों और 
सब्जियों की तरह, प्यार से 
या दुधारू पशुओं की तरह दुलराया ,
और तो और उसकी प्रासंगिक हीनता के बोध को 
उसी के खुरदुरे अस्तित्व के साथ 
  खूंटी पर टांग दिया जाता रहा
उपदेशों की,
 बार बार , यीशु के 
सलीब की तरह