23 अगस्त 2011

तहखाने


कल ना जाने क्यूँ अचानक
छत की ओर तेज़ी से चढ़ते कदम
लौट पड़े उल्टी दिशा में,खुद ब खुद ....!
सीढियां अपने कदम उलटे फेर  
छोड़ आईं अँधेरे तहखानों तक ,
रहस्यों के खेत थे जहाँ
 रात के चेहरे से मिलते जुलते
 गर्भ हो या रात    
फ़िक्र या, हो कोई वारदात
रहस्य अँधेरे क्यूँ ढूंढते है?
क्या उन्हें बिखरना नहीं भाता
रौशनी की तरह ?
तहखानों का वुजूद बचा हुआ है अभी
उजालों से ऊबे हुए लोगों से

22 अगस्त 2011

बस यूँ ही .....


सब जानते हैं जिंदगी का 
एक दिन 'गुड बाय'कहकर चले जाना 
पर कहाँ से पाते हैं लोग 
इंतज़ार का हौसला?

19 अगस्त 2011

सब्र



पेड़ कभी कुछ नहीं कहते
बस झरने लगते हैं पत्ते
 आसमान कभी नहीं चीखता 
बस रिसने लगते हैं बादल
नदियाँ जब नहीं हरहराती तो
सूखने लगती हैं बस यूँ ही
हांफती है प्रकृति बस 
आदमी के शोर से 



17 अगस्त 2011

क्यूँ ?


जीवन-आकाश में
पंक्तिबद्ध उड़ते सफ़ेद बगुले
सपनों के .....
क्यूँ मिटा देता है कोई 
 वो लकीर
हर बार/बार बार 

14 अगस्त 2011

सिफ़र



 ना ज़न्म का अंत ,
ना म्रत्यु का आदि .....
फिर क्या है वो रहस्य जो आदमी
दाबे फिरता है मुट्ठी में अपनी
  खोल देती है म्रत्यु जिसे
झाडकर हथेली ..... 

10 अगस्त 2011

प्रतिबिम्ब



 आईना था एक मेरे घर में
लगभग मेरी ही उम्र का 
माँ यही कहती थीं ....
कहती थीं कि वो जब
मुझे नहला धुला आँखों में काजल और
माथे पर काला नजरौठा लगा ,
लिटा देती घर के आंगन में खटिया पर ,
और दिखाती थीं आईना मुझे  
मै किलकारियां भरती ,किसी और को
खिलखिलाता देख आईने में !
फिर बड़ा होने लगा मेरे साथ साथ आईना भी
स्कूल जाने से पहले ,युनिफोर्म चैक करता
झुककर पैरों में पहने मोज़े और पोलिश किये जूते देखता
फटकारता आँखों के फैले काजल और
एक दो बाल के बिखरने पर
संवारता उन्हें ....
अचानक एक दिन सुबह
आईने में इन्द्रधनुष खिल गया
और भीतर मै....
 देह पर रंग बिखरने लगे
वो और भी खूबसूरत दिखने लगा ...
 खिलखिलाता हुआ  ...
मेरे साथ गुनगुनाते,
थिरकते मुस्कुराते हुए
गाहे ब गाहे पर्स से झांकता 
कॉलेज के फ्री पीरियड में,
बीच बाजार में,
सिनेमा हौल के वॉश रूम में,
होस्टल के कॉमन रूम में .....
किसी के ‘’देखने ‘’से पहले
किसी के ‘’देखने’’ के बाद
बात करते हम फुसफुसाते हुए ...
उसने ही देखी थी सफेद होती कनपटी
सबसे पहले
 आँखों के नीचे उगती महीन झुर्री
और अंदाजी थी अपनी उम्र..
खुद के चेहरे पर पडी लकीरों से ...
आईना ,जो टंगा होता था खिडकी से आती
सूर्य की रोशनी में ,ताकि पढ़ सके वो मुझे साफ़ साफ़
अब पड़ा है खुद अँधेरे में रद्दी चीजों के साथ
ओंधा,... अप्रासंगिक होने के बाद, मेरी तरह
क्यूंकि बिम्ब अब उसके धुंधला गए हैं
और नज़र मेरी... ...
देह पर उग आई हैं उसके तमाम खरोंचें
 बक्त के नुकीले नाखूनों की
हम दौनों ....
दो अनचाही चीजों की तरह  
दौनों की धुंधलाई स्मृतियों में शेष ......

8 अगस्त 2011

कुछ बदला सा .



इन दिनों .....
मन का आकाश सहसा सिकुड़ने लगा है
क्षितिज ने हटा ली है अपनी टेक
या धरती दरकने लगी है?
कुछ तो हुआ होगा ....
चेहरों पर भी कुछ बदला बदला सा है
नाक आँख होंठ सब अपनी जगह होने पर भी
क्या है जो बदल जाता है रोज चेहरों में ?
 घायल आत्मा के ठीक पास रखा चाक़ू  
गंध है जिसमे विशवास के ताज़े खून की
उम्मीदें सिमट रहीं हैं सांसों में
जैसे पूरी प्रथ्वी धडक रही हो
दिल में मेरे ...!

7 अगस्त 2011

फैसला


लकीर के समानांतर एक अलग
दुनियां का ख्वाब खींचती 
इस नई पौध की हवा
लग गई नींद को मेरी ,और उसने
‘रात’ को ‘’भ्रम’’
कहकर नकार दिया आँखों को !
अलावा उसके वो
भरी रही आँखों में ,एक ठसक के साथ
शेष समयों और अजीब जगहों पर 
‘अपवाद’ का दंभ ओढ़े  .... 
सहमे ठिठके से दूर बैठे सपनों को
 आमंत्रित किया है मैंने
सूनी आँखों में रंग भरने के लिए
क्यूँ कि मै तोडना चाहती हूँ दंभ नीद का
क्यूँ कि मै चाहती हूँ एक इतिहास रचना
उन सपनों से ,
नींद जिनकी मोहताजी नहीं ..!

4 अगस्त 2011

तलाश


ये जिंदगी एक क्रियोल ही तो है
जैसे एक साल में कई साल   
जैसे एक रात में कई रातें
जैसे एक बूंद आँसू में
असंख्य पीडाएं
जैसे एक प्रेम में
कई अतीत
 अतीत जो अटे पड़े हैं
लड़ने से पहले हारे हुए लोगों से
जब भी किसी मज़बूत दीवार के सहारे
छांह चाही गई
दीवार को खुद धूप से
लथपथ  पाया !